Thursday, September 29, 2016

पितरों को खीर

व्यंग्य
पितरों को खीर  
ब्रजेश कानूनगो  

पिताजी को खीर बिलकुल पसंद नहीं थी. अपने जीवन काल में पशु चिकित्सक होने के बावजूद उन्होंने पशु पालकों से कभी दूध अथवा मिल्क प्रोडक्ट स्वीकार नहीं किया. इस मामले में वे थोड़े ईमानदार टाइप के व्यक्ति थे. माँ का इसको लेकर कई बार उनसे विवाद भी हुआ था. बहरहाल, उनकी ना पसंद के बावजूद श्राद्ध पर उन तक खीर पहुंचानी जरूरी थी.

इसके लिए परम्परानुसार भोजन बनाकर एक पंडित जी को जिमाना होता है. कुछ भोजन गाय, कुत्ते और कौए के लिए निकाल कर प्रेम से उन्हें भी खिलाना अनिवार्य माना गया है.

श्राद्ध के दिन हमें भी यह करना जरूरी था. इसके करने से माँ की मोतिया बिन्द ग्रसित आँखों में संतोष की जो चमक दिखाई देती है, वह हमारे मन में अद्भुत मिठास पैदा करती है और वह श्राद्ध पर बनाई गयी खीर से कहीं मीठी होती है.

हालांकि श्राद्ध कर्म में इन दिनों कुछ कठिनाइयां भी सामने आती हैं. पुराने जमाने की तरह ‘भोजन भट्ट’ किस्म के पंडितजी अब कम ही मिलते हैं. जो मिलते हैं वे बेचारे कहाँ–कहाँ जाएँ और कितनी खीर पियें. हमारे लिए यह समस्या कतई नहीं थी. परम मित्र साधुरामजी सहज उपलब्ध थे. ‘दोस्त वही जो श्राद्ध जीमने को तैयार हो जाए’. उनकी सेवायें हमें आसानी से मिल गईं. एक पर एक फ्री की तरह भोजन करने के साथ वे अपने वार्तालाप से बोझिल वातावरण को भी थोड़ा रसमय बनाते रहते हैं.

अग्नि में धूप देने के बाद चार पूडियां गाय माता को ,चार पूडियां श्वान महाराज को और चार कौओं को खीर सहित परोसने और खिलाने का आग्रह-आदेश हम से हुआ.

गायों और कुत्तों की कोई समस्या नहीं थी. हमारी कॉलोनी में ही बारहों मास सत्रह गौवंश पशु और पैतीस श्वान सामूहिक विचरण करते रहते हैं. यों शहरी क्षेत्र में पशु पालन प्रतिबंधित है, क़ानून बने हैं, मगर हमारे पशु प्रेम के आगे नगर पालिका विवश हो जाती है. पहले ‘भावना’ बाद में पशु पकड़ने की कोई ‘कामना’. सो गाय माता और श्वान महाराज ने हमें जल्दी ही उपकृत कर दिया.

वहां से निवृत्त होकर हम छत पर पहुंचे. खूब ‘कांव-कांव’ का उद्घोष किया मगर दूर-दूर तक कहीं कौओं की झलक तक नहीं मिली. हार कर वहीं छत पर छाँव करके भोजन सजा आये, मान लिया कि थोड़ी देर में कौए आयेंगे और भोजन ग्रहण कर लेंगे. विश्वास जरूरी होता है ऐसे कठिन समय में . हमारे पास विश्वास के साथ आस्था भी थी. कौआ जरूर आयेगा और भोजन ग्रहण करेगा. और पिताजी की आत्मा तृप्त हो जायेगी.

साधुरामजी को बहुत मनुहार से खूब खीर खिलाई. जो उनके मार्फ़त पिताजी तक पहुँची होगी वह निश्चित ही उन्होंने अपने अधीनस्थ मोहनलाल को ट्रांसफर कर दी होगी. इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है.

