Friday, July 16, 2021

महाराज श्रृंखला 11

 महाराज श्रृंखला 11

11

आत्मज्ञान का प्रस्फुटन


महाराज को लम्बे समय से आशंका तो थी कि अतंतः उन्हें संघ गणराज्य में अपनी रियासत का विलय करना ही होगा। स्वतंत्रता संग्राम में सेनानियों के संघर्ष और महात्मा गांधी के नेतृत्व में लंबे स्वाधीनता आंदोलन के पश्चात अंग्रेजों को देश की सत्ता भारतीय नेताओं के हवाले करने को मजबूर होना पड़ा।

आजादी मिलने के बाद संघ गणराज्य में ज्यादातर रियासतें तो उसी समय शामिल हो गईं थीं किन्तु जो थोड़ी सी रियासतें झिझक रहीं थीं वे भी संघ के गृहमंत्री की योजना और कूटनीति के दबाव में विलय के लिए सहमत होती गईं।

अपनी रियासत के विलय को लेकर महाराज आशंकित तो थे किंतु यह नहीं मालूम था कि यह इतनी जल्दी हो जाएगा। 'पाषाण पुष्प' की यात्रा सम्राट के रूप में उनकी अन्तिम राजकीय यात्रा साबित हो जाएगी। एक सप्ताह के भीतर ही समझौते की कार्यवाही सम्पन्न हो गई। हालांकि संघ सरकार की ओर से नियमित अच्छी खासी धनराशि पेंशन की तरह 'प्रिवीपर्स' के नाम से महाराज को प्राप्त होती रहने वाली थी। जिससे वे अपनी शानोशौकत थोड़ी बहुत बनाए रख सकते थे। रियासत अब गणराज्य के एक प्रांत का हिस्सा बन गई थी। समस्त नीति नियम कानून राजशाही की बजाए प्रजातांत्रिक व चुनी हुई सरकार द्वारा बनाए और अपनाए जाने जरूरी हो गए।

महाराज की शिक्षा दीक्षा विलायत में हुई थी तो वे प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं के बारे में जानते भी थे। पढ़ाई के दौरान भी उन्होंने इसके बारे में काफी पढ़ रखा था। दरअसल विलायत छोड़कर वे हिंदुस्तान आना नहीं चाहते थे किंतु पिताश्री याने बड़े महाराज की मृत्यु और रियासत पर चचेरे भाइयों की कुदृष्टि पड़ने, साम्राज्य हथिया लेने के षडयंत्रों की वजह से मातृभूमि लौटना पड़ा था।

राजकाज से मुक्त होकर, महाराज राजमहल प्रासाद को छोड़ एक छोटी कोठी में शिफ्ट कर गए। कोठी भी किसी छोटे राजमहल से कम नहीं थीं किन्तु प्रासाद की तुलना में नौकर चाकर से लेकर अन्य प्रबन्धन कार्यों में कमी अवश्य आई थी। प्रिवीपर्स राशि में अब पहले की तरह खर्च नहीं उठाया जा सकता था। वे जानते थे कि सरकार इस सुविधा को व्यापक राष्ट्रहित में कभी भी छीन सकती है। कालांतर में यह हुआ भी। 

राजशाही का वर्षों से लगा स्वाद महाराज के तन मन में ही नहीं आत्मा में भी घर बना चुका था। लोकतंत्र में सम्राट का ताज  सिर पर सजाना कभी सम्भव नहीं। मन मानने को तैयार ही नहीं था कि अब वे महाराज नहीं हैं। यद्यपि संबोधन में आज भी महाराज ही पुकारे जाते थे। गरीब की रोटी को भी रोटी ही कहते हैं लेकिन उस पर बटर नहीं लगा होता। महाराज की दशा लगभग वैसी ही हो गई थी।

बहुत पुरानी कहावत है ,जहां चाह होती है वहाँ राह भी निकल आती है। प्रजातंत्र में भी उन्हें अपना उज्ज्वल भविष्य आखिर नजर आ ही गया। एक सुबह शौचयोग करते हुए तनिक जोर लगाया तो मस्तिष्क में टंकार हुई। आत्मज्ञान का प्रकाश प्रस्फुटित हो गया।

अगले दिन देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल की सदस्यता उन्होंने ग्रहण कर ली। उन दिनों पोलिटिकल पार्टी में एंट्री का आज की तरह सार्वजनिक इवेंट नहीं होता था। पार्टी अध्यक्ष या महासचिव की उपस्थिति के बगैर भी बड़े बड़े लोग ज्वाइन कर लेते थे। पार्टी दफ्तर में जाकर महाराज ने फॉर्म भरा और चवन्नी नकद जमा करा दी। 

कार्यालय के बुजुर्ग सचिव ने रजिस्टर में नए सदस्य का नाम नोट किया, भूषणसिंह वल्द रणवीरसिंह ठाकुर, ठिकाना....? क्या करेंगें जानकर बस इतना जान लीजिए पूर्व रियासत का एक महाराजा आज प्रमुख पोलिटिकल पार्टी का चवन्नी सदस्य बनकर देश सेवा के लिए उद्यत हो गया।


ब्रजेश कानूनगो  


महाराज श्रृंखला 10

महाराज श्रृंखला 10

10

अपशगुन की छाया

पाषाण पुष्प की जनसभा को संबोधित करने के बाद महाराज ने कुछ समय लोक कलाकारों के साथ बिताया और स्वर्ण उत्खनन  परियोजना के शिलान्यास स्थल पर हेतु जल्दी ही पहुंच गए। उनकी बेसब्री से वहाँ प्रतीक्षा हो रही थी। उत्खनन कम्पनी के एमडी प्रशांत कुमार ने महाराज की अगवानी की। संगमरमर पर शिलान्यास का एक आकर्षक पत्थर तैयार किया गया था, जिस पर महाराज के अलावा संतश्री और गोपाल सेठ की उपस्थिति का उल्लेख भी बड़े अक्षरों में किया गया था। 

शिलालेख को स्थापित करने के पूर्व राज पुरोहित ने महाराज से पूजा अर्चना करवाई और एक कुदाल से भूमि पर थोड़ी सी औपचारिक रूप से  प्रतीकात्मक खनन कार्य करवाया। फोटोग्राफरों के कैमरों की चमक के साथ वहां उपस्थित लोगों ने तालियां बजाकर ऊंचे स्वर में महाराज का परम्परागत जयघोष किया।

तभी एक राजसेवक ने उपस्थित होकर महाराज के निजी सचिव काकदंत के कानों में कुछ आवश्यक संदेश दिया। निजी सचिव तुरन्त महाराज के समीप पहुंचे और उनको राजधानी से आए आवश्यक संदेश की जानकारी दी।

यद्यपि संध्या काल में संतश्री के आश्रम में प्रार्थना सभा और रात को सांस्कृतिक कार्यक्रम में महाराज को भी शामिल होना था, किन्तु संदेश पाते ही महाराज ने पाषाण पुष्प का दौरा उसी वक्त समाप्त कर दिया।

थोड़ी ही देर में उनकी विलायती बड़ी कार राजमहल की दिशा में आगे बढ़ रही थी। महाराज के मुख मण्डल पर परेशानी पढी जा सकती थी। 

ड्राइवर लाखनसिंह शांत चित्त गाड़ी चला रहा था।  महाराज और काकदंत की धीमी आवाज में बातचीत के शब्द कानों तक पहुंच कर स्पष्ट कर रहे थे कि रियासत के अस्तित्व पर बड़ा संकट आ खड़ा हुआ है।

मन विचलित हुआ तो एकाग्रता भंग हो गई। नजर हटी कि दुर्घटना घटी। अकस्मात ब्रेक लगने की जोरदार आवाज के साथ गाड़ी रुक गई।

'क्या हुआ लाखनसिंह?' काकदन्त और महाराज की आवाजें एक साथ गूंजी। 

सुरक्षाकर्मी तुरन्त गाड़ी से उतर कार के टायरों की ओर देखने लगा। लाखनसिंह भी उतर कर देखने लगा। 

अगले पहियों के नीचे एक व्यक्ति कुचल गया था।

देखने में वह कोई बुजुर्ग वनवासी लग रहा था। 

इस बीच काकदंत भी नीचे उतर आए थे। कार में केवल महाराज रह गए।

नीचे उतरे तीनों व्यक्तियों ने रियासत पर आई विपदा व महाराज की मनःस्थिति को ध्यान में रख कर कुछ मन्त्रणा की।

गाड़ी पुनः आगे बढ़ी तो महाराज ने पूछा, ' क्या हो गया था काकदंत? गाड़ी क्यों रोकना पड़ी?' 

'कुछ नहीं महाराज! एक श्वान गाड़ी के नीचे आकर मर गया!' 

'ओह! ईश्वर उसे सदगति दे।' महाराज ने आंखें बंद कर लीं। 

आधा पौन घण्टा यात्रा के बाद महाराज राजमहल पहुंच चुके थे। महामंत्री के सचिव ने बताया कि संघ गणराज्य का एक प्रतिनिधि मंडल अतिथिगृह में विश्राम कर रहा है और संध्या समय महाराज से भेंट करना चाहता है।

जिस अनिष्ट की महाराज को आशंका थी,वह घड़ी बिल्कुल करीब थी।

शीतल जल से स्नान के बाद तनाव तनिक कम होने की संभावना बनती है...महाराज प्रसाधन गृह की ओर बढ़ गए...


ब्रजेश कानूनगो 

Wednesday, July 14, 2021

महाराज श्रृंखला 9

 महाराज श्रृंखला 9

9

जय जोहार ! 


