Sunday, May 29, 2016

झकास चिंतन

झकास चिंतन
ब्रजेश कानूनगो

उस दिन एक दृश्य पर मैं थोड़ा चौंक सा गया, हुआ यों कि हमारे पड़ोस की एक सुन्दर स्त्री अपनी स्कूटी से सड़क से गुजरी तो पड़ोस के ही एक युवक ने अपने साथी को शरारत पूर्ण इशारा करते हुए कहा -‘यार, देखो आज कितनी ‘झकास’ लग रही है स्कूटी वाली.’

मैं इसलिए नहीं चौंक गया कि युवक ने युवती के लिए छींटाकशी की थी. बल्कि मेरा आश्चर्य उसके ‘झकास’ शब्द के इस्तेमाल करने पर था.  हमें पता ही नहीं होता कि ऐसी आम घटनाएं भी कभी-कभी हमारे चिंतन को बड़ी सही दिशा दे जाती हैं. विश्लेषण के बाद ही पता चलता है कि जो वर्त्तमान में दिखता है उसका स्वरूप जरूरी नहीं कि पहले भी यही रहा होगा.
 
हमारी जो भाषा आज है, वह एक दिन में नहीं बन गई है। भाषा का भी ठीक उसी प्रकार क्रमिक विकास हुआ है जैसे भ्रष्टाचार का हुआ है। जब पहली बार किसी ने स्वार्थसिद्धी के लिए रिश्वत ली और दी होगी तब कुछ भी कहा गया हो किन्तु  'भ्रष्टाचार ' तो शायद नहीं ही कहा होगा। किसी अधिकृत काम को किसी अन्य व्यक्ति द्वारा पैसे लेकर कर दिए जाने को 'दलाली' कहा जाता था लेकिन अब दलाली ही अधिकृत हो गया है। कमीशन कहें या फ्रेंचाइसी क्या फर्क पडता है।  है तो वह दलाली ही।  असल में भाषा अभिव्यक्ति को दूसरे तक पहुंचाने का माध्यम होती है और शब्द वे संकेत होते हैं जो उस क्रिया या अनुभूति को प्रमाणित करते हैं।  सूरज को पृथ्वी कहने से वह आग उगलना बंद नहीं कर देगा।  यदि सूरज को पहले 'जहाज'  कह दिया गया होता तो इस जहाज से ही हमारे पास रोशनी और धूप पहुँचती।

सुबह का नजारा देखिए। भोर की कैसी सुन्दर बेला होती है।  इधर पक्षियों का कलरव शुरू होता है.. पूरब से सूरज की किरणें हल्का हल्का प्रकाश बिखेरने लगती हैं। पहाडियों के पीछे से धीरे धीरे गुलाबी गोला ऊपर उठने लगता है।  मन में अनोखा  अहसास या अनुभूति पैदा होती है तो मुँह से निकल पडता है..सुन्दर..अतिसुन्दर ..! सुन्दर शब्द तो मात्र उस अनुभूति को पहचान दिलाने वाला संकेत भर है।  यह प्रमाणीकरण यदि हमें 'नमकीन' शब्द से प्रारम्भ में मिल गया होता तो हम सुन्दर या अतिसुन्दर की अनुभूति के लिए 'नमकीन' शब्द का संकेत चुनते और आज सुबह-सुबह का नजारा देखकर हमारे मुँह से निकलता...’अहा..! क्या नमकीन नजारा है.’
हमने तो एक आशिकभाई से अपनी माशुका के लिए ‘नमकीन’ कहते हुए भी सुना है.
   
दरअसल, पड़ोसी युवक ने सुन्दर लड़की को ‘झकास’ कह कर एक नए पर्यायवाची शब्द के महत्त्व को प्रतिपादित किया. सचमुच जिसे मैं महज एक शोहदा समझा हुआ था, वह तो भाषा विज्ञानी निकला. विकास के लिए सब सहना पड़ता है भाई ! फिर विकास चाहे देश, व्यक्ति या भाषा का ही क्यों न हो. ऐसे ही थोड़े कोई भाषा ‘झकास’ हो जाती है.


ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इंदौर-18


Friday, May 27, 2016

मोटाभाई ‘काला’ की याद में

मोटाभाई ‘काला’ की याद में
ब्रजेश कानूनगो

सुबह-सुबह अखबार में जब खबर पढी कि किसी सरकारी विभाग के एक मामूली बाबू के यहाँ छापा पडा और उसके यहाँ से मोटा माल मिला. सोचने लगा कि शब्दों का प्रयोग भी देखिए कितना रोचक होता है. यही ‘मोटा’ शब्द किसी व्यक्ति के साथ लगता है तो ‘मोटा आदमी’ कहलाकर उसके हष्ट-पुष्ट होने की घोषणा करता है और जब ‘भाई’ के साथ लग जाता है तो ‘मोटा भाई’ बनकर विश्वास का आत्मीय और अग्रज हाथ हमारे कन्धों पर रख देता है. जहां यह सुखद सच है कि ‘मोटा अनाज’ खाने से अच्छा स्वास्थ्य बनाया जा सकता है, वहीं एक कटु सत्य यह भी है कि ‘मोटा कपड़ा’ पहनना सूत मिलों के बंद हो जाने से अब आम लोगों के बस में नहीं रहा.

इसी ‘मोटा चिंतन’ के तारतम्य में मुझे मोटाभाई काला की याद आ गई। आज के समय में जब अपने आप का होना याद नही रहता तब अतीत का कोई व्यक्ति याद आ जाए तो समझ लीजिए कि हमारे शरीर के ऊपरी माले के भीतर की मशीनरी ठीक-ठाक काम कर रही है।

मस्तिष्क में बरसों के तमाम संकेत डॉउन लोड होने के बावजूद आज ‘मोटाभाई काला’ का सिग्नल बिप-बिप करने लगा है। मोटाभाई काला न तो मोटे थे और नही उनके शरीर और व्यक्तित्व से कृष्णता का कोई विकिरण प्रस्फुटित होता था। उनके बाप-दादा गधे पर लाद कर राख के बदले पीली मिट्टी बेचने का धन्दा करते थे, बाद में समय ने ऐसी करवट बदली कि उनके पिता सीमेंट के व्यापारी हो गए। उन दिनों कंट्रोल पर बिकने वाले सीमेंट पर तो कंट्रोल था लेकिन भ्रष्टाचार पर आज की तरह ही कोई ख़ास रोक-टोक नही थी। गाँधी बाबा की तस्वीर सीमेंट की दुकान पर ही नही सभी प्रतिष्ठानों की दीवारों की शोभा बढाती रहती थीं। तस्वीरों  का यह अच्छा रहता है कि वह कुछ बोल नहीं सकती. इसलिए मोटाभाई को ’मोटा माल’ बनाते देख कर भी बापू तस्वीर में बस मुस्कुराने के लिए विवश होते थे. सेठजी का बेटा किसी तरह मेट्रिक पास करने के बाद एक दिन पिता के जूते में पैर डालने लगा तो पिता ने समझ लिया कि अब बेटे के मोटा माल बनाने के दिन आ गए हैं. बेटे को लाइन में डालने की चिंता हर पिता को होती है। वह यहाँ भी थी।

उन दिनों रेल्वे तथा जंगल से चुराई गई लकडियों से बना कोयला अपने ताप से लोगों के पेट की आग को शांत किया करता था। तभी नलीदार कोयलेके आविष्कार ने मोटाभाई के पिता की चिंता का निवारण कर दिया।  मोटाभाई के यहाँ भी  कोयले की सस्ती चूरी, मिट्टी, लकडी का बुरादा आदि की मदद से यह कृत्रिम कोयला बनने लगा। मोटाभाई कोयलेवाले के नाम से मशहूर हो गए। मोटाभाई का कोयले का धन्दा कुछ वर्षों तक खूब अच्छा चला लेकिन जनता पार्टी की तरह नलीदार कोयले का अस्तित्व भी बस स्मृतियों का हिस्सा रह गया। यह जरूर हुआ कि मोटाभाई के नाम के साथ कालाहमेशा के लिए चस्पा हो गया।

बाद में तो इस मोटे माल परम्परा का बहुत विकास होता गया. संसद के बाहर और भीतर ‘कोयला’ नेताओं की रचनात्मक समझ को प्रबिम्बित करने का माध्यम भी बना है। कोयले की दलाली में मोटामाल मिलने की बातें भी खूब कही गईं. यहाँ तक कि देश के एक पूर्व ‘मोटा भाई’ पर भी आरोप लगा कि उन्होंने अपने साथियों को ‘मोटा माल’ बनाने में खूब मदद की थी.

