Friday, July 9, 2021

महाराज श्रृंखला 4

 महाराज श्रृंखला 4

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प्रस्थान के पूर्व का तनाव

जब भी महाराज को राजकीय प्रयोजन से राज्य के अन्य क्षेत्रों में यात्रा करनी होती थी उनके निजी सचिव काकदन्त का काम थोड़ा बढ़ जाता था। आज भी कुछ इसी तरह की स्थिति बनी हुई थी।

सामान्यतः काकदंत पौ फटने से पहले ही जाग जाते थे। स्नानादि से निवृत्त होकर आज थोड़ी शीघ्रता से नित्य का योग,ध्यान,प्राणायम,आराधन आदि किया और महाराज की यात्रा से सम्बंधित व्यवस्थाओं में व्यस्त हो गए।

तभी राजकवि ज्ञानरिपु का सेवक प्रकट हुआ और हांफते हुए उसने काकदन्त जी को प्रणाम किया। उसकी सांसे फूली हुईं थी। ऐसा प्रतीत होता था कि वह दौड़ता हुआ वहां पहुंचा था।

'क्या बात है सेवक! इतनी हड़बड़ी में क्यों नजर आते हो? क्या लाए हो?' काकदन्त जी बोले तो उनके आगे के दो बड़े धवल दाँत मोटे ओठों के बीच से चमक उठे।

'राजकवि ने ये दस्तावेज भिजवाए हैं सरकार।' सेवक ने गुलाबी रंग के आवरण वाली कार्यालयीन फाइल तिपाही पर रख दी।

'अच्छा तुम अब जाओ! राजकवि को हमारा नमस्कार बोल देना।' सेवक की ओर देखे बगैर उन्होंने कहा और आवरण खोलकर पत्रक की जांच की।

फाइल मिलते ही काकदंत जी की कुछ बेचैनी कम हुई। महाराज का भाषण राजकवि ने तैयार करके समय से पूर्व ही भिजवा दिया था।

'प्रणाम सरकार!' आवाज सुनकर सिर उठाकर देखा तो सामने राजकीय वाहन चालक लाखनसिंह खड़ा था। वैसे कोई भी उसे नाम लेकर नहीं पुकारता था। वह केवल ड्राइवर था और ड्राइवर ही पुकारा जाता था। वैसे इसकी कई गोपनीय भूमिकाएं भी थीं किन्तु उनका जिक्र उचित अवसर पर होगा।

ड्राइवर के रूप में वह केवल एक जीवित पुतला भर था, जिसे महाराज व अधिकारियों,मंत्रियों के निर्देशों का पालन कर अपनी प्रतिभा का श्रेष्ठ व वाहन चलाते हुए जीवन रक्षक प्रदर्शन करना आवश्यक था। अपनी ड्राइविंग सीट पर बैठते ही  यद्यपि लाखनसिंह के मुँह और कान बन्द दिखाई देते थे, किन्तु यह भी सत्य था कि कई महत्वपूर्ण रहस्यों को सूंघ लेने की क्षमता और प्रतिभा उसमें भरी पड़ी थी।

'गाड़ी तैयार है सरकार!'

'ठीक है ड्राइवर, तुम प्रतीक्षा करो।'

लाखनसिंह अभिवादन कर कक्ष से बाहर चला गया।

अब काकदंत को शाही दौरे में साथ जाने वाले लवाजमें और कार्यक्रम स्थल की व्यवस्थाओं की चिंता सताने लगी थी। समारोह की सफलता सुनिश्चित किए जाने की सारी जिम्मेदारी उन्ही के कंधों पर रहती थी। किसी भी तरह की गड़बड़ होने पर महाराज के कोप का पहला शिकार उन्हीं को बनना पड़ता था। वे भुक्त भोगी थे अतः हर तरह से आश्वस्त हो जाना चाहते थे।

गुलाबी आवरण से काकदन्त ने एक सूची निकाली और उस पर कार्य हो जाने वाले बिंदुओं पर चिन्ह अंकित करने लगे।

