Wednesday, March 1, 2023

वाट्सएप पर महाकवि

वाट्सएप पर महाकवि


किसी ने कहा है जीवन एक कविता है। कई पद हैं इसमें। चौपाइयां हैं, दोहे, सोरठा,कुंडलियां, क्या नहीं है इस कविता में। लय है, तुक है, तो कभी बेतुकी भी हो जाती है जीवन की कविता।  हुनर चाहिए जीवन कविता को मनोहारी बनाने के लिए।


मैं कुछ इस तरह लिखते हुए अपने लेख की शुरुआत कर ही रहा था कि मित्र साधुरामजी आ धमके। बोले- 'यह क्या दिन भर टेबल पर झुके रहते हो! और कुछ काम धाम भी है या नहीं। जब देखो साहित्य, साहित्य करते रहते हो...'


उन्हें रात को लिखी अपनी नई कविता सुनाई। कविता को उन्होंने सराहा भी मगर थोड़ा निराश होते हुए गोकुलधाम सोसायटी के एकमेव सेक्रेटरी आत्माराम तुकाराम भिड़े की तरह अतीत गमन करते हुए बोले-‘हमारे जमाने में कविताएँ कभी इतनी रूखी-सूखी नहीं हुआ करती थीं, उनमें रस होता, पढ़ते-सुनते समय मन आनंद से सराबोर हो जाता था. तुम्हारी कविताएँ दुखीं कर देती हैं, वो आनंद नहीं रहा अब की कविताओं में।’


‘मगर अब कविताएँ यथार्थवादी होती हैं साधुरामजी, कला की बजाए इनमें कथ्य महत्वपूर्ण होता है,’ मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की।


'क्या मिल जाएगा ऐसे यथार्थवादी लेखन से तुम्हे?' वे बोले।

'लिखने से मुझे आत्म संतोष मिलता है,साधुरामजी।' मैने कहा।

'अब ज्यादा बातें मत बनाओ! कोई पद्मश्री नहीं मिल जाएगा तुम्हे इससे!' वे बोले।

'मैं किसी सम्मान,पुरस्कार की आकांक्षा से नहीं लिखता, मेरा लेखन स्वान्तः सुखाय है साधुरामजी।' मैने कहा तो वे चिढ़ गए-'अरे छोड़ो भी अब, इतना समय घर के कामकाज में देते, भाभीजी को सहयोग करते तो उनकी दुआएं लगतीं।'

'उनकी दुआएं तो सदैव मेरे साथ ही हैं। उनका सहयोग नहीं होता तो मैंने जो थोड़ा बहुत लिखा पढा है वह भी नहीं कर पाता।' मैंने तनिक खिसियाते हुए कहा।

'और सुनो बन्धु ! ये जो तुम लिखते हो क्या सब तुम्हारा अपना  है? ये देखो तुम्हारी वह ग़ज़ल जो तुमने पिछले हफ्ते गोष्ठी में सुनाई थी, वह तो गुलजार साहब की है। यह देखो!' साधुरामजी ने उनका मोबाइल में मेरी ओर बढ़ा दिया।


वहां एक वाट्सएप समूह में मेरी वही कविता शेयर की गई थी, किन्तु नीचे शायर का नाम 'गुलजार' लिखा हुआ था। अब यह मेरे लिए सम्मान की बात थी या गुलजार साहब के लिए सिर पीट लेने वाली, कह नहीं सकता।


'अरे भाई आप तो 'गुलजार साहब' हो गए हैं अब! सफेद कुर्ता पहनों और पहुंच जाओ मुम्बई। खूब काम मिलेगा और अवार्ड भी।' साधुरामजी मजे लेने के मूड में आ गए थे।


'और बंधु जरा कभी अपना रोल बदल कर भी देखो...मसलन कभी पत्नी के काम अपने हाथ में ले लो...बडा मजा है... महरी नही आने पर बरतन मांजने में भी बडा मजा है...अपनी इस कला को भी सार्थकता देकर  चमकाया जा सकता है... कपडे धोना-सुखाना किसी तार पर...छत पर...अपने हाथों से आटा मथ कर गर्मा-गर्म रोटियाँ अपनों को खिलाना...वाह! अद्भुत आनन्द... एक नई कहानी...नई कविता लिखने के संतोष से भरा-भरा सा ... जैसे विविध-भारती पर नीरज या साहिर का गीत सुन रहे हों...!'

अब साधुरामजी जैसे पूरे साहित्य जगत को ही संबोधित कर रहे थे मानो वहां सारे रचनाकार अपनी घर गृहस्थी से विरक्त होकर सिर्फ सृजन में ही संलग्न हो गए हों।


तभी मेरे मोबाइल में चिड़िया चहकी। एक वाट्सएप मेसेज आया था। खोलकर पढा तो चेहरे पर मुस्कुराहट दौड़ गई। मैंने मोबाइल साधुरामजी के आगे कर दिया। वहां साधुरामजी की एक नज्म हरिवंशराय बच्चन जी के नाम से शेयर हुई थी।


ब्रजेश कानूनगो

उपन्यास लिख रहे हैं वे

उपन्यास लिख रहे हैं वे

लेखन उनके डीएनए में बसा हुआ है। कुछ सालों पहले तक वे कहा करते थे कि साहित्य उनके खून में है। लोगों को भी लगता है कि उनके रोम –रोम से पसीने की बजाए काव्य की गन्ध आती रहती है। यहाँ काव्य को शास्त्रीय अर्थों में व्यापकता से देखा जाना अपेक्षित होगा। क्योंकि उन्होने अपने लेखन को कभी विधाओं की सीमा में नही बान्धा है। जब चाहा, जिस विषय पर लिखना चाहा और जिस विधा में लिखना चाहा, पूरे जोशो-खरोश के साथ अपने को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।

