Monday, July 24, 2023

मौसी आई है इस बार

मौसी आई है इस बार

सुना है यूपी की किसी मंत्री महोदया ने टमाटरों के महंगे हो जाने पर सुझाव दिया है कि जो महंगा हो उसे खाना छोड़ दें या फिर अपने घर के गमलों में टमाटर उगाएं !  यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। कई देशप्रेमी लोग तो राष्ट्रीय गौरव में महंगाई को कोई बुरी बात भी नहीं मानते। यह एक मौसमी दुर्घटना है जिसे सहजता से स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। दरअसल महंगाई बेचारी तो राजनीतिक क्षेत्रों में हर बार यूंही विषय या मुद्दा बन जाती है। जो लोग इसे डायन कहकर अपमानित करते हैं वे आम लोगों की जीवनशैली को समझते ही नहीं। आना जाना जीवन चक्र है। प्रकृति हो या इंसान का जीवन यह चक्र चलता रहता है। वाट्स एप पर आया भारतीय दर्शन भी यही कहता है।

आमतौर पर  लगता तो यही है कि महंगाई फिर लौट आई है। अच्छा लौटता है। बुरा लौटता है।अच्छा बुरा सब लौटकर आ ही जाता है। मौसम और ऋतुएं लौटती हैं। गर्मी जाती है तो बारिश लौट आती है। बाढ़, सुनामी,भूकम्प सब लौट लौट आते हैं। पतझड़ जाता है तो बसंत लौट आता है। दुख के बाद सुख लौटता है। रुदन के बाद मुस्कुराहट लौटती है। तालिबान लौटता है, हिटलर लौट आते हैं। रूपांतरित होकर साम्राज्यवाद लौटता है, समाजवाद के खंडहरों में हरियाली की बिदाई के बाद पूंजीवाद की जैकेट पहनकर प्रजातंत्र लौट आता है।  आतंकवाद लौटता है। दूर का,पास का,अच्छा आतंकवाद, बुरा आतंकवाद सब लौटते हैं। इमरजेंसी लौटती है। नाम बदलकर लौटते हैं तो कभी उसी तरह लौट आते हैं जैसे पहले आए थे। लौट लौट आना इस सृष्टि की रीत है।

अवतारी पुरुष लौट आते हैं। सोने की चिड़िया लौट आती है। स्वस्थ होने पर तन लौटता है, मन स्वस्थ होने पर सनातन लौट आता है। ऐसे में पहले की 'महंगाई ' लौट आती है तो किसी को कोई दिक्कत कैसे हो सकती है!  महंगाई डायन पहले भी आई थी। आती रहती है। इसका आना प्रकृति सम्मत है। वैसे भी वह बर्फ में दबे जीव की तरह हमेशा जिंदा रहती है। थोड़ी गर्मी पड़ी कि बर्फ पिघलने लगती है और यह डायन पुनः धरातल पर दृष्टिगोचर हो जाती है। 

हम शोर मचाने लगते हैं कि 'महंगाई डायन' लौट आई है। दरअसल वह गई ही कहाँ थी? यहीं बर्फ के नीचे दबी अपने को संस्कारित कर रही थी। अबकी लौटी यह डायन पहले जैसी बुरी आत्मा नहीं है। संस्कारित होकर 'अच्छी डायन' बनकर आई है। इसलिए इसके आने से किसी को कोई परेशानी नहीं है। उल्टे इसकी प्रशंसा है कि इसने अपने को संस्कारित कर लिया है। इसके संस्कारित होने से लोगों की क्रय क्षमता में उछाल आए या न आए किन्तु जीडीपी में वृध्दि अवश्य होगी।