हालांकि इन दिनों बहुत उत्साह से लोगों से ‘हाथ धुलवाने’ के प्रयास हो रहे हैं, जब तब किन्ही हाथों से गुलाबी रंग जरूर झरने लगता है मगर यह विकास का समय है. कोयला भी केवल कोयला नहीं रहा, कोयला बहुरूपिया हो गया है. वह हीरा हो सकता है, तोप या हेलिकॉप्टर भी हो सकता है. दलाली भी अब उन्नत होकर ‘डील’ कही जाने लगी है. डील का डीलडौल बहुत बड़ा होता है. बड़ी डील में हुए ‘काले हाथों’ को पकड़ना इतना आसान नहीं होता. ‘मोटा माल’ यहाँ भी  भूमिका बखूबी निभा ही देता है.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इन्दौर-18


Tuesday, May 24, 2016

लेखक का दुःख

व्यंग्य
लेखक का दुःख
ब्रजेश कानूनगो  

नए सुखों की तलाश में भी अक्सर आदमी दुखी रहता है. वह जानकर भी अनजान बना रहता है कि सुख के मौसम में भी दुखों के बादल फट जाते हैं. दुःख ऐसा दरिया है जिसे पार करके ही सुख के द्वीप तक पहुंचा जा सकता है. दुखी हो जाने के कई कारण हो सकते हैं. एक ढूंढो हजार मिल जाते हैं. दूसरों को सुखी देखकर भी हम दुखी हो सकते हैं. आनंद सागर में गोते लगाते हुए भी आँसुओं का खार हमारा जायका बदल देता है. मित्र की कमीज की चमक भी हमारे भीतर ईर्ष्या का अन्धेरा भर सकती है. अक्सर यह लगता है कि ये जीवन दुखों का ऐसा दलदल है, जिसमें से बाहर निकलना दुष्कर होगा.  परन्तु यह भी उतना ही सही है कि दुख के कीचड में ही सुख के कमल खिलने की संभावनाएं निहित होती हैं.

साधुरामजी के साथ भी कुछ ऐसा ही होता रहा है. स्कूल के दिनों में जब माट्साब उन्हें ‘यदि मैं प्रधानमन्त्री होता ’ विषय पर निबंध लिखने को कहते वे दुखी हो जाते थे. उनकी ख्वाहिश थी कि एक लेखक बन कर नाम कमाएं.  दुनिया भर में उन्हें जाना जाए. इसी आकांक्षा के चलते शुरुआत में अखबारों में सम्पादक के नाम खूब पत्र लिखे. कलम भांजते हुए साहित्य पृष्ठों पर भी जगह पाने लगे. मगर जैसा कि मैंने कहा अपनी खुशी में भी व्यक्ति दुःख के कारण खोज ही लेता है. बहुत सारा लिखने छपने के बावजूद वे इस बात पर दुखी थे कि कोई साहित्यिक पत्रिका उन्हें घास नहीं डालती. अब उन्हें कौन बताए कि भैया साहित्य के खेत में बागड़ की घास भी बहुत दुर्लभ होती है. अपने खूंटे से बंधे सदस्यों को ही अक्सर कम नसीब होती है तो बाहर वालों को भला कैसे खिलायें.

खैर, जहाँ चाह है वहीं राह भी होती है. न छापें पत्रिकाएँ उनकी महान और शास्वत रचनाएं,  वे भी कोई कम जुखारू व्यक्ति नहीं थे. पीएफ का पैसा निकाला और अपनी खुद की अनियतकालिक  साहित्य पत्रिका ‘जंगली फूल’ का प्रकाशन शुरू कर दिया. मनचाहा जोरदार सम्पादकीय लिखते. हर विधा में न सिर्फ लिखते बल्कि नए प्रयोग भी करते मसलन लघुकथा से आगे उन्होंने ‘लघुतम कथा’ और व्यंग्य विधा के आगे ‘व्यंग्य विचार’ विधा को स्थापित करने का अभियान अपनी पत्रिका के जरिये आंदोलित किया. अब वे नहीं बल्कि कई नए-पुराने लेखक उनकी पत्रिका और उनकी और दौड़ लगा रहे थे. मगर इस पड़ाव पर भी उनका दुःख वैसा ही रहा. तकलीफ इस बात की थी कि उनके इस महत्वपूर्ण अवदान का उचित मूल्यांकन साहित्य जगत में हो नहीं पा रहा था. कुरते की जेब सूनी पडी थी. किसी सम्मान-पदक की सुई आलोचक की असावधानी की वजह से उनके सीने को घायल नहीं कर सकी थी. लेकिन यात्रा पर निकला हर कोलंबस आखिर में नईदुनिया की खोज कर ही लेता है.