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018



 
   



Saturday, September 17, 2016

परीक्षा केंद्रे हताश अर्जुन

व्यंग्य
परीक्षा केंद्रे हताश अर्जुन
ब्रजेश कानूनगो

हे केशव! जब परीक्षा केंद्र में मेरे सामने आदरणीय गुरुवर घूम रहे हों, मेरे सहपाठी बंधु-बांधव  किताबें खोल खोल कर नकल करने को तैयार बैठे हों, प्रश्नपत्र देखकर मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा हो, मेरे हाथों से पेन छूटा जा रहा हो, खुले पेन की स्याही सूख रही हो. अब तुम ही बताओ ! मैं प्रश्न पत्र को कैसे हल करूं? मेरी इच्छा हो रही है कि मैं परीक्षा हॉल से उठकर तुरंत बाहर चला जाऊं और सरकार से बेरोजगारी भत्ते की मांग कर उसका इंतज़ार करता  किसी तालाब के किनारे बैठ कर मछलियां पकड़ता रहूं.

हे अर्जुन! तुम बेकार चिंता कर रहे हो. इस तरह परीक्षा हाल से बाहर चले जाने से तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा. मछलियां पकड़ना तुम जितना आसान समझ रहे हो वह भी उतना आसान भी नहीं है. पहली बात तो तालाबों में पानी ही नहीं है और दूसरी बात, आजकल मत्स्य विभाग द्वारा मछलियां पकड़ना प्रतिबंधित किया हुआ है. बेरोजगारी भत्ता भी इतना नहीं है कि जो तुम्हारे जीवन यापन के लिए पर्याप्त हो. तुम उन विदेशी बेरोजगारों की तरह नहीं हो जिन्हें सरकार से इतना भत्ता मिल जाता है कि वे आराम से किसी दूसरे मुल्क में जाकर ऐश कर सकते हैं. इसलिए हे पार्थ !  तुम एक बार ठंडे पानी से मुंह धो कर आओ और प्रश्न पत्र को हल करने का प्रयत्न करो. यही परीक्षार्थी का धर्म है.

किंतु हे माधव! जब चारों और मेरे सखा किताबें खोल खोल कर नकल कर रहे हों, तब क्या यह उचित होगा कि मैं अपने स्व-ज्ञान से प्रश्नपत्र हल करने की कोशिश करूँ?  क्या मेरे अपने लिखे उत्तर परीक्षक की कुंजी से मेल खा सकेंगे? क्या वह उत्तरों को सही मानकर मुझे उत्तीर्ण कर देगा? मुझे नहीं लगता कि ऐसा होगा प्रभु!  इस अवस्था में मैं अपने आप को परीक्षा हॉल से बाहर जाने से रोक नहीं पा रहा हूँ.

हे भारत !  तुम निराशा में डूब गए हो. निराशा मानव की बुद्धि को नष्ट करती है. और बगैर बुद्धि के आदमी बेवकूफी की बातें करने लगता है. तुम इस निराशा से ऊपर उठो और अपने सखाओं की तरह पुस्तक खोलो और परीक्षा क्षेत्र में कूद पड़ो. जब नकल करना इस युग की परीक्षा पद्धति की एक अनिवार्य क्रिया बन ही चुकी है तब उससे दूर भागना बुद्धिमान परीक्षार्थी को शोभा नहीं देता.
हे धनंजय ! वीर तेजस्वी छात्र पुस्तक खोलने से नहीं घबराता. बस सही प्रश्न का सही उत्तर पुस्तक में ढूंढ निकालो. तुम समझदार हो, मगर भोले हो. गुरुजनों से कैसी झिझक !  वर्ष पर जब उन्होंने तुम्हें पढ़ाया ही नहीं है तो उन्हें नकल करने से रोकने का कोई नैतिक अधिकार भी नहीं है. तुरंत एक खंजर टेबल पर गाड दो और कूद पढ़ो इस परीक्षा रूपी वैतरणी में, और पार कर डालो तुरंत.

