Friday, July 16, 2021

महाराज श्रृंखला 11

 महाराज श्रृंखला 11

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आत्मज्ञान का प्रस्फुटन


महाराज को लम्बे समय से आशंका तो थी कि अतंतः उन्हें संघ गणराज्य में अपनी रियासत का विलय करना ही होगा। स्वतंत्रता संग्राम में सेनानियों के संघर्ष और महात्मा गांधी के नेतृत्व में लंबे स्वाधीनता आंदोलन के पश्चात अंग्रेजों को देश की सत्ता भारतीय नेताओं के हवाले करने को मजबूर होना पड़ा।

आजादी मिलने के बाद संघ गणराज्य में ज्यादातर रियासतें तो उसी समय शामिल हो गईं थीं किन्तु जो थोड़ी सी रियासतें झिझक रहीं थीं वे भी संघ के गृहमंत्री की योजना और कूटनीति के दबाव में विलय के लिए सहमत होती गईं।

अपनी रियासत के विलय को लेकर महाराज आशंकित तो थे किंतु यह नहीं मालूम था कि यह इतनी जल्दी हो जाएगा। 'पाषाण पुष्प' की यात्रा सम्राट के रूप में उनकी अन्तिम राजकीय यात्रा साबित हो जाएगी। एक सप्ताह के भीतर ही समझौते की कार्यवाही सम्पन्न हो गई। हालांकि संघ सरकार की ओर से नियमित अच्छी खासी धनराशि पेंशन की तरह 'प्रिवीपर्स' के नाम से महाराज को प्राप्त होती रहने वाली थी। जिससे वे अपनी शानोशौकत थोड़ी बहुत बनाए रख सकते थे। रियासत अब गणराज्य के एक प्रांत का हिस्सा बन गई थी। समस्त नीति नियम कानून राजशाही की बजाए प्रजातांत्रिक व चुनी हुई सरकार द्वारा बनाए और अपनाए जाने जरूरी हो गए।

महाराज की शिक्षा दीक्षा विलायत में हुई थी तो वे प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं के बारे में जानते भी थे। पढ़ाई के दौरान भी उन्होंने इसके बारे में काफी पढ़ रखा था। दरअसल विलायत छोड़कर वे हिंदुस्तान आना नहीं चाहते थे किंतु पिताश्री याने बड़े महाराज की मृत्यु और रियासत पर चचेरे भाइयों की कुदृष्टि पड़ने, साम्राज्य हथिया लेने के षडयंत्रों की वजह से मातृभूमि लौटना पड़ा था।

राजकाज से मुक्त होकर, महाराज राजमहल प्रासाद को छोड़ एक छोटी कोठी में शिफ्ट कर गए। कोठी भी किसी छोटे राजमहल से कम नहीं थीं किन्तु प्रासाद की तुलना में नौकर चाकर से लेकर अन्य प्रबन्धन कार्यों में कमी अवश्य आई थी। प्रिवीपर्स राशि में अब पहले की तरह खर्च नहीं उठाया जा सकता था। वे जानते थे कि सरकार इस सुविधा को व्यापक राष्ट्रहित में कभी भी छीन सकती है। कालांतर में यह हुआ भी। 

राजशाही का वर्षों से लगा स्वाद महाराज के तन मन में ही नहीं आत्मा में भी घर बना चुका था। लोकतंत्र में सम्राट का ताज  सिर पर सजाना कभी सम्भव नहीं। मन मानने को तैयार ही नहीं था कि अब वे महाराज नहीं हैं। यद्यपि संबोधन में आज भी महाराज ही पुकारे जाते थे। गरीब की रोटी को भी रोटी ही कहते हैं लेकिन उस पर बटर नहीं लगा होता। महाराज की दशा लगभग वैसी ही हो गई थी।

बहुत पुरानी कहावत है ,जहां चाह होती है वहाँ राह भी निकल आती है। प्रजातंत्र में भी उन्हें अपना उज्ज्वल भविष्य आखिर नजर आ ही गया। एक सुबह शौचयोग करते हुए तनिक जोर लगाया तो मस्तिष्क में टंकार हुई। आत्मज्ञान का प्रकाश प्रस्फुटित हो गया।

अगले दिन देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल की सदस्यता उन्होंने ग्रहण कर ली। उन दिनों पोलिटिकल पार्टी में एंट्री का आज की तरह सार्वजनिक इवेंट नहीं होता था। पार्टी अध्यक्ष या महासचिव की उपस्थिति के बगैर भी बड़े बड़े लोग ज्वाइन कर लेते थे। पार्टी दफ्तर में जाकर महाराज ने फॉर्म भरा और चवन्नी नकद जमा करा दी। 

कार्यालय के बुजुर्ग सचिव ने रजिस्टर में नए सदस्य का नाम नोट किया, भूषणसिंह वल्द रणवीरसिंह ठाकुर, ठिकाना....? क्या करेंगें जानकर बस इतना जान लीजिए पूर्व रियासत का एक महाराजा आज प्रमुख पोलिटिकल पार्टी का चवन्नी सदस्य बनकर देश सेवा के लिए उद्यत हो गया।


ब्रजेश कानूनगो  


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