Sunday, May 29, 2016

झकास चिंतन

झकास चिंतन
ब्रजेश कानूनगो

उस दिन एक दृश्य पर मैं थोड़ा चौंक सा गया, हुआ यों कि हमारे पड़ोस की एक सुन्दर स्त्री अपनी स्कूटी से सड़क से गुजरी तो पड़ोस के ही एक युवक ने अपने साथी को शरारत पूर्ण इशारा करते हुए कहा -‘यार, देखो आज कितनी ‘झकास’ लग रही है स्कूटी वाली.’

मैं इसलिए नहीं चौंक गया कि युवक ने युवती के लिए छींटाकशी की थी. बल्कि मेरा आश्चर्य उसके ‘झकास’ शब्द के इस्तेमाल करने पर था.  हमें पता ही नहीं होता कि ऐसी आम घटनाएं भी कभी-कभी हमारे चिंतन को बड़ी सही दिशा दे जाती हैं. विश्लेषण के बाद ही पता चलता है कि जो वर्त्तमान में दिखता है उसका स्वरूप जरूरी नहीं कि पहले भी यही रहा होगा.
 
हमारी जो भाषा आज है, वह एक दिन में नहीं बन गई है। भाषा का भी ठीक उसी प्रकार क्रमिक विकास हुआ है जैसे भ्रष्टाचार का हुआ है। जब पहली बार किसी ने स्वार्थसिद्धी के लिए रिश्वत ली और दी होगी तब कुछ भी कहा गया हो किन्तु  'भ्रष्टाचार ' तो शायद नहीं ही कहा होगा। किसी अधिकृत काम को किसी अन्य व्यक्ति द्वारा पैसे लेकर कर दिए जाने को 'दलाली' कहा जाता था लेकिन अब दलाली ही अधिकृत हो गया है। कमीशन कहें या फ्रेंचाइसी क्या फर्क पडता है।  है तो वह दलाली ही।  असल में भाषा अभिव्यक्ति को दूसरे तक पहुंचाने का माध्यम होती है और शब्द वे संकेत होते हैं जो उस क्रिया या अनुभूति को प्रमाणित करते हैं।  सूरज को पृथ्वी कहने से वह आग उगलना बंद नहीं कर देगा।  यदि सूरज को पहले 'जहाज'  कह दिया गया होता तो इस जहाज से ही हमारे पास रोशनी और धूप पहुँचती।

सुबह का नजारा देखिए। भोर की कैसी सुन्दर बेला होती है।  इधर पक्षियों का कलरव शुरू होता है.. पूरब से सूरज की किरणें हल्का हल्का प्रकाश बिखेरने लगती हैं। पहाडियों के पीछे से धीरे धीरे गुलाबी गोला ऊपर उठने लगता है।  मन में अनोखा  अहसास या अनुभूति पैदा होती है तो मुँह से निकल पडता है..सुन्दर..अतिसुन्दर ..! सुन्दर शब्द तो मात्र उस अनुभूति को पहचान दिलाने वाला संकेत भर है।  यह प्रमाणीकरण यदि हमें 'नमकीन' शब्द से प्रारम्भ में मिल गया होता तो हम सुन्दर या अतिसुन्दर की अनुभूति के लिए 'नमकीन' शब्द का संकेत चुनते और आज सुबह-सुबह का नजारा देखकर हमारे मुँह से निकलता...’अहा..! क्या नमकीन नजारा है.’
हमने तो एक आशिकभाई से अपनी माशुका के लिए ‘नमकीन’ कहते हुए भी सुना है.
   
दरअसल, पड़ोसी युवक ने सुन्दर लड़की को ‘झकास’ कह कर एक नए पर्यायवाची शब्द के महत्त्व को प्रतिपादित किया. सचमुच जिसे मैं महज एक शोहदा समझा हुआ था, वह तो भाषा विज्ञानी निकला. विकास के लिए सब सहना पड़ता है भाई ! फिर विकास चाहे देश, व्यक्ति या भाषा का ही क्यों न हो. ऐसे ही थोड़े कोई भाषा ‘झकास’ हो जाती है.


ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इंदौर-18


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