Friday, September 9, 2016

ऐनक के बहाने

व्यंग्य
ऐनक के बहाने
ब्रजेश कानूनगो

पहनने की बड़ी पुरानी परम्परा रही है मानव इतिहास में. पेड़ों की छाल पहना करता था आदि मानव, लेकिन जैसे जैसे पेड़ कटने लगे, पहनने के लिए वह अन्य विकल्प तलाशने लगा. हमारे पूर्वज पेड़ों का भविष्य जानते थे, इसलिए उन्होंने खेती शुरू की, कपास का आविष्कार किया और आगे की पीढियां सूत कातकर कपडे बनाकर पहनने लगी. फिर जूते पहनना प्रारम्भ हुआ, टोपी पहनी जाने लगी. और एक दिन ‘ऐनक’ भी धीरे-धीरे पहनने की परम्परा का हिस्सा बन गई.

साधुरामजी ने भी इसी परम्परा के चलते ‘ऐनक’ धारण कर ली. पिछले दिनों आये तो मैंने देखा उनकी दिव्यदृष्टि पर नई नई ऐनक शोभायमान थी. मैंने चुटकी ली-‘साधुरामजी अब तो समाज और सरकार की विकृतियाँ आपको स्पष्ट दिखाई देती होंगी?’
साधुरामजी बगैर मेरे प्रश्न का उत्तर दिए धम्म से सोफे में धंस गए. बोले-‘पहले पानी पिलवाओ!’ वे थोड़ा परेशान नजर आ रहे थे.

मैंने बिटिया को आवाज लगाई तो वह फ़ौरन कॉलोनी के कुएं में संग्रहीत नगर पालिका प्रदत्त पानी से भरा जल गिलास में लेकर आ गयी. जब साधुरामजी पसीना सुखा चुके तो मैंने कहा-‘पहन लिया आपने भी यह गहना ?’ हालांकि उनकी आँखों को घेरे, नाक पर टिकी ऐनक मुझे स्पष्ट दिख रही थी, किन्तु दुनियादारी में कुछ मूर्खतापूर्ण प्रश्न किये जाना अच्छा माना गया है. इसलिए मुझे यह बेहूदा प्रश्न पूछते हुए भी कुछ अटपटा नहीं लगा.