महाराज की जय...महाराज की जय...! की गगनभेदी आवाज के बीच मंच के सूत्रधार उपाध्याय जी ने महाराज को आशीर्वचन हेतु आमन्त्रित किया। 

महाराज किसी चक्रवर्ती सम्राट सा गौरवभाव अपनी देह भाषा से दर्शाते हुए डायस तक आए। एक नजर सामने बैठे श्रोताओं पर डाली। एक छोर से दूसरे छोर तक के दृश्य का अवलोकन किया, फिर आगे प्रथम पंक्ति से अंतिम तक दृष्टि घुमाई। इतनी अधिक भीड़ देख महाराज का हृदय गदगद हो आया। 

कुछ देर स्तब्ध से हो गए। कुछ क्षणों तक मुंह से शब्द ही नहीं निकल पा रहे थे। शायद उनका गला रुंध गया था,आंखें कुछ भीगी भीगी सी लग रहीं थीं। सामने रखे पात्र से थोड़ा जल पिया। डायस की आड़ से निकलकर आधे झुककर एक बार फिर सामने बैठी पाषाण पुष्प की प्रजा को प्रणाम किया। फोटोग्राफरों के कैमरों की फ़्लैश गन पुनः चमक उठीं।

यहां अब एक गोपनीय रहस्य भी जाहिर कर दिया जाना उचित होगा। दरअसल,महाराज के उद्बोधन के प्रारूप के सृजन में जितना महत्वपूर्ण योगदान राजकवि ज्ञानरिपु का होता था उतना ही उसकी प्रभावी प्रस्तुति में रियासत के मुख्य नाट्यसम्राट पंडित नटराज के सुझावों का भी होता था। वक्तव्य की सार्वजनिक प्रस्तुति के पूर्व महाराज सामान्यतः पण्डित नटराज से उचित परामर्श प्राप्त कर लिया करते थे। कल रात भी उन्होंने कुछ सूत्र समझ लिए थे। सम्भवतः उसी भेंट का परिणाम था कि आज की सभा में महाराज बहुत कुशलता से अपनी भाव भंगिमाओं से श्रोताओं पर बहुत गहरा और हृदयस्पर्शी प्रभाव छोड़ते जा रहे थे।

महाराज पुनः डायस पर आए। एक नजर मंच पर विराजे संतश्री और गोपाल सेठ पर डाली। श्रोताओं की ओर मुखातिब हुए, सबसे पहले उनके मुंह से कुछ शब्द वनवासियों के लिए उन्ही की भाषा में निकले....

'आप मन ला जय जोहार!'

उनके इतना कहते ही एक बार फिर महाराज की जयकार और तालियों की गड़गड़ाहट से सभा स्थल गूंज उठा। करीब पांच सात मिनट तक महाराज की जय...के जोरदार नारे लगते रहे। महाराज पुनः गदगदायमान हो गए।

उन्होंने हाथ उठाकर संकेत किया तो शांति छा गई। शायद वे थोड़ा पहले हाथ उठा देते तो शांति पहले उपस्थित हो जाती।

'सभी प्रजाजनों को मेरा नमस्कार!' अब उन्होंने मातृभाषा में बोलना प्रारम्भ किया। 

'पाषाण पुष्प' की प्रजा और माँ राजगंगा के बीच आकर मैं बहुत गौरव का अनुभव कर रहा हूँ। संतश्री रगडू महाराज का आशीर्वाद पाकर जो दैवीय अनुभूति हुई है वह मैं कभी विस्मृत नहीं कर पाऊंगा। 

'संत,समन्वय,सुख और स्वर्ण' का एक ऐसा सुंदर संयोग रियासत के इतिहास में पहली बार बन रहा है। हम धन्य हैं कि गोपाल सेठ के परिवार ने पाषाण के नीचे स्वर्ण उत्खनन करके राज्य में 'सुख,संपत्ति और समृद्धि' के पुष्प खिलाने का दुष्कर कार्य का बीड़ा उठाया है। समन्वय का दायित्व निश्चित ही रियासत के राजकीय विभाग के पास रहेगा लेकिन सबसे बड़ी प्रसन्नता की बात तो यह है कि संतश्री ने परियोजना को अपना आशीर्वाद प्रदान कर हमें कृतज्ञ कर दिया है। हम विश्वास दिलाते हैं वनवासियों के जीवन और उनके हितों पर हम कोई आंच नहीं आने देंगे।' 

महाराज जो कुछ बोल रहे थे उससे राजकवि की श्रेष्ठतम प्रतिभा के दर्शन हो रहे थे। भाषा में बहुत विनम्रता, माधुर्य के साथ रस, छंद और अलंकारों का सुंदर समन्वय हुआ था। विशेषतः अनुप्रास अलंकार का प्रयोग करना राजकवि ज्ञानरिपुजी की प्रिय शैली थी। एक ही अक्षर से शुरू होने वाले शब्दों के शब्द समुच्चय अक्सर बनाया करते थे। महाराज को भी यह प्रयोग बहुत रास आता था। बल्कि कई बार तो वे स्वयं भी कई नए संक्षिप्ताक्षर गढ़कर सबको चौंका दिया करते थे। महाराज आगे कह रहे थे,

'भाइयों और बहनों! आपको यह जानकर हर्ष होगा कि उत्खनन भूमि पर जो पेड़ लगे हैं उनमें से हमारे लिए आगे उपयोगी पेड़ों को प्रतिस्थापित करने का काम प्राथमिकता से किया जाएगा। जो प्रतिस्थापित नहीं किये जा सकेंगे,उतने ही नए पौधे रोपने का एक महाअभियान भी हाथ में लेने का हम आज संकल्प लेते हैं। एक नया वनक्षेत्र समीप की बंजर भूमि में आप सबके सहयोग से  विकसित होकर पेड़ कटाई की प्रतिपूर्ति कर सकेगा। संतश्री ने भी विश्वास दिलाया है कि आप सब वनवासी इस कार्य में हमारे साथ हैं। एक दूसरी खुशी की बात यह भी है कि उत्खनन परियोजना में वनवासी परिवारों के युवाओं को भी उचित जीविका उपलब्ध होगी। महिलाओं को खनन कार्य मे लगी कम्पनी के अधिकारियों कर्मचारियों के घरों और दफ्तरों में रोजगार उपलब्ध होगा।

आज खनन स्थल पर भूमि पूजन कार्य भी होने वाला है। मैं आप सब से आग्रह करूंगा कि इस अवसर पर आप सभी ग्राम भोज में भोजन करके ही घर लौटें। 

एक बहुत महत्वपूर्ण घोषणा भी मैं यहां आप सबके सामने करना चाहता हूँ...' इतना कहकर उन्होंने संतश्री रगडू महाराज की ओर मुस्कुराकर कनखियों से देखा। आगे बोले,

'संतश्री के आश्रम के निकट जो राजगंगा माँ का तट है वहां पूज्य संत स्वर्गीय जुगनू महाराज की एक विशाल धातु प्रतिमा को स्थापित करने का हम संकल्प लेते हैं। यह पुण्य कार्य राजकोष से 'प्रतिमा स्थापना समिति' को आबंटित किया जा सकेगा। निर्माण समिति में रियासत के मुख्य वास्तुशिल्पी, खनन कम्पनी के प्रबंध निदेशक प्रशांत कुमार और संतश्री रगडू महाराज सदस्य रहेंगे। अध्यक्षता की जिम्मेदारी सम्भालने के लिए हम हमारे परम् मित्र और समाजसेवी गोपाल सेठ से विनम्र अनुरोध करते हैं। विश्वास है वे पाषाण पुष्प की प्रजा के इस निवेदन को स्वीकार कर हमें अनुग्रहीत करेंगें।' अबकी बार महाराज ने मुस्कुराते हुए कनखी से मंच पर विराजे गोपाल सेठ की ओर देखा। गोपाल सेठ ने खड़े होकर उन्हें और श्रोताओं को प्रणाम किया।

कुछ देर बाद महाराज ने भाषण समाप्त करते हुए अंत में श्रोताओं से कहा कि अब हम मंगलदायिनी माँ राजगंगा के प्रति पाषाण पुष्प की ओर से कृतज्ञता व्यक्त करेंगें। मेरे साथ ऊंची आवाज में  बोलिए , 'माँ राजगंगा की...जय !'सभी उपस्थित श्रोताओं व अतिथियों ने सम्पूर्ण शक्ति से उद्घोष किया, 'जय!' महाराज ने यही जयकारा कुल तीन बार लगवाया।

यहाँ से महाराज को परियोजना खनन स्थल पर शिलान्यास करने के लिए प्रस्थान करना था। मंच से उतरकर समीप स्थित वनवासी कलाकारों के शिविर की ओर आए और अनौपचारिक वार्तालाप करने लगे। एक छोटे बच्चे को गोद में उठाकर प्यार भी किया। कलाकारों के साथ लोकनृत्य में सहभागिता करने का आज उनका मन नहीं था। बांसुरी जैसा कोई लोकवाद्य अवश्य हाथ में लिया किन्तु मुंह से लगाया नहीं। यद्यपि तालुका प्रमुख ने व्यवस्था तो सब कर रखी थी  पर सम्राट की इच्छा के आगे कौन क्या कर सकता है।हालांकि इस बीच फोटोग्राफर अपने कार्य में मुस्तैदी से व्यस्त हो गए थे।

ब्रजेश कानूनगो 





  

Monday, July 12, 2021

महाराज श्रृंखला 8

 महाराज श्रृंखला 8

8

श्वेत सींगों वाला काला टोप


जयकारों की गगनभेदी गूंज के बीच महाराज मंच पर पहुंचे और दोनों हाथ जोड़ लगभग आधे झुक कर प्रजाजनों को नमन किया। यह उनकी अपनी विशेष शैली बन गई थी। लोग जानते थे कि अब दोनों हाथ उठाकर वे श्रोताओं,दर्शकों की ओर अपनी हथेलियाँ फैला कर स्नेह किरणों का प्रस्फुटन करेंगें। उन्होंने यही किया। इस बीच जयकारे और तालियों की ध्वनि लगातार बनी रही। 

