Monday, November 6, 2017

धुएं और आग के अंतर्संबंध

व्यंग्य
धुएं और आग के अंतर्संबंध
ब्रजेश कानूनगो      

जब कोई व्यक्ति सांस लेता दिखता है तो हम समझ जाते हैं कोई लौ अभी आदमी के भीतर प्रज्वलित है. इसी तरह जहां धुआँ होता है वहां भीतर कहीं आग भी होती है. आग और धुएं का पुराने मुहावरे में ‘चोली-दामन’ जैसा और नए जुमले में ‘नोट और एटीएम’ जैसा रिश्ता होता है. नोट के बगैर मशीन शव के सामान है, नोट प्राण हैं, मशीन देह है. धुआँ कहीं दिख रहा है तो आग वहां अभी बची हुई है.  

अब यह समझना भी जरूरी है कि जो दिखाई दे रहा वह धुआँ ही है. कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी ने रसोई घर में बघार लगाया हो और हम दमकल लेकर दौड़ पड़ें आग बुझाने के लिए. धुएं धुएं में फर्क होता है. विविधता होती है उसकी प्रकृति में. तो धुएं की पहचान करना भी जरूरी है. कचरा जलता है तो भी धुआँ निकलता है और बस्तियां जलती हैं तब भी काले-घने गुबार दिखाई देते हैं.

ये अलग बात है कि कभी-कभी नफ़रत का बघार भी ऐसा लगाया जाता है कि बस्तियां जलने लगती है. धुआँ हमारी समझ को ढँक लेता है. बस्तियों और कचरे के जलने में भेद नहीं कर पाते हम लोग . आग बुझाने के प्रति उदासीनता ज्यों की त्यों बनी रहती है. ख़याल ही नहीं रहता कि सुलगते घरों में निर्दोष लोग जल रहे हैं. रेलगाड़ियाँ और अन्य सम्पत्तियाँ नहीं हमारा अपना खून–पसीना धुएं में बदलता जा रहा है. छतों से सुलगते शहर और आसमान में धुएं का दानव हमारे आसुओं को सुखा देता है...        

घमण्ड की कढाई में शेखी का बघार लगाने पर झूठ का तेल उछलता है तो उसके छीटे धुएं के साथ मिलकर कालिख पोत देते हैं हमारे चेहरों पर. इसका उछाल इतना तीव्र होता है कि सात समंदर पार करके छींटे घर के आँगन तक पहुँच जाते हैं. सत्ता तक की सडकों पर चिकनाई फ़ैल जाती है.. नेता ओंधे मुँह गिर पड़ते हैं.

धुएं और आग के अंतर्संबंधों को थोडी आध्यात्मिक दृष्टि से समझने की कोशिश करें तो कई बार बाहर निकलते हुए धुएं को सहजता से देख पाना मुश्किल हो जाता है. मसलन जो किसी तीव्र गुस्से की वजह से धधकने वाली आग के कारण अदृश्य बाहर निकलने लगता है.परेशानियों के निदान का कुछ उपाय नहीं सूझने पर जब अंतर्मन में आग लगती है, बैचैनी का धुआँ गहराने लगता है, ईर्ष्या की आग में जीते-जी जो चिता भीतर कहीं जल उठती है उसके धुएं की जलन इतनी तीव्र होती है कि मनुष्यता ही राख में तब्दील हो जाती है.  किसी दुःख में दिल सुलगने लगता है तब भी निकलता है धुआँ.. लेकिन धुएं के ऐसे अदृश्य गुबारों को देख पाने के लिए संवेदनाओं की सूक्ष्म नजर की दरकार होती है... रूई में लगी आग की तरह कष्टों, दुखों और असंतोष की आग धीरे-धीरे भीतर ही भीतर सुलगती रहती है..और एक दिन जब गुबार तेज हवा के झोंके से आग के गोले में तब्दील हो जाता है.... खौफनाक विस्फोटों को रोक पाना किसी के बस में नहीं रह पाता.
बस, इतना समझ लीजिये, धुआँ दिखते ही उससे तुरंत निपटने में ही सबकी भलाई है. आगे आपकी मर्जी साहब !!

