Thursday, September 10, 2020

माई री मैं कापे लिखूँ..!

 माई री मैं कापे लिखूँ..! 


उसने अपने घर की सारी खिड़कियां खोल रखी थीं। हवा का प्रवेश कमरे में भरपूर हो रहा था, फिर भी बेचैनी जैसे कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। एक द्वंद्व सा छिड़ा हुआ था मन के भीतर। घर की खिड़कियों के अलावा उसने अपने लैपटॉप में भी बहुत सारी 'विंडोज' ओपन कर रखी थीं। कुछ में अखबारों के 'ई संस्करण' एक में फेसबुक और एक में नया डॉक्यूमेंट खुला हुआ था, जिस पर वह कभी कुछ टाइप करता तो कभी  तुरंत डिलीट भी कर देता था। 


ऐसी स्थितियां अक्सर उसके सामने आती रहती थीं। विशेषकर तब जब एक साथ दो तीन ऐसे सामयिक विषय सामने होते थे जिन पर वह अपनी 'उलटबांसी' लिख देना चाहता है। अखबारों के संपादकीय पेज पर ऐसी 'तिरछी नजरों' और 'चुटकियों' की बड़ी मांग जो निकल आई है इन दिनों।  

परेशानी तब होती है जब व्यंग्यकार के सामने 'सरकारी तोता' और 'राजनीतिक कौआ'  एक साथ चले आते हैं।  जरूरी नहीं कि तोते या कौआ  के आने से कोई ज्यादा कष्ट है,  'हाथी' और 'हिरन'  भी आ सकते हैं। यह तो उदाहरण मात्र है। 

अब  'तोते' पर तीर चलाएं या 'हिरण' का शिकार करें। हाल यह हो जाता है कि थोड़ी ही देर में देशभर के व्यंग्यकार शिकारी 'तोते' की पसलियां और 'हिरण' का हृदय निकालकर संपादक के पास पहुंचा देते हैं। 

वह जमाना तो रहा नहीं कि पहले लिखेंगे फिर टाइप करवाएंगे फिर लिफाफा बनाकर डाकघर के हवाले करेंगे। अब यदि वे ऐसा करेंगे तो वही होगा जो रामाजी के साथ हुआ था। लोग कहेंगे ही 'रामाजी रईगिया ने रेल जाती री…!'  इसलिए वे सबसे पहले रेल में चढ़ना चाहते हैं। 


अभी हिरण और तोते से निपटने ही हैं कि 'अभिनेता' और 'जानेमन' आ खड़े होते हैं... कहते हैं, 'लो हम आ गए, अब हम पर लिखो!'  व्यंग्यकार बड़ा परेशान है... 'माई री मैं कापे लिखूँ...मेरे 'जिया' में सब कुछ बड़ा 'अशांत'।'  


बड़ी दुविधा आ खड़ी होती है स्तंभकार के सामने। किस पर लिखे, बल्कि पहले किस पर लिखे। 'अभिनेता' पर भी बहुत मसाला तैयार और 'जानेमन' भी 'बयान'  देने को तत्पर। अब यदि अभिनेता पर लिखने बैठते हैं और इस बीच जयपुर का कोई जांबाज या इंदौर के कोई भियाजी  अपना ईमेल पहले सेंड कर देते हैं तो फिर उनके आलेख का क्या होगा। आप जरा समझिये व्यंग्यकार की इस परेशानी को।  