पाषाण पुष्प की प्राथमिक पाठशाला के राज सम्मान से विभूषित अध्यापक हरि उपाध्याय बहुत अच्छी भाषा बोलते थे। हर राजकीय सार्वजनिक गोष्ठी,सभा,सम्मेलन आदि में सूत्रधार की भूमिका उन्ही के पास रहती थी। कुशल संचालन की वजह से गत वर्ष ही आदर्श शिक्षक  का राज सम्मान उन्हें प्राप्त हुआ था। आज भी मंच पर संचालन वे ही कर रहे थे। लगातार महाराज के सम्मान में जयकारे लगवा रहे थे।

महाराज की 'प्रजा नमन प्रक्रिया' के बाद तालुका प्रमुख ने जो अभी तक मंच पर ही थे, इशारा किया।  मंच के पीछे से दो वनवासी कन्याएं पारंपरिक वेशभूषा में सजीधजी बड़ी फूलमाला और सम्मान सामग्री लेकर आईं। तालुका प्रमुख ने गोपाल सेठ से अनुरोध किया कि महाराज को स्वागत माला वे पहनाएं। गोपाल सेठ ने कृष्णपाल को निकट बुलाकर कान में कुछ कहा तो उन्होंने मंच के सामने लगी एक कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की ओर इशारा किया। वे प्रशांत कुमार थे, सेठ के दामाद और उत्खनन कम्पनी 'राधिका एंटरप्राइज' के प्रबंध निदेशक। तेजी से मंच पर आए। महाराज को माला उन्ही के हाथों पहनाई गई। अब वे मंच पर सबके साथ खड़े हो गए थे। इस बीच मंच संचालक हरि उपाध्याय उनका परिचय व प्रशंसा शब्द प्रसारित कर चुके थे।

पहले वाली दोनों कन्याओं के मंच के पीछे चले जाने के बाद दो अन्य बालिकाएँ मोगरे की वेणियों से मंच को महकाती हुई प्रकट हुईं। उनके हाथों में परातें थीं। एक में अंगवस्त्र और दूसरी में आदिवासी समाज में प्रचलित परंपरागत मुकुट रखा था। मुकुट क्या एक बड़ा काले रंग का धातु का टोप सा था जिसके दोनों ओर गजदंत की तरह ऊपर दो सफेद सींग निकले दिखाई देते थे।

यहां यह बताना भी आवश्यक है कि महाराज यहाँ राज्य के सम्राट की हैसियत से उपस्थित थे। उनका गणवेश भी इसका अहसास करा रहा था। वेशभूषा आज रेशमी कपड़े से बनी हुई थी। लाल धोती और पीले अंगरखे में उनका व्यक्तित्व बहुत चमक रहा था। सिर पर उन्होंने लाल,पीला और बैगनी रंग में रंगा बन्धेज का रेशमी साफा धारण किया था। जिस पर राजकीय चिन्ह का स्वर्ण बैज और एक छोटा मोर पंख उसे अन्य तुच्छ साफों से अलग कर विशिष्ठता दे रहा था।

सम्राट के कंधों पर इस बार अंग वस्त्र गोपाल सेठ ने पहनाकर महाराज का अभिनन्दन किया। इस खास काले रंग के अंगवस्त्र के बारे में महाराज ने पहले से जानकारी प्राप्त कर ली थी ताकि वे आज पहनने के लिए उचित वेशभूषा का चयन कर सकें। यह बहुत सही निर्णय भी रहा महाराज का। पीले अंगरखे और लाल धोती के साथ श्याम रंगी रेशमी अंगवस्त्र का खूबसूरत मेल हो रहा था।सम्राट के  दिव्य, अलौकिक और भव्यता के दर्शन तो उस वक्त हुए जब संतश्री रगडू महाराज ने वनवासियों की ओर से पारंपरिक हाथीदांत वाला काला टोप उनके सिर पर सजाया। यद्यपि इस प्रक्रिया में पूर्व से धारण राजसी साफा उतरने से महाराज का बढ़ता हुआ गंज क्षेत्र तनिक सार्वजनिक हो गया। किन्तु जो व्यक्तित्व का अद्भुत सौंदर्य अब नजर आ रहा था उसके आगे वह बहुत मामूली बात थी। 

राज्य सूचना तंत्र के राजकीय और पत्रकार फोटोग्राफरों ने इस भव्यता को अपने कैमरों में सहेज लेने में तनिक भी विलंब नहीं किया।

महाराज के स्वागत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण और जोखिमपूर्ण रस्म निर्विघ्न सम्पन्न हो गई थी। यही रस्म महाराज को सर्वाधिक रुचिकर भी लगती थी। आगे तो बस औपचारिकताएं शेष रहीं थीं।

अतिथियों ने अपने आसान ग्रहण कर लिए। प्रशांत कुमार व अन्य अधिकारी मंच से उतरकर तनाव से थोड़ा मुक्त हो सामने नियत स्थान पर जा बैठे।

अब आगे की चीजें निजी सचिव काकदंत और महाराज का भाषण लिखने वाले राजकवि ज्ञानरिपु की सेवाओं पर प्रभाव डालने वाली और चिंता की बात हो सकती थीं। 

सूत्रधार मंच के सूत्र संभालने को फिर से उद्यत हुआ और पाषाण पुष्प का वायुमण्डल सम्राट की जयकारों की ध्वनि तरंगों से पुनः कम्पित होने लगा। 


ब्रजेश कानूनगो 

महाराज श्रृंखला 7

 महाराज श्रृंखला 7

7

जो राजन मन भाए


स्वर्ण खनिज उत्खनन परियोजना के उद्घाटन समारोह के लिए राजगंगा के तट के निकट की पठार भूमि पर एक भूखण्ड को समतल कर बहुत खूबसूरत मंच व सभा स्थल विकसित किया   गया था। इस कार्य के लिए गोपाल सेठ के सौजन्य से प्रतिष्ठित इवेंट मैनेजमेंट कम्पनी को पड़ोसी राज्य की राजधानी से विशेष रूप से बुलवाया गया था। पड़ोसी राज्य का वह बड़ा शहर नाट्य आदि कलाओं के लिए बहुत विख्यात था और वहां ऐसे मंच आदि बनाकर कई आयोजन होते रहते थे। अंर्तराष्ट्रीय सम्मेलन भी वहां हुए थे, ऐसे कार्यों का कम्पनी को काफी अनुभव था। मात्र दो दिन में ही उसने यह विशाल स्थल व मंच तैयार कर दिया था। 


गोपाल सेठ के दामाद प्रशांत कुमार की उत्खनन कम्पनी का बड़ा बैनर मंच के पीछे लगाया गया था,जिसमें महाराज की बड़ी तस्वीर के साथ रगडू महाराज की तस्वीर भी दिखाई दे रही थी।  पार्श्व में राजगंगा माँ के रूप में चित्रित की गई थी, जिनकी साड़ी किसी नदी के प्रवाह सी पूरे पोस्टर पर फैली हुई थी। किनारों पर महाराज और संतश्री तस्वीरों में माँ को हाथ जोड़े नमन कर रहे थे। अन्य खाली जगहों को गेंदा फूलों की मालाओं,आम्र पल्लव और कदली पात तथा उसके स्निग्ध तनों से सजाकर श्रृंगारित किया गया था। बहुत भव्य और आकर्षक बन पड़ा था समूचा सभा स्थल। पाषाण पुष्प का यह स्थल आज इंद्रलोक के राज पुष्प पारिजात की तरह सौंदर्य बिखेरता महक रहा था। अद्भुत छटा मन को मोह रही थी।

दूसरी ओर उत्खनन कम्पनी के प्रबंध निदेशक प्रशांत कुमार ने सारी व्यवस्थाएं कुछ इस तरह अपने हाथ में ले रखीं थीं कि सब कुछ सहजता से होता जा रहा था। वे ही नहीं अधिकांश प्रजा जन महाराज की पसंद ना पसंद अब भली प्रकार समझने लगे थे। उसी के अनुसार मंच सज्जा से लेकर अन्य बातों में महाराज की रुचि का ध्यान रखा गया था। 

योजना का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों को पहले ही नजरबन्द किया जा चुका था। पत्रकारों को साधने के समुचित प्रयास कर के सुनिश्चित कर लिया गया था कि असहज करने वाला कोई प्रश्न न पूछ सकें। प्रश्न वही हो जो राजन मन भाए।

प्रशांत कुमार महाराज की प्रसन्नता के सूत्रों के अलावा यह भी जानते थे कि स्वर्ण उत्खनन होने के पूर्व  कुछ स्वर्ण अपनी ओर से खर्च करना भी जरूरी होगा। पैसा ही पैसा पैदा करता है। आज लगाया बीज कल पेड़ बनने वाला था। 

मंच पर केवल तीन आसन लगाए गए थे। बीच में महाराज का सिंहासन था। उनके आसपास गोपाल सेठ और संत रगडू महाराज के आसन रखे गए थे। थे तो वे भी भव्य किन्तु राज्य मर्यादा  के तहत उनकी भव्यता महाराज के आसन से थोड़ी कमतर थी, ऊंचाई भी कम थी। 