अपने लेखन के प्रारम्भिक दिनों में उन्होने नगर पालिका और कोर्ट परिसर में लोगों के आवेदनों और प्रार्थना पत्रों में भी अपनी प्रतिभा का बहुत सार्थक रूप से उपयोग किया था। लोगों का मानना था कि उनके लिखे आवेदन पत्र पर कारर्वाई जरूर होती थी। उनके पूज्य पिता भी अपने जमाने के जाने-माने अर्जीनवीस थे साथ ही अभिनन्दन पत्र और लग्न-पत्रिकाएँ लिखने में भी उन्हे महारत हाँसिल थी। उनका यह गुण बेटे के खून में भी आया और जब चिकित्सा-विज्ञान ने तरक्की कर ली तब खून के अलावा उनके डीएनए में भी यह गुण दिखाई देने लगा।


दरअसल उनके एक क्लाइंट वैद्य होने के साथ-साथ कविता भी लिखा करते थे। आदर से उन्हे कविराज के नाम से सम्बोधित किया जाता था। कविराज खुद तो साहित्य मनीषी थे ही परंतु साहित्य अभिलाषियों को साहित्य विशारद और साहित्य रत्न जैसी उपाधियों के लिए परीक्षाएँ भी दिलवाया करते थे। उनके सानिध्य में ही इन्होने लेखन को भी साध लिया था। बाद में कविराज की गद्दी भी इन्होने सम्भाल ली और स्वयं कविराज कहलाने लगे ।

कुछ दिनों में ही इन्होने अपने गुरूजी के अप्रकाशित खंड काव्य ‘मारा जो ढेपा-पहुंच गया नेफा’ की पांडुलिपी से रचनाएँ यहाँ-वहाँ छपवाकर ख्याति अर्जित कर ली। फिर इन्होने मुडकर नही देखा और सृजन की रेलगाडी ब्रोडगेज पर न सही पर मीटर और नेरो गेज पर तेजी से दौडने लगी। अखबारों में सम्पादक के नाम पत्रों से लेकर जहाँ मौका लगता इनकी रचनाएँ मय नाम और फोटो के प्रकाशित होने लगीं। लिखना और छपना इनके लिए प्राण वायु सा बन गया। इतना छपने लगे कि जब नही छपते तो लोग पूछ ही बैठते- कविराज बहुत दिनों से कुछ लिख नही रहे?


बस यही वह टर्निंग पॉइंट है जहाँ से कविराज की कहानी और इस लेख को नई दिशा मिलती है। कविराज भी आखिर कितना लिखे और कितना छपें! और भी कई महत्वाकांक्षी नवलेखक लाइन में लगे होते हैं, अखबार और सम्पादक की अपनी सीमाएँ भी होती हैं। थोडा अंतराल तो आ ही जाता है बीच बीच में। दूसरे लेखकों को भी मौका देना होता है।

दरअसल कविराज यह समझते थे कि छपना ही असली लिखना होता है। छपे नही तो वह भी क्या लिखना। जंगल में मोर नाचा किसने देखा? नही छपने पर उन्हे ऐसा महसूस होता जैसे वे निष्क्रीय हो गए हैं और उनकी सृजनशीलता खत्म हो गई है। यही बात उन्हे कष्ट देती रहती थी। लोगों की निगाह में उनका सक्रीय रचनाकार दिखाई देते रहना ही उनकी असली खुशी होती थी। किसी भी कीमत पर वे इसे खोना नही चाहते थे।


यद्यपि वे अपनी रचनाओं में मौलिकता बनाए रखने की दृष्टि से किसी और का लिखा हुआ पढना बिल्कुल पसन्द नही करते थे, फिर भी मुंशी प्रेमचन्द का ‘गोदान’ उनके स्कूल के समय कोर्स में था, इसलिए उसे तो मजबूरन किसी तरह  पढना ही पडा था। पढते हुए वे यह भी सोचा करते थे कि मुंशी जी ने आखिर इतना बडा उपन्यास कैसे लिख डाला होगा? और फिर जब लिख ही लिया होगा तो उसको छपवाने के लिए कितनी प्रतीक्षा करनी पडी होगी उन्हे?


बस इन्ही प्रेमचन्दजी और उनके ‘गोदान’ ने कविराज की समस्या का हल उन्हे सुझा दिया। नही लिखने और निष्क्रीयता के समय लोगों के कष्टदायक सवालों का आसान जवाब अब उन्हे मिल गया था। कल किसी ने उनसे जब पूछ लिया- ‘कविराज बहुत दिन हो गए कहीं नजर नही आए, क्या बात है आजकल कुछ छप नही रहा?’ कविराज मुस्कुराकर बोले- ‘भाई क्या बताऊँ, बहुत व्यस्त हूँ, इन दिनों एक उपन्यास लिख रहा हूँ। थोडी प्रतीक्षा तो आपको करनी ही पडेगी।’

कविराज के साथ मैं भी अब अच्छी तरह जान गया हूँ कि हरेक लेखक अक्सर कभी-कभी उपन्यास लिखने में क्यों इतना व्यस्त हो जाता है।


 ब्रजेश कानूनगो