ऐसा कहानीकार या कवि के साथ कभी नहीं होता। कहानीकार किसी भक्तन और बाबाजी की प्रेमकथा तत्काल लिखने की हड़बड़ी में नहीं होता। बाबाजी की कारावास समाधि यात्रा पर जाने और भक्तन के बॉलीवुड में वापस लौट आने तक वह लिखने की प्रतीक्षा कर सकता है। कवि चाहे जब 'चिड़िया' या 'पत्थर की घट्टी'  पर कविता लिख सकता है। चिड़िया के दुनिया से विलुप्त होने के बाद और पत्थर की घट्टी के पृथ्वी के गर्भ में समा जाने के बाद भी वह कभी भी उसकी याद में गीत गा सकता है। अखबारी व्यंग्यकार के पास यह अवसर नहीं है। यहां तो बड़ी हड़बड़ी का माहौल बना हुआ है। उसे तो अभी का अभी डिस्पैच करना है, वरना कोई और अपना माल खपा देगा। यह कितना अन्याय है इस बेचारे लेखक के साथ। इतनी मेहनत और लेखन के बावजूद उसका उचित मूल्यांकन नहीं हो पा रहा। कुछ उदार हृदय संपादक उसके लिखे पर थोड़ा बहुत पत्रं पुष्पं दे भी देते हैं, मगर ज्यादातर तो रचना प्रकाशित करके वाया कतरन साझा उसका सम्मान फेसबुक दोस्तों में बढ़ाने का पुनीत कार्य करते हैं। यह भी क्या कम है। इस तरह साहित्य के लिए उनका जो योगदान बना हुआ है इसके लिए तो लेखक को कृतज्ञ होना चाहिए। 


बहरहाल, अखबारी व्यंग्य लेखक की अपनी परेशानियां होती हैं,  जिन का सामना उसे खुद ही करना होता है। और वह करता भी है।  देश भर के अखबारों के हृदय स्थल में जनरुचि के मुद्दों पर रोज प्रतिक्रिया देना कोई आसान काम भी नहीं है। इनका जुझारूपन प्रणम्य है। नमन करने योग्य है। इस जीव को हम प्रणाम करते हैं। 


ब्रजेश कानूनगो 

Tuesday, September 8, 2020

योगासन से जनासन तक

 योगासन से  जनासन तक 


साधुरामजी की नजर जब मेरे बढ़ते हुए पेट की ओर गई तो बरबस उनका सींकिया शरीर कांप गया। थोड़ा झल्लाकर बोले- 'यह क्या हो रहा है भाई! सारी बीमारियों की जड़ है यह मोटापा, कम करिए जरा अपनी तोंद को, इसे कम करने के लिए कोई लोकपाल नहीं आने वाला है।' 


मैं थोड़ा झेंप सा गया, बोला- 'अब मैं क्या करूं साधुरामजी बढ़ती उम्र में यह सब होता ही है और मेरे पिताजी की भी ऐसी ही तोंद निकली हुई थी, खानदानी पहचान है'। मैंने अपनी झेंप छिपाते हुए स्स्पष्टीकरण दिया तो मेरे पेट पर एक हल्की सी धौल जमाते हुए वे बोले- 'सुबह सुबह आ जाया करो मेरे घर, मैं नित्य योगासन करता हूं, तुम भी करना, सब मोटापा छट जाएगा।'  


साधुरामजी का आदेश मेरे लिए पार्टी हाईकमान के आदेश की तरह ही होता है। मैं दूसरे दिन तड़के उनकी घर की छत पर पहुंचा तो वे सूर्य नमस्कार की कुछ क्रियाएं करने में लगे हुए थे। 

उन्होंने मेरी ओर देखकर कहा-'करो तुम भी करो।'  मैंने टाल दिया-'आज तबीयत ठीक नहीं है, कल से करूंगा।'  

मैं जानता था कल कभी नहीं आता और इस प्रकार योगासन से मैं सहज रूप से बच भी सकता हूं।  


विषय को दूसरी दिशा देने के उद्देश्य से मैंने साधुरामजी से पूछ लिया-'यह तो ठीक है साधुरामजी कि योगासन से हमारा शरीर स्वस्थ हो जाता है, बीमारियां दूर होती हैं, पर क्या ऐसा कोई आसन भी है जिससे हमारे समाज का स्वास्थ्य सुधर पाता हो, व्यवस्था की बीमारियां समाप्त हो जाती हों।'  

'क्यों मजाक करते हो, ऐसे भी कोई अटपटे आसन हो सकते हैं।' साधुरामजी योगासन लगाना छोड़ कर मेरे पास आसन पर आकर बैठ गए।

'हां हो सकते हैं ऐसे आसन भी। राजनीतिक लोग और सरकारें बहुत पहले से 'आश्वासन'  का प्रयोग करती रही हैं, मान्यता है कि हर समस्या 'आश्वासन' के जरिए हल हो जाती है।  सरकार की सेहत में इस आसन का बड़ा महत्व रहा है। जो नेता जितनी अच्छी तरह से यह आसन लगाने में सफल होता है उसका राजनीतिक स्वास्थ्य लंबे समय तक ठीक बना रहता है।'

