Sunday, September 6, 2020

समय के दर्द पर किस्सों का मरहम

समय के दर्द पर किस्सों का मरहम


सदियों से हमारे यहाँ कहानियाँ सुनाई जाती रहीं हैं और लोग सुनते भी रहे हैं। कहानी सुनने सुनाने की परम्परा नई नही है। गुजरात की कहानी सुनाने से पहले बच्चन साहब बच्चों को शेर की कहानी बडे रोमांचक अन्दाज में सुनाते थे। कहानी सुनने-सुनाने में इसी दिलचस्पी का लाभ उन कथावाचकों ने भरपूर उठाया है जो अपनी दवाओं और ताबीजों की बिक्री के लिए टीवी के चैनलों पर लगातार कथा किया करते हैं। लेकिन यहाँ मैं उन कहानियों की बात कर रहा हूँ जो हमारे दादा-दादी सुनाया करते थे। किस्सागोई की यह प्राचीन परंपरा लुप्तप्राय सी हो गई है।लेकिन इसका बने रहना बहुत जरूरी है।

फिल्म इतिहास के शोले काल में भी बच्चा जब रात को रोता था तब माँ उसे गब्बर सिंह की कहानी सुनाया करती थी। बच्चा परेशान कर रहा हो, जिद कर रहा हो, शोर किए जा रहा हो तब उस वक्त उसे शांत करने का सफल फार्मूला यह हुआ करता है कि जिद्दी बच्चे को कहानियाँ सुनाना शुरू कर दो। कहानियों में बडी क्षमता होती है। बच्चा अपनी जिद छोडकर कहानी में रम जाता है। जिस वस्तु के लिए वह माँग कर रहा होता है, उस वस्तु को ही भुला बैठता है। कहानी की इसी ताकत को जिसने पहचान लिया समझो बेबात के झंझट से उसने सहज मुक्ति पा ली।

एक कहानी है-  गरीब बालक को ठंड लग रही थी तो वह माँ से शिकायत करता है कि माँ  मुझे ठंड लग रही है। माँ लकडी जलाकर उसकी सर्दी दूर कर देती है। बालक ठंड को भूल जाता है लेकिन भूख लगने की बात करने लगता है। इस पर विवश माँ जलती लकडियों की तपन से उसे थोडी दूर ले जाती है। बच्चा भूख को भूलकर फिर ठंड की शिकायत करने लगता है। आखिर माँ को कहानी का ही सहारा लेना पडता है, वह बच्चे को तोहफे लुटाने वाली परियों की कहानी सुनाने लगती है। बच्चा धीरे धीरे स्वप्न लोक की सैर करने लगता है। माँ भी शांति से अपनी नींद पूरी कर लेती है। 

कभी-कभी जिद और आक्रोश की तीव्रता इतनी अधिक बढ जाती है कि कहानी सुनाना उतना असरकारी नही हो पाता। समस्या जस की तस बनी रहती है। तब कहानी का उन्नत स्वरूप आजमाया जा सकता है। नाटक और नौटंकी इसी कार्य को और बेहतर ढंग से कर पाते हैं। नौटंकियों, रामलीलाओं आदि के जरिए भी लोग अपने दुख, परेशानियों को भुलाने का प्रयास करते आए हैं। आज के समय में टीवी के अनेक धारावाहिकों और कार्यक्रमों ने भी यह काम बखूबी किया है। जब देशवासी परेशान हों, महंगाई ,बेरोजगारी जैसी समस्याओं से दुखी हों तब टीवी माध्यम का विवेकपूर्ण(?) उपयोग जनता को राहत प्रदान कर सकता है। सुन्दर और उल्लास से परिपूर्ण इवेंटों का प्रबन्धन या जहाँ कहीं कोई नौटंकी या नाटक चल रहा हो उनका सीधा प्रसारण जनता के हित में एक बुद्धिमतापूर्ण कदम होगा। अंतत: हमारा उद्देश्य तो यही होना चाहिए कि लोग खुश रहें। कहानियाँ सुनों, नौटंकिया देखो, नाचो-गाओ-धूम मचाओ, छोडो भी ये फिजूल की चिंता कि इलाज और दवाइयाँ क्यों महंगी हो रहीं हैं। पेट्रोल,डीजल के दाम पर्वतारोहण क्यों कर रहे हैं।उच्च शिक्षित बेरोजगार युवा कुरियर  या पिज्जा डिलीवरी बॉय क्यों बना हुआ है।

किस्सागोई की प्राचीन व उपयोगी परंपरा अब लुप्तप्राय  हो गई है। इसका बने रहना बहुत जरूरी है। रोचक किस्से वर्तमान के घावों की तरफ ध्यान जाने से हमें रोकते है और दर्द के अहसास को कम करते हैं।
मजे लेकर खूब सुनें और सुनाइए एक दूसरे को दिलचस्प किस्से,कहानियां। परिवार,समाज और राष्ट्रीय स्तर पर भी इस कला को गंभीरता से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए...!

ब्रजेश कानूनगो


 

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