Wednesday, July 14, 2021

महाराज श्रृंखला 9

 महाराज श्रृंखला 9

9

जय जोहार ! 


महाराज की जय...महाराज की जय...! की गगनभेदी आवाज के बीच मंच के सूत्रधार उपाध्याय जी ने महाराज को आशीर्वचन हेतु आमन्त्रित किया। 

महाराज किसी चक्रवर्ती सम्राट सा गौरवभाव अपनी देह भाषा से दर्शाते हुए डायस तक आए। एक नजर सामने बैठे श्रोताओं पर डाली। एक छोर से दूसरे छोर तक के दृश्य का अवलोकन किया, फिर आगे प्रथम पंक्ति से अंतिम तक दृष्टि घुमाई। इतनी अधिक भीड़ देख महाराज का हृदय गदगद हो आया। 

कुछ देर स्तब्ध से हो गए। कुछ क्षणों तक मुंह से शब्द ही नहीं निकल पा रहे थे। शायद उनका गला रुंध गया था,आंखें कुछ भीगी भीगी सी लग रहीं थीं। सामने रखे पात्र से थोड़ा जल पिया। डायस की आड़ से निकलकर आधे झुककर एक बार फिर सामने बैठी पाषाण पुष्प की प्रजा को प्रणाम किया। फोटोग्राफरों के कैमरों की फ़्लैश गन पुनः चमक उठीं।

यहां अब एक गोपनीय रहस्य भी जाहिर कर दिया जाना उचित होगा। दरअसल,महाराज के उद्बोधन के प्रारूप के सृजन में जितना महत्वपूर्ण योगदान राजकवि ज्ञानरिपु का होता था उतना ही उसकी प्रभावी प्रस्तुति में रियासत के मुख्य नाट्यसम्राट पंडित नटराज के सुझावों का भी होता था। वक्तव्य की सार्वजनिक प्रस्तुति के पूर्व महाराज सामान्यतः पण्डित नटराज से उचित परामर्श प्राप्त कर लिया करते थे। कल रात भी उन्होंने कुछ सूत्र समझ लिए थे। सम्भवतः उसी भेंट का परिणाम था कि आज की सभा में महाराज बहुत कुशलता से अपनी भाव भंगिमाओं से श्रोताओं पर बहुत गहरा और हृदयस्पर्शी प्रभाव छोड़ते जा रहे थे।

महाराज पुनः डायस पर आए। एक नजर मंच पर विराजे संतश्री और गोपाल सेठ पर डाली। श्रोताओं की ओर मुखातिब हुए, सबसे पहले उनके मुंह से कुछ शब्द वनवासियों के लिए उन्ही की भाषा में निकले....

'आप मन ला जय जोहार!'

उनके इतना कहते ही एक बार फिर महाराज की जयकार और तालियों की गड़गड़ाहट से सभा स्थल गूंज उठा। करीब पांच सात मिनट तक महाराज की जय...के जोरदार नारे लगते रहे। महाराज पुनः गदगदायमान हो गए।

उन्होंने हाथ उठाकर संकेत किया तो शांति छा गई। शायद वे थोड़ा पहले हाथ उठा देते तो शांति पहले उपस्थित हो जाती।

'सभी प्रजाजनों को मेरा नमस्कार!' अब उन्होंने मातृभाषा में बोलना प्रारम्भ किया। 

'पाषाण पुष्प' की प्रजा और माँ राजगंगा के बीच आकर मैं बहुत गौरव का अनुभव कर रहा हूँ। संतश्री रगडू महाराज का आशीर्वाद पाकर जो दैवीय अनुभूति हुई है वह मैं कभी विस्मृत नहीं कर पाऊंगा। 

'संत,समन्वय,सुख और स्वर्ण' का एक ऐसा सुंदर संयोग रियासत के इतिहास में पहली बार बन रहा है। हम धन्य हैं कि गोपाल सेठ के परिवार ने पाषाण के नीचे स्वर्ण उत्खनन करके राज्य में 'सुख,संपत्ति और समृद्धि' के पुष्प खिलाने का दुष्कर कार्य का बीड़ा उठाया है। समन्वय का दायित्व निश्चित ही रियासत के राजकीय विभाग के पास रहेगा लेकिन सबसे बड़ी प्रसन्नता की बात तो यह है कि संतश्री ने परियोजना को अपना आशीर्वाद प्रदान कर हमें कृतज्ञ कर दिया है। हम विश्वास दिलाते हैं वनवासियों के जीवन और उनके हितों पर हम कोई आंच नहीं आने देंगे।' 