मंच के सामने नागरिकों के बैठने की व्यवस्था की गई थी। राजदल के साथ आए लोगों के लिए कुर्सियाँ लगाई गईं थीं। इवेंट कम्पनी के फोटोग्राफरों और राजधानी से आए पत्रकारों के लिए भी खास कोण पर उचित स्थान आरक्षित किया गया था। अधिकारियों, वनवासियों, नागरिकों के साथ साथ महिलाओं के लिए भी बैठने के लिए अलग अलग वृत्त बनाए गए थे। मंच के पीछे भी दो कक्ष तंबू व कनातों से बनाए गए थे,जिनमें नृत्य कलाकारों के साथ थोड़े स्वल्पाहार की व्यवस्था की गई थी। मंच के पास एक उपमंच बना था जिस पर दो कलाकार बैठे शहनाई और नगाड़ा वादन शुरू कर चुके थे। धीरे धीरे आयोजन स्थल नागरिकों से भरता जा रहा था। 

इसी बीच राज्य के सुरक्षा प्रमुख मंच का निरीक्षण कर गए, यद्यपि खतरा सूंघने वाला श्वान नजर नहीं आया तथापि सुरक्षा प्रमुख की निजी घ्राण क्षमता के राज्य में बड़े चर्चे थे। प्रत्यक्षतः  महाराज के आसन के आसपास कोई यंत्र लहराकर वे आश्वस्त हुए कि कोई घातक उपकरण अथवा बम आदि वहां नहीं लगाया गया है। सुरक्षा प्रमुख के मंच से उतरते ही संतश्री का एक अनुयायी भी मंच पर आया और निर्धारित आसन पर लगा रेशमी आवरण हटाकर उस पर कुश से बनी एक चटाई सी बिछा दी। यह संकेत था कि अब अतिथि मंच पर अपना स्थान ग्रहण करने ही वाले हैं। 

तभी मंच के समीप हलचल हुई। व्यवस्था में तैनात सुरक्षाकर्मी चौकन्ने और उपस्थित नागरिक उतावले होने लगे। 

महाराज का वाहन मंच के पास आकर रुका तो आगे बढ़कर तालुका प्रमुख कृष्णपाल ने पुष्पगुच्छ देकर उनकी अगवानी की।

पीछे संतश्री रगडू महाराज और गोपाल सेठ की गाड़ियां भी लगी हुई थीं। अधिकारीगण स्वागत व स्क्वाड करते हुए अतिथियों को लेकर मंच की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। मंच के सूत्रधार और प्रजा जनों ने महाराज की जयकार से पाषाण पुष्प के गगन को चीर कर रख दिया। 

थोड़ी देर में महाराज भी हृदय चीरकर प्रजा को अपने भीतर विद्यमान अदृश्य स्नेहगंगा के दर्शन करवाने वाले थे।


ब्रजेश कानूनगो 

Sunday, July 11, 2021

महाराज श्रृंखला 6

 महाराज श्रृंखला 6

6
संतश्री के आश्रम में 

प्रातः नौ बजे के आसपास महाराज का काफिला 'पाषाण पुष्प' सीमा में प्रवेश कर गया। महाराज के वाहन के साथ कुछ अधिकारियों के वाहन भी विश्राम गृह की ओर मुड़ गए। बाकी गाड़ियां सीधे कार्यक्रम स्थल की ओर निकल गईं। उन लोगों का स्वागत,स्वल्पाहार आदि वहीं होना था। इनमें कुछ पत्रकार, महाराज के प्रशंसक, व्यवस्था से जुड़े छोटे अधिकारी थे। कुछ सामान्य नागरिक महाराज की सभा में उपस्थिति बढाने की दृष्टि से भी निजी सचिव काकदंत साथ में ले आए थे। ये लोग इसी काम के लिए नियुक्त थे। काफिले में सदैव साथ जाने के लिए समुचित मानदेय की व्यवस्था भी इनके लिए की गई थी।

जैसी की परंपरा थी, विश्राम गृह पर एक कक्ष महाराज के लिए श्रेष्ठतम सुविधाओं से सज्जित, श्रृंगारित व व्यवस्थित किया गया था। अन्य कक्ष उनके साथ आए व्यवसायी मित्र गोपाल सेठ और कुछ बड़े अधिकारियों के लिए निर्धारित थे।

कोई आधा पौन घण्टे में महाराज तैयार होकर कक्ष से बाहर आए। स्वच्छ,धवल वेशभूषा में वे बहुत निर्मल व पावन दिखाई दे रहे थे। सुनहरी किनारी वाला अंग वस्त्र ही ऐसी चीज थी जिससे लगता था कि वे सम्राट हैं। बाकी उनकी छवि से किसी राजा के ऐश्वरीय तेज बजाए दिव्य आध्यात्मिकता टपकती दिखाई दे रही थी।
जैसा देश वैसा भेष की रीति नीति के अनुरूप संतश्री से भेंट के समय राजन एक संत की तरह ही मिलना चाहते थे। मन और आत्मा का तो कह नहीं सकते पर तन और वेशभूषा से तो प्रत्यक्षतः यही आभासित हो रहा था।

थोड़ी ही देर में संत रगडू महाराज के आश्रम की दिशा में महाराज के विशेष दल ने प्रस्थान किया।  तालुका प्रमुख कृष्णपाल की गाड़ी सबसे आगे स्क्वाड करते हुए चल रही थी। दस मिनट की यात्रा के बाद ये लोग संतश्री के आश्रम के मुख्य द्वार पर थे। यहां से पैदल ही उन्हें संतश्री की कुटिया तक जाना था।  वनवासियों और अन्य नागरिकों की काफी भीड़ यहां महाराज के दर्शन हेतु एकत्र हो गई थी। पैदल पथ के दोनों ओर रात को ही सजाए गए फूलों के ताजे पौधे अभी मुरझाए नहीं थे। फूलों और चंदन की खुशबू  वातावरण को और अधिक ही आध्यात्मिक बना रही थी। इत्र आदि की खुशबू बिखरने का एक यंत्र स्वागत द्वार के करीब के पौधे में तनिक छुपा कर रखा गया था।

मार्ग से गुजरते हुए आश्रम के निकट बहती हुई 'राजगंगा' की झलक दिखाई देते ही महाराज के चरणों की दिशा निकट की पगडंडी की ओर हो गई। कोई सौ गज दूर नदी का निर्मल जल प्रवाहित हो रहा था। तालुका प्रमुख कृष्णगोपाल ने मन ही मन अपनी पीठ स्वयं थपथपाई। उन्होंने तत्काल मन बदल लेने वाले महाराज के मन का पूर्व अनुमान जो लगा लिया था। नदी तट पर वे सारी तैयारियां पहले ही करवा चुके थे।
इसी बीच तट पर स्थित शिव मंदिर का पुजारी स्वयं अगवानी करने चला आया। महाराज के मस्तक पर उसने तिलक लगाया,आरती उतारी।

सम्पूर्ण श्रद्धा भाव से महाराज ने पहले माँ राजगंगा को ऊंचे स्वर में मंत्रोच्चार के साथ नमन किया फिर शिव मंदिर में पुजारी ने उनसे संक्षिप्त पूजा करवाई। कुछ राज्य मुद्राएं महाराज ने स्वयं अपने कुर्ते से निकाल कर आरती के दीप व मन्दिर की चौखट पर अर्पित कीं। उन्हें खुद पता नहीं चल सका कि उनके कुर्ते की जेब में तालुका प्रमुख ने कब ये मुद्राएं रख दी थीं। अन्यथा तो उनका पर्स दौरे के वक्त सामान्यतः काकदंत के पास रहता था। 
बहरहाल, माँ राजगंगा के दर्शन व आराधना के बाद यहां से पुनः वे संतश्री के आश्रम की ओर लौटे।
कुटिया के बाहर पादुकाएं उतारकर भीतर प्रवेश किया। संतश्री अपने आसन पर विराजे किसी पोथी में डूबे हुए थे। पता नहीं अध्ययन कर रहे थे,या आंखें बंद कर योगनिंद्रा ले रहे थे, कहा नहीं जा सकता। महाराज को द्वार पर देख पोथी तिपाही पर रखकर खड़े हो गए। बोले, 'आइए राजन, स्वागत है आपका।'
महाराज ने आगे बढ़कर, दोनों हाथ जोड़ थोड़ा झुककर प्रणाम किया।
'सुखी रहें, आपका ऐश्वर्य चारो दिशाओं में व्याप्त हो, आपकी प्रजा का कल्याण हो!'
कुछ देर महाराज आध्यात्म,आश्रम की कठिनाइयों, माँ राजगंगा के महत्व आदि के सम्बंध में बातचीत करते रहे। अब तक संतश्री के अनुयायी और महाराज के कुछ अधिकारी वहीं बने रहे थे। महाराज ने एकांत का इशारा किया तो सारे अधिकारी व अनुयायी बाहर चले गए।
एकांत में संतश्री से महाराज की क्या बातें हुई यह तो कोई नहीं जान पाया किन्तु बाद में महाराज का वाहन चालक लाखनसिंह कहीं बता रहा था कि जल्दी ही रगडू महाराज के आश्रम की अवैध भूमि का विवाद सुलझने की उम्मीद बंध गई थी।

अपराह्न स्वर्ण खनिज उत्खनन परियोजना के उद्घाटन समारोह में महाराज के साथ गोपाल सेठ के अलावा संत रगडू महाराज का आसन भी लगाया गया था।

ब्रजेश कानूनगो
    

Saturday, July 10, 2021

महाराज श्रृंखला 5

महाराज श्रृंखला 5

5

प्रतीक्षा करता 'पाषाण पुष्प'
 

