माई री मैं कापे लिखूँ..!
उसने अपने घर की सारी खिड़कियां खोल रखी थीं। हवा का प्रवेश कमरे में भरपूर हो रहा था, फिर भी बेचैनी जैसे कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। एक द्वंद्व सा छिड़ा हुआ था मन के भीतर। घर की खिड़कियों के अलावा उसने अपने लैपटॉप में भी बहुत सारी 'विंडोज' ओपन कर रखी थीं। कुछ में अखबारों के 'ई संस्करण' एक में फेसबुक और एक में नया डॉक्यूमेंट खुला हुआ था, जिस पर वह कभी कुछ टाइप करता तो कभी तुरंत डिलीट भी कर देता था।
ऐसी स्थितियां अक्सर उसके सामने आती रहती थीं। विशेषकर तब जब एक साथ दो तीन ऐसे सामयिक विषय सामने होते थे जिन पर वह अपनी 'उलटबांसी' लिख देना चाहता है। अखबारों के संपादकीय पेज पर ऐसी 'तिरछी नजरों' और 'चुटकियों' की बड़ी मांग जो निकल आई है इन दिनों।
परेशानी तब होती है जब व्यंग्यकार के सामने 'सरकारी तोता' और 'राजनीतिक कौआ' एक साथ चले आते हैं। जरूरी नहीं कि तोते या कौआ के आने से कोई ज्यादा कष्ट है, 'हाथी' और 'हिरन' भी आ सकते हैं। यह तो उदाहरण मात्र है।
अब 'तोते' पर तीर चलाएं या 'हिरण' का शिकार करें। हाल यह हो जाता है कि थोड़ी ही देर में देशभर के व्यंग्यकार शिकारी 'तोते' की पसलियां और 'हिरण' का हृदय निकालकर संपादक के पास पहुंचा देते हैं।
वह जमाना तो रहा नहीं कि पहले लिखेंगे फिर टाइप करवाएंगे फिर लिफाफा बनाकर डाकघर के हवाले करेंगे। अब यदि वे ऐसा करेंगे तो वही होगा जो रामाजी के साथ हुआ था। लोग कहेंगे ही 'रामाजी रईगिया ने रेल जाती री…!' इसलिए वे सबसे पहले रेल में चढ़ना चाहते हैं।
अभी हिरण और तोते से निपटने ही हैं कि 'अभिनेता' और 'जानेमन' आ खड़े होते हैं... कहते हैं, 'लो हम आ गए, अब हम पर लिखो!' व्यंग्यकार बड़ा परेशान है... 'माई री मैं कापे लिखूँ...मेरे 'जिया' में सब कुछ बड़ा 'अशांत'।'
बड़ी दुविधा आ खड़ी होती है स्तंभकार के सामने। किस पर लिखे, बल्कि पहले किस पर लिखे। 'अभिनेता' पर भी बहुत मसाला तैयार और 'जानेमन' भी 'बयान' देने को तत्पर। अब यदि अभिनेता पर लिखने बैठते हैं और इस बीच जयपुर का कोई जांबाज या इंदौर के कोई भियाजी अपना ईमेल पहले सेंड कर देते हैं तो फिर उनके आलेख का क्या होगा। आप जरा समझिये व्यंग्यकार की इस परेशानी को।
ऐसा कहानीकार या कवि के साथ कभी नहीं होता। कहानीकार किसी भक्तन और बाबाजी की प्रेमकथा तत्काल लिखने की हड़बड़ी में नहीं होता। बाबाजी की कारावास समाधि यात्रा पर जाने और भक्तन के बॉलीवुड में वापस लौट आने तक वह लिखने की प्रतीक्षा कर सकता है। कवि चाहे जब 'चिड़िया' या 'पत्थर की घट्टी' पर कविता लिख सकता है। चिड़िया के दुनिया से विलुप्त होने के बाद और पत्थर की घट्टी के पृथ्वी के गर्भ में समा जाने के बाद भी वह कभी भी उसकी याद में गीत गा सकता है। अखबारी व्यंग्यकार के पास यह अवसर नहीं है। यहां तो बड़ी हड़बड़ी का माहौल बना हुआ है। उसे तो अभी का अभी डिस्पैच करना है, वरना कोई और अपना माल खपा देगा। यह कितना अन्याय है इस बेचारे लेखक के साथ। इतनी मेहनत और लेखन के बावजूद उसका उचित मूल्यांकन नहीं हो पा रहा। कुछ उदार हृदय संपादक उसके लिखे पर थोड़ा बहुत पत्रं पुष्पं दे भी देते हैं, मगर ज्यादातर तो रचना प्रकाशित करके वाया कतरन साझा उसका सम्मान फेसबुक दोस्तों में बढ़ाने का पुनीत कार्य करते हैं। यह भी क्या कम है। इस तरह साहित्य के लिए उनका जो योगदान बना हुआ है इसके लिए तो लेखक को कृतज्ञ होना चाहिए।
बहरहाल, अखबारी व्यंग्य लेखक की अपनी परेशानियां होती हैं, जिन का सामना उसे खुद ही करना होता है। और वह करता भी है। देश भर के अखबारों के हृदय स्थल में जनरुचि के मुद्दों पर रोज प्रतिक्रिया देना कोई आसान काम भी नहीं है। इनका जुझारूपन प्रणम्य है। नमन करने योग्य है। इस जीव को हम प्रणाम करते हैं।
ब्रजेश कानूनगो