साधुरामजी के ससुर कभी शहर के एक पुराने स्कूल के सामने स्टेशनरी की दूकान चलाया करते थे. साहित्य से उनका गहरा परिचय तो नहीं था पर छात्रों के दुःख दूर करने के लिए कुंजियाँ बेचा करते थे. इसी कारण इतना जरूर समझने लगे थे कि  प्रेमचंद, निराला, सूरदास, तुलसीदास, महादेवी आदि वे महान लोग थे जो प्रतिदिन साहित्य किया करते थे. साधुरामजी ने अपना दुःख जब अपने दुनियादार ससुरजी के सामने रखा तो उन्होंने तुरंत उपाय खोज लिया.  
ससुरजी ने आनन-फानन साधुरामजी के ससुराल के आँगन में कुछ बीज दाल दिए तो नगर में  ‘विलक्षण प्रतिभा सम्मान’ नामक एक संस्था का अंकुरण हो उठा. संस्था ने क्षेत्र के युवा रचनाकारों को प्रोत्साहित करने का बीडा उठाया और वर्ष में प्रकाशित रचनाकार को पहली कृति के लिए राज्य स्तरीय प्रतिभा सम्मान और साहित्य में अद्वितीय योगदान के लिए साहित्यकार को ‘राष्ट्रीय प्रतिभा अलंकरण’ से सम्मानित करने की योजना घोषित कर दी गयी. यह कहना उतना जरूरी नहीं होगा कि कुछ दिनों बाद वर्ष का ‘राष्ट्रीय प्रतिभा अलंकरण’ का पदक एक भव्य कार्यक्रम में साधुरामजी के कुरते पर लगाए जाने की खबर और तस्वीर अगले दिन के अखबारों की सुर्खियाँ बनीं. ये अलग बात है कि बॉक्स में छपी खबर के कोने में बहुत बारीक अक्षरों में लिखा हुआ ’विज्ञापन’ शब्द ‘शर्तें लागू’ की तरह दिखाई नहीं दे रहा था.

इस प्रतिष्ठा प्रसंग के बाद साधुरामजी की साहित्यिक हैसियत निश्चित रूप से थोड़ी बढ़ गयी थी. स्थानीय स्कूलों आदि में तुलसी जयंती या हिन्दी दिवस पर उन्हें मुख्य अतिथी अथवा भाषण प्रतियोगिताओं के निर्णायक के तौर पर आमंत्रित भी किया जाने लगा.

मुझे लगा कि अब शायद साधुरामजी दुखी नहीं होंगे. औकात के हिसाब से उनका उचित मूल्यांकन होने लगा था. लेकिन अफसोस की बात है, मेरा ऐसा सोचना गलत था. कब कोई  इस दुनिया में कभी संतुष्ट हुआ है जो साधुरामजी होते. अभी कल घर आये तो कहने लगे- ‘यार! ये अखबार वाले दूसरों के लेख छापने के बाद अंत में कोष्टक में क्यों लिखते हैं कि ’लेखक जाने-माने साहित्यकार हैं’.
मैं समझ गया. साधुरामजी इसलिए दुखी हैं कि ‘जाने-माने’ जैसा विशेषण उन्हें अभी भी नसीब नहीं हो रहा है. कहीं कोई जुगाड़ हो तो बताइयेगा भाई !

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018
  

        

Monday, May 23, 2016

कविता में अलंकार

व्यंग्य
कविता में अलंकार
ब्रजेश कानूनगो

सुबह जब मैं और साधुरामजी सैर को निकले तो उन्हें रात को लिखी अपनी नई कविता सुनाई. कविता को उन्होंने सराहा भी मगर थोड़ा निराश होते हुए गोकुलधाम सोसायटी के एकमेव सेक्रेटरी आत्माराम तुकाराम भिड़े की तरह अतीत गमन करते हुए बोले-‘हमारे जमाने में कविताएँ कभी इतनी रूखी-सूखी नहीं हुआ करती थीं, उनमें रस होता, पढ़ते-सुनते समय मन आनंद से सराबोर हो जाता था. तुम्हारी कविताएँ दुखीं कर देती हैं, वो आनंद नहीं रहा अब की कविताओं में.’
‘मगर अब कविताएँ यथार्थवादी होती हैं साधुरामजी, कला की बजाए इनमें कथ्य महत्वपूर्ण होता है,’ मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की.