साधुरामजी भी शायद अब मूड में आ गए थे तो मजे लेते हुए बोले- 'लेकिन जनता बेचारी को क्या फर्क पड़ता है, असल में उसकी समस्या तो जस की तस बनी रहती है।' 

'ऐसा नहीं है साधुरामजी, लोगों ने खुद अपना गलत आसन चुन रखा था।  वर्षों तक उन्होंने इसी आसन की मदद से अपनी सेहत बनाए रखने का भ्रम बनाए रखा। किसी भी प्रकार का अच्छा बुरा उन पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ता था। उनका मानना था कि यही मूकासन उनकी सहायता करता है। चिंता चिता समान होती है इस आसन का सूत्र है। साधक समझता रहा की चिंता से दूरी बनाए रखकर अपने स्वास्थ्य की क्षति को रोक पा रहा है।' मैंने कहा।

'लेकिन अब तो यह संभव नहीं रह गया है चुप रहकर समस्याएं हल नहीं हो सकती। व्यवस्था की बीमारी इतनी बढ़ चुकी है कि इस कठिन समय में आश्वासन और मूकासन जैसे आसन निष्फल दिखाई दे रहे हैं।' साधुरामजी ने चिंता व्यक्त की।


'बात तो ठीक है आपकी साधुरामजी लेकिन समय और परिस्थितियाँ ही इसका रास्ता भी दिखाते हैं। अब देखिए एक और भी आसान है 'धरनासन'। यह आसान भी बड़ा कमाल का है। असर करता है। इसका प्रयोग भी हर कोई अपनी बात मनवाने और मुद्दे पर ध्यानाकर्षण हेतु कर सकता है। पहले कभी सरकार के विरोध में विपक्ष और जनता धरनासन  लगाकर उसे जगाने का प्रयास किया करते थे लेकिन अब तो कई सरकारें खुद भी यह आसान लगाते दिखाई देने लगी हैं।और यह इतना है कारगर है कि आम और खास आदमी से लेकर बड़े-बड़े नेता समाजसेवी योग गुरु तक इस आसन के कायल हो रहे हैं।' मैंने कहा तो साधुरामजी ठहाका मारकर बोले- 'वाह! क्या बात है! अब तो समझो व्यवस्था के सारे विकारों के 'शवासन'  में चले जाने के प्रबल योग बन रहे हैं।


ब्रजेश कानूनगो

हवाईअड्डे की हड्डियाँ

 हवाईअड्डे की हड्डियाँ


बचपन के वे दिन अक्सर याद आते हैं जब हम स्कूल में छुट्टी की घंटी बजने के बाद अपनी कॉपियों से पन्ने निकालकर हवाईजहाज बना-बना कर छत से उन्हे उडाया करते थे। जब तक वह हवा में बना रहता हम रोमांच से भरे होते थे। जब कभी वह नीम के पेड़ पर अटक जाता हमारी सांसे भी जैसे अटक जाती थीं। नीचे मैदान में पानी के नल के पास जो कुछ फर्शियाँ जडीं थीं, वही हमारा एयरपोर्ट होता था। हर बच्चा इसी कोशिश में निशाना साधता था कि हवाई जहाज ठीक हवाईअड्डे पर ही उतरे,लेकिन अक्सर ऐसा होता नही था,कागज का प्लेन कहीं भी अपनी मर्जी से लेंड कर लिया करता था। बाद में आकाश में चीलगाडियों को देखते रहे।


हवाईजहाजों और विमानन को लेकर हमारे मन में जिज्ञासा और रोमांच का भाव बराबर बना रहा है। दादाजी भी अक्सर गर्मियों में छत पर तारों को निहारते हुए कहानियाँ सुनाते थे। उन्होने ही सबसे पहले बताया था कि जब श्रीराम लंका विजय करके अयोध्या लौटे तब वे आकाश मार्ग से यात्रा करते हुए आए थे। इस यात्रा के लिए उन्होने पुष्पक विमान का उपयोग किया था। जाहिर है उनका विमान लंका से उड़ा होगा और अयोध्या में उसने लेंड किया होगा। यह तो हर कोई जानता है कि विमान को उड़ने और लेंड करने के लिए एक हवाईअड्डा होना बहुत जरूरी है।


