Monday, May 18, 2020

ऑन लाइन जीवन

ऑन लाइन जीवन
ब्रजेश कानूनगो

वे लाइव हैं। ऑन लाइन लाइव हैं। जीवित हैं इसलिए लाइव हैं। लाइव न होते तो भी जीवित ही होते। जो लाइव नहीं हैं वे भी अभी मरे नहीं हैं। जो मर गए वे भी लाइव हैं। यहां मरकर भी लाइव रहने की सुविधा है। सुविधा तो यह भी अच्छी है कि यहां जीते हुए भी आप चुपचाप मरे दिखाई दे सकते हैं। ऊबकर छोड़कर चले जाते हैं यह जीवन। लेकिन पुनः लौट लौट आते हैं। अधिक देर  वियोगी रहना सम्भव नही। ऑन लाइन जीवन ललचाता है। मोह छूटे नहीं छूटता। क्या करे बेचारा आसक्ति में डूबा मनुष्य।

वास्तविक दुनिया में ऐसा नहीं होता। आप एक बार मर गए तो समझो मर गए। चार कंधों पर लदकर मुक्तिधाम। मुक्तिधाम से सीधे परमधाम। तीसरे दिन उठावना और तेरहवे दिन गंगाजी। कोरोना काल में तो कुछ के लिए यह भी उपलब्ध नहीं। उसी दिन सब कुछ। यह ऐसा संकट आया है कि सब कुछ उलट पुलट हो गया है। मेरे जैसे ‘घर घुस्सुओं’ पर अब कोई कटाक्ष की गुंजाइश नहीं। समझदार और एक अनुशासित नागरिक होने का अचानक सम्मान मिलने लग गया है। जो ‘न्यू इंडिया’ बनाने की बात करते थे अतीत के गौरवशाली  ‘आर्यावर्त’ में लौट जाने का विचार करने लगे हैं। पश्चिम की संस्कृति के अनुसरण की दिशा बदलकर भारतीय संस्कारों के अनुगमन की ओर हो गयी है।  हैंडशेक नमस्कार में बदलने लगा है।

वक्त वक्त की बात। संसार का सारा भास अब आभासी दुनिया में। ज्ञान का भंडार बनी है  वैश्विक वाट्सएप यूनिवर्सिटी। मनुष्य जाति के जिंदा होने का अहसास फेसबुक पर। फेसबुक की प्रोफ़ाइल पिक्चर जैसे जीवन प्रमाण पत्र। आप चाहें तो कम्प्यूटर स्क्रीन की फ्रेम पर खुद फूलमाला डालकर स्वयं स्वर्गीय घोषित हो सकते हैं। मर्जी आपकी, बस बताया कि उचित सुविधा उपलब्ध है। चाहें तो आजमा लें।  दोस्तों की पोस्ट पर थोड़े दिन लाइक या कमेंट न करें, ऑन लाइन दुनिया में आपकी आभासी मौत निश्चित है। निभाने से ही रिश्ते प्रगाढ़ और आत्मीय होते हैं। दोस्तों की सही परख उसके द्वारा किये गए आपके स्टेटस पर किये कमेंट्स, इमोजी और लाइक्स की गणना से की जाती है।  

तो श्रीमान इन दिनों ऑन लाइन लाइव है सब कुछ। लोग लाइव हैं। प्रेम लाइव है। घृणा लाइव है। नारे लाइव हैं। गालियाँ लाइव हैं।

ऑन लाइन साहित्य लाइव है। कविता लाइव है। विचार लाइव है। गोष्ठियां लाइव हैं। संचालन लाइव है। गुलदस्ते लाइव हैं। वाह वाह लाइव है. आलोचना लाइव है तो प्रशंसा और पुरस्कार भी लाइव है। तालियाँ लाइव हैं। आभार लाइव । स्वल्पाहार लाइव । मिष्ठान लाइव है। समोसा लाइव है। चाय लाइव है।