राज्य का 'पाषाण पुष्प' क्षेत्र अपने नाम की तरह ही पहाड़ों और चट्टानों के बीच किसी पुष्प की तरह ही नजर आता था। राज्य सीमा के एक छोर से दूसरे छोर तक प्रवाहित होने वाली प्रमुख नदी 'राजगंगा' का उदगम भी इसी क्षेत्र के पर्वतों से निकली धाराओं के समुच्चय से हुआ था। नदी के कछार घने वनों से आच्छादित थे। कुछ तो ऐसे इलाके भी थे, जहां कभी कभी सूरज की रोशनी भी छन कर बड़ी मुश्किल से पहुंच पाती थी।
'राजगंगा' के प्रति राज्य के लोग माँ की तरह श्रद्धाभाव रखते थे। वास्तव में यह नदी राज्य की सामाजिक,आर्थिक विकास की जीवन रेखा भी थी।
इसी 'पाषाण पुष्प' की वनों से आच्छादित भूमि के नीचे स्वर्ण खनिज भंडार उपलब्ध होने का पता चला था। बाद में जांच आदि के बाद पुष्टि भी हुई।
आज यहां प्रस्तावित 'स्वर्ण खनिज उत्खनन परियोजना' का उद्घाटन करने महाराज का काफिला राजधानी से प्रातः ही प्रस्थान कर चुका था।
'पाषाण पुष्प' तालुका के प्रमुख कृष्णपाल ने सारी व्यवस्थाएं अपने हाथ में ले रखीं थीं। वे नहीं चाहते थे कि महाराज के दौरे के समय कोई कसर रहे। उन्हें महाराज के निजी सचिव काकदंत की ओर से क्षण प्रतिक्षण कार्यक्रम की रूपरेखा पहले ही प्राप्त हो चुकी थी।

समय रहते उन्होंने संत रगडू महाराज के आश्रम में जाकर तैयारियों का जायजा ले लिया था। वनवासी लोगों की संत रगडू महाराज में अत्यंत आस्था थी। यों कहें कि वे एक मायने में वनवासियों के साक्षात भगवान थे। महाराज स्वयं संत को नमन कर आशीर्वाद लेने सबसे पहले राजगंगा नदी के कछार के प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण बहुत सुंदर स्थान पर स्थित इसी आश्रम में पधारने वाले थे। हालांकि संतश्री का आश्रम राज भूमि पर कोई बीस बरस पहले उनके गुरुजी  ने छोटी से पर्णकुटी के रूप में तैयार किया था। जिसका विस्तार शनै शनै अनुयायियों की संख्या के अनुपात में बढ़ता गया। राजकीय दस्तावेजों में आश्रम विवादित भूमि पर निर्मित बताया गया था और बीच बीच में कुछ समाज सुधारक याद दिलाया भी करते थे, किन्तु संतश्री का यह ईश्वरीय चमत्कार ही था कि सब कुछ भुलाकर महाराज स्वयं उनके दर्शनों को पधार रहे थे।इसके पीछे राज्य के व्यापक हित में महाराज की वह सोच थी जिससे स्वर्ण उत्खनन परियोजना का रास्ता साफ होना था। 

महाराज को यह जानकारी दी गई थी कि संतश्री का आशीर्वाद यदि उन्हें मिल गया तो वनवासी समाज की ओर से उत्खनन योजना के सफल कार्यान्वयन में आने वाली बाधाओं में कुछ कमी लाई जा सकती है। इसीलिए संतश्री के दर्शन और उनके आशीर्वाद प्राप्त करना राजन की प्राथमिकता में था।

यद्यपि राजन की सम्पूर्ण शिक्षा दीक्षा विलायत में हुई थी किन्तु राज्य के कल्याण और विकास के लिए उन्होंने भारतीय परंपराओं को कुछ इस तरह अपना रखा था कि वे अपने व्यक्तित्व को देश काल और परिस्थितियों के अनुसार कभी भी परिवर्तित कर सकते थे। भोजन,भाषा,वेशभूषा के प्रति वे बहुत लचीले थे, जिसका लाभ उन्हें समय समय पर मिल जाता था। यद्यपि महाराज के अवसर उपयुक्त परिधानों की संदूक काकदंत साथ लेकर चलते थे लेकिन तालुका प्रमुख ने एहितियातन आश्रम प्रवास के समय धारण करने हेतु महाराज के लिए एक उपयुक्त सादगीपूर्ण अतिरिक्त धवल वेशभूषा तैयार करवा ली थी।

चूंकि महाराज के प्रवास की प्राथमिकता में संतश्री का आश्रम सबसे पहले था, इसलिए तालुका प्रमुख  कृष्णपाल ने भी सबसे पहले यहां की व्यवस्थाएं सुनिश्चित कर ली। अपने एक अधिकारी की ड्यूटी उन्होंने एक दिन पहले ही लगा दी थी कि वह यहां की व्यवस्थाओं पर नजर रखता रहे।

संतश्री के आश्रम के आसपास के वातावरण की शुद्धता का खास तौर पर खयाल रखा गया था। तालुका प्रमुख के निकट संबंधी एक दबंग व्यवसायी के लाभ हेतु कुछ कार्यों को उनसे करवाया गया था। यही वजह थी कि प्राकृतिक रूप से सम्पन्न होने के बावजूद कुछ खुशबूदार फूलदार पौधे रातों रात आश्रम मार्ग के दोनों तरफ सुशोभित कर दिए गए थे। जिसके खर्च का भुगतान राजकोष से आवंटित राशि से होना था।

आश्रम के सेवादारों को भी निर्देश थे कि वे स्नानादि से निवृत्त होकर नवीन धवल व स्वच्छ वस्त्र धारण कर लें। जिससे वातावरण में उत्कृष्ट आध्यात्मिक गंध व दृश्य उपस्थित हो सके। तालुका प्रमुख के कहने पर नगर सेठ ने  यथायोग्य नवीन वस्त्रों , स्वल्पाहार आदि सहित अन्य व्यवस्थाएं अपनी ओर से प्रायोजित कर दी थीं। यह दायित्व निभाते हुए उन्हें आत्मिक प्रसन्नता हो रही थी। उनका परिवहन का कारोबार था और खनन परियोजना में अपने कारोबार के विकास की बड़ी संभावनाएं दिखाई दे रहीं थीं।

अचानक तालुका प्रमुख  कृष्णपाल को स्मरण हुआ कि कहीं महाराज आश्रम  में प्रवेश करने के पूर्व राजगंगा को नमन करने उधर तट की ओर न मुड़ जाएं। उनका भरोसा नहीं रहता था,कब क्या इच्छा जाहिर कर दें। पिछली बार भी अचानक उन्होंने एक वनवासी परिवार के साथ भोजन करने और लोक नृत्य का आनन्द उठाने की आकांक्षा व्यक्त करके बड़ी परेशानी पैदा कर दी थी। इस बार पहले से ही यथोचित तैयारी तालुका के सांस्कृतिक विभाग के अधिकारियों ने कर ली थी। वनवासी परिवार की झोपड़ी में राज हलुवाई द्वारा तैयार किया गया भोजन पहुंचा दिया गया था। वनवासी युवक युवतियाँ सज धज कर लोक नृत्य करने के उत्साह से भरे हुए थे।
महाराज के रामगंगा दर्शन व नमन की आकांक्षा की आशंका के चलते  कृष्णपाल ने अपने एक अधीनस्थ को नदी के तट की ओर दौड़ाया और किनारे पर स्थित शिव मंदिर के पुजारी को सचेत कर उचित व्यवस्था करने के निर्देश दिलवाए।

समूचा 'पाषाण पुष्प' अब महाराज के काफिले का नगर में प्रवेश का बेचैनी से इंतजार कर रहा था। तालुका प्रमुख की धड़कने कभी तेज तो कभी मध्दिम पड़ रहीं थीं। 

ब्रजेश कानूनगो
 

Friday, July 9, 2021

महाराज श्रृंखला 4

 महाराज श्रृंखला 4

4

प्रस्थान के पूर्व का तनाव

जब भी महाराज को राजकीय प्रयोजन से राज्य के अन्य क्षेत्रों में यात्रा करनी होती थी उनके निजी सचिव काकदन्त का काम थोड़ा बढ़ जाता था। आज भी कुछ इसी तरह की स्थिति बनी हुई थी।

सामान्यतः काकदंत पौ फटने से पहले ही जाग जाते थे। स्नानादि से निवृत्त होकर आज थोड़ी शीघ्रता से नित्य का योग,ध्यान,प्राणायम,आराधन आदि किया और महाराज की यात्रा से सम्बंधित व्यवस्थाओं में व्यस्त हो गए।

तभी राजकवि ज्ञानरिपु का सेवक प्रकट हुआ और हांफते हुए उसने काकदन्त जी को प्रणाम किया। उसकी सांसे फूली हुईं थी। ऐसा प्रतीत होता था कि वह दौड़ता हुआ वहां पहुंचा था।

'क्या बात है सेवक! इतनी हड़बड़ी में क्यों नजर आते हो? क्या लाए हो?' काकदन्त जी बोले तो उनके आगे के दो बड़े धवल दाँत मोटे ओठों के बीच से चमक उठे।

'राजकवि ने ये दस्तावेज भिजवाए हैं सरकार।' सेवक ने गुलाबी रंग के आवरण वाली कार्यालयीन फाइल तिपाही पर रख दी।

'अच्छा तुम अब जाओ! राजकवि को हमारा नमस्कार बोल देना।' सेवक की ओर देखे बगैर उन्होंने कहा और आवरण खोलकर पत्रक की जांच की।

फाइल मिलते ही काकदंत जी की कुछ बेचैनी कम हुई। महाराज का भाषण राजकवि ने तैयार करके समय से पूर्व ही भिजवा दिया था।

'प्रणाम सरकार!' आवाज सुनकर सिर उठाकर देखा तो सामने राजकीय वाहन चालक लाखनसिंह खड़ा था। वैसे कोई भी उसे नाम लेकर नहीं पुकारता था। वह केवल ड्राइवर था और ड्राइवर ही पुकारा जाता था। वैसे इसकी कई गोपनीय भूमिकाएं भी थीं किन्तु उनका जिक्र उचित अवसर पर होगा।

ड्राइवर के रूप में वह केवल एक जीवित पुतला भर था, जिसे महाराज व अधिकारियों,मंत्रियों के निर्देशों का पालन कर अपनी प्रतिभा का श्रेष्ठ व वाहन चलाते हुए जीवन रक्षक प्रदर्शन करना आवश्यक था। अपनी ड्राइविंग सीट पर बैठते ही  यद्यपि लाखनसिंह के मुँह और कान बन्द दिखाई देते थे, किन्तु यह भी सत्य था कि कई महत्वपूर्ण रहस्यों को सूंघ लेने की क्षमता और प्रतिभा उसमें भरी पड़ी थी।

'गाड़ी तैयार है सरकार!'