जहाँ तक मेरी जानकारी है अयोध्या के इतिहास में किसी प्राचीन एयरपोर्ट के अवशेष मिलने की कोई सूचना नही है लेकिन उधर श्रीलंका से खबर आई थी कि वहां की रामायण रिसर्च कमेटी ने शोध किया है कि उस जमाने में रावण के अपने हवाईअड्डे थे। एक नही बल्कि वह चार-चार हवाईअड्डों का मालिक था। सम्भव है श्रीराम के विमान ने रावण के उन्ही में से किसी एक हवाईअड्डे से उडान भरी होगी। अब यह भी एक प्रश्न है कि अयोध्या में वह उतरा कहाँ होगा ? जिज्ञासा वाजिब है। इसका पता अवश्य लगाना चाहिए हमारे इतिहासकारों और शोधकर्ताओं को। श्रीलंका के शोधकर्ताओं से हम कोई कम तो हैं नही। जब हम राम के वनगमन मार्ग और उनके यात्रा के पडावों को खोज सकें हैं तो यह भी मुश्किल नही है कि हम उस स्थान का पता न लगा सकें जहाँ अयोध्यावासियों ने विमान की सीढियों से उतरते प्रसन्नचित राम,जानकी और लक्ष्मण की ओर हाथ हिला-हिलाकर उनका जोरदार स्वागत किया होगा। निश्चित ही दीवाली तो इसके बाद ही मनाई होगी सबने।


एक बात और जो कुलबुला रही है भीतर, वह यह है कि रावण तो राजा था वहाँ का और अगर हवाईअड्डे उसके खुद के थे तो निश्चित ही वे सरकारी हुए। सरकारी संस्थाओं की तत्कालीन स्थितियाँ क्या उस वक्त आज की तरह उतार पर रही होंगी जिसके कारण कालांतर में इस भूखंड से विमानन लुप्त हो गया। इसीतरह यदि हिन्दुस्तान के अयोध्या के बारे में विचार करें कि अगर यहाँ हवाईअड्डा रहा होगा तो बाद में वह किस गति को प्राप्त हो गया। यहाँ के विमानपत्तनम के पतन के पीछे क्या कारण रहे होंगे? क्या राजकीय एयरलाइंस का निजीकरण किया गया था या फिर बढते घाटे से परेशान होकर सम्राट ने अनुबन्धित सेवाओं के नाम पर उस जमाने के व्यापारियों ,सौदागरों को इसका संचालन सोंप दिया था। हो सकता है बाद में संचालकों द्वारा भस्मासुरी सेवाएँ जारी रखने के लिए कर्ज तथा अन्य सुविधाएँ मांगने पर सम्राट ने अपने हाथ खींच लिए हों। शायद इस तरह हमारी प्राचीन विमानन सेवाएँ तहस-नहस होकर इतिहास का हिस्सा बन गई होंगी। समय की गर्त में दबे इसी इतिहास की खोज होना चाहिए। 


अयोध्या में निश्चित ही त्रेता युग के विमानतल के अवशेष मिलने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। 


ब्रजेश कानूनगो



Sunday, September 6, 2020

एक कुत्ते की मौत

एक कुत्ते की मौत


अक्सर वीकेंड पर साधुरामजी और मैं लांग ड्राइव के लिए निकल जाते हैं। इससे मेरी पुरानी कार भी हमारे साथ थोड़ी सी ताजगी प्राप्त कर लेती है।

घर से थोड़ी दूर ही पहुंचे होंगे कि एक पिल्ले ने मेरी कार के सामने आकर खुदकुशी करने का विचार बनाया। मैं कह नहीं सकता किस वजह से उसने मेरी ही कार को आत्महत्या का माध्यम बनाया होगा।

'कुत्ता कहीं का, इसे मेरी ही कार मिली मरने के लिए!'  घबराहट में मेरे मुंह से उस के लिए कुत्ते की ही गाली निकली। मुझे गुस्से के साथ साथ एतराज भी था कि वह इंसानों के लिए बनाई गई सड़क पर आया ही क्यों!' 