‘हाँ, पहन लिया.’ मेरी मूर्खता के मुकाबले का ही उत्तर प्राप्त हुआ.
‘कितना नंबर निकला?’ परम्परागत प्रश्न. ‘’पॉइंट फाइव प्लस.’ स्वाभाविक उत्तर.
‘’ठीक किया आपने जो समय से लगा लिया, वरना नंबर और बढ़ जाता.’ मैंने किसी जानकार और अनुभवी की तरह शाब्दिक सहानुभूति दिखाई.
कुछ देर वार्तालाप इसी तरह किसी घटिया टीवी सीरियल के संवादों की तरह चलता रहा. ऐसी स्थितियों में दोनों पक्ष बातचीत की निरर्थकता को जानते हुए भी इसकी औपचारिक अनिवार्यता को समझते हैं और ठीक उसी तरह विवश होते हैं, जिस तरह परिवार के किसी सदस्य के निधन पर मातमपुरसी करने अथवा किसी बीमार के प्रति अस्पताल के पलंग के पास सहानुभूति प्रकट करते हुए होते हैं. यों कहें यह एक तरह की ‘अनिवार्य विवशताएँ’ होती हैं. फिर भी मैं ऐनक धारण के उनके इस नए अनुभव के प्रति घोर जिज्ञासु बना हुआ था.
‘यह गहना पहन कर कैसा महसूस कर रहे हैं आप?’ मैंने किसी टीवी संवाददाता की तरह उसी तरह पूछा, जैसे वह पुरस्कार प्राप्त करने वाले साहित्यकार से या किसी मैदानी नेता को मंत्री पद प्राप्त होने के बाद पूछता है.
साधुरामजी को तो विषय भर चाहिए. उनके भीतर का वक्ता विषय के इंतज़ार में उसी तरह बैचैन रहता है जैसे प्रतिपक्ष का नेता वित्तमंत्री द्वारा प्रस्तुत ताजे बजट को घटिया बताने के लिए मीडिया प्रतिनिधि के इंतज़ार में रहता है. उन्होंने प्राण साहब की तरह भौंहों को चढ़ाया, संजीव कुमार की तरह कानो के कोनों को उँगलियों से छुआ और जवाहरलाल नेहरू की तरह कलाई को ठोड़ी पर टिकाते हुए, ओशो की तरह धीर-गंभीर वाणी में बोले- ‘जीवन का हर क्षण, हर घटना नया अनुभव लेकर आते हैं मित्र! ऐनक धारण की यह घटना भी कई नए पहलुओं को उजागर कर गयी है. डॉक्टर ने दवाई डालकर कुछ समय आँखों को बंद रखने को क्या कहा, तो जैसे उस छोटे-से अंतराल में नेत्रहीनों का समूचा दर्द सिमट आया मेरे भीतर. दुनिया में कोई  दूसरा ऐसा गहना नहीं हो सकता जिसे पहनने के पूर्व किसी दूसरे के दुःख का अहसास हमें होता हो.’ ‘वह कैसे?’ मैं बीच में ही पूछ बैठा.
‘जैसे सोने की चूड़ियाँ पहनने से पहले क्या यह अहसास होता है कि किसी हरिराम की बेटी पलास्टिक की चूड़ियाँ पहनकर बाप के घर से बिदा हो रही होगी. गले में कीमती चेन डालने के पहले यह कभी महसूस नहीं होता है कि अनेक औरतों के मंगलसूत्र रोजी-रोटी के इंतजाम में गिरवी पड़े होंगे या बिक गए होंगे?’ साधुरामजी के अन्दर का क्रांतिवीर जाग उठा था. मैं समझ गया था साधुरामजी ऐनक से गहने पर आ गए थे. ऐनक तो बस बहाना भर रह गया था, वे धाराप्रवाह किसी कॉमरेड की तरह बोले जा रहे थे.
‘यह कैसी व्यवस्था है,जहां एक वर्ग गहने पहनने के लिए, दूसरे के हिस्से पर अपना कब्जा जमाकर उन्हें बनवाता है और उसकी चमक से गरीबों की आँखों में चकाचौंध पैदा कर उन्हें अपराध की ओर अग्रसर कर देता है. अब अगर कोई रोटियों की खातिर, अभावों के बीच गहनों को झपटने की चेष्टा करता है तो इसमें दोष किसका है? समाज के विभिन्न वर्गों के बीच बढ़ती ये आर्थिक खाइयां इसका बड़ा कारण नहीं बन बैठी हैं?’ वे जोश में बोल रहे थे, मैं निशब्द सुन रहा था.
‘लेकिन ऐनक तो ऐसा गहना नहीं है साधुरामजी.’ मैंने उनके वाक-प्रवाह में रोक लगाई.
‘हाँ, ऐनक ऐसा गहना नहीं है. यह ‘समानतावादी’ जेवर है.’  ‘वह कैसे?’ मैंने पूछा तो उन्होंने स्पष्ट किया- ‘क्योंकि इस गहने को हर व्यक्ति, छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, अगड़ा-पिछड़ा, समान रूप से पहन सकते हैं.’
साधुरामजी  के इस नये ऐनक दृष्टिकोण से मैं अभीभूत था. सोंचने लगा कि ऐनक पहनने के बाद हमारे मन में विचार भी इसी तरह परिष्कृत होने लगते हैं, जैसे साधुरामजी के होते जा रहे थे. क्या बौद्धिकता का ऐनक धारण से कोई रिश्ता हो सकता है? अचानक मेरी नजरों के सामने कई महान विचारकों के वे सब चित्र घूम गए जिनमें उनके चेहरों पर मोटी-पतली ऐनकें चढी हुईं थी.
‘आप महान हो गए साधुरामजी!’ मेरे मुंह से बरबस फूट पडा.
‘वह कैसे?’ उन्होंने पूछा. ‘क्योंकि ऐनक धारण के बाद व्यक्ति महानता की दिशा में तेजी से आगे बढ़ता है. अधिकाँश महापुरुषों ने अपने जीवन काल में ऐनक धारण की हैं.’ मैंने बताया.
‘तुम्हारी बात ठीक हो सकती है मित्र! लेकिन अपनी बात को तुम यदि भौतिक धरातल से हटाकर वैचारिक दृष्टि से पुष्ट करते तो शायद उचित होता.’ उन्होंने कहा.
‘वह कैसे?’ ज़रा ठीक से आप ही समझाइये.’ मैंने अनुरोध किया.
‘वह ऐसे कि कोई भी व्यक्ति यों ही महान नहीं हो जाता है. पहले वह ‘चिंतन’ का ऐसा चश्मा धारण करता है जिससे वह सृष्टि और समाज को गहरी, अलग और सूक्ष्म दृष्टि से देख सके. इसके बाद ही वह ‘चिन्तक’ और ‘विचारक’ की श्रेणी में पहुंचता है. फिर वह इसी के प्रकाश में स्थितियों का विश्लेषण करता है,नए विचारों को जाग्रत करता है. अपने विचारों को अपने कार्यों को आगे बढाता है, दुनिया और समाज को बेहतर बनाने की दिशा में उसका यह बड़ा योगदान ‘विचारधारा’ के रूप में जाना जाने लगता है.’ साधुरामजी ने स्पष्ट किया.

‘अर्थात जहां ऐनक से हमारी भौतिक दृष्टि ठीक होती है, वहीं ‘चिंतन के चश्में’ से वैचारिक दृष्टि साफ़ और प्रखर हो जाती है. एक से हम देश-दुनिया के बाह्य दृश्य देख पाते हैं जबकी दूसरे से मनुष्य और समाज के आतंरिक,परोक्ष और सूक्ष्म स्वरूप का अवलोकन संभव हो जाता है.’ मैंने उत्साहित होते हुए कहा.
‘बिलकुल ठीक कहा तुमने, लगता है तुम्हारे अन्दर भी ‘चिंतन के चश्में’ का विकास धीरे-धीरे हो रहा है.’साधुरामजी किसी आचार्य श्री की तरह मुस्कुराए और मेरे कंधे पर किसी महापुरुष की तरह हाथ फेरते हुए लौट गए.


ब्रजेश कानूनगो              

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