ऑन लाइन किटी पार्टी में हाऊजी लाइव है। सच लाइव है। झूठ लाइव है। गंध लाइव है. दुर्गन्ध लाइव है। ईर्ष्या और चुगली लाइव है। लोग ऑनलाइन रोटियाँ बेल रहे हैं। बैंगन का भुरता बना रहे हैं। ऑनलाइन पार्टियां उडाई जा रहीं हैं।

पूरा केबिनेट ऑन लाइन ,सचिवालय ऑन लाइन। सरकारें ऑन लाइन लाइव हैं। मीटिंग लाइव है। प्रशासन लाइव है तो आदेश लाइव हैं। निर्देश लाइव हैं।

दुनिया भर में सोशल डिस्टनसिंग है मगर फुट भर डिस्टेंस नहीं है यहां। मिट गईं दूरियाँ। दैहिक दूरियां हैं लेकिन बंदा ऑनलाइन मिल रहा है। दिल मिल रहे हैं। आत्मा परमात्मा में ऑनलाइन एकाकार हो रहीं है। इस मनमोहक ऑनलाइन समय में जब सब कुछ सिमट आया है,परस्पर सुरक्षित दूरी बनाए आभासी दुनिया में आमोद-प्रमोद,साहित्य और आध्यात्म की रोशनी से सब कुछ जगमगा रहा है।

राहतों और संकल्पों की दौड़ती बेशुमार लारियाँ दौड़ रहीं हैं। मगर कितना अजीब है कि कुछ नासमझ लोग धूप में जलती सड़कों पर भूखे ही नंगे पैरों हजारों मील का सफर तय कर घर पहुंचने की जिद पाले हुए हैं। वास्तविक दुनिया में वे लाइन में लगे हैं। लाइन में  लगना ही उनका लाइव होना है। आभासी दुनिया का ऑन लाइन बन्दा उसके हाल से बेहाल और हतप्रभ है।

ब्रजेश कानूनगो

Sunday, May 17, 2020

कोरोना कन्दरा में मानव


व्यथा कथा
कोरोना कन्दरा में मानव
ब्रजेश कानूनगो

रात होते ही उसने एक शिलाखंड से अपनी कन्दरा का द्वार धीरे से बंद कर लिया। तनिक सी आहट से शिशु की नींद खुल जाने का भय था।

इंद्रप्रस्थ महानगरी से कोई पंद्रह दिन पहले पैदल ही निकल पड़े थे भव्य अट्टालिका के रक्षक कृषकपुत्र मनोहरलाल अपनी पत्नी शोभारानी और तीन माह के शिशु कन्हैया को बगल में दबाए। नालंदा के निकट एक कस्बे में बची खुची पुश्तैनी जमीन पर उनका भतीजा कुछ खेती बारी करके जीवन यापन कर लेता था। इतने संस्कार तो अभी गांवों में जीवित हैं कि संकटकाल में अपने काकाश्री के लिए दो वक्त की रोटी निकल ही जाएगी भतीजे की रसोई से। यह उम्मीद अभी भी पाल सकते ही हैं भारतवंशी। सो यह विचारकर इंद्रप्रस्थ पर आई भीषण वैश्विक जीवाणु विपदा के बीच पैदल ही निकल गए मातृभूमि की ओर। जीवन लीला समाप्त भी होना हो तो अपने वतन की भूमि पर हो। बस यही गौरव भाव यात्रा में आत्मबल बनाए रखता था।