स्वागत है 'अच्छी डायन', माफ करें ,स्वागत है महंगाई मौसी,मौसीजी । पहले तुम साठ, सत्तर रुपयों में एक लीटर पेट्रोल से आग लगा देती थी, अस्सी रुपयों के सरसों तेल में बने भोजन से भी परिवार भूख से बिलखने लगते थे। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं था। तुम्हारे पास संस्कार नहीं थे, तुम्हारा चरित्र ही भ्रष्ट था। अब ऐसा नहीं है। अब तुम अच्छी हो गई हो प्रिय महंगाई।

अब सौ से ऊपर के पेट्रोल और डेढ़ सौ रुपयों के खाद्य तेल में भी हमारा जीवन खुशहाल है। हमें कोई आपत्ति नहीं है मौसीजी। तुम आराम से रहो। हममें से अधिकांश को जीने की आवश्यक सामग्री हमारी संवेदनशील सरकारें निशुल्क उपलब्ध करा ही रही हैं। जो थोड़े उच्च वर्ग के लोग हैं उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, वे वितरक हैं,उत्पादक हैं। मध्यमवर्गीय लोग झंडा उठाए हैं।  तो प्यारी महंगाई मौसीजी तुम बिल्कुल हमारी चिंता मत करो और जब तक चाहो,यहाँ रहो। तुम अब चरित्रवान हो गई हो, भली और ममतामयी हो गई हो, यही क्या कम बड़ी बात है। तुम्हे अब डायन कोई नहीं कहेगा, आराम से रहो। 

मंत्रीजी ने ठीक ही कहा है, टमाटर ही क्या, जो भी महंगा होगा उसे हम घर में उगा लेंगे। इस्तेमाल करना छोड़ देंगे। महंगाई से राहत का यह बड़ा अच्छा उपाय सुझाया है माननीय ने। क्यों न हम लोग महंगी शक्कर खरीदने से बचने के लिए आज ही आंगन में गन्ने की बुवाई शुरू करने की पहल करें। पेट्रोल के इंतजाम के लिए बेकयार्ड में तेल के कुएं खोदने में जुट जाएं। आत्म निर्भर बनना हमारे लिए ही नहीं देश के लिए भी सचमुच गौरव की बात होगी।

ब्रजेश कानूनगो



कच्चे कान वालों की व्यथा

कच्चे कान वालों की व्यथा


जंगल का राजा जब शिकार की तलाश में निकलता है तो जरा सी हलचल या आहट उसके कान खड़े कर देती है। आम बस्तियों में भी चूहों के इंतजार में बिल्लियां सदैव अपने कान खड़े किए इधर उधर सूंघती फिरती हैं। शिकारियों के मजबूत इरादे उनके कान से होकर गुजरते हैं। शिकार को कानों कान ख़बर नहीं होने देते कि कभी भी उन्हें दबोचा जा सकता है।  कानों को लेकर यह प्रवृत्ति इंसानों  में भी प्रायः देखी जा सकती है।

कुछ लोग कान के बड़े कच्चे होते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे लोगों के कान बहुत नाजुक होते हैं और हल्की सी बात का भार वे अधिक देर तक उठा नहीं पाते होंगे। बात ठीक इससे उलट है।दरअसल किसी व्यक्ति का कान का कच्चा होना इस बात का प्रमाण होता है कि उस व्यक्ति का कान नहीं बल्कि मन बड़ा कोमल होता है। ऐसे लोगों को सच्चा,झूठा कुछ भी कह दो वे विश्वास कर लिया करते हैं।  चतुर और अपना हित साधने वाले पक्के लोग सदैव कच्चे कानों की तलाश में रहते हैं। मौका मिलते ही उनके कानों पर कब्जा कर लेते हैं।