'तुम्हारा मतलब है कि जब कुत्ते के पिल्ले कोई सडक पार करें तब उन्हे इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि वह उनके बाप दादा की जागीर नही है कि यहाँ वहाँ ताकते हुए उस पर आराम से चहल कदमी करते फिरें। सडक सरकार की होती है, यह सरकार की मर्जी पर है कि उस पर भ्रमण करने की इजाजत वह किसे दे और किसे नही दे। कुत्ते और अन्य प्राणियों के पिल्ले कोई टैक्स नही चुकाते कि वे भी उसका उपयोग करें और फ्री-फोकट में हमारी गाडियों के सामने आकर हमारी जान को मुसीबत में डालें।' साधुरामजी चुहुल के मूड में आकर मजे लेने लगे।

'और नहीं तो क्या! न कुत्ते का बच्चा सडक का साझेदार बनने की कोशिश करता न वह हमारी गाडी के रास्ते में रुकावट बन पाता।  स्वयं की गलती का खामियाजा तो उसको भुगतना ही पडेगा साधुरामजी।'  अब थोड़ा मूड मेरा भी बनने लगा था।

'जब हम बडे आराम से कैलाश खैर के सूफियाना प्रेम गीतों के रस में सराबोर होते हुए सफर का मजा ले रहे थे कि साले इस कम्बख्त कुत्ते के पिल्ले ने सारा मजा किरकिरा करके रख दिया। यह तो अच्छा हुआ कि सामने कुत्ते का पिल्ला ही आया, खुदा ना खास्ता कोई आदमी का बच्चा आ गया होता तो.. हमारी तो सारी दबंगई निकल गई होती।' साधुरामजी पूरे फॉर्म में आ गए।

हम कहां पीछे रहने वाले थे थोड़े दार्शनिक अंदाज में कहने लगे-'यों देखा जाए तो यह बात केवल डामर और सीमेंट से बनाई गई सडकों तक ही सीमित नही है मित्र, जहाँ अनाधिकृत जीवों का आना-जाना बना रहता है...देश में कई प्रकार की अन्य सडकें भी हैं और उन पर कई प्रकार की गाडियां दौड लगा रहीं हैं।'
'जैसे? जरा स्पष्ट तो करो...' साधुरामजी ने मेरी तरफ ताकते हुए कहा।

'मसलन राजनीति को ही लें। यह भी एक सडक ही है। अनेक पार्टियाँ अपनी अपनी विचारधाराओं के रंगों और रणनीति की विभिन्न तकनीकों से लेस हो कर सत्ता प्राप्ति का महान लक्ष्य लिए प्रजातंत्र की सडक पर दौड लगा रही हैं। अब इस दौड में यदि कोई अवांछित आपके राजनीतिक हितों की राह में आकर बाधक बन जाए तो उसका तो कुत्ते के बच्चे की तरह कुचल जाना निश्चित ही है।' मैंने साधुरामजी की कमजोर नस को दबाया।

'तो भैया, इस बात को तो अब यहीं खत्म करो और जरा इन बेलगाम पिल्लों पर अंकुश लगाने का उपाय करो वरना ये इसी तरह हमारी खुशनुमा राह में आकर हमें मुश्किल में डालते रहेंगे।' कहते हुए साधुरामजी ने प्रसंग का लगभग पटाक्षेप ही कर दिया।

ब्रजेश कानूनगो











 

समय के दर्द पर किस्सों का मरहम

समय के दर्द पर किस्सों का मरहम


सदियों से हमारे यहाँ कहानियाँ सुनाई जाती रहीं हैं और लोग सुनते भी रहे हैं। कहानी सुनने सुनाने की परम्परा नई नही है। गुजरात की कहानी सुनाने से पहले बच्चन साहब बच्चों को शेर की कहानी बडे रोमांचक अन्दाज में सुनाते थे। कहानी सुनने-सुनाने में इसी दिलचस्पी का लाभ उन कथावाचकों ने भरपूर उठाया है जो अपनी दवाओं और ताबीजों की बिक्री के लिए टीवी के चैनलों पर लगातार कथा किया करते हैं। लेकिन यहाँ मैं उन कहानियों की बात कर रहा हूँ जो हमारे दादा-दादी सुनाया करते थे। किस्सागोई की यह प्राचीन परंपरा लुप्तप्राय सी हो गई है।लेकिन इसका बने रहना बहुत जरूरी है।