भय और चिंताएं तो बहुत सी थी उसके सामने। सबसे बड़ी चिंता तो तीन जनों की रोज की भूख शांत करने की थी। वे सब शाकाहारी थे तो कन्दमूल, फलादि की जुगाड़ बैठाने की बड़ी कठिनाई उपस्थित हो रही थी। अनजान और निर्जन प्रदेश में यह सब करना बहुत दुसाध्य हो रहा था। ऊपर से सूरज की तपन भी बहुत बढ़ गयी थी। ग्रीष्मकाल शुरू होने को था। कन्दरा से बाहर बेर और करौंदों की कुछ झाड़ियों का ही थोड़ा बहुत सहारा था इन कठिन दिनों में। कच्चे पक्के फलों को खाते खाते पति पत्नी के दांत जब खट्टे हो जाते तो फुहाडिया वनस्पति की पत्तियों या ग्वारपाठा के घृत के सेवन से जायका बदलकर जठराग्नि शांत करने का प्रयास करते थे। यह अच्छा था कि उनका शिशु अभी पूरी तरह माँ के दूध पर निर्भर था। माँ तो बस माँ ही होती है, भूखी माँ की छाती में भी अपने बच्चे के लिए दूध उतर ही आता है, सो शिशु भी पेट भर जाने पर चैन से सो रहा था। पुरुष ने इसी का ध्यान रखते हुए कन्दरा का द्वार होले से बंद किया था। ताकि बच्चे की नींद न उचट जाए। अर्धरात्रि में शिशु के रुदन का शोर सुनकर हिंसक पशुओं के आक्रमण का खतरा भी उत्पन्न हो सकता था।

द्वार भले बंद कर दिया था उसने लेकिन अंधेरे में चमगादड़ों और अन्य जीव जंतुओं का भय तो बना ही रहता है तो कुछ घास फूस और सूखी लकड़ियों का इंतजाम भी गुफा में कर रखा था ताकि तनिक आग जलाकर संभावित खतरे से बचा जा सके। आहिस्ता से उसने अपने गमछे के कोने में बंधे चकमक पत्थरों को रगड़ा तो ज्वाला प्रज्ज्वलित हुई। पत्नी जाग रही थी। रोशनी में पति को देखा तो चौंक सी गई।

पिछले दस दिनों से उन्होंने इस कन्दरा में शरण ले रखी थी। लेकिन चकमक की रोशनी आज रात को कुछ इस तरह के कोण से पति के चेहरे पर पड़ी कि उसकी दशा देख भयभीत हो गई। मनोहरलाल तो ऐसे कभी न थे। रामजी जैसा मोहक मुख जामवन्त के वंशज जैसा दृष्टिगोचर हुआ।

किंतु संकट यों ही आसानी से समाप्त नहीं हो जाते। इसी बीच पूरे राष्ट्र में तालेबंदी घोषित हो गई। अजीब किस्म की बीमारी थी यह। किसी ड्रेगन के आतंक की तरह। कोई इलाज नहीं। मात्र आवागमन रोककर, एकांतवास और दैहिक दूरी बनाकर ही इस से मुकाबला किया जा सकता था। शत्रु से बचना ही उससे लड़ाई की रणनीति। राज्यों और जनपदों की सीमाएं सील कर दी गईं थीं।

पांच दिन अथक पैदल यात्रा करते हुए अंततः बीच रास्ते में इस निर्जन वन की कन्दरा में मनोहरलाल के परिवार ने आश्रय लिया था। यही कारण रहा कि पंद्रह दिनों में तेजस्वी कृषकपुत्र मनोहरलाल भालूराज के वंशज नजर आने लगे थे। तदनुसार शोभादेवी अचानक चकमक पत्थर की मध्दिम रोशनी में पति का मुख देख चौंक गईं थी।

पैदल चलकर आगे बढ़ने की थोड़ी शक्ति आई तो एक रात वे धीरे धीरे अपने गांव की ओर बढ़ने लगे। सुबह सुबह पाटीदार जी के खेत की बागड़ नजर आने लगी थी। उनका उत्साह बढ़ गया, घर पहुंच जाने की खुशी उनके चेहरों पर दिखाई देने लगी।
गांव शुरू होते ही एक झटका सा लगा मनोहरलाल को।
ग्रामीणों और बस्तियों के निवासियों ने दूर बसे अपने परिजनों तक के प्रवेश को अपने क्षेत्र में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया था।
इतना थक चुके थे कि कन्दरा की ओर वापिस लौटना भी सम्भव नहीं था। चक्कर से आये मनोहरलाल को और गश खाकर गांव की बागड़ पर धराशाही हो गए।