ब्रजेश कानूनगो

Tuesday, October 10, 2017

पीटना, बजाना, ठोकना, कूटना वगैरह..!


पीटना, बजाना, ठोकना, कूटना वगैरह..!    
ब्रजेश कानूनगो 

पीटने और बजाने में काफी अंतर होता है। दीपावली या किसी शुभ अवसर पर कुछ लोग आपके घर-द्वार आकर ताली पीटते हैं, वह बजाना नहीं है। जबकि जन सभा में ताली बजती है तो बजाने वाला और बजवाने वाला दोनों सुख पाते हैं। इस संगीत को सम्मान देकर 'करतल ध्वनि' भी कहा गया है।

ऐसे ही स्कूल के दिनों में बच्चे माटसाब के आने के पहले टेबलें पीटा करते थे। गुरुजी जिस छात्र को ऐसा करते पकड़ लेते तो वे उसको ही टेबल की तरह पीट दिया करते थे। इस ‘पीटने’ को लोकाचार में ‘कूटना’ और लोकभाषा में ‘बजाना’ कहा जाता है. हालांकि पीटने की एक श्रेणी छाती से और कूटने की माथे से भी जुडी है. गरीब आदमी अक्सर छाती पीटता पाया जाता है जबकी संपन्न व्यक्ति माथा कूटते नजर आ जाता है. ठोकने- पीटने का राजनैतिक सिद्धांत भी दिलचस्प है. कुछ लोग छप्पन इंच फुगाकर स्वयं ठोकते रहते हैं तो इसके चलते कई लोग अपनी छाती पीटने लगते हैं.


हमारी कक्षा का हुनरमंद मांगीलाल भी टेबल पीटता था लेकिन उसके टेबल ठोकने में एक लय होती थी,एक रिदम होती थी। वह शायद टेबल बजाया करता था। टेबल बजाते बजाते वह शादी ब्याह में ढोल बजाने लगा फिर कस्बे के आर्केस्ट्रा में ड्रमर बनकर खूब लोकप्रिय हो गया।  

कहने का तात्पर्य है कि हरेक व्यक्ति को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि कब क्या पीटना है और कब क्या बजाना है। मसलन यदि आप किसी बात का खूब ढोल पीट रहे हैं तो यह अपेक्षा भी सहज बन जाती है कि कभी आप सुर में भी आएंगे। केवल ढोल पीटते रहने से काम नहीं चलने वाला। हवाओं में संगीत गूंजना चाहिए। शोर नहीं। यह बुनियादी सूत्र है। 

नगाड़ा पीटा जाता है,क्योंकि वहां उद्देश्य ही शोर पैदा करना होता है। सोये हुए को जगाने और निराशा से भरे को उत्साहित करने के लिए नगाड़ा पीटा जाता है। युद्ध भूमि में सैनिकों में जोश के लिए और सुर संसार में मग्न सम्राट के ध्यानाकर्षण के लिए नगाड़ा पीटा जाता रहा है। ढोल, मृदंग,तबले जैसे वाद्यों की प्रकृति कुछ अलग होती है। ये बजते हैं, बजाए जाते हैं, पीटे नहीं जाते।

बेशक ढोल पीटते हुए शुरुआत करिये कोई हर्ज नही है, लेकिन कब तक इस तरह शोर किया जाना चाहिए। रस पैदा होना चाहिए। ढोल से संगीत पैदा करना जरूरी है। संगीत में ताल और संगत का बड़ा महत्व होता है। बेताला और बेसुरा कर्णप्रिय नहीं होता। श्रोता कानों में रुई लगा लेते हैं। बैचैन होकर सभागार से बाहर निकल जाते हैं। बेचारे संयोजकों का तो फिर बैंड बज जाना निश्चित है।

