Friday, September 30, 2022

मोबाइल धारक की स्मार्ट शपथ

मोबाइल धारक की स्मार्ट शपथ


हम भारत के मोबाइल धारक स्मार्ट लोग सोशल मीडिया रसरंजन में आकंठ डूबे, पूरी मदहोशी में शपथ लेते हैं कि जो कुछ यहां कहेंगे देश काल और परिस्थितियों के मद्देनजर सच कहेंगे। इसके अलावा यदि थोड़ा बहुत सच न भी रहा हो तो वह आपको सच ही लगेगा। हम बिना किसी भेदभाव के अपनी बात देश दुनिया में गाजर घास की तरह फैलाने में पूरे तन मन से लगे रहेंगे। ऐसी हरियाली को विस्तारित करने में हम कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे।

हमें पता है अब यह मोबाइल यंत्र पांच वर्ष के मुन्नू से लेकर पिचासी वर्षीय दादू मुरारी लाल तक के हाथों की रौनक है। अपने परंपरागत आराध्य को चंदन,वंदन,नमन करने के पहले तड़के ही इस मोबाइल मूर्ति के सामने नत मस्तक होकर इसे माथे से लगाता है। अस्सी वर्षीय अनुभवी वैज्ञानिक का संदेश दस वर्षीय कालू मेकेनिक के पास पल में पहुंच जाता है। उसे तुरंत लाभ मिल जाता है।
गांधी का विचार गोविंद तक और सुभाषबाबू की बात साधुराम तक पहुंचती रहती है। यह माध्यम छोटे बड़े, जाति धर्म, प्रबुद्ध मूर्ख,विचार संस्कृति और देश परदेस की सीमाओं में बंधा नही होता। पश्चिम का खुलापन पूरब के लोगों को झकझोर सकता है। रूस की नीति और चीन की रीति के राज अपनों के बीच उघाड़े जा सकते हैं। यूएस की उपराष्ट्रपति में भारत के डीएनए और ब्रिटेन के पीएम की रेस में अपने अंश की दौड़ के गौरव को समान रूप से सब तक पहुंचाने की सुगमता यहां उपलब्ध है। हर बात हर स्तर पर समान रूप से पहुंचती रहती है। हम इस पुनीत कार्य को सदैव मुश्तैदी से आगे बढ़ाते रहेंगे।

हम संकल्प लेते हैं जब तक आवश्यक न हो और ऐसा करने को न कहा जाए तब तक हमे प्राप्त संदेशों को पूरे मन,आत्मा और अंतः करण से सत्य की तरह स्वीकार करेंगे और इसे सम्पूर्ण निष्ठा से चहुँओर त्वरित रूप से अग्रेषित व विस्तारित करने को तत्पर रहेंगे। आयातित संदेशों की पुष्टि के लिए कभी भी किसी भी संदर्भ ग्रंथ को खोलकर उसकी प्राचीन और जर जर जिल्द को क्षति पहुंचाने की धृष्टता करने की कोशिश कदापि नहीं करेंगे। एक तो उनमें जो कुछ लिखा है जरूरी नहीं कि वह सही ही हो। इसमें कोई शक नहीं कि ज्यादातर सामग्री हर शासनकाल में अपनी सुविधा से बदली जाती रही है। खासतौर से इतिहास की पुस्तकें तो बेहद जर्जर और अप्रासंगिक हो चुकीं हैं। पन्ने गल चुके हैं। अन्य विषयों के संदर्भ भी काफी कालातीत हो चुके हैं। सब कुछ बदल डालने का सुविचार बहुत सोच विचार के बाद लाया गया है।

बदलाव के इस महत्वपूर्ण समय में ज्ञान के प्रसार प्रचार में हमारी भूमिका किसी देशभक्त समाजसेवी से कम नही है। सोशल मीडिया के जरिए हमने नवजागरण का बीड़ा उठाया है, जिसका मूल्यांकन भविष्य में अवश्य होगा। बहुत संभव है इस प्रक्रिया में और भी शोध कार्य हो और तमाम शिक्षण संस्थाओं पर हो रहे बेवजह के खर्च को नियंत्रित किया जा सके। वैज्ञानिक और चिकित्सा जगत में प्रयोगशालाओं और अन्वेषण की आगे आवश्यकता ही न रहे। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसमें शासन,प्रशासन की बजाए जनभागीदारी की बड़ी भूमिका है। लोकतंत्र में यह बड़े काम की चीज है। हमने इस पवित्र विचार को आत्मसात किया है। संकल्प में असीम शक्ति होती है। विश्वास दिलाते हैं आने वाला समय नए समाज के निर्माण में हमारे योगदान को जरूर याद रखेगा। यह जगत पहली बार स्मार्ट जगत बनने में सफल होगा। इति।

ब्रजेश कानूनगो  

सस्ते महंगे रावण

सस्ते महंगे रावण

वे सुबह सुबह मेरे घर आए। थोड़ा परेशान लग रहे थे। क्या बात है साधुरामजी? क्या आज फिर माइग्रेन का दौरा पड़ा है?