ब्रजेश कानूनगो

Friday, May 1, 2020

होनहार बिरवान के होत न चीकने पात

व्यंग्य
होनहार बिरवान के होत न चीकने पात 

'होनहार बिरवान के होत चीकने पात', या 'पूत के लक्षण पालने में ही दिखने लग जाते हैं' जैसी पुरानी कहावतें अब अपने अर्थ खो चुकी लगती हैं।  पूरे यकीन से यह नहीं कहा जा सकता कि बचपन के लक्षण बच्चों के भविष्य का निश्चित संकेत देते ही हैं।  मेहमानों के समक्ष 'अंग्रेजी पोएम' सुनाकर सबका दिल जीत लेने वाला होनहार बच्चा मातृभाषा की परीक्षा में फेल हो जाता है। पिता की परचून की दुकान में पुड़िया बांधता बालक कालांतर में किसी राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी को शोभायमान करता है।

माँ हमेशा कहा करती थी कि मैं बचपन से ही बडा होनहार रहा हूँ। माँओं का दृष्टिकोण संतानों के प्रति हमारे यहाँ ऐसा ही होता आया है। यह अलग बात है कि जिस औलाद को वह होनहार समझती रही हो वही बेटा बदले हुए समय में अपनी होनहारियत पर अपना सिर पीटने को मजबूर हो जाए।

अब केवल होनहारियत या प्रतिभा से काम नहीं चलता। व्यक्ति में प्रबंधन के साथ साथ चतुराई बल्कि चालाकी जैसे गुणों का विकास होना भी जरूरी है। सफलता के लिए एक बार प्रतिभा में थोड़ी कमी रह जाए लेकिन उसमें दुनियादारी के सूत्र सिद्ध करने का कौशल अंगीकार करने की क्षमता अब बेहद जरूरी हो गई है।

अब देखिए, स्कूल के जमाने में चाहे भाषण प्रतियोगिता रही हो या निबन्ध अथवा कविता लेखन स्पर्धा, हमेशा हमने अपनी प्रतिभा का शानदार प्रदर्शन किया और होनहार होने का तमगा हमारे सीने पर चस्पा कर दिया गया। हमारे जो मित्र होनहार होने को अपना अपमान समझते थे तथा ‘ग’-गणेश की बजाए ‘ग’-गधा  उनको अधिक रुचिकर लगता था,उनका भाग्य देखिए,उनके यहाँ आज छापे पड रहे हैं, करोडों की दौलत गिनी जा रही है और एक हम हैं जो 'सेठ धर्मदास साहित्य सम्मान' की आस लगाए जेब के पैसों से ग्रंथ छपयाये जा रहे हैं।

निबन्ध तथा तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता में अक्सर उन दिनों एक विषय रहता था-‘यदि मैं प्रधान मंत्री बन जाऊँ’ । विद्यार्थी बडे उत्साह से लिखते कि कैसे उनके प्रधानमंत्री बनते ही देश का काया कल्प हो जाएगा। कैसे हर तरफ सच्चाई और ईमानदारी की हवा बहने लगेगी। भ्रष्टाचार के दानव का वध किया जा चुका होगा, कोई भूखा नही होगा, हर सिर के ऊपर छत और हर बच्चे के हाथ में कलम होगी और चेहरे पर खुशी के फूल खिल उठेंगे। बचपन से ही बच्चों में प्रधानमंत्री बनने की चाहत पैदा करने के गम्भीर प्रयास किए जाते रहे हैं।

हमारे यहाँ होनहार लोगों की कभी कोई कमी नहीं रही। प्रधानमंत्री बनने के अभिलाषियों की एक लम्बी कतार लगी रहती है जैसे कोई आकाशगंगा राजनीति के आकाश में टिमटिमा रही हो।