हे माधव !  मुझे तैरना नहीं आता.
हे अर्जुन !  तैरना आना उतना आवश्यक नहीं है, जितना बहती नदी में कूद पड़ना. आज तुम्हें जो तैरते हुए नजर आ रहे हैं वे भी तैरना नहीं जानते थे. तुम भी जब इस नदी में कूद पड़ोगे,  अपने आप तैरने लगोगे. इसलिए हे पार्थ ! नदी में डूबने की चिंता छोड़ो. बस कूद पडो इस समय यही उचित है.
हे देवकीनंदन ! क्या इस तरह परीक्षा उत्तीर्ण करने से मैं अपने आप को धोखा नहीं दूंगा? क्या मैं अपने आप से शर्मिंदा नहीं हो जाऊंगा? क्या जीवन पर्यंत यह दुष्कृत्य मेरे लिए बोझ नहीं बन जाएगा?

हे अर्जुन ! जब लोग एक दूसरे से नहीं शर्माते हैं. ऐसे वक्त में अपने आप से कैसी शर्म? इस झिझक का क्या अर्थ है? बेशरम का पौधा बगैर खाद पानी के किस तरह फलता-फूलता है ये कौन नहीं जानता. बेशर्मी कलयुग का एक अलंकार है, श्रृंगार है.इसको धारण करने वाला दुनियादार माना जाता है. इसलिए हे पांडु पुत्र ! बेशर्मी से नाता जोड़ो, युग धर्म का निर्वाह करो. यही तुम्हारे हित में है. जब सब नकल कर्म में जुटे हों, तब तुम्हें भी वह धर्म निभाना चाहिए. तुम भी इसी समाज का हिस्सा हो. समुद्र में जो मछली तैरने से मनाकर देगी उसे रसातल में बेसुध हो ही जाना है.

एकाएक अलार्म घड़ी की घंटी से मेरी नींद खुल गई. छः बज रहे थे. सात बजे मेरी परीक्षा प्रारंभ होने वाली थी. मैं जल्दी-जल्दी तैयार हुआ. पूजाघर में रखी कृष्ण की तस्वीर को प्रणाम किया और परीक्षा केंद्र की ओर अपनी मोटर साइकिल दौड़ा दी.  परीक्षा कक्ष में स्वप्न में देखे दृश्य हू-बहू नजर आ रहे थे. मैं निर्णय नहीं ले पा रहा था कि अपने मन में स्थित कृष्ण के कहे पर पर अमल करूँ या कर्मयोगी मुरली मनोहर माधव के कुरूक्षेत्र के रण में अर्जुन को दिए उपदेशों का पालन करते हुए, स्व-ज्ञान से परिणाम की अभिलाषा किए बगैर प्रश्नपत्र हल करने में जुट जाऊं.

ब्रजेश कानूनगो

503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018

Thursday, September 15, 2016

आदेश और आदेश

व्यंग्य
आदेश और आदेश
ब्रजेश कानूनगो  

लाखों शिव मंदिरों में भगवान भोलेनाथ के सामने नंदीगण केवल इस प्रतीक्षा में बैठे हैं कि आदेश हो तो वे उठ खड़े हो. बगैर आदेश के पत्ता भी नहीं खड़कता . तब वे कैसे खड़े हो सकते हैं, और फिर भगवान भोले भी लंबी समाधि लगाए बैठे हैं. वह कोई भारतीय प्रधानमंत्री तो हैं नहीं कि लाल किले की प्राचीर से आदेश दें कि उठो  नंदियों- गरीबी हटाओ और सारी व्यवस्था फावड़ा-कुदाली लेकर गरीबी हटाने में जुट जाएं. आदेश दें कि विचार करो और समूचा राष्ट्र विचार मग्न हो जाए, स्वच्छता के सन्देश के लिए आदेश दें कि राष्ट्र की गन्दगी दूर करो  और समूचा देश झाडुएँ थामें सड़कों पर उतर आएं.

आदेश नागरिक की रगो में रक्त संचार और ऊर्जा के उत्पादन के लिए आवश्यक उत्प्रेरक है. आदेश के अभाव में व्यक्ति मात्र एक रोबोट है. आदेश रूपी बटन के दबते ही वह गतिमान हो जाता है और आदेश के पालन में जुट जाता है.