महाराज जो कुछ बोल रहे थे उससे राजकवि की श्रेष्ठतम प्रतिभा के दर्शन हो रहे थे। भाषा में बहुत विनम्रता, माधुर्य के साथ रस, छंद और अलंकारों का सुंदर समन्वय हुआ था। विशेषतः अनुप्रास अलंकार का प्रयोग करना राजकवि ज्ञानरिपुजी की प्रिय शैली थी। एक ही अक्षर से शुरू होने वाले शब्दों के शब्द समुच्चय अक्सर बनाया करते थे। महाराज को भी यह प्रयोग बहुत रास आता था। बल्कि कई बार तो वे स्वयं भी कई नए संक्षिप्ताक्षर गढ़कर सबको चौंका दिया करते थे। महाराज आगे कह रहे थे,

'भाइयों और बहनों! आपको यह जानकर हर्ष होगा कि उत्खनन भूमि पर जो पेड़ लगे हैं उनमें से हमारे लिए आगे उपयोगी पेड़ों को प्रतिस्थापित करने का काम प्राथमिकता से किया जाएगा। जो प्रतिस्थापित नहीं किये जा सकेंगे,उतने ही नए पौधे रोपने का एक महाअभियान भी हाथ में लेने का हम आज संकल्प लेते हैं। एक नया वनक्षेत्र समीप की बंजर भूमि में आप सबके सहयोग से  विकसित होकर पेड़ कटाई की प्रतिपूर्ति कर सकेगा। संतश्री ने भी विश्वास दिलाया है कि आप सब वनवासी इस कार्य में हमारे साथ हैं। एक दूसरी खुशी की बात यह भी है कि उत्खनन परियोजना में वनवासी परिवारों के युवाओं को भी उचित जीविका उपलब्ध होगी। महिलाओं को खनन कार्य मे लगी कम्पनी के अधिकारियों कर्मचारियों के घरों और दफ्तरों में रोजगार उपलब्ध होगा।

आज खनन स्थल पर भूमि पूजन कार्य भी होने वाला है। मैं आप सब से आग्रह करूंगा कि इस अवसर पर आप सभी ग्राम भोज में भोजन करके ही घर लौटें। 

एक बहुत महत्वपूर्ण घोषणा भी मैं यहां आप सबके सामने करना चाहता हूँ...' इतना कहकर उन्होंने संतश्री रगडू महाराज की ओर मुस्कुराकर कनखियों से देखा। आगे बोले,

'संतश्री के आश्रम के निकट जो राजगंगा माँ का तट है वहां पूज्य संत स्वर्गीय जुगनू महाराज की एक विशाल धातु प्रतिमा को स्थापित करने का हम संकल्प लेते हैं। यह पुण्य कार्य राजकोष से 'प्रतिमा स्थापना समिति' को आबंटित किया जा सकेगा। निर्माण समिति में रियासत के मुख्य वास्तुशिल्पी, खनन कम्पनी के प्रबंध निदेशक प्रशांत कुमार और संतश्री रगडू महाराज सदस्य रहेंगे। अध्यक्षता की जिम्मेदारी सम्भालने के लिए हम हमारे परम् मित्र और समाजसेवी गोपाल सेठ से विनम्र अनुरोध करते हैं। विश्वास है वे पाषाण पुष्प की प्रजा के इस निवेदन को स्वीकार कर हमें अनुग्रहीत करेंगें।' अबकी बार महाराज ने मुस्कुराते हुए कनखी से मंच पर विराजे गोपाल सेठ की ओर देखा। गोपाल सेठ ने खड़े होकर उन्हें और श्रोताओं को प्रणाम किया।

कुछ देर बाद महाराज ने भाषण समाप्त करते हुए अंत में श्रोताओं से कहा कि अब हम मंगलदायिनी माँ राजगंगा के प्रति पाषाण पुष्प की ओर से कृतज्ञता व्यक्त करेंगें। मेरे साथ ऊंची आवाज में  बोलिए , 'माँ राजगंगा की...जय !'सभी उपस्थित श्रोताओं व अतिथियों ने सम्पूर्ण शक्ति से उद्घोष किया, 'जय!' महाराज ने यही जयकारा कुल तीन बार लगवाया।

यहाँ से महाराज को परियोजना खनन स्थल पर शिलान्यास करने के लिए प्रस्थान करना था। मंच से उतरकर समीप स्थित वनवासी कलाकारों के शिविर की ओर आए और अनौपचारिक वार्तालाप करने लगे। एक छोटे बच्चे को गोद में उठाकर प्यार भी किया। कलाकारों के साथ लोकनृत्य में सहभागिता करने का आज उनका मन नहीं था। बांसुरी जैसा कोई लोकवाद्य अवश्य हाथ में लिया किन्तु मुंह से लगाया नहीं। यद्यपि तालुका प्रमुख ने व्यवस्था तो सब कर रखी थी  पर सम्राट की इच्छा के आगे कौन क्या कर सकता है।हालांकि इस बीच फोटोग्राफर अपने कार्य में मुस्तैदी से व्यस्त हो गए थे।

ब्रजेश कानूनगो 





  

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