‘जो भी हो! मैं कविता में रस, छंद, अलंकार आदि की उपस्थिति जरूरी मानता हूँ, इनके बगैर कविता में सौन्दर्य नहीं.’ वे संतुष्ट नहीं हुए. मेरी इतनी कूवत भी नहीं थी जो इस सार्वकालिक और अनंत साहित्यिक बहस को मोर्निंगवाक की छोटी सी अवधि में किसी अंजाम तक पहुंचा सकता. सो मैंने अपनी दिक्कतें बताना शुरू कर दीं, बोला-‘ साधुरामजी, मैं तो बचपन से ही इस मामले में थोड़ा कमजोर रहा हूँ. गुरूजी अलंकारों को याद कराने के लिए दोहे, सोरठे, छंद आदि रटवाया करते थे मगर मैं हर बार अनुप्रास की जगह उपमा और उपमा की जगह यमक अथवा अतिशयोक्ति अलंकार की जगह भ्रांतिमान अलंकार का उदाहरण उत्तर पुस्तिका में लिख आता था. मुझे बहुत क्लिष्ट लगता था अलंकारों को समझना.’

इस पर साधुरामजी ने एक जोरदार ठहाका लगाया और बोले-‘ तुम तो बस निरे पढ़ाकू ही रहे, अरे थोड़ा दुनिया भी देख लिया करो, लोक में जाए बगैर कहीं समाधान हुआ है कभी !’
‘मैं कुछ समझा नहीं साधुरामजी?’ मैंने कहा तो वे बताने लगे- ‘दिक्कत तो मुझे भी आती थी मित्र, लेकिन एक सिने-प्रेमी गुरूजी ने राह दिखाकर सब आसान कर दिया था मेरे लिए. वे अक्सर लोकरुचि काव्य याने फ़िल्मी गीतों से अलंकार आदि समझाया करते थे.’
‘मसलन?’ मैंने जिज्ञासा जताई.
‘जैसे अनुप्रास अलंकार समझाने के लिए क्लिष्ट उदाहरण- चारु चन्द्र की चंचल किरणें.... की बजाए वे –‘चन्दन –सा बदन चंचल चितवन धीरे से तेरा ये मुस्काना’ गीत का उल्लेख करते, जहां ‘च’ अक्षर की बार-बार आवृत्ति होना ही ‘अनुप्रास’ अलंकार होता है.’
उपमा अलंकार में किसी एक वस्तु को किसी दूसरी वस्तु-सा बताया जाता है. जैसे ‘तेरी झील सी गहरी आँखों में मैंने रात कोई सपना देखा.’ या ‘चांदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल, एक तू ही धनवान है गोरी, बाकी सब कंगाल.’
‘यमक’ अलंकार पढ़ाते हुए ‘कनक कनक ते सौ गुनी’ अथवा ‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून’ जैसे असामयिक हो गए दोहों की बजाए ‘जान चली जाये, जिया नहीं जाए, जिया जाए तो फिर जिया नहीं जाए’ या फिर ‘तुमने किसी की जान को जाते हुए देखा है? वो देखो मुझसे रूठकर मेरी जान जा रही है.’ कितनी जल्दी समझ में आ जाता है कि जब एक ही शब्द अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त होता है तो वहां काव्य का ‘यमक’ अलंकार होता है.’
मैं हतप्रभ साधुरामजी का व्याख्यान सुन रहा था. वे कह रहे थे-‘ सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है’ अथवा ‘ नाक का मोती अधर की कांति से, बीज दाड़िम का समझ कर भ्रान्ति से,’ जैसे उदाहरणों की बजाए –‘तुझे सूरज कहूं या चन्दा, तुझे दीप कहूं या तारा’ गीत का उदाहरण सहज ही स्पष्ट कर देता है कि जहां भ्रमपूर्ण स्थिति पैदा हो रही हो वहां ‘भ्रांतिमान’ अलंकार होता है. ‘अतिशयोक्ति’ अलंकारों से तो लोकरुचि काव्य भरा पडा है. ‘हनुमान की पूंछ में लग न पाई आग, लंका सारी जली गयी, गये निशाचर भाग.’ जैसे समयातीत उदाहरण की बजाए हमारे गुरूजी पढ़ाते थे- ‘बदन पे सितारे लपेटे हुए, ओ जाने तमन्ना किधर जा रही हो?’ या फिर ‘ पानी में जले मोरा गोरा बदन’ हम तुरंत समझ जाते थे कि जहां असंभव बात को या बात को बढ़ा चढ़ा कर कहा जा रहा हो, वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है.’