भगवान भोले को आदेश देने का अधिकार है वहीं नंदी, गणेश, कार्तिकेय वगैरह द्वारा आदेश का पालन करना उनका धर्म है कर्तव्य है. आदेश होता है दुनिया की परिक्रमा करिए. कार्तिकेय दौड़ पढ़ते हैं अराउंड द वर्ल्ड, उधर गणेश भारी भरकम शरीर के स्वामी. दौड़ना नामुमकिन. तुरंत शरीर की बजाय बुद्धि दौड़ाई और लगा दिया माता-पिता का चक्कर. हो गया वर्ल्ड टूर. अपनी चतुराई और वाक्-पटुता से आदेश देने वाले पैरेंट्स को प्रभावित किया और जीत गए मैराथन. गणेश स्टाइल में आदेश का पालन करने वाले भगवान भोले को प्रिय होते हैं. उनकी गोद में बैठने के हकदार होते हैं. कार्तिकेय की नियति दुनिया का चक्कर लगाते रहना ही है. क्षण भर बैठने, सुस्ताने का समय नहीं है. और ना ही उन्हें दूर दूर तक कोई ठौर नजर आता है.

गुरुकुल में राजकुमार बैठे हैं. आदेश होता है पाठ याद किया जाए- सदा सच बोलो, क्रोध न करो. युधिष्ठिर पाठ याद करने और उनके क्रियान्वयन में जुट जाते हैं. आदेश का पालन दूसरे राजकुमार भी करते हैं लेकिन साथ-साथ अपना धनुष बाण भी चलाते रहते हैं. स्वयंवर में अर्जुन ने मछली की आंख का निशाना लगा कर गुरु और गुरूकुल का नाम रोशन कर दिखाया और युधिष्ठिर सिर्फ सच ही बोलते रह गए. इतिहास की सीख आज अर्जुन ही  अर्जुन नजर आते हैं. आदेश का पालन तो करते हैं मगर मछली की आंख का निशाना लगाने का अपना निजी अभ्यास भी जारी रखते हैं.

आदेश पालन एक हार्मलेस प्रक्रिया है. पालन करने वाले को कोई नुकसान नहीं उठाना पड़ता. आदेश होता है- आन्दोलनकारियों पर  लाठी चलाओ. पुलिस वालों को निश्चिंत होकर प्रहार करने में कोई कष्ट नहीं है, उनका कोई क्या बिगाड़ लेगा. पता आदेश देने वाले का पूछा जाएगा कि भाई किसके आदेश से लाठियां बरसाई गई. आदेश होता है वृक्षारोपण करिए. चारों ओर गड्ढे ही गड्ढे और छोटे छोटे से मुरझाए से पौधे नजर आने लगते हैं. अब अगर बगैर देखभाल के पौधे सूख जाते हैं या बकरियां चर जाती हैं तो जवाब आदेश देने वाले से मांगा जाएगा कि जनाब क्या हुआ आप के आदेश का? कहां है हरियाली आदेश पालन से अगर परिणाम अप्रिय आता है तो आदेशक कोसा जाएगा, यदि परिणाम अच्छा निकलता है तो आदेश देने वाले और आदेश का पालन करने वाले दोनों की वाहवाही होती है. मसलन मेहमान बैठे हैं, बेबी को आदेश होता है- बेटे आंटी को पोयम सुनाओ. बेबी आदेश का पालन करते हुए कुछ अंग्रेजी शब्द उगलती है. मेहमानों के सामने बेबी की प्रतिभा तो प्रदर्शित होती ही है, साथ ही डैडी-मम्मी का सीना भी गर्व से दो  इंच फूल जाता है.