यह भी गौर करने वाली बात है कि यदि लम्बे समय तक ढोल पीटा जाता रहे तो उसके फट जाने का अंदेशा बन जाता है। इसलिए बिन मांगे भी एक मशविरा त्योहारों के अवसर पर फ्री लीजिये कि जब भी आपके हाथ में किसी भी क्षेत्र का  कोई ढोल आ जाये, कृपया उसे पीटने की बजाए मधुरता पैदा करने की कोशिश करें। संगीत मनुष्य की सचमुच कमजोरी होती है। आपके ढोल पर थिरकने लगेंगे सारे लोग। 

ब्रजेश कानूनगो 
503 गोयल रिजेंसी चमेली पार्क, कनाड़िया रोड, इंदौर 452018

Tuesday, June 20, 2017

भजन संध्या

व्यंग्य कथा
भजन संध्या
उर्फ़  खुलना सेंट वेलेंटाइन व्यायाम शालाका  
ब्रजेश कानूनगो 

भजन बाबू अपनी धर्म पत्नी संध्या देवी के उस आधुनिक और सुसज्जित जिम में मैनेजर हैं जिसका नाम उन्होंने बहुत सोच विचार के बाद 'सेंट वेलेंटाइन व्यायाम शाला' रखा है।
नाम थोड़ा अटपटा जरूर लगता है किन्तु इसके पीछे की कथा जानकर इस नामकरण को  उचित ही कहा जाएगा।
नामों और आचार-विचार से कभी कभी भ्रम की स्थिति बन जाती है। इस रचना के नायक भजन बाबू को भी अक्सर लोग किसी धार्मिक या आध्यात्मिक प्रतिष्ठान से जुड़ा व्यक्ति मान लेने की गलती कर बैठते हैं। जिस प्रकार'हरिगंधाकिसी अगरबत्ती का पैकेट या भजन संग्रह न होते हुए साहित्य की पत्रिका हैउसी तरह हमारे भजन बाबू भी किसी साधु सम्प्रदाय से तालुक्क नहीं रखते। किसी मंदिर में वे सरकारी पुजारी के पद पर नियुक्त भी नहीं हैं किंतु एक अर्थ में उन्हें पुजारी अवश्य कहा जा सकता है। 

भजन बाबू प्रेम के पुजारी हैं और ज्यादातर गुलाबी रंग के वस्त्र धारण करते हैं। उनका मानना है कि इस रंग से मन गुलाब की तरह खिला रहता है और चित्त  प्रेम की गंध से सरोबार रहता है। उनके शरीर से पसीने की जगह अद्भुत प्रेम रस झरता रहता है। जिस तरह विश्वविख्यात डीओ स्प्रे के प्रभाव से  अनन्य सुंदरियां बेहद कुरूप पुरुष के पीछे-पीछे दौड़ती चली आती हैं उसी प्रकार भजन बाबू की देह से प्रेम के इस अदृश्य प्रस्फुटित विकिरण से नगर की सुकन्याएँ बरबस खींची चली आती हैं।

यद्यपि भजन बाबू का नाम जन्म प्रमाण पत्र में भजनसिंह लिखवाया गया था किन्तु क्षत्रीय कुल की इस सात मासी संतान में सिंहजैसे कोई लक्षण रहे ही नहीं। गुलाबी कोमलता उनकी देह और दिल मे कुछ इस कदर व्याप्त थी कि कुटुंब के बड़े बूढ़ों को संदेह होने लगता था कि उनका जन्म संतान अभिलाषी दंपत्ति द्वारा किसी संत प्रदत्त प्रसाद में दिए गुलाबी सेवफल को ग्रहण करने के पश्चात हुआ है। जो भी कारण रहा हो लेकिन यह बालक आगे चलाकर संत वेलेंटाइन के विचारों से लगातार प्रभावित होता गया।

उम्र के साथ साथ इस बालक के मन,प्राण में प्रेम रस की उत्पत्ति बड़े वेग से होती रही। किशोर होते होते उसके हृदय समुद्र में प्रेम लहरों के ज्वार भाटे आने लगे। युवावस्था में कदम रखते ही प्रेम की बाढ़ ने पहले मुहल्ला फिर पूरा नगर ही भिगो कर रख दिया। भजन बाबू के प्रेम से कस्बे की भूमि उर्वरा हो गई । तरुणियाँ  प्रेमनगर में घर बसाने के गीत गाने लगीं।