तथाकथित होनहार बच्चे  शुरू से इस चेष्टा मे लगे रहते हैं कि जीवन में एक बार प्रधानमंत्री अवश्य बन जाएँ। हर माँ-बाप की ख्वाहिश होती है बेटा पंद्रह अगस्त को लाल किले की प्राचीर से जनता से भारत माता की जय बुलवाए। लेकिन ऐसा होता कहाँ है! होनी को कौन टाल सकता है। जीवन की आपाधापी और संघर्षों के आगे अधिकाँश होनहार ‘हार’ जाते हैं। इस उपक्रम मे कई लोग पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं लेकिन प्रधानमंत्री हो जाने का उनका सपना उसी तरह पूरा नही हो पाता जिस तरह उनके बचपन में लिखे गए निबन्ध या भाषण में देखे गए सपने पूरे नही हो पाते।

सच तो यह है कि सपने पूरा करने के लिए अब  'बिरवान के चीकने पात' के भरोसे नहीं रहा जा सकता।

ब्रजेश कानूनगो

महाराज की बीमारी

व्यंग्यकथा
महाराज की बीमारी

किसी ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि किसी शूरवीर की बजाए कवि के निधन से सम्राट इतने दुखी हो उठेंगे।
राज्य कला ,संस्कृति और साहित्य की दृष्टि से बहुत समृद्ध था। अनेक कलाकार और साहित्यकार राज्य की शोभा बढ़ाते थे।
राजधानी में ही अनेक गुणी और प्रतिभावान विभूतियों के विद्यमान होने के उपरांत भी सबकी उपेक्षा करते हुए उन्हें प्राथमिकता देकर महाराज ने राजकवि का दर्जा दिया था। इस सम्मान के पीछे कुछ वही कारण थे जो प्रायः सभी कालखण्डों में इसी प्रकार रहते आये हैं। राजकवि का गौरव प्राप्त करने के लिए जो अहर्तताएँ होनी चाहिये वे उनमें मौजूद थीं और महाराज ने उन्हें बखूबी पहचान भी लिया था।
लेकिन पिछले माह जब राजकवि एक संगीत सभा के बाद रात्रि को नियमित सुरापान पश्चात विश्राम हेतु शयनकक्ष को गए तो प्रातःकाल वहां से मात्र कवि का देह फार्मेट तो उपलब्ध हुआ पर कविता नदारत थी। ब्रह्ममुहूर्त में उनके भीतर की काव्यात्मा पदोन्नत होकर  स्वर्गलोक की इंद्रसभा में अपना आसान ग्रहण करने हेतु कूच कर चुकी थी।

तब से ही महाराज की सेहत गिरती जा रही थी। पिछले कुछ दिनों से बहुत उदास और निढाल भी दिखाई देने लगे थे। मंत्रीगण, अधिकारी और परिजन सब चिंतित थे कि आखिर उन्हें हुआ क्या हैयदि महाराज की हालत इसी तरह  दिनों दिन गिरती रही तो राजकाज का क्या होगा?
चिकित्सा विज्ञान में प्रावीण्यता अर्जित किए और निपुण राजवैद्य बीमारी का सही कारण अपने सभी परीक्षणों के बावजूद पता नहीं लगा पा रहे थे। पड़ोसी राज्यों के विशेषज्ञों को भी आमंत्रित किया गया। मगर सफलता हाथ न लगी। दिनों दिन महाराज का चेहरा पीला पड़ता जा रहा था। पहले सी आभा और तेज विलुप्त था।