बहरहाल, घर से लेकर दफ्तर बाजार से लेकर फ़ौज तक आदेश दिए जाते हैं, आदेश लिए  जाते हैं. कोई पालन करता है, कोई पालन करता हुआ प्रदर्शित करता है. सिलसिला जारी है, जारी रहेगा.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018


छोटे भाषण के बड़े विषय

व्यंग्य
छोटे भाषण के बड़े विषय 
ब्रजेश कानूनगो

'क्या बात है साधुरामजी बड़े चिंतित नजर आ रहे हैं।मैंने साधुरामजी से पूछा।
'
चिंता क्या! नाक ही कट गई हमारी तो।' वे झल्लाते हुए बोले। 'भला ऐसा क्या पहाड़ टूट पड़ा।मैंने पूछा तो वे बोले ' हमारे शहर के कॉलेज का कोई छात्र अंतर महाविद्यालयीन भाषण प्रतियोगिता में  भाग नहीं ले सका इस बार।क्या कॉलेज में छात्र वक्ताओं का अभाव हो गया था या प्रतियोगिता ही निरस्त हो गई।'  मैंने जिज्ञासा व्यक्त की।  'विषय की कठिनता के कारण कोई छात्र प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए तैयार ही नहीं हुआ।' उन्होंने बताया। 
'ऐसा कौन सा विषय था जिस पर अमूमन ‘बहुत बोलने वाली’ यह नई पीढी के लिए बोलना इतना कठिन हो गया।' मैंने जानना चाहा तो साधुराम जी ने बताया- ‘वाट्सएप के माध्यम से जनजागृति और समाज कल्याण में फेसबुक जैसे नए माध्यमों का सदुपयोग। 

'
हे भगवान ! इतना बड़ा और इतना कठिन विषय।' मैं  आश्चर्य से बोल उठा।
'
क्या खाक कठिन विषय है!साधुरामजी बोले-  ‘दिन भर लगे रहतें हैं सोशल मीडिया पर, आँखें मोबाइल से हटती नहीं,..खाने –पीने तक की चिंता नहीं रहती..और जब इसी बात पर बोलने का वक्त आता है तो रणछोड़दास बन जाते हैं..' नई पीढी के वैचारिक खोखलेपन पर उनका दर्द ऊंची आवाज में बाहर आया।

'साधुरामजी, भाषण पर भाषण देना सरल है लेकिन किसी निश्चित विषय पर भाषण देना बहुत कठिन होता है। छात्र तो क्या इस विषय पर आप स्वयं भी बगलें झांकने लगेंगे।' मैंने उन्हें शांत करने की कोशिश की।
'भाषण के विषय भले ही बड़े हो, परंतु वे आसान और अपने जीवन परिवेश से जुड़े होना चाहिए। भाषण, भाषण होता है कोई शोध-प्रबंध तो है नहीं कि इतना लंबा चौड़ा क्लिष्ट विषय रखा जाए।' मैंने आगे कहा।
'
तो क्या हम अभी भी 'चांदनी रात में नौका विहार' ,'कृषि प्रधान भारत में आबादी की समस्या,' विज्ञान वरदान या अभिशाप,' जैसे पुरातन विषयों पर ही प्रतियोगिताएं आयोजित करते रहें।' साधुरामजी बोले।
'नहीं, मेरा मतलब यह नहीं है, बहुत से सरल और साधारण विषय भी हो सकते हैं जो हमारे छात्रों के सामर्थ्य और रुचि के अनुकूल हों ।मैंने कहा।

‘और फिर भाषण तो भाषण होता है साधुरामजी, कोई शोध-प्रबंध तो है नहीं कि यहाँ-वहां से टीप-टाप कर लिख दिया, वरना पुरानी थीसिस में निशाँ लगाकर अपना शोध-प्रबंध पूरा करने में उन्हें महारत हासिल है ही. इतना लंबा चौड़ा क्लिष्ट विषय रखने की क्या जरूरत थी? ऐसे विषयों पर  लगाम लगानी होगी वरना आगे से आयोजकों का दुस्साहस और बढेगा. और वे भविष्य में 'नारी के अत्याचार में देश की आदिकाल से प्रचलित सामाजिक व्यवस्था जिम्मेदार है,  चुनाव प्रचार और सभाओं में खाटों आदि के बढ़ते नवोन्मेष प्रयोग, महंगाई के दौर में दालों के विकल्प के रूप में विटामिन युक्त वनस्पति और नए कंदों की खोज, आदि-आदि.. जैसे लम्बे-लम्बे विषय निर्धारित करने लगेंगे.’  मैंने कहा तो साधुरामजी गुस्सा करते अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए बोले- 'चलता हूँ, बच्चों को एक भाषण प्रतियोगिता के लिए जरा तैयारी करवानी है; जल्दी में हूँ.' 