नगर सेठ मोटाभाई काला की तीसरी सुकन्या संध्या इस रचना की प्रेमपगी नायिका है। प्रेम में वह पागल तो नहीं हुई लेकिन खेल की दीवानी के जीवन से खेल को प्रेम ने खो-खो कर दिया. दरअसल संध्या को पढ़ने लिखने से ज्यादा खेल कूद में गहरी रुचि थी। खोखो उसका प्रिय खेल रहा । जैसा कि आप जानते हैं इस खेल में एक खिलाड़ी दूसरे को खो बोलते हुए उसका स्थान ले लेता हैसंध्या ने भी अपनी बड़ी बहन सुधा को खो किया। प्रेम रंग में डूबती सुधा एक दिन सुअवसर देख कर स्थानीय बस सर्विस के मालिक के बेटे के साथ मुंबई दर्शन करने चली गई। बाद में संध्या सुधा के स्थान पर आ गई। खेल के प्रति समर्पण ने संध्या को खोखो में जिला चैंपियन बना दिया था। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है।

हमारे पर्व और उत्सव सांस्कृतिक चेतना के साथ-साथ मेल-मिलाप, भाई-चारे , प्रेम के उन्वान और सुख की स्थापना में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. जन्माष्टमी के अवसर पर नगर के दशहरा मैदान में जलोटा जी प्रभु भजन सुनाते रहे, उधर नायिका संध्या पर भजन बाबू से प्रस्फुटित प्रेम विकिरण ने जादू सा कर दिया। जलोटा जी के भजन में कृष्ण का राधा से आध्यात्मिक मिलन हो रहा था। इधर भजन और संध्या के मन प्राण एक हो रहे थे। रात के साथ हर तरफ भजन संध्या गहराने लगी थी। इस मधुर अनुभूति के अगले दिन नजदीक शहर के आर्य समाज मंदिर में भजन और संध्या ने एक दूसरे को गेंदे की मालाएं पहना कर प्रेम को स्थायित्व प्रदान कर दिया. 

कुछ दिनों की लुका छिपी के बाद भजन बाबू और संध्या देवी ने मोटाभाई की मदद से एक जिम खोल लिया। अब संध्या केवल भजन के लिए थी और भजन दिन में व्यायाम शाला का प्रबंधन देखने लगा है।
ईश्वर ने जैसे भजन और संध्या का कल्याण किया, दुआ करते हैं सभी प्रेमियों पर कृपा बरसे. प्रेम से बड़ा दुनिया में कुछ नहीं होता. संत वेलेंटाइन कोचिंगसे लेकर संत वेलेंटाइन बुटिकभी हमें देखने को मिलें.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर 452018



Monday, May 29, 2017

चड्डी बनियान और चौर्य प्रबंधन

व्यंग्य
चड्डी बनियान और चौर्य प्रबंधन
ब्रजेश कानूनगो  


बेचारे 'चड्डी- बनियान'  फिर चर्चा में आ गए।  हर बार अपने काम को अंजाम देते हुए धर लिए जाते हैं। कहा जाता है पकड़े गए लोग चड्डी बनियान गिरोह के आदमी थे। यों देखा जाए तो ऊपरी गणवेश उतार दिया जाए तो लगभग हर व्यक्ति  इसी गिरोह का सदस्य होता है। कुर्ते-धोतीटी-शर्ट ट्राउजर के पीछे क्या है टाइप.  