'ठीक है ड्राइवर, तुम प्रतीक्षा करो।'

लाखनसिंह अभिवादन कर कक्ष से बाहर चला गया।

अब काकदंत को शाही दौरे में साथ जाने वाले लवाजमें और कार्यक्रम स्थल की व्यवस्थाओं की चिंता सताने लगी थी। समारोह की सफलता सुनिश्चित किए जाने की सारी जिम्मेदारी उन्ही के कंधों पर रहती थी। किसी भी तरह की गड़बड़ होने पर महाराज के कोप का पहला शिकार उन्हीं को बनना पड़ता था। वे भुक्त भोगी थे अतः हर तरह से आश्वस्त हो जाना चाहते थे।

गुलाबी आवरण से काकदन्त ने एक सूची निकाली और उस पर कार्य हो जाने वाले बिंदुओं पर चिन्ह अंकित करने लगे।

तभी उन्हें स्मरण हुआ कि अभी तक राजधानी के प्रमुख साहूकार गोपाल सेठ को तो संदेश भिजवाया ही नहीं कि उन्हें भी महाराज के साथ समारोह में शिरकत करनी है। यद्यपि गोपाल सेठ महाराज के बचपन के सहपाठी थे किन्तु उससे अधिक महत्वपूर्ण यह था कि स्वर्ण उत्खनन परियोजना का कार्य उनके दामाद प्रशांत कुमार को दिया गया था। प्रशांत कुमार ने उत्खनन विज्ञान में यूरोप जाकर अध्ययन किया था और उधर ही गोपाल सेठ की सुकन्या राधिका ने उनके हृदय से प्रेम तत्व का उत्खनन कर लिया। दोनों भारतीय परंपरा के तहत परिणय सूत्र में बंध गए। यद्यपि राधिका और प्रशांत के विवाह होने के पूर्व ही गोपाल सेठ को अपना कारोबार संभालने के लिए नाती अभिमन्यु मिल चुका था। उनका मानना था कि प्रेम,युद्ध और कारोबार में सब कुछ जायज होता है। प्रगतिशील विचारों का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने इस विवाह को मान्यता दे दी थी। वैसे भी राधिका सेठजी की इकलौती संतान थी। प्रशांत कुमार बहुत सुलझा हुआ युवक था और दूर की सोचता था। उसने अपनी तत्कालीन फ्रेंच प्रेमिका से मुक्ति पाकर अकूत संपत्ति और विशाल कारोबार के स्वामी गोपाल सेठ की इकलौती कन्या राधिका से घनिष्ठता बढा ली। दोनों प्रेम सरोवर में डुबकियां लगाते हुए दो शरीर एक हृदय हो गए। इधर पुत्र अभिमन्यु का जन्म हुआ उधर 'राधिका एंटरप्राइज' नाम से एक बड़ी कम्पनी बाजार में उतर आई। यह तो तय ही था कि इसमें सर्वाधिक पूंजी गोपाल सेठ की ही निवेश हुई थी।

ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को यात्रा पर जाने का पुनर्स्मरण नहीं करवा पाने की अपनी भूल पर काकदंत को अफसोस हो रहा था। अपने सहायक को तुरन्त  बुलवाया। वह आंखें मलता हुआ उपस्थित हुआ।

'अरे रघुराज, हम गोपाल सेठ को तो याद दिलाना भूल ही गए!' चिंतित स्वर में काकदंत बोले।

'मैं बोल आया था सरकार, मध्यान्ह में ही। महाराज का संदेशा आया था। आप शायद किन्ही अन्य तैयारियों में व्यस्त रहे होंगे।' रघुराज ने बताया तो मन ही मन काकदंत खुश हुए किन्तु प्रत्यक्षतः थोड़े कठोर स्वर में बोले, 'ठीक है,ठीक है...अब जाओ तैयार हो जाओ, यहीं रहकर तुम्हे यहां की व्यवस्थाएं देखनी रहेंगीं।

काकदंत जानते थे रघुराज महाराज के निकट आने में कोई मौका नहीं छोड़ता था। अक्सर ऐसे अवसरों की प्रतीक्षा करता था जब काकदंत से कोई त्रुटि हो और महाराज के हृदय में स्थान बना सके। सच तो यह था कि निजी सचिव जैसे महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति की उसकी अपनी दबी आकांक्षा जब तब हिलोरें मारने लगती थी। इन्ही हिलोरों से काकदंत के पद सरोवर के बंध टूटने का खतरा सदैव बना रहता था।

राजमहल के खूबसूरत गुम्बदों को गुलाबी रंग से प्रकाशित करता हुआ जैसे ही पूर्व दिशा से सूरज बाहर निकला, दल बल सहित महाराज का लवाजमा 'पाषाण पुष्प' क्षेत्र की ओर निकल पड़ा। हमेशा की तरह ड्राइवर लाखनसिंह की नजरें मार्ग पर केंद्रित थी मुंह बंद दिखाई दे रहा था।

गोपाल सेठ की कार भी काफिले में साथ चल रही थी किन्तु महाराज ने उन्हें अपनी राजकीय और बड़ी विलायती कार में अपने साथ स्थान दिया था। आगे एक रक्षक के साथ ड्राइवर लाखन सिंह  गाड़ी चला रहा था। पीछे की सीटों पर काकदंत महाराज के यात्रा सामान के साथ विराजे थे। महाराज और गोपाल सेठ बीच की आरामदायक सोफा सीट पर विराजे थे।

गोपाल सेठ और महाराज की मन्त्रणा के स्वरों को लाखनसिंह के कानों में जाने से कैसे रोका जा सकता था। यद्यपि वह महाराज का विश्वासपात्र सेवक था किन्तु इस विश्वास की कीमत चुकाने को कई अन्य लोग तैयार बैठे थे।


ब्रजेश कानूनगो   




 



 



Friday, July 2, 2021

महाराज श्रंखला 1 से 3

 

महाराज श्रंखला 1 से 3

1

महाराज की बीमारी

किसी ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि किसी शूरवीर की बजाए कवि के निधन से सम्राट इतने दुखी हो उठेंगे।

राज्य कला ,संस्कृति और साहित्य की दृष्टि से बहुत समृद्ध था। अनेक कलाकार और साहित्यकार राज्य की शोभा बढ़ाते थे।

राजधानी में ही अनेक गुणी और प्रतिभावान विभूतियों के विद्यमान होने के उपरांत भी सबकी उपेक्षा करते हुए उन्हें प्राथमिकता देकर महाराज ने राजकवि का दर्जा दिया था। इस सम्मान के पीछे कुछ वही कारण थे जो प्रायः सभी कालखण्डों में इसी प्रकार रहते आये हैं। राजकवि का गौरव प्राप्त करने के लिए जो अहर्तताएँ होनी चाहिये वे उनमें मौजूद थीं और महाराज ने उन्हें बखूबी पहचान भी लिया था।

लेकिन पिछले माह जब राजकवि एक संगीत सभा के बाद रात्रि को नियमित सुरापान पश्चात विश्राम हेतु शयनकक्ष को गए तो प्रातःकाल वहां से मात्र कवि का देह फार्मेट तो उपलब्ध हुआ पर कविता नदारत थी। ब्रह्ममुहूर्त में उनके भीतर की काव्यात्मा पदोन्नत होकर  स्वर्गलोक की इंद्रसभा में अपना आसान ग्रहण करने हेतु कूच कर चुकी थी।

 

तब से ही महाराज की सेहत गिरती जा रही थी। पिछले कुछ दिनों से बहुत उदास और निढाल भी दिखाई देने लगे थे। मंत्रीगण, अधिकारी और परिजन सब चिंतित थे कि आखिर उन्हें हुआ क्या है? यदि महाराज की हालत इसी तरह  दिनों दिन गिरती रही तो राजकाज का क्या होगा?