'यह तो बताते जाइए भाषण का विषय क्या है और कितना बड़ा है?'  मैंने चुहुल करते हुए पूछा । ‘ऋण लेकर देश से बहिर्गमन करते कॉर्पोरेट्स और आत्महत्या करते किसानों के अंतरसंबंधों का सामाजिक पक्ष.’   उन्होंने बताया और अपनी फिशरकिंग मोपेड की चाबी घुमा दी।


ब्रजेश कानूनगो
503,
गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क,कनाड़िया रोड,इंदौर-452018




ढूंढ सके तो ढूंढ

व्यंग्य
ढूंढ सके तो ढूंढ 
ब्रजेश कानूनगो

जो व्यक्ति अरसे से फिल्मों का विरोधी रहा हो, टीवी  को बुद्धू बक्सा कहता हो, अचानक सिनेमा और टीवी की तकनीक पर मोहित हो उठे। अभिनय को जिंदगी की वास्तविकता से दूर निरुपित करने वाला शख्स, बात-बात पर अभिनय से लेकर फिल्मांकन से जुडे तमाम  तकनीकी विषयों पर चर्चा करने लगे तो उसमें आया ऐसा  परिवर्तन उसके हितैषियों  के लिए चिंता की बात  हो जाना स्वाभाविक  है । साधुरामजी के साथ भी कभी ऐसा ही हुआ था। किस्सा  उस समय का है जब  भारत में टीवी नया नया ही आया था।

उस दिन रविवार था। मैं उनके घर पहुंचा तो वे  रामायण धारावाहिक देख रहे थे । मैं चुपचाप उनके पास बैठ गया।
'देखो यह ट्राली शॉट है।साधुरामजी अचानक बोल उठे । मैंने कोई जवाब नहीं दिया। तभी रामायण सीरियल के उस दिन के एपिसोड में इंद्रजीत के शव को एक स्ट्रेचर नुमा पालकी में रखकर चार लोग उठा कर ले जाने लगे तो साधुरामजी फिर बोले- 'इंद्रजीत के रूप में यह मूल कलाकार का डुप्लीकेट है, यह एक एक्स्ट्रा कलाकार है जो लेटा हुआ है।' इसी तरह धारावाहिक के दौरान पूरे समय  साधुरामजी तकनीक और अभिनय पर अपनी विशेषज्ञ टिप्पणियां देते रहे। मैं मन ही मन सोचता रहा कि आखिर ऐसा क्या हुआ जिससे अचानक साधुरामजी में  फिल्मांकन कला और उसकी  तकनीकी जानकारी का इतना बौद्धिक फव्वारा फूट पड़ा था। मैंने उनके मन को टटोलना चाहा और पूछा- 'पिछले दिनों आप कहीं बाहर गए थे शायद !' 
'
हां ,शूटिंग पर गया था।' उन्होंने बताया।
'
क्या किसी फिल्म की शूटिंग देखने गए था?' 
मैंने थोड़ा आश्चर्य से पूछा। 
'
हाँ, उमरगांव रामायण की शूटिंग पर गया था।उन्होंने कहा। 
'
अच्छा! रामायण धारावाहिक की शूटिंग देखने गए थे आप  वहां ' मैंने बात आगे बढ़ाई 
'
शूटिंग देखने नहीं, शूटिंग में भाग लेने गया था।' वे बोले।
'
अरे वाह!  रामायण धारावाहिक में काम करने के लिये बहुत-बहुत बधाई भाई। अब आपके कैरियर में  एक नया मोड़ आएगा, इस लोकल राजनीति से सिनेमा और टीवी  का कैनवास ज्यादा विशाल है  प्रतिभा प्रदर्शन के लिए।'   मैंने कहा तो वे मुस्कुरा दिए।
'
आपके अभिनय वाला हिस्सा टीवी  पर कब तक आएगा?मैंने जिज्ञासा व्यक्त की तो वे बोले-   'शायद  अगले रविवार  को  ही  आप  मुझे छोटे पर्दे पर  देख सकेंगे।
एक सप्ताह बाद जैसे ही दूरदर्शन पर  रामायण धारावाहिक  शुरू हुआ, हमारा पूरा परिवार आंखें गड़ाए, साधुरामजी को  उसमें  शॉट दर शॉट खोजने लगा।  महाबली रावण  रथ पर सवार हुआ।  'जय लंकेश!' के घोष के साथ  लंका का पश्चिमी द्वार खुलते ही रावण के खूँखार सैनिक और  श्रीराम के वानर सैनिक एक दूसरे पर टूट पड़े। 