फिल्म इतिहास के शोले काल में भी बच्चा जब रात को रोता था तब माँ उसे गब्बर सिंह की कहानी सुनाया करती थी। बच्चा परेशान कर रहा हो, जिद कर रहा हो, शोर किए जा रहा हो तब उस वक्त उसे शांत करने का सफल फार्मूला यह हुआ करता है कि जिद्दी बच्चे को कहानियाँ सुनाना शुरू कर दो। कहानियों में बडी क्षमता होती है। बच्चा अपनी जिद छोडकर कहानी में रम जाता है। जिस वस्तु के लिए वह माँग कर रहा होता है, उस वस्तु को ही भुला बैठता है। कहानी की इसी ताकत को जिसने पहचान लिया समझो बेबात के झंझट से उसने सहज मुक्ति पा ली।

एक कहानी है-  गरीब बालक को ठंड लग रही थी तो वह माँ से शिकायत करता है कि माँ  मुझे ठंड लग रही है। माँ लकडी जलाकर उसकी सर्दी दूर कर देती है। बालक ठंड को भूल जाता है लेकिन भूख लगने की बात करने लगता है। इस पर विवश माँ जलती लकडियों की तपन से उसे थोडी दूर ले जाती है। बच्चा भूख को भूलकर फिर ठंड की शिकायत करने लगता है। आखिर माँ को कहानी का ही सहारा लेना पडता है, वह बच्चे को तोहफे लुटाने वाली परियों की कहानी सुनाने लगती है। बच्चा धीरे धीरे स्वप्न लोक की सैर करने लगता है। माँ भी शांति से अपनी नींद पूरी कर लेती है। 

कभी-कभी जिद और आक्रोश की तीव्रता इतनी अधिक बढ जाती है कि कहानी सुनाना उतना असरकारी नही हो पाता। समस्या जस की तस बनी रहती है। तब कहानी का उन्नत स्वरूप आजमाया जा सकता है। नाटक और नौटंकी इसी कार्य को और बेहतर ढंग से कर पाते हैं। नौटंकियों, रामलीलाओं आदि के जरिए भी लोग अपने दुख, परेशानियों को भुलाने का प्रयास करते आए हैं। आज के समय में टीवी के अनेक धारावाहिकों और कार्यक्रमों ने भी यह काम बखूबी किया है। जब देशवासी परेशान हों, महंगाई ,बेरोजगारी जैसी समस्याओं से दुखी हों तब टीवी माध्यम का विवेकपूर्ण(?) उपयोग जनता को राहत प्रदान कर सकता है। सुन्दर और उल्लास से परिपूर्ण इवेंटों का प्रबन्धन या जहाँ कहीं कोई नौटंकी या नाटक चल रहा हो उनका सीधा प्रसारण जनता के हित में एक बुद्धिमतापूर्ण कदम होगा। अंतत: हमारा उद्देश्य तो यही होना चाहिए कि लोग खुश रहें। कहानियाँ सुनों, नौटंकिया देखो, नाचो-गाओ-धूम मचाओ, छोडो भी ये फिजूल की चिंता कि इलाज और दवाइयाँ क्यों महंगी हो रहीं हैं। पेट्रोल,डीजल के दाम पर्वतारोहण क्यों कर रहे हैं।उच्च शिक्षित बेरोजगार युवा कुरियर  या पिज्जा डिलीवरी बॉय क्यों बना हुआ है।

किस्सागोई की प्राचीन व उपयोगी परंपरा अब लुप्तप्राय  हो गई है। इसका बने रहना बहुत जरूरी है। रोचक किस्से वर्तमान के घावों की तरफ ध्यान जाने से हमें रोकते है और दर्द के अहसास को कम करते हैं।
मजे लेकर खूब सुनें और सुनाइए एक दूसरे को दिलचस्प किस्से,कहानियां। परिवार,समाज और राष्ट्रीय स्तर पर भी इस कला को गंभीरता से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए...!

