Wednesday, May 11, 2022

भाषणवीरों पर भारी हैं आग उगलते बकासुर

भाषणवीरों पर भारी हैं आग उगलते बकासुर 

हेटस्पीच की बड़ी चर्चा है इन दिनों। स्पीच बोले तो भाषण। ऐसा है कि 'राशन पर भाषण तो बहुत हुए पर भाषण पर राशनिंग' कभी ठीक से हो नहीं पाई। जिसे जो मन पड़ता है बक देता है। संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है लेकिन 'बकासुर' हो जाने की नहीं। बोलते बोलते कौन कितना बकासुर हुआ है यह आखिर में कोर्ट को ही तय करना पड़ रहा है। क्लीन चिट भी वही देता है। आमतौर पर इसमें चीटिंग नहीं होती, गवाह दगा दे जाते हैं। समय रहते अपराध के दाग क्लीन हो जाएं तो कोई क्या कर सकता है।


बहरहाल, बात भाषणों की ही करते हैं। सभाओं में भाषणों की समकालीन शैली का इन दिनों हर कोई कायल हो गया है। वक्ता जनता के प्रश्नों का उत्तर नहीं देते बल्कि स्वयं उनसे सवाल पूछने लगते हैं। यही भाषणों की नई और रोमांचक शैली है। ऐसा ही कुछ ख्यात फ़िल्म 'शोले' में हुआ था।


इसी कारण मैं ‘शोले’ फिल्म का भी मुरीद हो गया था। कुछ चीजों का हमारे मन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ जाता है कि उन्हें भुला पाना बहुत कठिन होता है।


पैंतालीस साल पहले धधके ’शोले’ के संवादों की गर्मी आज भी वैसी ही बनी हुई है। ‘तेरा क्या होगा कालिया?’ ‘कितने आदमी थे?’ ‘कब है होली? होली कब है?’ ‘तेरा नाम क्या है बसन्ती?’ भुलाए नहीं भूलते।


कहने को ये एक फिल्म के संवाद थे, असल में ये कुछ सवाल थे। इनके उत्तर में क्या कहा गया ज्यादा मायने नहीं रखता मगर सवाल अब तक हमारी जबान पर थिरकते रहते हैं।आमतौर पर ज्यादातर सवाल बिलकुल साफ़ और स्पष्ट रहते  हैं लेकिन उनके जवाब विविधता के साथ आते हैं। परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों में भी केवल प्रश्न ही छपे होते हैं, हर ईमानदार परीक्षार्थी यदि व्यापम शैली के अपवाद को छोड़ दें तो भी अब तक उनके भिन्न-भिन्न उत्तर ही लिखता रहा है।


आइये ! इसे ज़रा यों समझने की कोशिश करते हैं, जैसे एक प्रश्न होता है - ‘कैसा समय है?’


मैं कहूंगा- अच्छा समय है। साधुरामजी कहेंगे- कहाँ अच्छा समय है..अच्छा समय तो आने वाला है। कोई कहता है- ‘दिन का समय है। वाट्सएप  पर कनाडा से बेटा बताता है –‘नहीं पापा रात है, मगर सूरज की रोशनी है अभी यहाँ। कहीं रात में उजाले का समय है, कहीं दिन में अन्धेरा घिर आया है। अजीब समय है ! लेकिन यह स्पष्ट है कि हर व्यक्ति का अपना विशिष्ठ उत्तर संभावित है।


सच तो यह है कि अक्सर प्रश्न ही महत्वपूर्ण होते हैं, उत्तर नहीं। विद्वानों का मत भी यही रहा है कि विकास के लिए सवाल होना बहुत जरूरी है। उत्तरों की विविधता के बीच से उन्नति की पगदंडी निकलती है। सवालों के उत्तर खोजता हुआ मनुष्य चाँद-सितारों तक पहुंच जाता है। ये सवाल ही हैं जो हमारे अस्तित्व को सार्थकता प्रदान करते हैं।सही उत्तर वही जो प्रश्नकर्ता मन भाये ! ऐसे उत्तराकांक्षी सवाल करना भी एक कला है जो हर कोई नहीं कर सकता  इसके लिए गब्बर जैसा तन-मन, दमदार आवाज और स्टाइल भी होना चाहिए। सवाल पूछने की भी प्रभावी शैली होना चाहिए। जैसे भीड़ भरी सभा में अवाम से पूछा जाता है... बिजली आती है कि नहीं? तो लोग एक सुर में उत्तर देते हैं ‘नहीं.’ बिजली चाहिए कि नहीं?’ उत्तर आता है ’हाँ,चाहिए?’ ये होता है प्रश्न पूछने का प्रभावी तरीका। कोई ऐरा-गैरा क्या खा कर सवाल करेगा।


केबीसी की भारी लोकप्रियता के बावजूद मैं बिग बी के सवालों की शैली से से ज़रा कम सहमत रहा हूँ। यह भी क्या हुआ कि करोड़पति बनाने के लिए हॉट सीट पर बैठे प्रतियोगी से एक प्रश्न किया और उत्तरों के चार विकल्प दे दिए। यह तो कोई ठीक बात नहीं। एक प्रश्न हो, एक उत्तर हो। जैसे पूछा जाता है - ‘इस बार सरकार बदलना है कि नहीं.?’ उत्तर एक ही आता है- ‘हाँ, बदलना है।’ ये हुई न स्पष्टता। कोई विकल्प नहीं,कोई भ्रम की स्थिति नहीं उत्तर देने में।


यह सच है कि ‘शोले’ फिल्म के संवादों की लोकप्रियता का लंबा इतिहास रहा है।  मगर बदलाव के इस महत्वपूर्ण समय में अब पुराने रिकार्डों को ध्वस्त करने का वक्त आ गया है. इन दिनों जो डायलाग जन सभाओं सुनाई देने लगे हैं,उनसे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि अब शोले के संवादों की दहक कम पड़ गई है। और अब हेटस्पीच के बकासुरों ने तो जनसभाओं के परंपरागत भाषणों को भी पीछे छोड़ दिया है। खुदा खैर करे!!