कोई दौरा वोरा नहीं पड़ा है। समय का ऐसा दौर आएगा हमारे जीते जी, कभी सोचा नहीं था। वे बोले। आखिर हुआ क्या है? हमने पूछा तो उबल पड़े, कहने लगे, माना कि इस कलियुग में सब कुछ बिकता है लेकिन इतना पतन हो जाएगा। यह तो अति ही हो गई है कि रावण भी बिक रहे हैं बाजार में। सस्ते-महंगे हर भाव मे मिल रहे हैं। ग्यारह सौ से लेकर सवा लाख रुपयों तक के रावण उपलब्ध हैं।

तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है साधुरामजी। आदमी बिकते हैं इस समाज में तो पुतलों के बिकने में कैसी परेशानी। आप भी खरीद लाइये और जला दीजिये अपने आंगन में दशहरे पर। रावण के पुतले का दहन करके हम समाज में घुस आई बुराइयों को जला डालते हैं और आने वाले समय के लिए अपना शुद्धिकरण कर लेते हैं। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की।

तुम्हारी ये आदर्श बातें अपने तक ही सीमित रखो। यदि ऐसा हो रहा होता तो हम अब तक सतयुग में लौट गए होते। घर,मोहल्ले के कूड़ा करकट को बोरी में भरकर बचपन में हम भी रावण बनाते थे और मोहल्ले के मैदान में दहन करते थे। दशहरा समितियां भी अपने बड़े बड़े रावण के पुतले बनवाया करती थीं। पर अब ये घरों घर रावण का पुतला जलाना? बाजार में पुतलों का बाजार सजना? रावण कोई ऐसी शख्सियत थी जिसको इतना भाव दिया जाए? इसे नैतिक नहीं कहा जा सकता। साधुरामजी अपनी रौ में बोलते जा रहे थे।

साधुरामजी, यह आपके जमाने वाला कलियुग नहीं है। यह बाजारयुग है। इस युग में अच्छा बुरा सब माथे लगाने योग्य है। जहां से जैसे भी मुद्राओं का आगमन सम्भव हो वह काम करना समय की रीत है। सच भी बिकता है और झूठ भी। आदमी भी बिकता है और पुतला भी। इसमें कोई नैतिक अनैतिक वाला प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। आप अधिक बेचैन न होइए, बीपी बढ़ जाएगा आपका! मैंने कहा।

लेकिन यह भी तो देखिए एक पुतला ग्यारह सौ का है,एक पांच हजार का और कुछ तो सवा लाख रुपयों तक की कीमतों के हैं। पुतला जब प्रतीकात्मक है तो वे एक जैसे भी हो सकते हैं। एक साइज और एक जैसी सामान्य कीमतों के। हर व्यक्ति खरीद सके। साधुरामजी ने अपने को थोड़ा सहज बनाने का प्रयास किया।


साधुरामजी मैं आपको समझाता हूँ ठीक से। देखिए आपने भी माना है कि रावण का पुतला तो बुराई का प्रतीक मात्र है,जिसे जलाकर हम अपनी बुराइयों पर विजय का संकल्प लेते हैं हर साल। मान लीजिए कोई व्यक्ति अपने भीतर के भ्रष्टाचार रूपी रावण को नष्ट करने का संकल्प लेना चाहता है तो वह पुतला खरीद कर अपने आंगन में उसका दहन करेगा ही न! मैंने कहा।

लेकिन इसके लिए सवा लाख कीमत के पुतले की क्या आवश्यकता है? साधुरामजी बोले।

वह इसलिए साधुरामजी कि जो व्यक्ति हजार रुपयों तक का भ्रष्टाचार करता होगा वह क्यों कर महंगा रावण खरीदेगा। अपनी अपनी बुराइयों की साइज के हिसाब से ही तो रावण दहन करेगा न ! जितना बड़ा दोष, उतना बड़ा रावण खरीदेगा। बड़ी कॉलोनी में ज्यादा लोग रहते हैं तो बड़ा और महंगा रावण जलाना पड़ेगा। मैंने समझाया।