हम हर अभिनेता को  ध्यान से  देख रहे थे।  तभी अचानक  मेरी छोटी बिटिया  चिल्ला पड़ी - 'वह रहे! पापा, साधु अंकल ' 'कहां-कहां?'   'वह, वह। आगे से तीसरी पंक्ति में बांये से तीसरे गदा उठाएं, पूछ लगाएं। अरे ! वे  गिर पड़ेकिसी राक्षस ने उन्हें तलवार से घायल कर दिया है.. वे  अब नहीं दिख रहे पापा।'   
तभी महेंद्र कपूर की बुलंद आवाज में समापन चौपाई  'मंगल भवन अमंगल हारी' गूंजने लगी. उस दिन का एपिसोड समाप्त हो गया। 

मेरा दुर्भाग्य रहा कि  मैं अपने परम मित्र साधुरामजी के अभिनय की झलक तक चाहकर भी अंततः नहीं देख पाया। यह दुःख आज तक बना हुआ है. परंतु मुझे  यह जरूर समझ में आ गया  था कि साधुरामजी के कन्धों  पर  उन  दिनों अभिनय का वानर क्यों चढ़ा हुआ था।  साथ ही इस बात का भी विश्वास प्रबल हुआ था कि और भी कई साधुरामजी  जैसे अभिनेता इस रोग से पीड़ित हो रहे होंगे।  और उनके बहुत से मित्र  हर रविवार राम और रावण को देखने सुनने की बजाए  आगे से चौथी पांचवी पंक्ति के छठे सातवे नंबर पर  अपने अभिनेता दोस्त को तलाश करते करते बेहाल हो रहे होंगे। किसी को उअनकी पूंछ दिखी होगी तो किसी को उनकी गदा या तलवार.

ब्रजेश  कानूनगो
503,
गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क,कनाड़िया रोड, इंदौर - 452018


हम समुद्र को बचाना चाहते हैं

व्यंग्य
हम समुद्र को बचाना चाहते हैं  
ब्रजेश कानूनगो

नमक को लेकर हम लोग बहुत चिंतित रहते हैं। एक कवि ने तो कहा भी है कि हमें समुद्र को बचाना चाहिए क्योंकि  सारा नमक वहीं से आता है। कवि समुद्र को बचाने की बात करता है। बड़ी बात करता है वह।  यही दृष्टि उसे बड़ा और महत्वपूर्ण कवि बनाती है। साहित्य और कविता में ही नहीं जीवन में भी नमक का बड़ा महत्त्व है. नमक के बिना सब बेस्वाद होता है।

डॉक्टरों का हमेशा जोर रहता है कि लोग नमक से परहेज करें। इनकी बातों में आकर कल कहीं नमक पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो हम हिंदुस्तानियों का तो आधा खून ही  सूख जाएगा। हमारे  चेहरों की चमक और जोश इस नमक के कारण ही तो कायम  है। नमक का विज्ञापन जब-जब टीवी पर आता है, मेरा रक्तचाप बढ़ने लगता है. पांच रुपयों की वही नमक की थैली अब पच्चीस में जो मिलने लगी है. आप तो जानते ही हैं हरेक वजनदार विज्ञापन हमारी जेब को हल्का बना देता है.

