Sunday, May 17, 2020

कोरोना कन्दरा में मानव


व्यथा कथा
कोरोना कन्दरा में मानव
ब्रजेश कानूनगो

रात होते ही उसने एक शिलाखंड से अपनी कन्दरा का द्वार धीरे से बंद कर लिया। तनिक सी आहट से शिशु की नींद खुल जाने का भय था।

इंद्रप्रस्थ महानगरी से कोई पंद्रह दिन पहले पैदल ही निकल पड़े थे भव्य अट्टालिका के रक्षक कृषकपुत्र मनोहरलाल अपनी पत्नी शोभारानी और तीन माह के शिशु कन्हैया को बगल में दबाए। नालंदा के निकट एक कस्बे में बची खुची पुश्तैनी जमीन पर उनका भतीजा कुछ खेती बारी करके जीवन यापन कर लेता था। इतने संस्कार तो अभी गांवों में जीवित हैं कि संकटकाल में अपने काकाश्री के लिए दो वक्त की रोटी निकल ही जाएगी भतीजे की रसोई से। यह उम्मीद अभी भी पाल सकते ही हैं भारतवंशी। सो यह विचारकर इंद्रप्रस्थ पर आई भीषण वैश्विक जीवाणु विपदा के बीच पैदल ही निकल गए मातृभूमि की ओर। जीवन लीला समाप्त भी होना हो तो अपने वतन की भूमि पर हो। बस यही गौरव भाव यात्रा में आत्मबल बनाए रखता था।

भय और चिंताएं तो बहुत सी थी उसके सामने। सबसे बड़ी चिंता तो तीन जनों की रोज की भूख शांत करने की थी। वे सब शाकाहारी थे तो कन्दमूल, फलादि की जुगाड़ बैठाने की बड़ी कठिनाई उपस्थित हो रही थी। अनजान और निर्जन प्रदेश में यह सब करना बहुत दुसाध्य हो रहा था। ऊपर से सूरज की तपन भी बहुत बढ़ गयी थी। ग्रीष्मकाल शुरू होने को था। कन्दरा से बाहर बेर और करौंदों की कुछ झाड़ियों का ही थोड़ा बहुत सहारा था इन कठिन दिनों में। कच्चे पक्के फलों को खाते खाते पति पत्नी के दांत जब खट्टे हो जाते तो फुहाडिया वनस्पति की पत्तियों या ग्वारपाठा के घृत के सेवन से जायका बदलकर जठराग्नि शांत करने का प्रयास करते थे। यह अच्छा था कि उनका शिशु अभी पूरी तरह माँ के दूध पर निर्भर था। माँ तो बस माँ ही होती है, भूखी माँ की छाती में भी अपने बच्चे के लिए दूध उतर ही आता है, सो शिशु भी पेट भर जाने पर चैन से सो रहा था। पुरुष ने इसी का ध्यान रखते हुए कन्दरा का द्वार होले से बंद किया था। ताकि बच्चे की नींद न उचट जाए। अर्धरात्रि में शिशु के रुदन का शोर सुनकर हिंसक पशुओं के आक्रमण का खतरा भी उत्पन्न हो सकता था।

द्वार भले बंद कर दिया था उसने लेकिन अंधेरे में चमगादड़ों और अन्य जीव जंतुओं का भय तो बना ही रहता है तो कुछ घास फूस और सूखी लकड़ियों का इंतजाम भी गुफा में कर रखा था ताकि तनिक आग जलाकर संभावित खतरे से बचा जा सके। आहिस्ता से उसने अपने गमछे के कोने में बंधे चकमक पत्थरों को रगड़ा तो ज्वाला प्रज्ज्वलित हुई। पत्नी जाग रही थी। रोशनी में पति को देखा तो चौंक सी गई।

पिछले दस दिनों से उन्होंने इस कन्दरा में शरण ले रखी थी। लेकिन चकमक की रोशनी आज रात को कुछ इस तरह के कोण से पति के चेहरे पर पड़ी कि उसकी दशा देख भयभीत हो गई। मनोहरलाल तो ऐसे कभी न थे। रामजी जैसा मोहक मुख जामवन्त के वंशज जैसा दृष्टिगोचर हुआ।

किंतु संकट यों ही आसानी से समाप्त नहीं हो जाते। इसी बीच पूरे राष्ट्र में तालेबंदी घोषित हो गई। अजीब किस्म की बीमारी थी यह। किसी ड्रेगन के आतंक की तरह। कोई इलाज नहीं। मात्र आवागमन रोककर, एकांतवास और दैहिक दूरी बनाकर ही इस से मुकाबला किया जा सकता था। शत्रु से बचना ही उससे लड़ाई की रणनीति। राज्यों और जनपदों की सीमाएं सील कर दी गईं थीं।

पांच दिन अथक पैदल यात्रा करते हुए अंततः बीच रास्ते में इस निर्जन वन की कन्दरा में मनोहरलाल के परिवार ने आश्रय लिया था। यही कारण रहा कि पंद्रह दिनों में तेजस्वी कृषकपुत्र मनोहरलाल भालूराज के वंशज नजर आने लगे थे। तदनुसार शोभादेवी अचानक चकमक पत्थर की मध्दिम रोशनी में पति का मुख देख चौंक गईं थी।

पैदल चलकर आगे बढ़ने की थोड़ी शक्ति आई तो एक रात वे धीरे धीरे अपने गांव की ओर बढ़ने लगे। सुबह सुबह पाटीदार जी के खेत की बागड़ नजर आने लगी थी। उनका उत्साह बढ़ गया, घर पहुंच जाने की खुशी उनके चेहरों पर दिखाई देने लगी।
गांव शुरू होते ही एक झटका सा लगा मनोहरलाल को।
ग्रामीणों और बस्तियों के निवासियों ने दूर बसे अपने परिजनों तक के प्रवेश को अपने क्षेत्र में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया था।
इतना थक चुके थे कि कन्दरा की ओर वापिस लौटना भी सम्भव नहीं था। चक्कर से आये मनोहरलाल को और गश खाकर गांव की बागड़ पर धराशाही हो गए।

ब्रजेश कानूनगो

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