यह भी एक सच है कि चड्डी बनियान गिरोह का आमतौर पर कार्य प्रबंधन ठीक नही होता है। प्रबंधन का सूत्र कहता है कि सफलता पाने के लिए  'टीम वर्कपर भरोसा करना चाहिए। जब किसी व्यक्ति के पास कार्य विशेष की जिम्मेदारी आती है तो वह अपनी एक टीम बनाता है। हर क्षेत्र में यही होता है। सामाजिक क्षेत्र हो, प्रशासनिकराजनैतिकखेलकूद या किसी योजना परियोजना के क्रियान्वयन का मसला होएक टीम तैयार करना बेहद जरूरी है।
अब टीम बोले तो इसे दल कहेंसमूह कहें या गिरोह सभी लगभग पर्यायवाची शब्द ही हैं। सामान्यतः  दल और समूह कुछ भी करते हों लेकिन रचनात्मक और लोक हितकारी कामों में संलग्न दिखाई देते रहते हैंलेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो ऐसा नहीं जता पाते या फिर अपने स्वार्थ और लालच में तथाकथित अनैतिक गतिविधियों को अंजाम देते हैं। इन्हें 'गिरोह'कहने का चलन है हमारे कुलीन समाज में.
समूह हो, टीम हो या गिरोह ही क्यों न हो हरेक की अपनी विशेष आइडेंटिटी होती है। कोई चिन्हगणवेश, बैजदुपट्टा आदि से पता चल जाता है कि समूह के दिल में कौनसा विचार और हाथों में इन दिनों कौनसा औजार है. वह आखिर किस जमीन की मिट्टी खोदने में लगा हुआ है। विकास की सड़क बन रही हैप्यासे के लिए कुएं का निर्माण हो रहा है अथवा व्यवस्था और सौहार्द्र की कब्र खोदने का काम प्रगति पर है।
उजली दुनिया में टीम वर्क का बोलबाला होता ही है वहीं स्याह दुनिया के सरताज  'गिरोहबनाकर अपने काम को अंजाम देते हैं। उनके यहां भी वही सब होता है जो उजली दुनिया के समूहों के पास होता है। उनकी भी खास पहचान होती है जैसे पहले काले कुर्ते और धोती पहनकर घोड़े पर सवार मुंह को गमछे में छिपाए डाकुओं का गिरोह धावा कर देता था वैसे ही अब कुछ गिरोह नकाब पहन कर गनपिस्टल,चाकू के साथ प्रकट होते हैं और आतंक मचाते संपत्ति लूट कर  अपने बिलों में लौट जाते हैं। 
जिन बेचारों की सामर्थ्य नहीं होती वे चड्डी-बनियान को ही अपना 'चौर्य किटबनाकर लूटपाट करने लगते हैं। चड्डी बनियान गिरोह प्रायः आसानी से पकड़ भी लिए जाते हैं। 
डिजायनर और ब्रांडेड कपड़ों वाले लुटेरे गिरोह आसानी से पुलिस की गिरफ्त में नहीं आ पाते। पकड़े जाने के बाद उनके वकीलों से जूझना भी कठिन समस्या खड़ी कर देता है। दिन के उजालों में उजले लोग काले कारनामों के बाद भी बच निकलने में सफल हो जाते है जबकि  चड्डी बनियान वाला अंधेरे में भी कपड़े उतारकर भी गिरफ्त में आ जाता है।  ऐसा लगता है उसके टीमवर्क में कहीं तो कोई कमी अवश्य रह जाती है। क्या कहते हैं आप !

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर 452018

कुछ लघु व्यंग्य

कुछ लघु व्यंग्य 

1  
व्यंजना 

'आज जो चड्डी-बनियान गिरोह पर लेख पढ़ा आपका , उसमें आप अपराधी के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं।' साधुरामजी ने आपत्ति जताई।

'वह व्यंग्य लेख है मित्र, उन फटेहाल चोरों के पक्ष में नहीं है जो रात में छोटी मोटी चोरियां करते हैं। बल्कि पूरी टीम वर्क के साथ दिन के उजाले में देश को लूटने वाले सफेदपोश बड़े अपराधियों पर व्यंजना और लक्षणा शब्द शक्तियों में प्रहार करने की कोशिश की गई है।' व्यंग्यकार ने सफाई देते हुए कहा।