इस विश्लेषण को सुनते ही साधुरामजी पूरी तरह सामान्य हो गए। चिर परिचित अंदाज में ठहाका लगाकर बोले, क्या खूब कही आपने, अब समझ आया कि राजधानियों में इतने बड़े बड़े रावण क्यों जलाए जाते हैं।


ब्रजेश कानूनगो

Thursday, September 8, 2022

कतरा कतरा सुख

कतरा कतरा सुख 

कोई भी चीज अचानक जीवन में आ जाए तो धड़कनें ऊपर नीचे होने लगती हैं। जैसे अचानक पता चले कि पिताजी सारी संपत्ति किसी ट्रस्ट के नाम करके सिधार गए हैं तब बेटे की मनोदशा का आकलन कीजिए। उसको तो हृदयाघात होना निश्चित ही है। बात केवल आघात की ही नहीं है,अचानक मिली बहुत सारी खुशियों के मिल जाने पर भी यही संभावनाएं बन जाती हैं। मनुष्य बड़ा संवेदनशील प्राणी है इसलिए भलाई इसमें है कि सब कुछ शनै शनै ही हो। कहा भी तो गया है, धीरे धीरे रे मना,धीरे सब कुछ होए,माली सीचे सौ घड़ा,ऋतु आए फल होए। 

बीमारी से जूझते किसी परेशान व्यक्ति को जब छोटी सी राहत मिल जाती है तो वह भी उसके स्वस्थ होने की दिशा में संजीवनी का काम करने लग जाती है। मूंग के पापड़ का एक टुकड़ा मुंह मे रखते ही बेस्वाद हुई जीभ की स्वाद ग्रंथि पुनः जाग्रत हो उठती है। जीवन आनंद से भरने लगता है। 

आप सोंचते होंगे कि मैं बड़ी अजीबोगरीब बात कर रहा हूँ। बहक गया हूँ। बिल्कुल भी नहीं बहका हूँ जनाब। उस बीमार आदमी का उदाहरण मुझे यों ही नहीं नजर नहीं आ रहा। 

दरअसल यह उस आनन्द की बात है, उस राहत की बात है जिसे पाकर हमारा मन बल्ले बल्ले करने लगता है। जीवन की सारी परेशानियों और दुखों को अकस्मात भूल जाने का मन करता है। जैसे ऊपर उल्लेखित वह बीमार व्यक्ति पापड़ का एक कतरा अपने मुंह में रखते ही सारी बीमारियों को महसूस करना भूलकर स्वाद के संसार में लौटने लगता है।

चलिए पहेलियां बुझाना छोड़कर सीधे बात करते हैं। दरअसल आम आदमी ही कहानी का वह बीमार व्यक्ति है जिसे अनेक परेशानियों ने जकड़ा हुआ है। ऊपर से महंगाई डायन की कुटिल नजरें भी उसके जीवन को निशाना बनाए हुए है। पेट्रोल और गैस के दामों ने उसके जीवन के सुखों में आग सी लगा दी है।

इन संकटों के बीच अखबार में एक दिन खबर छपती है, 'पेट्रोल की कीमतों में पन्द्रह पैसों की जबरदस्त राहत'।

अब बताइए क्या असीम संकटों के बीच इस खुशखबर से किस परेशान व्यक्ति का दिल बल्ले बल्ले नहीं करने लगेगा। पन्द्रह पैसों की राहत पन्द्रह मिनट के लिए भी मन को सुकून देती हैं तो वह भी क्या कम महत्वपूर्ण बात नहीं है? 

सिंघाड़े का आटा हुआ दो रुपए सस्ता पढ़कर व्रत उपवास प्रधान राष्ट्र के किस धर्मप्राण नागरिक का मन जयकार नहीं करने को होगा। 

एक दिन खबर आती है कि सोने का भाव सौ रुपए टूटा। चांदी का भाव पांच सौ रुपए गिरा। अब सोचिए सोने के बिस्कुट चबाने वाले और चांदी के जेवर पहनने वाले गरीबों के टूटे दिल कितने प्रफुल्लित होने लगे होंगे। 

एक दम से दी गई भारी राहत नागरिक के दिल को भारी झटका दे इससे बेहतर यही है कि सलाइन की तरह खुशी की बूंदें धीरे धीरे उस तक पहुंचाई जाएं। 

दिल का खयाल रखना बहुत जरूरी है श्रीमान!  अचानक ढेर सारी खुशियां भी घातक हो सकती हैं। इसलिए कतरा कतरा खुशी का स्वागत करना सीखिए। इसी में सबका भला है। जरा समझिए जनाब!! 


ब्रजेश कानूनगो