ब्रजेश कानूनगो


 

गुस्से का प्रकटीकरण

गुस्से का प्रकटीकरण

 

प्राचीन काल में राजा-महाराजा बडे दूरदर्शी हुआ करते थे। वे अपने प्रासादों और महलों में सारी भौतिक सुख सुविधाओं के साथ एक कोप भवन भी बनवाया करते थे। रानी के मन के आकाश में  जब नाराजी का सूरज चढने लगता और वे कोप गति को प्राप्त होनें लगतीं वे रनिवास की बजाए तुरंत कोप भवन की ओर प्रस्थान कर जाती थीं। महाराजा को जब अपने सेवकों से ज्ञात होता कि रानी साहिबा कोप भवन पधारीं हैं तो वे पूरी सावधानी और तैयारी के साथ कोप भवन की ओर कूच कर जाया करते थे। किसी को कानों कान खबर नहीं पड़ती थी कि राजमहल में कोई आतंरिक भूचाल आया है।  अब तो हालात यह हैं कि आपने जरा सा गुस्सा किया तो पूरी दुनिया को पता चल जाता है।

 

देह भाषा से भी पहले यह पता लगाना बडा मुश्किल हो जाता था कि हुजूर या बेगम  कुपित हैं। नाराजी का नारियल सबके समक्ष नही फोडा जाता था। बडी मुश्किल से गुप्तचरों  से खबर लगती थी कि फलाँ व्यक्ति ने रूठकर या गुस्से में खाना पीना छोड रखा है।

वर्त्तमान दौर में अब सहज प्रकटीकरण के साधनों की उपलब्धता के कारण गुस्से की सार्वजनिक प्रस्तुतियाँ होने लगी हैं। अपने हितों को साधने के लिए कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। ऐसे कई सार्थक प्रसंग भी हमारी स्मृति की धरोहर बने हैं। भरी सभा में क्रोध प्रकट करते हुए शीर्ष नेता या प्रमुख को केमेरे के सामने जलील करते हुए बहिर्गमन करके अपना अलग गुट बनाया जा सकता है। जन सभा में कुर्ते की बाँहें चढाकर किसी कागज को चिन्दी-चिन्दी करके भी क्रोध की अभिव्यक्ति की जा सकती है। चलते टीवी साक्षात्कार में माइक छीनकर या संवाददाता के सवालों पर लम्बी चुप्पी से भी भीतर का गुस्सा सार्वजनिक हो जाता है। पार्टी या सरकार में महत्वपूर्ण पद की आकांक्षा को मूर्त रूप देने के सन्दर्भ में भी अपनी नाराजी के सार्वजनिक इजहार से अपनी स्थिति को मजबूत बनाया जा सकता है।

 

यद्यपि गुस्से को पी जाने का सटीक फार्मूला हमारे संत महात्मा बहुत पहले से बता गए हैं लेकिन अब ऐसा सम्भव नही रह गया है, क्योंकि पीने के लिए अब बहुत सी चीजें उपलब्ध हैं।  गुस्सा पीना पिछडा हुआ और अप्रासंगिक तरीका रह गया है। वैसे भी नाराजी और गुस्से को दबा कर चेहरे पर मुस्कुराहट बनाए रखने का अब पहले जैसा अभ्यास भी नही रह गया है, दूसरी ओर अब किसी के गुस्से को ताड़ लेने के साधन और नई कलाओं ने भी इन दिनों काफी प्रगति कर ली है। आपका जरा सा गुस्सा भी छुपता नही बल्कि तुरंत सार्वजनिक हो जाता है। सार्वजनिक रूप से बोले गए चन्द शब्दों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से प्रखर विशेषज्ञ तुरंत पता लगा लेते हैं कि बन्दे की नाराजी की तीव्रता और उसकी असली वजह क्या है।

आम मान्यता है कि गुस्सा करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है लेकिन देश के स्वास्थ्य की खातिर जब मतदाता अपने गुस्से का प्रकटीकरण करते हैं तो सत्ता के समीकरण बदल दिया करते हैं। ईवीएम के बटन पर मतदाता की उंगली भले ही हल्के से पडती है लेकिन उसके गुस्से की गूँज  बरसों तक राजनीति की हवाओं में तैरती रहती हैं।