 

चिकित्सा विज्ञान में प्रावीण्यता अर्जित किए और निपुण राजवैद्य बीमारी का सही कारण अपने सभी परीक्षणों के बावजूद पता नहीं लगा पा रहे थे। पड़ोसी राज्यों के विशेषज्ञों को भी आमंत्रित किया गया। मगर सफलता हाथ न लगी। दिनों दिन महाराज का चेहरा पीला पड़ता जा रहा था। पहले सी आभा और तेज विलुप्त था।

 

तभी महामंत्री को स्मरण आया कि महाराज की सेहत के पीछे शारीरिक की बजाए कोई मानसिक समस्या तो नहीं है? उन्होंने तुरंत ही राज्य के विचारक और दार्शनिक आचार्य विद्यादमन का परामर्श लेना उचित समझा। आचार्य अपनी धारणाओं के आधार पर कठिनाई में पड़े व्यक्ति की मनोचिकत्सा भी किया करते थे। इसे आज की भाषा में हम काउंसलिंग भी कह सकते हैं।

 

आचार्य विद्यादमन ने सबसे पहले  यह जानने की कोशिश की कि महाराज को सबसे अच्छा क्या लगता था। जो उन्हें पसंद हो वह उन्हें दिया जाए। यदि कोई मिष्ठान्न, विशिष्ठ सुरा, कोई प्रिय व्यक्ति, स्त्री,गीत,संगीत जो भी उनके मन को प्रसन्न कर सकता हो वह सब प्रस्तुत किया जाए। दुर्भाग्य रहा कि यह सब करने के बावजूद परिणाम शून्य ही रहा। 

 

आचार्य विद्यादमन चिंता में पड गए। उन्होंने अपने चिंतन को और विस्तारित और कारगर बनाने की दृष्टि से महाराज के विशिष्ठ महाज्ञानी नवरत्नों से विमर्श के लिए एक बैठक आमंत्रित की। इस बैठक का परिणाम बड़ा सकारात्मक रहा । आचार्य को महाराज के रोग के कारणों का पता चल गया। दरअसल बैठक में राज्य के नौ रत्नों में से आठ रत्न ही उपस्थित हुए थे। राजकवि की अनुपस्थिति ही वह बात थी जिससे आचार्य को समस्या के संकेत मिल गए।

 

आचार्य ने दिवगंत राज कवि का समस्त साहित्य अपने अध्ययन कक्ष में बुलवाया और गहन अध्ययन किया। यह देखकर वे हतप्रभ रह गये की कवि महोदय की सारी किताबें महाराज की प्रशंसा में लिखी गई रचनाओं से भरी हुईं थी। रचनाएं क्या थीं, मात्र छद्म शौर्य गाथाएँ, विरुदावलियाँ, महाराज के सम्मान में आरतियों आदि के अलावा और कुछ भी नहीं था उनमें।  हर रचना में महाराज की प्रशंसा महाभारत के चीरहरण प्रसंग में द्रोपदी के वस्त्र की तरह बढ़ती जाती थीं जो हर क्षण नई उपमाओं और अलंकारिक शब्दों से विस्तारित और काल्पनिक रंगों से इंद्रधनुषी हो जाती थीं। आचार्य पढ़ते हुए कितना ही अधीर होते जाते थे महाराज की असली सूरत मूरत नजर आना राजकवि की रचनाओं में मुश्किल हो रहा था।

 

किन्तु आचार्य विद्यादमन को इस बात का बहुत संतोष भी था कि राज्य के कल्याण की दृष्टि से उन्होंने अपने चिंतन से महाराज की अस्वस्थता का रहस्य आखिर खोज निकाला था। बल्कि यों कहें कि राजन के रोग का निवारण करने में उन्होंने सफलता प्राप्त कर ली थी।

 

आचार्यश्री  ने तुरंत महामंत्री को सुझाव दिया की वे रिक्त हुए राजकवि के पद को तुरंत भर दें और उस पर किसी योग्य चाटुकारिता गुणों से संपन्न ओजस्वी कवि को नियुक्त कर दें। महामंत्री ने तुरंत ही एक कार्यकारी राजकवि की नियुक्ति हेतु राज्य में आदेश प्रसारित कर दिया।

 

देखते ही देखते अनेक नवोदित लेखक, कवि अपनी सेवाएं देने को तत्पर हो गए। पद एक था मगर आवेदकों  की संख्या राजमहल की मुंडेर के कंगूरों पर जगमगाते दीपकों की तरह सैंकड़ों थी। हर कवि राजमहल पर छाये अँधेरे को अपनी रोशनी से जगमगा देना चाहता था। एक युवा जो राजमहल और महाराज की स्तुति में वर्षों से अपनी कविताओं और कथाओं से परोक्ष योगदान दे रहा था लेकिन साहित्य समाज में बहुत उपेक्षित सा महसूस करता रहा था उसके दिन फिर गए। प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत कृतियों ने उसे नया राजकवि हो जाने का गौरव प्रदान करवा दिया।

 

महाराज रोगी जरूर थे किन्तु वे थे तो सम्राट। उन्हें प्रशंसा पसंद थी। इतिहास गवाह है यदि व्यक्ति सम्राट है तो प्रशंसा उसके तन में जोश और मन में गौरव भर देती है। एक तरह से प्रशंसा राजा के लिए शक्तिवर्धक,रक्तशोधक और जोशवर्धक टॉनिक की तरह काम करती है।

 

कुछ ही दिनों में नए राजकवि की प्रतिभा का असर दिखाई देने लगा। धीरे धीरे महाराज पूर्ण स्वस्थ हो गए। चेहरा फिर दमकने लगा, राजकाज सुचारू रूप से चलने लगा। चहुँओर राजकवि की ओजस्वी और अलंकारिक कविताओं की गूँज से महाराज की कीर्ति पताका पुनः फहराने लगी। जिस तरह कल्याणकारी राज्य के उस कवि का कल्याण हुआ, उसके दिन फिरे...सबके फिरें....!

 

2

राजकवि की नियुक्ति


महाराज के स्वस्थ हो जाने पर प्रजा की दशा में कोई बदलाव या जीवन में खुशहाली आई या नहीं कह नहीं सकते किन्तु युवा कवि ज्ञानरिपु के अच्छे दिन आ गए थे।
महाराज के नवरत्नों में से एक राजकवि भानुरत्न के आकस्मिक स्वर्गवास के बाद महाराज बीमार हो गए थे। उनकी लंबी बीमारी से राजकाज में गतिरोध सा आ गया था। मनोरोग विशेषज्ञ आचार्य विद्यादमन ने अंततः रोग का कारण और उपचार खोज निकाला था।
यह निश्चित हो गया था कि राजकवि पंडित भानुरत्न के निधन के बाद महाराज को प्रशंसा की नियमित खुराक न मिल पाने से वे अवसाद का शिकार हो गए थे।

राजकवि भानुरत्न की असमय मौत के बाद  प्रशंसा और स्तुति गान की जरूरी खुराक के इंतजाम के लिए आचार्य विद्यादमन के सुझाव पर नए राजकवि की अस्थाई नियुक्ति के लिए महामंत्री कार्यालय ने बाकायदा प्रजा के बीच डोंडी पिटवाई। 

उन दिनों अनेक युवा आजीविका की प्रतीक्षा में अपना अध्ययन  समय काटने के लिए जारी रखते थे। एक के बाद एक उपाधि ग्रहण करते रहते ताकि उन पर यह आरोप न लग सके कि इतना बड़ा हो गया है और निठल्ला बैठ कर अभी भी पिताश्री के पसीने से अपना तन सींचता रहता है। पिता को भी सुविधा हो जाती थी, जब लड़की वाले पूछते- पुत्र क्या कर रहा है इन दिनों? हृदय पर पत्थर बांधकर धर्मप्राण पिता मुस्कुराते हुए कह दिया करते - जी, वर्तमान में पुत्र विभिन्न विषयों पर शिक्षा प्राप्त करके स्नातकोत्तर उपाधियां अर्जित कर रहा है।

इन्ही हालातों के बीच जब राजकवि के पद की पूर्ति के लिए सैकड़ों आवेदन आए तो आश्चर्य की कोई बात नहीं थी। आश्चर्य यह था कि राजकीय नियुक्तियों में पद भरे जाने में विलंब की परम्परा से हटकर इस पद पर महामंत्री ने युवा कवि ज्ञानरिपु की अल्पकालिक नियुक्ति तुरन्त कर दी।
दिलचस्प यह भी था कि तमाम प्रशासनिक और निर्धारित चयन प्रणाली का पालन करते हुए सैकड़ों आवेदकों की प्रतिस्पर्धा में आचार्य विद्यादमन के पटु शिष्य और रिश्ते में भतीजे 'ज्ञानरिपु' इस पद के योग्य उम्मीदवार पाए गए।
इस विशेष चयन की एक अलग गोपनीय कथा है,
जो आगे उजागर होगी। प्रत्यक्षतः यह चयन पारदर्शी और योग्यतानुसार हुआ ही दिखाई देता था।

समय की नई आवश्यकताओं को देखते हुए ज्ञानरिपु का चयन स्वर्गीय राजकवि भानुरत्न से बेहतर ही कहा जा रहा था। यदि वह कमतर भी रहा होगा तो राजकीय सूचना प्रणाली तो कभी अपनी जांघ उघाड़कर दिखाने से रही। प्रजा में भी यही संदेश गया या प्रसारित किया गया कि ज्ञानरिपु, पण्डित भानुरत्न से अधिक श्रेष्ठ,योग्य और प्रतिभाशाली हैं। इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण भी मौजूद रहे। ज्ञानरिपु जी ने अनेक विरुदावलियाँ, सम्राट चालीसा, नरेश आरती, राज स्तुति छंद आदि लिखकर महाराज की खूब प्रशंसा पाई ही किन्तु उनके वक्तव्यों, प्रजा संबोधनों और विभिन्न अवसरों पर प्रेरक व आत्मीय भाषणों के ऐसे प्रभावी प्रारूप भी रचे जिन्हें प्रस्तुत कर महाराज शनै शनै प्रत्येक नागरिक के हृदय में स्थान बनाते गए।  कुछ लोग तो महाराज के प्रति इतने अधिक समर्पित थे कि यदि रामभक्त हनुमान की तरह छाती चीरकर दिखाने का अवसर मिलता तो वहां महाराज की छवि ही नजर आती।  महाराज की आकांक्षा से राज्य के विज्ञान मंत्री माननीय वेद स्वामी इस प्रयास में निरन्तर लगे हुए थे कि वैज्ञानिक गण आज के एक्स रे मशीन की तरह ऐसा कोई उपकरण तैयार कर लें जिससे हरेक  व्यक्ति के भीतर की जांच की जा सके। कुछ निर्बुद्ध नागरिक कहते कुछ थे और भीतर किसी और की छबि बिठाए रहते थे। इनकी भी पहचान सुशासन के लिए बहुत जरूरी थी।