कान के कच्चे होने को गुण या दुर्गुण जो भी कह लें किंतु  धारण करने वाले सुपात्रों के कानों में स्वार्थ सिद्धि का मंत्र फूंक कर मंतव्य साधा जा सकता है। उन्हें बड़ी आसानी से बरगलाया जा सकता है। इन दिनों यह अभियान हर क्षेत्र में जोर शोर से जारी है। चाहे आपको अपना उत्पाद बेचना हो या विचार। धरती, समुद्र और आकाश की बोलियां लगानी हो। लोकतंत्र के बाजार में वोटर खरीदना हो या विधायक, कच्चे कान वाले भोले लोगों का शिकार जारी है। हमारे इस प्रलाप से कहीं आपके कान ही न पकने लगे हों लेकिन यह हकीकत है। सोशल मीडिया,अखबारों और टीवी चैनलों के जरिए हम सबके कानों में ऐसे ही मंत्र फूंके जा रहे हैं।

आंखों देखी और कानों सुनी का मुहावरा अब  अर्धसत्य है। किसी की आंखों देखी,कानों तक पहुंचते पहुंचते सच्चाई खो देती है। हमारी आंखों देखी हमारे ही कानों में झूठ की झंकार बनकर लौट आती है। सच की पड़ताल की फाइलों को झूठ की तिजोरियों में बंद कर दिया जाता है। दीवारों के कान तो होते ही नहीं, दीवारों की जुबानें भी नहीं होती।

आपने सुना होगा,ऊंचाई पर पहुंचने पर हमारे कान बंद हो जाते हैं। लोग पहाड़ चढें या हवाई जहाज में उड़ें, सत्ता का सिंहासन हो या समृद्धि का शिखर, कानों पर एक सा असर डालते हैं। ऊपर वाले को कुछ सुनाई नहीं देता। यह स्वाभाविक और प्राकृतिक प्रक्रिया है। नीचे खड़ा आदमी गलत कहता है कि ऊपर वाले ने कानों में तेल डाला हुआ है। दरअसल वह सुनने की स्थिति में होता ही नहीं। यह उसकी चढ़ाई का अंतिम पड़ाव होता है। प्रारंभ में उसे एक कान से सुनाई भी देता है लेकिन दूसरे कान से निकल जाता है। कान से वह अनुलोम विलोम भी नहीं कर पाता है। कान बंद हो जाते हैं। उसके कानों पर किसी भी पुकार से जूं तक नहीं रेंगती। घंटे,घड़ियाल और नगाड़ों के भारी शोर से भी इस समस्या का उपचार नहीं हो पाता।  हम आप जैसे कान के कच्चे लोग इन पक्के लोगों की इस परेशानी को समझ ही नहीं सकते!

ब्रजेश कानूनगो





 

Thursday, July 20, 2023

वीडियो जनित संवेदना

वीडियो जनित संवेदना

साधुरामजी क्षुब्ध थे। आते ही बोले, मणिपुर की शर्मनाक घटना का वीडियो आज ही आना था क्या? यह सब षड्यंत्र है। देश विरोधी ताकतें ऐसे मौकों का इंतजार करती रहती हैं,जब हमारी संसद या विधान सभा का सत्र शुरू होता है तब ही ये लोग ऐसी हरकतें करते हैं। हमारे देश और प्रजातंत्र को बदनाम करने का शर्मनाक तरीका है यह।

लेकिन साधुरामजी मणिपुर तो कई महीनों से जल रहा है। इंटरनेट भी बंद हैं। खुद वहां के मुख्यमंत्री ने कहा है कि ऐसी अनेक घटनाएं हुईं हैं, जिन पर जल्दी ही सख्त कदम उठाए जाएंगे। अपराधियों को छोड़ा नहीं जाएगा। मैने कहा।

राज्य ने केंद्र को खबर देने में लगता है विलंब कर दिया। वो तो अच्छा हुआ कहीं से यह वीडियो देश के लोगों तक पहुंच गया। सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेकर सरकारों से अपनी ओर से जवाब तलब किया। तब जाकर...। मैं अपनी बात पूरी करता उसके पहले ही साधुरामजी बोल पड़े...