ब्रजेश कानूनगो


 

 

Saturday, September 5, 2020

गले न मिल पाने का दुःख

गले न मिल पाने का दुःख

साधुरामजी जब भी मिलते हैं पूरे जोश से मिलते हैं। उन्हें मिलते हुए देखकर सबको लगता है कि वे गले मिल रहे हैं। उनका गले मिलना किसी किसी को 'गले पड़ने' जैसा भी लग सकता है। लेकिन वे किसी मुसीबत की तरह गले नहीं पड़ते।  मुसीबत तो अब खुद साधुरामजी के सामने आ खड़ी हुई है जब कोरोना जैसा खतरनाक वायरस उन्हें सबसे गले मिलने से रोक रहा है।  दैहिक दूरी बनाए रखना जरूरी है। संकट की घड़ी है। किसी से गले मिलने से 'विषाणु'  के गले पड़ने की आशंका बन जाती है।

सब लोग साधुरामजी की तरह नहीं मिलते। मिलते तो हैं लेकिन नहीं भी मिलते। मिलकर भी कहीं और रहते हैं। देह यहाँ होती है मगर दिल कहीं और छोड़ आते हैं। जैसे शैतान का दिल दूर वीराने में स्थित किसी खंडहर में किसी पिंजरे में कैद होता था।
साधुरामजी शैतान नहीं हैं। अपना दिल साथ लेकर चलते हैं। इसलिए हमेशा गले मिलकर भी वे दिल से मिलते हैं।

इस समय सुरक्षित यह भी हो सकता है कि एक दूसरे का केवल चेहरा देखिए,नजरें मिलाइए और मुस्कुराहट उछालकर प्रेम प्रदर्शित करें। कहते हैं मुस्कुराहट संक्रामक होती है। जितना फॉरवर्ड करो वाट्सएप मेसेज की तरह फैलती जाती है किंतु दिक्कत यह है कि कोरोना इससे भी ज्यादा संक्रामक है। एक विषाणु आठ को संक्रमित करता है। इसलिए मुस्कुराहट का 'मीठाणु' वायरस कमजोर पड़ गया है। मुंह पर मास्क लगा है। 'बुलबुल' बेचारी कैद हो गई है सैयाद के पिंजरे में।

कहते हैं भगवान भी भाव के भूखे होते है। संकेतों में हमारी प्रार्थना से संतुष्ट हो जाते हैं। मनुष्य की भावनाओं को समझते हैं। सारी भौतिकता यहीं पृथ्वी लोक में रह जाती है, हमारी भावनाओं और निवेदनों की अदृश्य तरंगें सेटेलाइट सिग्नल की तरह तुरंत देवलोक पहुंचकर ईश्वर के समक्ष प्रस्तुत हो जाती हैं।

इसी परंपरा से कोरोना काल में आभासी संकेतों ने हमारे लोक व्यवहार को सुगम कर दिया है।  मोबाइल फोन के बटनों को दबाते ही दुनिया आपके दरवाजे पर आ खड़ी होती है। पहले की तरह ही विपक्ष अपना विरोध प्रदर्शन कर सकता है। सरकार और सत्ता के समर्थन में जयकारे  लगाए जा सकते हैं। ऑन लाइन मुकदमें चल रहे हैं। छापे पड़ रहे हैं। फैसले लिए जा रहे हैं। सब कुछ हो रहा।

दैहिक दूरियां आभासी उपस्थितियों से पाट दी गईं हैं। हजारों किलोमीटर दूर की मुस्कुराहट डिजिटल संकेतों में बदलकर छह इंच दूर हमारे कम्प्यूटर या मोबाइल फोन स्क्रीन पर साकार हो रही है।

बस बेचारे साधुरामजी ही दुखी हैं। खुलकर सबसे गले नहीं मिल पाने से इन दिनों बहुत दुखी हैं किन्तु समय के सच को समझने को विवश हैं कि यह वक्त 'नमस्कार से चमत्कार' करने का है। यह क्या कम खुशी की बात है कि उनके दूर के नमस्कार में भी गले मिलने जैसी आत्मीय भावनाएं हमारे दिलों तक भली प्रकार पहुंच रहीं हैं।

ब्रजेश कानूनगो