व्यंग्य
झंडों के डंडे
ब्रजेश कानूनगो
उस दिन मैं बहुत अचरज से भर गया. कुछ प्रदर्शनकारी हाथों में झंडा
उठाए टीवी कैमरों के सामने चीख-चीख कर नारे लगा रहे थे. अचरज इस बात का नहीं था कि
वे प्रदर्शन कर रहे थे और उनके हाथों में झंडे थे. झंडे और प्रदर्शन अब कोई चौंकने
वाली चीज नहीं रह गयी है. वो बात इतिहास हो गयी है जब किसी आन्दोलन की
अगुवाई में हमारा नेता झंडा उठा लिया करता था. अब ऐसा नहीं है अब कभी भी झंडा
उठाया जा सकता है और विरोध के लिए चीखा जा सकता है.इसके लिए नेता होना भी आवश्यक
नहीं है. लोकतंत्र हमें इसकी इजाजत भी देता है. संविधान में भी यह कहीं नहीं कहा
गया है कि आप झंडा लहराते हुए नारे नहीं लगा सकते. मुझे आश्चर्य इस बात का हो रहा
था कि प्रदर्शनकारियों के हाथों में जो झंडे थे उनके डंडे बहुत मोटे थे. झंडे में
जहां डंडा पिरोने की जगह होती है वह इतनी तंग थी कि उन्हें किसी तरह
सुतली से मोटे डंडों पर बांधा गया था.
अपनी जिज्ञासा लेकर मैं अपने मित्र साधुरामजी के पास पहुंचा तो
वे खिलखिलाकर हंस दिए. बोले -'बहुत भोले हो मित्र ! इतना भी नहीं जानते.जहां
झंडा होगा वहां डंडा भी रहेगा. डंडे पर ही तो झंडा लहराया जा सकता है'
'जी, इतना तो मैं भी जानता हूँ साधुरामजी की झंडे डंडे पर ही लहराए जाते
हैं मगर प्रदर्शनकारियों के डंडे अक्सर इतने मोटे क्यों होते हैं? मुलायम झंडों के साथ मजबूत डंडों का साथ कुछ ठीक नहीं लगता.' मैंने कहा.
इस पर वे -'अरे, यह तो बहुत स्वाभाविक
है भाई ! दो विरोधाभासी चीजें भी मिलकर एक ख़ूबसूरत दृश्य का निर्माण करती हैं.
जैसे दिन और रात का मेल ख़ूबसूरत सांझ का नजारा ला खडा करता है.'
'लेकिन झंडे और डंडे
का यह मेल तो डरा देता है साधुरामजी! कभी-कभी तो लगता है डंडों की
मजबूती के लिए इन्हें कड़वा तेल भी पिलाया गया हो.' मैंने कहा तो वे फिर हंस दिए और किसी आद्यात्मिक गुरु की तरह दार्शनिक
अंदाज में कहने लगे- 'यह बहुत स्वाभाविक स्थिति है मित्र, जब दो विपरीत किस्म की चीजें मिलकर एक निष्कर्ष निकालती हैं. मसलन यदि
हम चौबीस घंटों की बात करें तो वहां दिन का उजाला और रात के अँधेरे के सह अस्तित्व
के बाद ही हमारी जीवन चर्या का एक दिवसीय कालखंड पूर्ण होता है. केवल दिन या केवल
रात का होना सम्पूर्ण नहीं कहा जा सकता. इस सिद्धांत के आधार पर बहुत सी
चीजों को समझने में हमें बहुत सुविधा हो जाती है.' ''थोड़ा स्पष्ट करें, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा साधुरामजी!' मैंने बीच में
टोंका.
'अरे भाई!, सुनों,जब कोई कहता है कि उनका व्यक्तित्व नारियल की तरह
है तो स्पष्ट है कि वहां इस तरह बाहर की सख्ती और मन की कोमलता
के सह अस्तित्व को रेखांकित किया जा रहा होता है.क्या नारियल की खोकल के बगैर उसके
भीतर की मधुरता की कल्पना की जा सकती है? बगैर सख्त
डंडे के झंडे की मनमोहक लहरों को भी निहारा जाना संभव नहीं.' उन्होंने समझाया.
' बात में दम है आपकी!
बचपन के दिन याद आ रहे हैं मुझे , जब पिता जी फटकार लगाते थे तो माँ चुपके से दुलार
दिया करती थी और माँ की चपत के बाद बाबूजी रसगुल्लों का दौना सामने कर देते थे.
पालकों के प्रेम और क्रोध के सह अस्तित्व के कारण ही हमारा आज अस्तित्व बना हुआ
है.' इस बार हंसने की बारी मेरी थी.
'ठीक पकडे हो!' बिना कंट्रास्ट के सौन्दर्य कहाँ. झंडे की नाजुकता और डंडों की सुदृड़ता
मिलकर ही इरादों की दृड़ता का सृजन करती हैं.
अब मैं अच्छी तरह समझ गया था. इरादों के झंडों को फहराने में
मजबूत डंडों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. इसी तरह अपने झंडों
को आसानी से गाडा जा सकता है.
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इंदौर-452018