तभी महामंत्री को स्मरण आया कि महाराज की सेहत के पीछे शारीरिक की बजाए कोई मानसिक समस्या तो नहीं है? उन्होंने तुरंत ही राज्य के विचारक और दार्शनिक आचार्य विद्यादमन का परामर्श लेना उचित समझा। आचार्य अपनी धारणाओं के आधार पर कठिनाई में पड़े व्यक्ति की मनोचिकत्सा भी किया करते थे। इसे आज की भाषा में हम काउंसलिंग भी कह सकते हैं।
आचार्य विद्यादमन ने सबसे पहले यह जानने की कोशिश की कि महाराज को सबसे अच्छा क्या लगता था। जो उन्हें पसंद हो वह उन्हें दिया जाए। यदि कोई मिष्ठान्न, विशिष्ठ सुरा, कोई प्रिय व्यक्ति, स्त्री,गीत,संगीत जो भी उनके मन को प्रसन्न कर सकता हो वह सब प्रस्तुत किया जाए। दुर्भाग्य रहा कि यह सब करने के बावजूद परिणाम शून्य ही रहा।  

आचार्य विद्यादमन चिंता में पड गए। उन्होंने अपने चिंतन को और विस्तारित और कारगर बनाने की दृष्टि से महाराज के विशिष्ठ महाज्ञानी नवरत्नों से विमर्श के लिए एक बैठक आमंत्रित की। इस बैठक का परिणाम बड़ा सकारात्मक रहा । आचार्य को महाराज के रोग के कारणों का पता चल गया। दरअसल बैठक में राज्य के नौ रत्नों में से आठ रत्न ही उपस्थित हुए थे। राजकवि की अनुपस्थिति ही वह बात थी जिससे आचार्य को समस्या के संकेत मिल गए।

आचार्य ने दिवगंत राज कवि का समस्त साहित्य अपने अध्ययन कक्ष में बुलवाया और गहन अध्ययन किया। यह देखकर वे हतप्रभ रह गये की कवि महोदय की सारी किताबें महाराज की प्रशंसा में लिखी गई रचनाओं से भरी हुईं थी। रचनाएं क्या थीं, मात्र छद्म शौर्य गाथाएँ, विरुदावलियाँ, महाराज के सम्मान में आरतियों आदि के अलावा और कुछ भी नहीं था उनमें।  हर रचना में महाराज की प्रशंसा महाभारत के चीरहरण प्रसंग में द्रोपदी के वस्त्र की तरह बढ़ती जाती थीं जो हर क्षण नई उपमाओं और अलंकारिक शब्दों से विस्तारित और काल्पनिक रंगों से इंद्रधनुषी हो जाती थीं। आचार्य पढ़ते हुए कितना ही अधीर होते जाते थे महाराज की असली सूरत मूरत नजर आना राजकवि की रचनाओं में मुश्किल हो रहा था।

किन्तु आचार्य विद्यादमन को इस बात का बहुत संतोष भी था कि राज्य के कल्याण की दृष्टि से उन्होंने अपने चिंतन से महाराज की अस्वस्थता का रहस्य आखिर खोज निकाला था। बल्कि यों कहें कि राजन के रोग का निवारण करने में उन्होंने सफलता प्राप्त कर ली थी।
आचार्यश्री  ने तुरंत महामंत्री को सुझाव दिया की वे रिक्त हुए राजकवि के पद को तुरंत भर दें और उस पर किसी योग्य चाटुकारिता गुणों से संपन्न ओजस्वी कवि को नियुक्त कर दें। महामंत्री ने तुरंत ही एक कार्यकारी राजकवि की नियुक्ति हेतु राज्य में आदेश प्रसारित कर दिया।