सच कहा आपने। पीएम भी इस अप्रत्याशित घटना और आकस्मिक सूचना से कितने दुखी हो उठे हैं। घटना घटते ही खबर मिल जाती तो अब तक तो अपराधी फांसी पर झूल रहे होते।

लेकिन गृह विभाग की अपनी भी प्रणाली होती है, गुप्तचर होते हैं,एजेंसियां होती हैं जो गृहमंत्रालय को सचेत कर सकती थीं। मैने बात आगे बढ़ाई।

वो सब तो ठीक है,पर वीडियो कहां आया था अब तक। वीडियो आना जरूरी है। संवेदना और चेतना तभी जागृत हो पाती है जब वीडियो आता है। 

यह ग्लोबल विश्व का डिजिटल भारत है, बिना वीडियो साक्ष्य के कार्यवाही आगे नहीं बढ़ती। महिला पहलवान भी वीडियो नहीं दे पाए थे तो न्याय में विलंब होता गया। कोई वीडियो आता है तभी माहौल बनता है, चेतना जागृत होती है,क्षोभ या गौरव का भाव स्खलित होने की स्थितियां निर्मित हो पाती हैं। किसी वायरल वीडियो से ही पता चलता है कि हम तरक्की कर रहे हैं, सम्मानित हो रहे हैं,विश्व में हमारा डंका बज रहा है। वीडियो आता है तभी पता चलता है कि बाहर के मुल्कों में किस तरह कुछ लोग हमें बदनाम कर रहे हैं। साधुरामजी ने स्पष्ट किया।

ये बात तो ठीक कही आपने। कुछ समय पहले एक मुख्यमंत्री ने भी भ्रष्टाचार रोकने के उपाय करते हुए अपने नागरिकों से कहा था, आप लोग रिश्वत मांगने वाले व्यक्ति को रिश्वत दे दें लेकिन उसका वीडियो बनाकर मुझे भेज दें। हम कारवाही करेंगें। मैने ज्ञान बघारा।

तो क्या वह प्रदेश अब भ्रष्टाचार मुक्त हो गया है? साधुरामजी ने जिज्ञासा व्यक्त की। 

पता नहीं! फिलहाल तो वहां के मंत्रीगण ही भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में बंद हैं और किसी वीडियो के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं ताकि आरोप से मुक्त हो सकें। 

लेकिन यह जरूरी तो नहीं कि कोई वीडियो सच्चा ही होगा। आजकल तो तकनीक इतनी आगे बढ़ गई है कि साधुरामजी के चेहरे पर किंग चार्ल्स की मुंडी चिपकाई जा सकती है। किसी की आवाज में अमिताभ बच्चन की खनक पैदा की जा सकती है। सुपर स्टार राजेश खन्ना की कही बात ही ठीक लगती है, दिल सच्चा और चेहरा झूठा!  मैने चुहुल की।

झूठ के बहुत सारे गवाह और सच के साक्ष्य भले ही कम ही क्यों न हों लेकिन न्यायमूर्ति की अदालत में सच्चाई आज भी प्रायः सामने आ ही जाती है, वीडियो उपलब्ध हो या न हो।  वे बोले।

पर यह तो तय है कि नींद उड़ाने के लिए वीडियो बहुत जरूरी होता है। मैने कहा। लेकिन ऐन संसद सत्र के शुरू होते ही वीडियो का आना तो निश्चित ही कोई षडयंत्र होगा। साधुरामजी बात पर अब भी दृढ़ थे।

जो भी हो मैं तो बिग बी साहब की बात पर विश्वास करता हूं जो उन्होंने त्रिशूल फिल्म में कहे थे, कोई चीज सही वक्त और सही मौके पर की जाए तो उसकी बात ही कुछ और होती है। उसका असर होता है। किसी को इसी मौके और वक्त का इंतजार रहा होगा साधुरामजी! मैने कहा तो वे खिन्न हो गए।