ज्ञानरिपु प्रतिभा सम्पन्न थे। किन्तु केवल प्रतिभा के बल पर क्या कभी सब कुछ पाया जा सकता है? विशेषकर उच्च राजकीय पद प्राप्त करने में केवल ज्ञान और उपाधियां होना ही पर्याप्त नहीं होता।
यह अलग बात थी कि ज्ञानरिपु पचास वर्ष की आयु का होने को आए थे किंतु युवा कहलाते थे। रचनात्मक क्षेत्र में युवा बने रहने की अभी और बहुत गुंजाइश थी। वे भी अन्य युवाओं की तरह मन वांछित जीविका और कार्य न मिल पाने से लम्बे समय तक अध्ययन में व्यस्त रहते आए। विभिन्न विषयों में स्नातकोत्तर उपाधियां अर्जित करते रहे। राज्य में अनेक ऐसे विश्वविद्यालय व महाविद्यालय थे जहां मित्रो,सहयोगियों सहित पुस्तक देखकर परीक्षाएं देने की सुविधाएं उपलब्ध कराई गईं थीं। इसके बाद भी यदि परीक्षा देने में कोई कसर रह जाती तो परीक्षार्थी को उत्तर पुस्तिकाओं के गन्तव्य और परीक्षक के निवास से अवगत करा दिया जाता था। उचित धनराशि चुका कर मनचाही उपाधि प्राप्त करना बड़ा सहज सुगम था। फिर भी बात न बन सके तो कई ऐसे सामाजिक सेवा केंद्र भी थे जहां से उपाधियों की प्रतिकृति बनवाई जा सकती थी।

ज्ञानरिपु ने ऊपर उल्लेखित सहज रास्तों का कितना सहारा लिया या कितनी मेहनत और ईमानदारी से अध्ययन किया, यह तो कहा नहीं जा सकता किन्तु राजनीति,मनोविज्ञान,समाज शास्त्र, इतिहास और भाषाओं में उन्होंने स्नातकोत्तर उपाधियां हासिल कर लीं थी। अंग्रेजी विषय में भी एक उपाधि प्राप्त की किन्तु इसमें उन्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। कुछ लोग बताते थे कि कार्य सिद्धि के लिए उन्हें अपने गुरू पण्डित विद्यादमन का सहयोग भी लेना पड़ा था।

दरअसल अन्य प्रतियोगियों को पछाड़कर ज्ञानरिपु के सबसे आगे आने में भी इसी आंग्ल भाषा की उपाधि की महत्वपूर्ण भूमिका रही। चयन समिति में आचार्य विद्यादमन भी एक सदस्य थे और उनका तर्क था कि महाराज की ख्याति और सुशासन की खूबियों को विश्वभर में पहुंचाने के लिए अंग्रेजी जैसी भाषा के विद्वान का नवरत्नों में होना आवश्यक है। यद्यपि यह विडम्बना और रहस्य ही रहा कि साक्षात्कार के मात्र एक दिन पहले अंग्रेजी विषय में प्रावीण्यता की उपाधि ज्ञानरिपु के हाथ कैसे लग गई। जबकि आवेदन के साथ पहले से प्रस्तुत प्रमाणपत्रों में इसका उल्लेख नहीं था।

बहरहाल, सभी उम्मीदवारों के ऊपर ज्ञानरिपु की डिग्रियां और आचार्य से उनका रक्त संबंध बाजी मार ले गया और अस्थायी रूप से 'राजकवि' का मुकुट उनके मस्तक की शोभा बढाने लगा। मुकुट के स्थायी होने में उनकी रचनात्मक प्रतिभा का अभी मूल्यांकन होना शेष था। इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज्ञानरिपु तन मन से सम्राट की सेवा में रत हो गए और नियमित रूप से हर विधा में राज प्रशंसा और नरेश स्तुति के उद्देश्य से सृजन करने लगे।


3
गुरुमंत्र का प्रताप


नव नियुक्त राजकवि ज्ञानरिपु देर रात तक महाराज का भाषण लिखने में जी जान से जुटे हुए थे। इस काम की गुणवत्ता पर उनका पद पर बना रहना और सेवा का पुष्टिकरण होना निर्भर था। हाल फिलहाल इस पद पर उनकी नियुक्ति अल्पकालिक जो हुई थी।

महाराज का निजी सचिव 'काक दन्त' अमावसी चेहरे के बीच धवल दन्त चमकाता हुआ शाम को ही सूचना देकर गया था कि भोर होते ही महाराज को वन क्षेत्र की दुर्गम बस्ती 'पाषाण पुष्प' की ओर कूच करना है। जहां स्वर्ण खनिज उत्खनन योजना के शुभारम्भ के अलावा वनवासियों को आशीर्वचन भी देना है। इसी प्रयोजन से उन्होंने एक दक्षिणी राज्य से आयातित बहूमूल्य सुरा का सेवन किया और वक्तव्य तैयार करने बैठ गए। रसोइए से भोजन बनाने का भी मना कर दिया था ताकि पेट हल्का रहे और अपना काम वे एकाग्रता से सम्पन्न कर सकें। तथापि कुछ भुने हुए काजू,किशमिश,चिलगोजे आदि जैसे सूखे मेवे बीच बीच में सुरा पान करते हुए मुँह में धर लेते थे।

पांच पांच विषयों में स्नातकोत्तर उपाधि सम्पन्न ज्ञानरिपु जी को भाषण लिखने में कोई खास कठिनाई नहीं हो सकती थी किन्तु उनकी समस्या कुछ और थी। विषय ही बड़ा जटिल था। वे जानते थे कि 'पाषाण पुष्प' क्षेत्र में भारी वन क्षेत्र को नष्ट कर वहां खनिज दोहन का कार्य होने वाला था। इस बात को लेकर वनवासी लोगों में काफी आक्रोश पैदा हो गया था। कुछ समाज सुधारक समाज और वनवासियों की जीवनधारा याने  जल,जंगल और जमीन पर राजकीय हस्तक्षेप के आरोप लगा रहे थे। आंदोलन भी करने लगे थे। आंदोलनकारी भी वनवासी परिवारों के बीच से ही निकलकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे।

ज्ञानरिपु को राजकीय निर्देश थे कि वे अपनी कलम से ऐसा कोई जादू करें कि जंगल के नीचे जमीन में दबा स्वर्ण भंडार उत्खनित होने में कोई बाधा खड़ी न हो, होने वाले विरोध को दबाया जा सके, लगे हाथ वनवासियों के हृदय में प्रजा के महान हितचिंतक के रूप में महाराज की छवि भी निर्मित हो जाए। 

राजकवि की चुनौती बहुत बड़ी और विकट थी। कहते हैं जहां चाह होती है,वहीं राह भी निकल आती है। यहां तो चाह का प्रश्न था ही नहीं। राजाज्ञा जैसी तलवार की अदृश्य धार थी। जिस पर उन्हें चलना था और खून की जगह शब्दों के रंग बहाने थे अपने भाषण लेखन में। राजकवि तो हो गए थे लेकिन भीतर द्वंद्व चल रहा था। जो कुछ पढा गुना था,उसके विपरीत कार्य करना पड़ रहा था। किताबों में पढ़ा था कि मनुष्य से प्रकृति प्रदत्त उपहारों व अधिकारों को छीन कर किया गया विकास, विकास नही अपितु विनाश होता है। जो कुछ सीखा समझा, गुरुजनों ने सीख दी,उसके उलट आदिवासियों को यहां बहलाना फुसलाना था,ताकि स्वर्ण खनन परियोजना में वे बाधा उत्पन्न न करें।

विचारों में डूबे ज्ञानरिपु के मन में उथल पुथल बढ़ती गई और वे बेचैन हो गए। कलम साथ नहीं दे रही थी। सुरा भी मन मस्तिष्क पर असर नहीं डाल पा रही थी। क्या करें अब। समय बीता जा रहा था। भोर तक भाषण तैयार करना था। वे उठे और 'राज प्रासाद अधिकारी निवास' की कोठी क्रमांक पन्द्रह पर दस्तक दी। कोठी क्रमांक पन्द्रह आचार्य विद्यादमन को आवंटित थी।

शिष्य की समस्या गुरु ने धैर्य के साथ सुनी और निदान भी कुछ क्षणों में कर दिया।इसी लिए तो गुरु गुरु होता है, गोविंद के पहले स्थान पाता है। गुरु बोले 'रिपु'! वे ज्ञानरिपु को स्नेहवश इसी लघु संबोधन से पुकारते थे। 'तुम नाहक परेशान हो रहे हो। राजकीय सेवा करते हुए तुम्हे अपने स्वतंत्र विचारों,अपनी पक्षधरता, आदर्शों को मन के किसी ताम्रपात्र में बंद कर स्मृतियों की गहराई में उतार देना चाहिए। जब तक ये चीजें तुम्हारे सामने रहेंगी तुम राजकीय दायित्व निभा ही नहीं सकोगे। अतः पहले इनसे मुक्त हो जाओ। सफलता तुम्हारे सामने नृत्य करने लगेगी।'
गुरुगृह से संतुष्ट और प्रसन्न भाव लेकर लौटे ज्ञानरिपु  पुनः अपने आसन पर आ विराजे। कागज पर कलम अब सरपट दौड़ने लगी थी। थोड़ी अवधि के उपरांत राजमहल के गुम्बद से तीन टंकार बजाए गए, राजकवि ने अपना लेखन पूर्ण कर लिया था।

राजकवि ने उद्बोधन का शानदार प्रारूप तैयार किया था जो अगले दिन वनक्षेत्र की 'पाषाण पुष्प' बस्ती में स्वर्ण उत्खनन परियोजना में पढ़ कर महाराज ने सबका दिल जीत लिया।
यह सब उस 'गुरु मन्त्र' का ही प्रताप था जिसके कारण ज्ञानरिपु को स्थायी रूप से सम्राट ने राजकवि बना दिया।

ब्रजेश कानूनगो