देखते ही देखते अनेक नवोदित लेखक, कवि अपनी सेवाएं देने को तत्पर हो गए। पद एक था मगर आवेदकों  की संख्या राजमहल की मुंडेर के कंगूरों पर जगमगाते दीपकों की तरह सैंकड़ों थी। हर कवि राजमहल पर छाये अँधेरे को अपनी रोशनी से जगमगा देना चाहता था। एक युवा जो राजमहल और महाराज की स्तुति में वर्षों से अपनी कविताओं और कथाओं से परोक्ष योगदान दे रहा था लेकिन साहित्य समाज में बहुत उपेक्षित सा महसूस करता रहा था उसके दिन फिर गए। प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत कृतियों ने उसे नया राजकवि हो जाने का गौरव प्रदान करवा दिया।
महाराज रोगी जरूर थे किन्तु वे थे तो सम्राट। उन्हें प्रशंसा पसंद थी। इतिहास गवाह है यदि व्यक्ति सम्राट है तो प्रशंसा उसके तन में जोश और मन में गौरव भर देती है। एक तरह से प्रशंसा राजा के लिए शक्तिवर्धक,रक्तशोधक और जोशवर्धक टॉनिक की तरह काम करती है।
कुछ ही दिनों में नए राजकवि की प्रतिभा का असर दिखाई देने लगा। धीरे धीरे महाराज पूर्ण स्वस्थ हो गए। चेहरा फिर दमकने लगा, राजकाज सुचारू रूप से चलने लगा। चहुँओर राजकवि की ओजस्वी और अलंकारिक कविताओं की गूँज से महाराज की कीर्ति पताका पुनः फहराने लगी। जिस तरह कल्याणकारी राज्य के उस कवि का कल्याण हुआ, उसके दिन फिरे...सबके फिरें....इतिश्री राजकथा चतुर्थ अध्याय समाप्त।

ब्रजेश कानूनगो

मंगल भवन अमंगल हारी

व्यंग्य कथा
मंगल भवन अमंगल हारी

पर्णकुटी में प्रवास कर रहे राजन की निगाहें अचानक दूर क्षितिज में उड़ती धूल पर गई तो वे आशंकित हो उठे कि कहीं राजधानी से कोई दूत किसी अनर्थ की सूचना लेकर तो नहीं आ रहा। उनकी शंका स्वाभाविक ही थी क्योंकि पिछले दिनों जब जब इधर कोई सन्देश वाहक आया था कभी भी उन्हें शुभ समाचार प्राप्त नहीं हुआ था। वे इधर वन में आ तो गए थे लेकिन राजकाज और प्रजा की परेशानियों से उसी तरह मुक्त नहीं हो पा रहे थे जिस प्रकार राज्य में दिनों दिन फैलती जा रही अज्ञात बीमारी के प्रकोप से प्रजा को बचाया जाना मुश्किल होता जा रहा था।

'आर्य! हम और कितने दिन यहाँ पर्णकुटी में समय व्यतीत करेंगें? कब हम इस एकांतवास से मुक्त होकर पुनः राजप्रासाद लौट सकेंगे?' महारानी ने परेशान होकर व्याकुल मन से आखिर एकांतवासी राजन से पूछ ही लिया।
'देवी! जैसे ही हमारे राज्य में  विषाणु संक्रमण के प्रकोप पर नियंत्रण कर लिया जाएगा और हमारे एकांत के कृष्णपक्ष की निर्धारित अवधि समाप्त हो जाएगी, हम लोग  पुनः राजधानी और राजमहल में प्रवेश कर लेंगें। तनिक धैर्य आपको रखना ही होगा।' महाराज ने महारानी से दो हस्त दूर अपने आसन पर विराजे विराजे कहा।

कोई और वक्त होता तो निश्चित ही वे ऐसा कहते हुए महारानी के सुकोमल कंधे पर अपने करकमल का स्नेह स्पर्श अवश्य करते। किंतु पृथ्वी पर फैली संक्रामक महामारी की वजह से वे ऐसा नहीं कर सकते थे। सात समंदर पार से आये अस्त्र सौदागर अतिथि के संपर्क में आने से उन्हें भी बीमारी का अंदेशा हो गया था। राजवैद्य ने परीक्षण के उपरांत सलाह दी कि संक्रमण की श्रृंखला को तोड़कर ही इस बीमारी को फैलने से रोका जा सकता है। संक्रमित व्यक्तियों को अन्यों से दूर रहकर एकांतवास में रहना होगा ताकि एक दो पक्षों में विषाणु का असर स्वतः समाप्त हो जाए। और राजन पत्नी सहित एकांतवास हेतु वन क्षेत्र में पर्णकुटी में प्रवास को बाध्य हो गए।