कुदरती तौर पर शरीर में भले ही मौजूद होता है मगर ‘नमक’ तत्व भोजन से होते हुए जीवन में समाहित होता चला जाता है पहले जिह्वा पर उसके करिश्में होते हैं, फिर हमारे संस्कारों और आचरण में भी लगातार उसके जलवे दिखाई देने लगते हैं.

चाट, पकौड़ी, कचोरी ,समोसा, क्या बगैर नमक के इनकी  कल्पना की जा सकती है ? क्या बगैर नमक के  जीवन में कोई आनंद है। वह लोग भी भला कैसे जीते होंगे जिन्हे  नमक खाने से मना किया गया होता है। वह जीना भी कोई जीना है।

एक पड़ोसन  जब दूसरी पड़ोसन से  बात कर रही हो  तब चुपके से ज़रा उसका आनंद लीजिए.   मूल बात कैसी भी बोरिंग रही हो लेकिन नमक लगा लगा कर उसका बड़ा ही चटकारेदार  स्वरूप सुनने को मिलेगा. अपने दफ्तर के बड़े बाबू से अपने बॉस की कोई  कमजोरी पर बात करके देख लीजिए. फिर देखिये नमक का कमाल !  दूसरे दिन आपको बॉस का प्रेम-पत्र मिलना सुनिश्चित है.

यह  नमक बड़ा महा प्रतापी होता है. कई टीवी चैनल इसी की वजह से छाये रहते हैं और अपनी रोजी-रोटी को बनाए रखते हैं.  एक चैनल के संपादक को इसलिए निकाल दिया गया  कि वह खबरों में पर्याप्त नमक नहीं लगा रहा था . बाद में एक युवा रिपोर्टर को वरिष्ठ सम्पादक बना दिया गया क्योंकि वह  पहले नमक इकट्ठा करता था , फिर थोड़ी सी  खबर भी नमक के साथ प्रसारित कर देता था. नमक बड़ा ताकतवर होता है तथा किसी भी व्यक्ति को उठा-गिरा सकता है.
एक मंत्री महोदय ने अपने एक निकट संबंधी अफसर का स्थानांतरण उपजाऊ क्षेत्र में करवा कर उसको एवं उसके परिवार वालों को  नमक प्रदान किया.  बाद में  उन्हीं मंत्री महोदय के सत्ता से बाहर हो जाने पर अफसर ने मंत्रीजी के परिजनों को जहां-तहां  नौकरियां देकर  नमक का हक अदा कर दिया .  नमक अपना हक मांगता है. कोई नमकीन समोसा खिला कर अपना काम करवाना चाहता है तो आप उसे निराश कर ही नहीं सकते.

नमक का उपयोग अस्त्र के रूप में भी पर्याप्त रुप से किया जा सकता है. अगर आपको अपने विरोधी की कोई दुखती रग नजर आये तो उस पर तुरंत नमक रख दीजिए, वह तिलमिला उठेगा. उसका तिलमिलाना आपकी आत्मा को विशेष ठंडक पहुंचाएगा. केवल ध्यान इतना जरूर रखना होगा कि कहीं सामने वाला आपकी किसी दुखती रग या घाव न देख ले. क्योंकि पहले मारे सो मीर.

चारों ओर नमक का साम्राज्य दिखाई देता है. लोगों के लिए अलग-अलग धर्म स्वैच्छिक और निजी आस्था के भले ही हो सकते हैं, मगर ‘नमक का धर्म’ सभी में व्याप्त है. इसीलिए नमक को बचाने की चिंता में हम समुद्र को बचाना चाहते है.

ब्रजेश कानूनगो

503, गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर -452018