तभी उन्हें स्मरण हुआ कि अभी तक राजधानी के प्रमुख साहूकार गोपाल सेठ को तो संदेश भिजवाया ही नहीं कि उन्हें भी महाराज के साथ समारोह में शिरकत करनी है। यद्यपि गोपाल सेठ महाराज के बचपन के सहपाठी थे किन्तु उससे अधिक महत्वपूर्ण यह था कि स्वर्ण उत्खनन परियोजना का कार्य उनके दामाद प्रशांत कुमार को दिया गया था। प्रशांत कुमार ने उत्खनन विज्ञान में यूरोप जाकर अध्ययन किया था और उधर ही गोपाल सेठ की सुकन्या राधिका ने उनके हृदय से प्रेम तत्व का उत्खनन कर लिया। दोनों भारतीय परंपरा के तहत परिणय सूत्र में बंध गए। यद्यपि राधिका और प्रशांत के विवाह होने के पूर्व ही गोपाल सेठ को अपना कारोबार संभालने के लिए नाती अभिमन्यु मिल चुका था। उनका मानना था कि प्रेम,युद्ध और कारोबार में सब कुछ जायज होता है। प्रगतिशील विचारों का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने इस विवाह को मान्यता दे दी थी। वैसे भी राधिका सेठजी की इकलौती संतान थी। प्रशांत कुमार बहुत सुलझा हुआ युवक था और दूर की सोचता था। उसने अपनी तत्कालीन फ्रेंच प्रेमिका से मुक्ति पाकर अकूत संपत्ति और विशाल कारोबार के स्वामी गोपाल सेठ की इकलौती कन्या राधिका से घनिष्ठता बढा ली। दोनों प्रेम सरोवर में डुबकियां लगाते हुए दो शरीर एक हृदय हो गए। इधर पुत्र अभिमन्यु का जन्म हुआ उधर 'राधिका एंटरप्राइज' नाम से एक बड़ी कम्पनी बाजार में उतर आई। यह तो तय ही था कि इसमें सर्वाधिक पूंजी गोपाल सेठ की ही निवेश हुई थी।

ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को यात्रा पर जाने का पुनर्स्मरण नहीं करवा पाने की अपनी भूल पर काकदंत को अफसोस हो रहा था। अपने सहायक को तुरन्त  बुलवाया। वह आंखें मलता हुआ उपस्थित हुआ।

'अरे रघुराज, हम गोपाल सेठ को तो याद दिलाना भूल ही गए!' चिंतित स्वर में काकदंत बोले।

'मैं बोल आया था सरकार, मध्यान्ह में ही। महाराज का संदेशा आया था। आप शायद किन्ही अन्य तैयारियों में व्यस्त रहे होंगे।' रघुराज ने बताया तो मन ही मन काकदंत खुश हुए किन्तु प्रत्यक्षतः थोड़े कठोर स्वर में बोले, 'ठीक है,ठीक है...अब जाओ तैयार हो जाओ, यहीं रहकर तुम्हे यहां की व्यवस्थाएं देखनी रहेंगीं।

काकदंत जानते थे रघुराज महाराज के निकट आने में कोई मौका नहीं छोड़ता था। अक्सर ऐसे अवसरों की प्रतीक्षा करता था जब काकदंत से कोई त्रुटि हो और महाराज के हृदय में स्थान बना सके। सच तो यह था कि निजी सचिव जैसे महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति की उसकी अपनी दबी आकांक्षा जब तब हिलोरें मारने लगती थी। इन्ही हिलोरों से काकदंत के पद सरोवर के बंध टूटने का खतरा सदैव बना रहता था।

राजमहल के खूबसूरत गुम्बदों को गुलाबी रंग से प्रकाशित करता हुआ जैसे ही पूर्व दिशा से सूरज बाहर निकला, दल बल सहित महाराज का लवाजमा 'पाषाण पुष्प' क्षेत्र की ओर निकल पड़ा। हमेशा की तरह ड्राइवर लाखनसिंह की नजरें मार्ग पर केंद्रित थी मुंह बंद दिखाई दे रहा था।

गोपाल सेठ की कार भी काफिले में साथ चल रही थी किन्तु महाराज ने उन्हें अपनी राजकीय और बड़ी विलायती कार में अपने साथ स्थान दिया था। आगे एक रक्षक के साथ ड्राइवर लाखन सिंह  गाड़ी चला रहा था। पीछे की सीटों पर काकदंत महाराज के यात्रा सामान के साथ विराजे थे। महाराज और गोपाल सेठ बीच की आरामदायक सोफा सीट पर विराजे थे।

गोपाल सेठ और महाराज की मन्त्रणा के स्वरों को लाखनसिंह के कानों में जाने से कैसे रोका जा सकता था। यद्यपि वह महाराज का विश्वासपात्र सेवक था किन्तु इस विश्वास की कीमत चुकाने को कई अन्य लोग तैयार बैठे थे।


ब्रजेश कानूनगो   




 



 



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