ब्रजेश कानूनगो  



Monday, July 17, 2023

डूबे हुए लोग

डूबे हुए लोग 


दुनिया में कुछ भी होता रहे,यदि अपने मतलब का नहीं है तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। यह वह समय है जब हर व्यक्ति अपने में ही डूबा रहता है। पहले आदमी कुएं,बावड़ी,तालाब या नदी में डूबता था। समुद्र में डूबने के लिए थोड़ी तैयारी और प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। अब अपने ही भीतर के महासागर में कभी भी डूबा जा सकता है। तैरना नहीं आने पर डूबने वाला आदमी ज्यादातर हमेशा के लिए डूब जाता था, लेकिन अपने में डूबे आदमी को बाहर निकलने की सुविधा रहती है। वह जब चाहे डूब सकता है और जब चाहे बाहर निकलकर औरों को डूबने के लिए प्रेरित कर सकता है। 

बहरहाल महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी के कुछ भी हो जाने को कोई अब रोक नहीं सकता। न ही किसी को कोई फर्क पड़ता है कि वह क्यों कर ऐसा हो गया। वो जमाना लद गया जब बाप गुस्से में आग बबूला होते हुए माँ पर आँखें तरेरता हुआ चीख उठता था- 'सुनती हो भागवान! तुम्हारा लाडला 'आवारा' हो गया है।'

समय समय की बात है। अब बाप अपने में ही ऐसा डूबा रहता है कि बेटा हत्यारा हो जाए तो भी बाप के माथे पर शिकन तक नहीं आती। ‘न्यू इंडिया’ का नया बाप जानता है कि बेटा अब 'भारत' नहीं रहा। भारत के भीतर के ‘प्रेम’ और आदर्शों को वक्त नें 'प्रेम चोपड़ा’ ने बदल कर रख दिया है। 

‘मदन’ का चाकू 'पुरी' हो या 'भटिंडा' कहीं भी खुले आम अपने जलवे दिखा सकता है। अब कोई ‘बलराज’ अपने बेटे को ‘परीक्षित’ का तमगा लगवाना नहीं चाहता। नए जमाने मे सब बेटे बिना मेहनत किये 'अजेय' बने रहना चाहते हैं। कोई बाप उन्हें बदलने का दुस्साहस चाहकर भी कर नहीं सकता। यह मजबूरी है माँ बाप की। दौलत और जायदाद के लालच में बाप की जान को बेटे की लायसेंसी बन्दूक से खतरा है। 

खतरा तो बाप से बेटी को भी हो गया है। अब ‘ओमप्रकाश’ या ‘नाजिर हुसैन’ से भावुक बाप भी कहाँ देखने को मिलते हैं। ‘जीवन’ दादा और ‘के एन सिंह’ के क्लोन मुहल्ले मुहल्ले बेटा बेटियों पर अत्याचार में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।

बात केवल घर परिवार की ही नहीं है। बदलाव की यह प्रवत्ति इससे आगे बढ़कर नागरिक समाज की रगो में प्रवेश कर चुकी है। लोग क्या हो जाएं, कुछ कहा नहीं जा सकता। अच्छा भला आदमी न जाने कब रूप बदलकर भेड़ में बदल जाए और किसी गड़रिये के पीछे पीछे  भेड़ों का कोई झुंड लहलहाती खुशहाल फसल को बर्बाद कर दे। गड़रिये को चतुर लोमड़ ‘कन्हैयालाल’ या खूंखार लॉयन ‘अजीत’ हो जाने से कोई रोक नहीं सकता।

अब कोई कभी भी शेर हो सकता है, गधा, बन्दर, चूहा भी हो सकता है। भैंस भी हो सकता है। कोई भरोसा नहीं रहा कि कौन कब क्या हो जाए। भरोसे की भैंस पाड़ा जने या फिर कीचड़ में उतर कर मजे करे, किसी को क्या फर्क पड़ने वाला। नेता अभिनेता हो जाए, अभिनेता अर्थशास्त्री, योगाचार्य व्यवसायी,पड़ोसी थानेदार, टीवी एंकर जज में बदल जाए... कोई फर्क नहीं पड़ता कि टीवी चैनल का एंकर पत्रकार नहीं किसी राजनीतिक दल का वकील होता गया है...अब न्यायाधीश के पद पर है तब ऑन लाइन कार्यक्रम में उत्तेजित प्रवक्ता विरोधी प्रवक्ता का कॉलर पकड़ लेता है। यारां! की फरक पैंदा जी !!

