Sunday, September 11, 2016

सफ़र में समाधि

व्यंग्य
सफ़र में समाधि
ब्रजेश कानूनगो

अर्जुन जब निशाना लगाता था तब उसे सिर्फ चिड़िया की आँख नजर आती थी. अर्जुन योगी था और योगी जब ध्यान लगाता है तो उसे सिवाय अपने लक्ष्य के कुछ और नजर नहीं आता. उसका दिमाग शून्य में पहुँच जाता है. अर्जुन का लक्ष्य उस समय चिड़िया की आँख थी, जैसे सिद्धार्थ का लक्ष्य सत्य की खोज था.

एक दिन सफ़र करते हुए हम भी योगी हो गए. हमारा दिमाग शून्य में पहुँच गया. वहां केवल एक लक्ष्य, एक सत्य बचा रहा –कंडक्टर महोदय से टिकट के बाद बचे हुए पैसे प्राप्त करना. हम तीन व्यक्ति थे, मैं, पत्नी और हमारी माताजी, एक ऐसे बस स्टॉप से बस में चढ़े थे जहां पर यात्रा टिकट खिड़की से नहीं मिलता था. चलती हुई बस में कंडक्टर से हमने तीन टिकट प्राप्त किये और बदले मे पांच सौ रुपयों का एक नोट थमा दिया. टिकट के बाद बचे हुए रुपयों को प्राप्त करने के लिए हम उनकी ओर टुकुर-टुकुर देखने लगे जैसे कोई बच्चा अपने पापा को टॉफी का रैपर खोलते देखता है. मगर कंडक्टर महोदय बगैर हमारी ओर ध्यान दिए आगे बढ़ गए.

हमने सोचा, कुछ देर में वे शायद लौटते हुए बचे हुए दो सौ रुपये लौटा देंगे, मगर ऐसा नहीं हुआ. वे पिछली सीट से नए यात्रियों के टिकट बनाते हुए सबसे आगे की सीट तक पहुँच गए. जब-जब वे हमारी सीट के नजदीक से गुजरते, पत्नी की ख़ूबसूरत कोहनी हमारी कमर में बरछी की तरह चुभती. टिकटें बनाकर वे आराम से अपनी सीट पर जा विराजे और सिगरेट सुलगाकर उसका धुँआ बस में लिखे वाक्य ‘धूम्रपान वर्जित है’ पर उड़ाने लगे.

अब हमें न तो बस की खिड़की के बाहर की हरियाली का आभास हो रहा था और न ही पचास रुपयों में खरीदी चिकनी और दर्शनीय पत्रिका के पन्ने पलटने को मन कर रहा था. हम अर्जुन हुए जा रहे थे. हमें सिर्फ कंडक्टर का रुपयों वाला बैग नजर आ रहा था. बैग में कंडक्टर का हाथ प्रवेश करता और वापिस निकलता तो उसमें कुछ नोट होते. हमारी आँखें खुशी से चमक उठतीं. कंडक्टर नोटों की तह करके गड्डी बनाने लग जाता. हम अपने आपको दिलासा देने लगते कि शायद हिसाब मिलाकर वह हमारे बचे हुए रूपए लौटा देगा. परन्तु ऐसा भी नहीं हुआ. नोटों की गड्डी बनाकर, रबर बैंड लगाकर उसने पुनः बैग में डाल लिया और धुंए के छल्ले बना-बनाकर उनमें अपनी तर्जनी डालने लगा.
अचानक वह अपनी सीट से उठा. हमें लगा, अब शायद यात्रियों के पैसे लौटाने लगेगा. लेकिन उसकी उंगली ऊपर नीचे होने लगी. वह यात्रियों की गिनती कर रहा था.
हमारी अगली सीट पर बैठे ग्रामीण के सब्र का बाँध जब टूट गया तो उसने कंडक्टर से अपने बचे हुए पैसे मांग लिए. लेकिन कंडक्टर ने उसे ऐसे डपट दिया जैसे वह महंगाई भत्ते की अतिरिक्त किश्त मांग रहा हो.
‘’लिख दिया है टिकट पर, उतरते समय ले लेना.’ बतर्ज एक किश्त स्वीकृत कर दी है, प्राविडेंट फंड में जोड़ दी है ,रिटायरमेंट पर ले लेना.

हमने कंडक्टर की नज़रों से बचाकर जेब से टिकट ऐसे निकाले जैसे कोई परीक्षार्थी इम्तिहान के समय चिटें निकालता है. सचमुच उनमें से एक टिकट पर पांच सौ बटे तीन लिखा था. हम मन ही मन प्रसन्न हुए, जैसे बम विस्फोट के समय चौराहे पर न रहे हों. अच्छा हुआ हमने पैसे नहीं मांगे वरना अगले यात्री की तरह अपमानित होना पड़ता. संतोषी सदा सुखी.

हम कंडक्टर की आँखों में आँखें डालकर पुनः मुस्कुराने लगे, इस आशा से कि शायद दुष्यंत को शकुन्तला की याद आ जाए, लेकिन दुष्यंत पुनः अपनी सीट पर जा बैठा और बस से नियमित सफ़र करने वाली शकुन्तलाओं से गुटनिरपेक्ष चर्चा करने लगा.

हमारा दिमाग सिवाए लौटाए जाने वाले पैसों के अतिरिक्त कुछ नहीं सोच पा रहा था. हम अर्जुन हुए जा रहे थे. कहीं ऐसा न हो कि गंतव्य पर हम बगैर पैसे लिए ही उतर जाएँ. कहीं भूल न जाएँ, इस भय में हम सारा संसार भूल चुके थे. ताजमहल कहाँ है, प्रधानमंत्री  कौन है, हमारे पास कौन बैठा है, कुछ याद नहीं रहा. याद सिर्फ यह रहा कि कंडक्टर से दो सौ रुपये प्राप्त करना है.

अचानक वह फिर उठा और हमारी ओर ही आने लगा. हम फिर से उसकी नज़रों से नजरें मिलाने लगे. वह हमारी सीट के पास आकर खडा हो गया. बैग में हाथ डाला, एक सौ रुपयों का नोट निकाला और पीछे वाली सीट पर बैठी महिला की ओर बढ़ा दिया. ऐसा लगा ’लक्ष्मी सुपर बम्पर लाटरी’ का पहला पुरस्कार एक नंबर पीछे वाले टिकट पर खुल गया हो.

मैंने सोचा, मान लो ऐसी ही किसी यात्रा में बस का अपहरण हो जाए और डाकू लूट लें तब यात्री अपने पैसे वैधानिक रूप से किससे वसूल करने की पात्रता रखता है? आशा है दूरदर्शन  का ‘कानूनी सलाह’ कार्यक्रम इस प्रश्न का उत्तर जरूर दे सकेगा.

चार घंटों के सफ़र में क्या हुआ, बस किन सुरम्य रास्तों से होकर गुज़री, मैं कुछ नहीं बता सकता क्योंकि मैं उस समय समाधि की स्थिति में पहुँच गया था. अपने सत्य की तलाश में जुटा था – ‘ऐसी कौन-सी बात है जो कंडक्टरों को बचे हुए पैसे तुरंत लौटाने से रोकती है?’ प्रश्न अभी तक अनुत्तरित है. बेताल बनने पर राजा विक्रमादित्य के कंधे पर चढ़ कर उनसे इसका उत्तर जरूर पूछूंगा. शायद तब पता चल पाए.

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018

   

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