'किंतु ऐसा स्पष्टतः समझ में आता नहीं लेख पढ़कर।' साधुरामजी बोले।

'वह तो समझना पड़ता है मित्र। साहित्य में बहुत से अव्यक्त को पढ़ना आना चाहिए।' व्यंग्यकार ने कहा।

'फिर भी,आपको स्पष्ट लिखना चाहिए कि आप सफेदपोश लुटेरों पर प्रहार कर रहे हैं।' साधुरामजी अपनी बात पर अड़े रहे।


'साहित्यिक विधा में ऐसा नहीं होता मित्र, पत्थर फेंकने और लाठी चलाने से अलग होता है रचनात्मक प्रहार।और अभिधा में लिखी रचना तो फिर एक रिपोर्टिंग में बदल जाती है। व्यंजना, लक्षणा शक्तियां व्यंग्य के खास औजार होते हैं।' व्यंग्यकार ने ज्ञान बांटा।


'नहीं, यह तो ठीक नहीं है बिल्कुल। स्वीकार्य नहीं हमें। ये शक्तियां तो  बहुत अराजक और आतंकी लगती हैं अपने आचरण से। इन्हें तुरंत निष्काषित करिये साहित्य से। अन्यथा हमें कोई कानून लाना पड़ेगा।' कहते हुए  साधुरामजी नें अभिधा शक्ति में  देशभक्ति से परिपूर्ण एक जोशीले नारे का उद्घोष किया और  दफ्तर को निकल लिए। 


00000

2
अभिमत 


उनकी कविताओं का नया संग्रह आया तो साधुरामजी बधाई देते हुए बोले- ' बढ़िया है किताब आपकी।'
'
धन्यवाद, कुछ सामग्री पर भी कहिए!' उन्होंने खुश होकर कहा।
'
सामग्री भी बढ़िया है, कागज की क्वालिटी बेहतर है।' साधुरामजी बोले।

'
मेरा मतलब है, कविताओं पर अपना अभिमत व्यक्त कीजिये।' 
'
मेरे कुछ कहने से क्या होगा? फ्लैप पर जो वरिष्ठ कवि ने व्यक्त कर दिया है उससे बेहतर भला मैं और आगे क्या कुछ कह पाऊंगा!' साधुरामजी ने कहा।

'
अरे ,नहीं मित्र! आप  मेरी कविताओं पर अपने विचार रखेंगे तो वह मौलिक होंगे।' 
'
ऐसा क्यों? क्या फ्लैप पर वरिष्ठ कवि का लिखा ब्लर्ब मौलिक नहीं है?'
'
जी, वह मैंने स्वयं ही लिख लिया था,उनके नाम से।'

'
अरे भाई तो जो पिछले दिनों अखबार में समीक्षा आई है,उसमें भी तो वरिष्ठ आलोचक ने बड़ी प्रशंसा की है, तुम्हारी कविताओं की।' 

'
अब जाने दीजिए!' उन्होंने निराश होकर कहा 'आपसे नहीं होगा, मैं ही लिख लेता हूँ आपका अभिमत।'

ब्रजेश कानूनगो 

00000





3
विवेक 

साधुरामजी ने अपनी लायब्रेरी की कविता संग्रहों की सारी पुस्तकें कबाड़ी को बेच दीं तो मैंने पूछा- गद्य की क्यों नहीं बेची?

उन्होंने स्पष्टीकरण दिया- गद्य की किताब की बजाय,कविता की किताब का पन्ना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक रहता है।

'
क्या मतलब?' में भौचक्क रह गया।

'
कबाड़ी से किताबों की रद्दी मंगू चाटवाला खरीदता है, समोसे पर कम शब्दों की स्याही चिपकती है, जिससे  बीमारी की संभावना का प्रतिशत भी घट जाता है।'

ब्रजेश कानूनगो

00000 

ब्रजेश कानूनगो
503,
गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाड़िया रोड, इंदौर - 452018

