Friday, May 1, 2020

मंगल भवन अमंगल हारी

व्यंग्य कथा
मंगल भवन अमंगल हारी

पर्णकुटी में प्रवास कर रहे राजन की निगाहें अचानक दूर क्षितिज में उड़ती धूल पर गई तो वे आशंकित हो उठे कि कहीं राजधानी से कोई दूत किसी अनर्थ की सूचना लेकर तो नहीं आ रहा। उनकी शंका स्वाभाविक ही थी क्योंकि पिछले दिनों जब जब इधर कोई सन्देश वाहक आया था कभी भी उन्हें शुभ समाचार प्राप्त नहीं हुआ था। वे इधर वन में आ तो गए थे लेकिन राजकाज और प्रजा की परेशानियों से उसी तरह मुक्त नहीं हो पा रहे थे जिस प्रकार राज्य में दिनों दिन फैलती जा रही अज्ञात बीमारी के प्रकोप से प्रजा को बचाया जाना मुश्किल होता जा रहा था।

'आर्य! हम और कितने दिन यहाँ पर्णकुटी में समय व्यतीत करेंगें? कब हम इस एकांतवास से मुक्त होकर पुनः राजप्रासाद लौट सकेंगे?' महारानी ने परेशान होकर व्याकुल मन से आखिर एकांतवासी राजन से पूछ ही लिया।
'देवी! जैसे ही हमारे राज्य में  विषाणु संक्रमण के प्रकोप पर नियंत्रण कर लिया जाएगा और हमारे एकांत के कृष्णपक्ष की निर्धारित अवधि समाप्त हो जाएगी, हम लोग  पुनः राजधानी और राजमहल में प्रवेश कर लेंगें। तनिक धैर्य आपको रखना ही होगा।' महाराज ने महारानी से दो हस्त दूर अपने आसन पर विराजे विराजे कहा।

कोई और वक्त होता तो निश्चित ही वे ऐसा कहते हुए महारानी के सुकोमल कंधे पर अपने करकमल का स्नेह स्पर्श अवश्य करते। किंतु पृथ्वी पर फैली संक्रामक महामारी की वजह से वे ऐसा नहीं कर सकते थे। सात समंदर पार से आये अस्त्र सौदागर अतिथि के संपर्क में आने से उन्हें भी बीमारी का अंदेशा हो गया था। राजवैद्य ने परीक्षण के उपरांत सलाह दी कि संक्रमण की श्रृंखला को तोड़कर ही इस बीमारी को फैलने से रोका जा सकता है। संक्रमित व्यक्तियों को अन्यों से दूर रहकर एकांतवास में रहना होगा ताकि एक दो पक्षों में विषाणु का असर स्वतः समाप्त हो जाए। और राजन पत्नी सहित एकांतवास हेतु वन क्षेत्र में पर्णकुटी में प्रवास को बाध्य हो गए।

उन्हें अब बहुत पश्चाताप भी हो रहा था कि अपनी राज्य व्यवस्था नीति के निर्धारण में शास्त्रागाह को समृद्ध करने की बजाए औषधि विज्ञान और चिकित्सालयों के विकास के लिए पर्याप्त ध्यान वे क्यों नहीं दे सके। लेकिन अब पछताने से क्या हो सकता था। लोकजीवन को विषाणु के संक्रमण से मुक्त करने का कोई तात्कालिक उपाय ही नहीं उपलब्ध था।  

विषाणु संक्रमण से राज्य का  बुरा हाल होता जा रहा था। प्रजा में प्रतिदिन संक्रमित लोगों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही थी। एक ही उपाय था कि किसी तरह संक्रमण की श्रृंखला को भंग किया जाए। लोग थे कि मान ही नहीं रहे थे। राज्य में समस्त प्रकार की सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों को रोक दिया गया था। अनेक खेल प्रतियोगिताओं और सांस्कृतिक महोत्सवों की निर्धारित तिथियां आगे बढ़ा दी गईं थीं। लोगों को घरों में ही रहने की अधिसूचना प्रसारित कर दी गई थी लेकिन कुछ उद्दंड युवा राजनिर्देशों का अनुपालन नहीं करने से बाज नहीं आ रहे थे। दो दिन पूर्व ही सूचना लेकर दूत आया था कि कुछ युवकों ने अतिउत्साह दिखाते हुए शाही वृत्त पर निषेधात्मक आज्ञा का उलंघन करते हुए उत्सव मनाया जिससे संक्रमण के विस्तार की आशंकाएं और गहरी हो गईं थीं।

इसी बीच महाराज भी संक्रमण के संदिग्ध पाये गए तो महारानी सहित एकांत जीवन व्यतीत करने के लिए वन की ओर आना ही पड़ा। बस तभी से यह पर्णकुटी उनका आवास हो गई थी। जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं ही  उद्यम करना जरूरी हो गया था। किसी भी सहायक और सेवक को कुटी में प्रवेश करना निषेध कर दिया गया था। इसलिए खुद राजा रानी ही मिल जुलकर सभी घर गृहस्थी के दैनिक काम काज करने को विवश हो गए थे। शुरुआत में थोड़ा संकोच और कठिनाई अवश्य आई किंतु बाद में स्थितियों के प्रति उन्होंने समर्पण कर दिया और आमजन की तरह इसीमें थोड़ा थोड़ा आनन्द तलाशने की कोशिश करने लगे।

इस बीच राजमहल से निकला अश्वारोही सैनिक कुटिया के द्वार पर पहुँच चुका था। अश्व से उतर कर राजन को उसने प्रणाम किया ‘महाराज की जय हो!’ कहकर कुटिया के द्वार पर रखे द्रव से अपने हाथों को शुद्ध कर संदेशपत्र तिपाही पर रख दिया।

महाराज ने जैसे ही पत्र पढ़ा, खुशी से उछल से पड़े। अनेक वर्षों से तपोवन में शोधकार्य में लीन महर्षी ‘विज्ञानरिपु’ ने विषाणु जनित महामारी और रोगमुक्ति का उपाय आविष्कृत कर लिया था।

अचानक मेरी तंद्रा टूटी। टीवी देखते देखते शायद झपकी लग गयी थी। स्क्रीन पर महर्षी विश्वामित्र अपने आश्रम में श्रीराम को आशीर्वाद दे रहे थे। धीरे धीरे संगीत के बीच रामायण की पंक्तियाँ गूंजने लगीं...मंगल भवन अमंगल हारी...!

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