‘तभी आज तक अलंकारों के प्रयोग के बारे में आपकी इतनी गहरी समझ है साधुरामजी!’ मेरा मन उनके और उनके गुरूजी के प्रति आदर भाव से लबालब हुए जा रहा था.
‘लेकिन अब यह भी संभव नहीं रहा साधुरामजी ! फ़िल्मी गीतों में भी रस, छंद, अलंकार नहीं दिखाई देते हैं तो हमारे आज के शिक्षकों को अब कहाँ यह सुविधा उपलब्ध रह गयी है.’
‘यह बात तो है मित्र !  वहां तो अब शब्द भी दिखाई नहीं देते.’ उनकी आवाज में अपने जमाने का दुःख साफ़ सुनाई दे रहा था.


ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018            


Wednesday, May 11, 2016

निबंध में प्रधानमंत्री

निबंध में प्रधानमंत्री
ब्रजेश कानूनगो

माँ हमेशा कहा करती है कि मैं बचपन से ही बडा होनहार रहा हूँ। माँओं का दृष्टिकोण संतानों के प्रति हमारे यहाँ ऐसा ही होता आया है। यह अलग बात है कि जिस औलाद को वह होनहार समझती रही हो वही बेटा बदले हुए समय में अपनी होनहारियत पर अपना सिर पीटने को मजबूर हो जाए। अब देखिए, स्कूल के जमाने में चाहे भाषण प्रतियोगिता रही हो या निबन्ध अथवा कविता लेखन स्पर्धा, हमेशा हमने अपनी प्रतिभा का शानदार प्रदर्शन किया और होनहार होने का तमगा हमारे सीने पर चस्पा कर दिया गया। हमारे जो मित्र होनहार होने को अपना अपमान समझते थे तथा ’-गणेश की बजाए ’-गधा  उनको अधिक रुचिकर लगता था,उनका भाग्य देखिए,उनके यहाँ आज छापे पड रहे हैं,करोडों की दौलत गिनी जा रही है। और एक हम हैं जो मैं प्रधानमंत्री होतामे ही अटके पडे हैं।

निबन्ध तथा तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता में अक्सर उन दिनों एक विषय रहता था-यदि मैं प्रधान मंत्री बन जाऊँ। विद्यार्थी बडे उत्साह से लिखते कि कैसे उनके प्रधानमंत्री बनते ही देश का काया कल्प हो जाएगा। कैसे हर तरफ सच्चाई और ईमानदारी की हवा बहने लगेगी। भ्रष्टाचार के दानव का वध किया जा चुका होगा, कोई भूखा नही होगा, हर सिर के ऊपर छत और हर बच्चे के हाथ में कलम होगी और चेहरे पर खुशी के फूल खिल उठेंगे। बचपन से ही बच्चों में प्रधानमंत्री बनने की चाहत पैदा करने के गम्भीर प्रयास किए जाते रहे हैं।

हमारे यहाँ होनहार लोगों की कभी कोई कमी नहीं रही. प्रधानमंत्री बनने के अभिलाषियों की एक लम्बी कतार है जो आकाशगंगा की तरह राजनीति के आकाश में टिमटिमाती रही है। होनहार बच्चे तक शुरू से इस चेष्टा मे लगे रहते हैं कि जीवन में एक बार प्रधानमंत्री अवश्य बन जाएँ। हर माँ-बाप की ख्वाहिश होती है बेटा पंद्रह अगस्त को लाल किले की प्राचीर से जनता से भारत माता की जय बुलवाए. लेकिन ऐसा होता कहाँ है! होनी को कौन टाल सकता है. जीवन की आपाधापी और संघर्षों के आगे अधिकाँश होनहार ‘हार’ जाते हैं. इस उपक्रम मे कई लोग पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं लेकिन प्रधानमंत्री होने का उनका सपना उसी तरह पूरा नही हो पाता जिस तरह उनके बचपन में लिखे गए निबन्ध या भाषण में देखे गए सपने पूरे नही हो पाते।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इन्दौर-18