Monday, April 17, 2017

पानीपूरी की जायकेदार दुनिया

व्यंग्य 
पानीपूरी की जायकेदार दुनिया
ब्रजेश कानूनगो  

मुझे लगता है दुनिया ‘नारंगी’ की तरह न होकर ‘पानी पूरी’ की तरह है. एक विशाल पानी पूरी जिसके भीतर जिन्दगी का जायका है. यदि नारंगी की तरह होती तो उसमें बस एक ही स्वाद होता. इस बहुरंगी दुनिया में कितने सारे रस भरे हुए हैं...जीवन के अनेक जायके इस बड़ी पानी पूरी के भीतर लबालब भरे पड़े हैं. और यह भी सच है कि प्राणीमात्र का जीवन जायके पर ही कायम है. रिश्तों की मिठास है, दुःख का खारापन, दुश्मनी की खटास, घृणा की कड़वाहट..और भी बहुत से जायके हैं..  स्वाद नहीं तो जीवन बेकार है.

खाने के लिए जीने वाले लोग हों या जीने के लिए खाने वाले, जायका और स्वादिष्टता सबको आकर्षित करती है. सराफा बाजार के रात्रि कालीन ठीये हों या ‘खाऊ गली’ की पैंतीस गुमटियां. स्वाद सागर के पास की ‘चाट चौपाटी’ हो या ‘छप्पन भोग’ की छतरियाँ, जायके का यही आकर्षण जिव्हा की स्वाद ग्रंथियों को ललचाने लगता है और लोग अपनी दुनिया को स्वादिष्ट बनाने की तमन्ना लिए खींचे चले जाते हैं.

स्वाद से भरी इस महकती दुनिया के माथे की बिंदिया होती है ‘पानीपूरी’ की दूकान. इसके बिना बाजार सौभाग्यहीन है. गुलाब जामुन है, पेटिस है, कचोरी है, रबडी है, समोसा है, दही बड़ा है लेकिन पानी पतासे का ठेला नजर नहीं आये तो संसार नीरस लगेगा... लेकिन ऐसा होता नहीं है. हमारे विश्वास की तरह वह होता है और जरूर होता है. शरीर में आत्मा और भोजन में नमक की तरह ‘फूड बाजार’ के प्राण ‘पानी पूरी के ठिये’ में बसे होते हैं.

जहां ‘चाट’ होगी, वहां चटोरे भी होंगे. जो चटोरे नहीं भी हैं, लेकिन चाट के ठेले या दूकान के करीब हैं, उन्हें चटोरा होने से कोई रोक नहीं सकता. पानीपूरी चुम्बक है और यह शरीर मात्र लोहे का टुकड़ा...ऐसा नहीं कि ‘बाजार से निकला हूँ..खरीददार नहीं हूँ...!’  ‘दुनिया में आयें हैं तो जीना ही पडेगा...!’ गुनगुनाते हुए पानी पूरी की प्याली आगे बढाते हुए बोलना ही पडेगा..’भैया, ज़रा पुदीने वाली बनाना..!’

किसी गुब्बारे की तरह फूले हुए पतासे के भीतर स्वाद का सागर हिलोरें मारता रहता है. अब तो ‘ठेले पर हिमालय’ की बजाये विभिन्न जायकों के नौ समुद्र स्टील के मर्तबानों में पतासों के पेट से होकर हमारे भीतर उतर जाने को लालायित रहते हैं. इन समन्दरों के ज्वार-भाटे इतने तेज होते हैं की उनके प्रभाव से अगले पतासे के इंतज़ार में खडे जातक (बंदा) के भीतर की ग्रंथियों में अद्भुत रसयुक्त रिसन होने लगती है. वह बैचैन होने लगता है. लेकिन जैसे ही पानी पूरी वाला एक छलकती दुनिया उसके प्यालें में धर देता है. वह सर्वोच्च आनंद और संतोष से निहाल हो जाता है. इस पापी पेट की दुनिया में भी हमें इस ‘असीम सुख’ के अलावा और चाहिए भी क्या !

ब्रजेश कानूनगो