व्यंग्य
प्रवक्ता और सवाल
ब्रजेश कानूनगो
किसी भी राजनीतिक पार्टी में परम्परागत रूप से दो तरह के लोगों का
समावेश रहता आया है. कुछ नेता होते हैं और अधिकाँश को कार्यकर्ता माना जाता है. यह
अलग बात है जब नेताजी को पार्टी हाईकमान उनके दायित्वों से किसी कारणवश मुक्त कर
देता है तो वे पार्टी के स्वघोषित ‘सिपाही’ के रूप में पार्टी का हिस्सा बने रहते हैं. किन्तु यह केवल अपने आपको
सांत्वना देना भर ही होता है. वस्तुतः पार्टी मार्केट में उनका सूचकांक उच्च शिखर
से गिरता हुआ जमीन से आ मिलता है.
पार्टी का नेता जब कोई रास्ता दिखाता है तो सारे कार्यकर्ता उसका
अनुगमन करने लगते हैं. यही उनका धर्म होता है. नेता जब कोई शंखनाद या उद्घोष करता
है तो सभी कार्यकर्ता नगाड़े बजा ताल देकर उसे चहुँओर विस्तारित करने की कोशिश करते
हैं. नेता के मुख्य स्वर में कार्यकर्ताओं की संगत से पार्टी का राग मोहक बन
उठता है. सदा से यही होता रहा है.
लेकिन जब से देश में इलेक्ट्रोनिक मीडिया का नव साम्राज्य स्थापित हुआ
है, पुराने मानक बदलने लगे हैं. संघर्ष और आन्दोलन पहले की तरह जमीन पर
नहीं दिखाई देते. अब टेलीविजन के स्क्रीन पर युद्ध होते हैं. जब प्रतिद्वंदी की
किसी भी छवि या अर्जित सम्मान के शिखरों को ध्वस्त किया जाना आवश्यक हो जाता है तब
इतिहास की गर्त में दबे सुप्त प्रसंगों के बमों को यहाँ चिंगारी दिखाई जाती
है. आग उगलते बयानों की धधकती मिसाइलें विरोधियों पर दागी जाती हैं. और तो और
न्यायालयों में जाने से पहले ही विवादों को टीवी चैनलों की खौफनाक जिरह का सामना
करना पड़ता है. सर्वज्ञानी एंकरों के चीखते सवालों का जवाब देना न तो किसी
कार्यकर्ता के बस में होता है और न ही किसी ईमानदार नेता की प्रतिष्ठा के अनुकूल.
ऐसे में इस नई परिस्थिति के मुकाबले के लिए एक नया चरित्र उभरकर सामने आया है, वह है- ‘पार्टी प्रवक्ता.’ असली सिपाही तो यही
होता है जो पार्टी नेतृत्व और विचारधारा की रक्षा के लिए विपक्ष की धुंवाधार
गोलीबारी के बीच भी अपनी बन्दूक चलाता लगातार डटा रहता है.
‘प्रवक्ता’ की भूमिका मीडिया आधारित राजनीति में इन दिनों बहुत अहम हो गयी है. इसका
कहा ही आम लोगों तक पार्टी के कहे की तरह पहुंचता है. बहुत कुशल और प्रतिभावान के
चयन के बावजूद इस प्राणी की स्थिति टीवी पर अक्सर बहुत ही नाजुक बनी रहती है.
तर्क-कुतर्क के कई दांव पेंच आजमाते हुए यह लगातार अपने प्रतिद्वंदी को परास्त
करने के उपक्रम में जुटा रहता है. बल्कि यों कहें इस जुझारू योद्धा को
चौतरफा आक्रमणों का मुकाबला अकेले ही करना होता है. टीवी बहस में उपस्थित
विचारकों के प्रस्तुत तथ्यों, विरोधी प्रवक्ता द्वारा कब्र खोदती टिप्पणियों, सहयोगी दल की नासमझ
अपेक्षाओं और महा ज्ञानी एंकर की स्पीड ब्रेकर चीखों के बीच संतुलित जवाब देना
कितना कठिन हो जाता है यह आसानी से समझा जा सकता है.
प्रवक्ताओं का संघर्ष सचमुच प्रणम्य है. ये अभिमन्यु नहीं होते, समयसीमा में बंधे
चक्रव्यूह से बाहर निकल ही आते हैं. कुछ न कुछ उपाय खोज ही लेते हैं. कुछ प्रवक्ता
आद्ध्यात्मिक हो जाते हैं और मोटिवेशनल सूक्तियों की फुहार से बहस की ज्वाला
को शांत करने की कोशिश करते हैं तो कुछ किसी लोकप्रिय शेर या कविता का अंश सुनाते
हुए मुस्कुराने लगते हैं. लेकिन सबसे अचूक हथियार इनका यह होता है कि प्रतिपक्षी
या एंकर के सवाल के उत्तर में ही प्रवक्ता अपना नया सवाल दाग देता है. याने प्रश्न
के जवाब में एक नया प्रश्न. टीवी की बहसों में यही सब देख कर विख्यात गीतकार
शैलेन्द्र के गीत की कुछ पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं- ‘एक सवाल तुम करो, एक सवाल मैं करूँ.
हर सवाल का जवाब हो एक सवाल.’
सवालों से लबालब टीवी बहस के प्याले में उत्तरों की एक बूँद भी क्यों
नहीं मिलती ? एक मात्र यही सवाल इस वक्त मन में घंटी बजा रहा है.
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018