उन्हें अब बहुत पश्चाताप भी हो रहा था कि अपनी राज्य व्यवस्था नीति के निर्धारण में शास्त्रागाह को समृद्ध करने की बजाए औषधि विज्ञान और चिकित्सालयों के विकास के लिए पर्याप्त ध्यान वे क्यों नहीं दे सके। लेकिन अब पछताने से क्या हो सकता था। लोकजीवन को विषाणु के संक्रमण से मुक्त करने का कोई तात्कालिक उपाय ही नहीं उपलब्ध था।  

विषाणु संक्रमण से राज्य का  बुरा हाल होता जा रहा था। प्रजा में प्रतिदिन संक्रमित लोगों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही थी। एक ही उपाय था कि किसी तरह संक्रमण की श्रृंखला को भंग किया जाए। लोग थे कि मान ही नहीं रहे थे। राज्य में समस्त प्रकार की सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों को रोक दिया गया था। अनेक खेल प्रतियोगिताओं और सांस्कृतिक महोत्सवों की निर्धारित तिथियां आगे बढ़ा दी गईं थीं। लोगों को घरों में ही रहने की अधिसूचना प्रसारित कर दी गई थी लेकिन कुछ उद्दंड युवा राजनिर्देशों का अनुपालन नहीं करने से बाज नहीं आ रहे थे। दो दिन पूर्व ही सूचना लेकर दूत आया था कि कुछ युवकों ने अतिउत्साह दिखाते हुए शाही वृत्त पर निषेधात्मक आज्ञा का उलंघन करते हुए उत्सव मनाया जिससे संक्रमण के विस्तार की आशंकाएं और गहरी हो गईं थीं।

इसी बीच महाराज भी संक्रमण के संदिग्ध पाये गए तो महारानी सहित एकांत जीवन व्यतीत करने के लिए वन की ओर आना ही पड़ा। बस तभी से यह पर्णकुटी उनका आवास हो गई थी। जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं ही  उद्यम करना जरूरी हो गया था। किसी भी सहायक और सेवक को कुटी में प्रवेश करना निषेध कर दिया गया था। इसलिए खुद राजा रानी ही मिल जुलकर सभी घर गृहस्थी के दैनिक काम काज करने को विवश हो गए थे। शुरुआत में थोड़ा संकोच और कठिनाई अवश्य आई किंतु बाद में स्थितियों के प्रति उन्होंने समर्पण कर दिया और आमजन की तरह इसीमें थोड़ा थोड़ा आनन्द तलाशने की कोशिश करने लगे।

इस बीच राजमहल से निकला अश्वारोही सैनिक कुटिया के द्वार पर पहुँच चुका था। अश्व से उतर कर राजन को उसने प्रणाम किया ‘महाराज की जय हो!’ कहकर कुटिया के द्वार पर रखे द्रव से अपने हाथों को शुद्ध कर संदेशपत्र तिपाही पर रख दिया।

महाराज ने जैसे ही पत्र पढ़ा, खुशी से उछल से पड़े। अनेक वर्षों से तपोवन में शोधकार्य में लीन महर्षी ‘विज्ञानरिपु’ ने विषाणु जनित महामारी और रोगमुक्ति का उपाय आविष्कृत कर लिया था।

अचानक मेरी तंद्रा टूटी। टीवी देखते देखते शायद झपकी लग गयी थी। स्क्रीन पर महर्षी विश्वामित्र अपने आश्रम में श्रीराम को आशीर्वाद दे रहे थे। धीरे धीरे संगीत के बीच रामायण की पंक्तियाँ गूंजने लगीं...मंगल भवन अमंगल हारी...!