किसी पाठक को कोई फर्क नहीं पड़ता कि नए लेखक की पुस्तक का ब्लर्व किसी गुणी विद्वान के नाम से खुद प्रकाशक ने ही लिख दिया है। अखबार में साहित्य पृष्ठ पर पुस्तक की छपी समीक्षा खुद लेखक ने ही तैयार करके संपादक को प्रेषित कर दी है। 
जब लेखक खुद ही अपने आपको 'प्रेमचंद ' या  ‘परसाई’ समझने लगे तो पाठकों को क्या फर्क पड़ने वाला है। वाट्सएप यनिवर्सिटी से कितने ही नए ‘गुलजार’,’नीरज’, ‘बच्चन’ और ‘अटल बिहारी’ निकलकर आ रहे हैं। अब कोई प्रदीप के गीत को बीन की तरह सुन रहा हो तो जरूरी नहीं कि वह रसिक श्रोता ही होगा। वह इच्छाधारी भैंस भी हो सकती है। क्या फर्क पड़ता है इससे किसी को। आप तो बस डूबे रहिए और दूसरों को भी डूबे रहने को प्रेरित करते रहिए। यह डूबे हुए नए समाज का नया दौर है !  

ब्रजेश कानूनगो 

पारदर्शिता : एक समदर्शी चिंतन

पारदर्शिता : एक समदर्शी चिंतन


आज जरा दर्शन की बात करते हैं। मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं और नहीं दर्शन का कोई अध्येता। हां,एक दर्शक जरूर हूं किंतु दृष्टा नहीं। बस चुपचाप दर्शन में लगा रहता हूं। दर्शन बोले तो देखना,निहारना, टापते रहना वाला दर्शन। गांधी या मार्क्स वाला मत समझ लीजियेगा इसे। 

जब कहीं कोई अवांछित बाल देखता हूं उसकी खाल उधेड़ने में मुझे बड़ा मजा आता है। इसलिए मैं जो इन दिनों देख रहा हूं उसमें मुझे कुछ बाल नजर आए तो मन किया कि थोड़ा प्रलाप किया जाए।  यों जब भी भोजन करते वक्त मेरी दाल या सब्जी में कोई बाल निकल आता है, मैं चुपचाप उसे हटा देता हूं कुछ बोलता नहीं। लेकिन कहीं और नजर आ जाए तो हाजमा खराब हो जाता है। किसी सुंदरी की फटी जींस में से घुटना दिखने पर भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यह मेरा सौंदर्य बोध है। लेकिन  प्रायः भाषाई दर्शन में कुछ आपत्तिजनक दिख जाता है तो मैं बौखला जाता हूं। आज ऐसा ही कुछ हो रहा है मेरे साथ। 

एक होता है समदर्शी और एक होता है पारदर्शी। बड़े कमाल के होते हैं ये दोनों शब्द। समदर्शी तो एक मायने में ठीक ही लगता है, सबको एक निगाह से देखना और एक लाठी से हांक देना जैसी फिजूल बातों को यदि छोड़ दें तो समान नागरिकता कानून की तरह यह एक बेहतरीन राष्ट्रवादी विचार है। आज मुझे पारदर्शी शब्द में कुछ काला काला नजर आ रहा है। उसी पर विमर्श को केंद्रित रखते हैं।

