बस में बजती बीन
सामान्यतः जब अच्छी सड़कों पर पूरी तरह नई नवेली बसों का पूरी तरह दोहन हो जाता है तब ग्रामीण रास्तों पर धक्के खाने के लिए उन्हें उतार दिया जाता है। धक्के लगाकर उनके दिल की धड़कन को स्टार्ट करना पड़ता है, टायरों की देह पर सैकड़ों टांके लगे होते हैं, बरसात में छत टपकती है तो यात्री छाते खोल कर भीगने से बचने का प्रयास करते हैं।
देहात में पदस्थ बाहरी कर्मचारियों को ऐसी बसों के ड्राइवर माँ अन्नपूर्णा के दूत बनकर आते दिखाई देते हैं। ड्राइवर का कैबिन लोगों के 'टिफिनो' से भरा होता है। रास्ते के हर गाँव में सैनिकों की तरह कर्तव्य पर तैनात संतानों को परिजनों द्वारा भेजे एक दो टिफिन डिलीवर करके ड्राइवर साहब सहज ही पुण्य कमा लेते हैं।
जिसने भी इन देहात जाने वाली बसों में कभी यात्रा की है वह जीवनपर्यंत इन्हें याद करके अपने और दूसरों के मन को प्रफुल्लित कर सकता है। जिस बस से मैं अपने ग्रामीण दफ्तर के लिए आना जाना किया करता था, उसके कंडक्टर और ड्राइवर प्रसिद्द कॉमेडी फिल्म 'बॉम्बे टू गोआ' के महमूद और उनके भाई अनवर अली की तरह लगते थे।
बस यात्रा के दौरान कुछ यात्रियों को उल्टी आने व चक्कर की शिकायत रहती है। ऐसी सवारियां जब कंडक्टर से खिड़की वाली सीट का आग्रह करतीं तो वह उन्हें माचिस की डिबिया से एक तीली निकालकर दे देता। कहता- 'लो इसे मुंह में इसतरह रख लो कि फास्फोरस वाला हिस्सा मुंह में रहे ।' यात्री ऐसा करते तो समस्या भी सुलझ जाती। उल्टी, कै आदि होना रुक जाता। किसी ग्रामीण का पेट खराब होता वह तुरंत एक अखबार का टुकड़ा देता और सीट पर उसे बिछाकर उस पर बैठ जाने को कहता। थोड़ी ही देर में पीड़ित को इससे आराम मिल जाता। आगे किसी चाय की गुमटी पर आधी गर्म चाय में आधा ठंडा पानी मिलाकर उसे पिलवा देता। पेट में मरोड़ उठने से मुक्ति मिल जाती।
बरसात के दौरान एक दिन बस फिसलकर सड़क किनारे की काली मिट्टी में धंस गई। यात्रियों ने खूब जोर लगाया। बात न बनी तो कंडक्टर ने कुछ गामीणों को भी बुला लिया। कुछ सड़क चलते बंजारे भी धक्का लगाने में शामिल हो गए।
बहुत मशक्कत के बाद गहरा काला धुंआ उड़ाते हुए बस आखिर कीचड़ से निकल पाई। कंडक्टर ने उदारतावश उन पदयात्री बंजारों को भी अपनी बस में जगह दे दी। कंडक्टर उदार अवश्य था किन्तु अपनी कम्पनी का वफादार भी कुछ कम नहीं था। बंजारों से उसने किराया मांग ही लिया 'आप लोग चार जने हो दो के ही पैसे दे दो'। मगर बंजारे भी कहाँ पीछे रहने वाले थे। बोले 'उतार दो हमें बस से, पैसे तो नहीं हैं हमारे पास।'
'क्या धंधा करते हो तुम लोग?' कंडक्टर ने फिर पूछा।
'भैया सपेरे हैं हम। बीन बजाकर अपना और अपने सांपों का पेट पालते हैं!'
उनके ऐसा बोलते ही सभी यात्रियों के कान,आंख चौकन्ने हो गए। सचमुच उन लोगों के पास पिटारे थे। शायद सांप भी होंगे। अदृश्य सांप पिटारों से निकल कर यात्रियों को सूंघने लगे।
कंडक्टर को तो रोज का ही अनुभव रहा होगा बेफिक्री से मुस्कुराते हुए बोला- 'चलो किराया न सही, बीन ही सुनवा दो साहब लोगों को।'
और सचमुच उन सपेरों ने हमारा गंतव्य आने तक खूब बीन बजाई। हम लोग सहमे सहमे सुनते रहे। मजबूरी थी। उस वक्त तो जो भय हमारे भीतर समा गया था वह इन दिनों में किसी व्यक्ति को छींकते देखकर होने वाले भय से कम नहीं था.
सच तो यह था कि उस दिन के बीन वादन से 'नागिन' फ़िल्म के प्रसिद्द गीत 'तन डोले..मेरा मन डोले' जैसा ही कुछ घटता रहा था.
ब्रजेश कानूनगो
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