ब्रजेश कानूनगो

डर के आगे जीत है!

डर के आगे जीत है!

ऐसा व्यक्ति ढूंढ निकालना बड़ा मुश्किल है जो नितांत  निर्भय हो। जहां किसी परिंदे ने डर के डैने  कभी फड़फड़ाए ही नहीं हों। हर प्राणी किसी न किसी चीज से डरता है। कोई तो यह कहने तक से डरता है कि वह निडर है। कल से कह दिया और दुम दबाकर भागने की नौबत आ जाए तो फिर क्या होगा।


बहरहाल, डरना हमारा प्राकृतिक गुण है,सबके स्वभाव में थोड़ा बहुत शामिल है। डर है, तो डराने वाले भी हैं। हमेशा से दो तरह के हमारे हितैषी रहे हैं। एक वो जो डराने जैसा पुण्य का काम करते हैं, ताकि यह डर भाव जो सर्वदा प्रकृति प्रदत्त है कायम रह सके। दूसरे वे होते हैं जो डबल पुण्याई करते हुए सचेत करते हैं कि भाई डरो मत। दोनों तरह के लोग हमारे कल्याण के लिए ही सोचते हैं। ये तमाम व्यवसायी हमारी डर सम्पदा का दोहन करके लाभ कमाते हैं। इनके गिरगिटिया हितोपदेश में आत्महित अधिक समाया होता है।


जैसे ही वक्त बदलता है, ये अपनी भूमिकाएं बदल लेते हैं। डराने वाले डरो मत, डरो मत का उद्घोष करने लगते हैं और  निर्भयता की सब्सिडी  देने वाला, रंग बदल कर खुद डराने लग जाता है।


ये लोग यह जताने में सफल भी हो जाते हैं  कि इनमें लोकोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी है। ये भलीप्रकार जानते हैं कि किसी राजनीतिक पार्टी विशेष के अस्तित्व की तरह किसी भी व्यक्ति को ’भय मुक्त’ नहीं बनाया जा सकता। भय समस्त प्राणी मात्र का स्थायी भाव है, इसी भाव को ये भरपूर भाव देते हैं और लोकतंत्र की मंडी में ऊंचे भाव पर इसकी बोली लगा देते हैं। 

  ये लोग यह जताने में सफल भी हो जाते हैं  कि इनमें लोकोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी है। ये भलीप्रकार जानते हैं कि किसी राजनीतिक पार्टी विशेष के अस्तित्व की तरह किसी भी व्यक्ति को ’भय मुक्त’ नहीं बनाया जा सकता। भय समस्त प्राणी मात्र का स्थायी भाव है, इसी भाव को ये भरपूर भाव देते हैं और लोकतंत्र की मंडी में ऊंचे भाव पर इसकी बोली लगा देते हैं।   


दरअसल, जो डराते हैं, वे हमारे हितैषी हैं। डरने के बाद ही आदमी मजबूत होता है। उसके भीतर साहसी हो जाने की आकांक्षा बलवती होने लगती है। असीम शक्ति का संचार होता है,और अधिक बड़ी और भयावह स्थितियों से निपटने की क्षमता विकसित होने लगती है। अब देखिए, बरसों तक केरोसिन और राशन की कतार में लगने की आदत और अनुभव ने हमारी कितनी मदद की है कि नोट बंदी की राष्ट्रीय बेला में  निहायत अनपेक्षित बैंकों की दैत्याकार लाइन में लगने की भयावह स्थितियों का हम निडर होकर सामना कर पाए। चालीस पैंतालिस वर्षों तक छोटे-मोटे घोटालों के भय से डरते हुए पिछले वृहद घोटालों को हमने हंसते-हंसते सहन कर लिया। जाली नोटों के बार बार उजागर होते बड़े बाजार ने भी अब हमारा डर कितना कम कर दिया है कि ए टी एम से चूरन वाले नोट निकलने पर हम बस मुस्कुराकर रह जाते हैं।

प्राकृतिक आपदाओं से हम डरते हैं। महामारी हमें भयाक्रांत कर देती है। महंगाई से डरते हैं। ईडी से डरते हैं, आईटी से डरते हैं। फिर भी सब कुछ चंगा है जी!!  डर के आगे जीत है। यदि विजेता बनना चाहते हैं तो डर का सामना करना होगा। डर होगा तब ही आदमी डरेगा। यदि डर ही नहीं होगा तो वह किससे डरेगा। डर पर विजय के उसके संघर्ष का क्या होगा? संघर्षों से ही जीत का सच्चा आनन्द मिलता है। बिना डरे कुछ हासिल हो जाए तो मजा नहीं। इसलिये डर भी जरूरी है, डरना भी जरूरी है। डर से मुक्ति का संघर्ष भी जरूरी है।


डर का कोहरा छटने के बाद सूरज के दर्शन होते हैं। डर रात का अँधेरा है, सुबह उजियारा लाती है। सूरज की रौशनी में सब साफ़ दिखाई देने लगता है। क्या मोहक है और क्या डरावना है। अँधेरे में तो सुंदर भी खौफ़नाक हो जाता है। खुद आदमी अपने अक्स से डर जाता है। 


ब्रजेश कानूनगो