जब भी कोई घोटाला उजागर होता है अपने बचाव में आरोपी पक्ष कहता है –'हमने तो सम्पूर्ण पारदर्शिता बरती थी. 'लेकिन घोटाला हो गया है।' घोटाले के दैत्य पर पारदर्शिता के सुकोमल शब्द-पंख  चिपका कर पूरे प्रकरण को अक्सर मनोहारी रूप देकर उड़ा देने  के प्रयास होने लगते हैं।

पारदर्शिता का यह नया मुहावरा इन दिनों बहुतायत से चलन में है।व्यक्ति हो, प्रशासन हो या नीति या प्रक्रिया अपनाने की बात हो, हर कहीं  'पारदर्शिता' की फिटकरी घुमाकर गन्दगी का तलछट हटाने की कोशिश की जाने लगती है। आदमी भले ही बेईमान हो लेकिन उसका व्यक्तित्व पारदर्शी कहा जाता है, ऐसी प्रक्रिया भले ही अपनाई गई हो जिससे देश के राजस्व को चूना लगा हो लेकिन उसे सौ प्रतिशत पारदर्शी सिद्ध करने की कोशिश की जाने लगती है।

आखिर यह पारदर्शी क्या है? शाब्दिक रूप से समझा जाए तो ऐसी चीज जिसके आर-पार देखा जा सके, जैसे कांच  होता है, ठहरा हुआ जल होता है, चश्मे का लेंस होता है। पारदर्शी व्यक्तित्व के अन्दर और उसकी पीठ के पीछे जो कुछ छुपा हुआ हो स्पष्ट नजर आ सकता है,वह छुपा नही रह सकता,बल्कि देखा जा सकता है।

प्रश्न यह उठता है कि अगर किसी व्यक्ति विशेष का व्यक्तित्व पारदर्शी है तो क्या वह इतना पारदर्शी हो सकता है कि अपने अन्दर होने वाली या उसकी आड लेकर की जानेवाली सारी   बेइमानियों को स्पष्ट नजर आने देगा ? 

क्या उसमे इतनी पारदर्शिता बनी रह सकेगी या वह स्वार्थ  की धुन्ध से  अपनी असली  पहचान को ही ओझल बना कर लोगों को   भ्रमित करने की  चेष्टा करेगा ?  यह भी हो सकता है कि उसकी पारदर्शिता किसी लेंस की तरह हो जो वास्तविकताओं को छोटा या  बडा अथवा विकृत बना कर प्रस्तुत कर दे।

कई राज्यों  के दावे रहते हैं कि उनकी सरकार और उनका प्रशासन जनता को  पारदर्शिता उपलब्ध कराने को प्राथमिकता दे रहा है। यह सुखद लगता है कि प्रशासन पारदर्शी हो। प्रशासन की मशीन मे होने वाले भ्रष्टाचार और उसमे व्याप्त गन्दगियां नागरिकों को स्पष्ट नजर आ  सकें। आम आदमी देख सके कि अपना काम करवाने के लिए कहाँ और कितनी भेंट चढानी है, कहाँ और किसकी एप्रोच से काम बन जाएगा।  पारदर्शिता के कारण डीलिंग  के सूत्र और  गलियारे खोजने मे आसानी  हो सकती है। पारदर्शी प्रशासन मे सब कुछ साफ साफ  नजर आ सकेगा कि किस लीडर को साधने से उत्पादक क्षेत्र मे स्थानांतर करवाया जा सकता है। प्रशासन के किस पेंच मे तेल डालकर प्रशासनिक घर्षण को कम किया जा सकता है। प्रशासन का पारदर्शी होना अधनंगे सुखिया से लेकर करोडपति  सेठ सुखनन्दन तक के लिए हितकारी है।    

बहरहाल, उम्मीद की जाना चाहिए कि हमारे देश को खोद डालने के उपक्रम में लगे आकाओं का ध्यान कोयला ढोहती लछमा की पारदर्शी आँखों और उसके पारदर्शी पेट पर भी जाएगा जहाँ आँसुओं और भूख के अलावा कुछ और नजर नहीं आता।

ब्रजेश कानूनगो