Tuesday, April 18, 2023

क्रांतिमुक्त दल बदल

क्रांतिमुक्त दल बदल  

जब कोई राजनीतिक व्यक्ति एक दल छोड़कर दूसरे दल में प्रवेश करता है मुझे कुछ जासूसी और अपराध फिल्में याद आने लगती हैं। उनमें होता यह था कि किसी एक गैंग का कोई व्यक्ति चतुराई से दूसरी गैंग के सरगना का दिल जीतकर उसके दल में शामिल हो जाता था। उचित समय आने पर वहां के भेद जानकर उसका सफाया या भंडाफोड़ कर देता था। लेकिन यह विश्वासघात और जासूसी रोमांच राजनीतिक क्षेत्रों में सामान्यतः नहीं दिखाई देता। मैं उम्मीद लगाए ही रह जाता हूं की एक दल से दूसरे दल में गया व्यक्ति वहां भूचाल ला देगा और उस दल को तबाह कर देगा। लेकिन ऐसा होता नहीं। वह घुसपेठिया धीरे धीरे उसी रंग में रंग जाता है।

बहरहाल, जाना-आना दुनिया की रीत है। जो आता है वह जाता भी है। किसे यहाँ हमेशा के लिए रह जाना है। जब सारी सम्भावनाएँ खत्म हो गईं हों तो रह कर कोई करेगा भी क्या। एकरसता कोई अच्छी चीज नही होती। थोडे ही दिनों में बोरियत होने लगती है। डिप्रेशन में आ जाता है भला चंगा आदमी। जीवन का आनन्द ही इसी मे है कि उत्साह बना रहे। निराशा सब बीमारियों की जड है, इसलिए हवा-बदली की भी जरूरत पडती है। हवा बदली के लिए भी कभी कभी स्थान परिवर्तन करना पडता है। इसलिए भी आना-जाना लगा रहता है। कोई हवा बदली के लिए आता है तो कोई हवा बदली के लिए चला जाता है।

ऐसा ही होता आया है सदा से। जो कभी बीहडों में भटका करते थे, हवा बदली के लिए नगरों-महानगरों में सुपारी लेने लगे हैं। जो जनता की सेवा का दम भरते थे, वे अब राजनीति के बगीचे में चले आए हैं, संसद की हवा उन्हे स्वास्थ्य के लिए बडी मुफीद लगने लगी है। हाल यह है कि सेना की कमान सम्भालते सम्भालते कोई सेनापति इतना ऊब जाता है कि वह जनता की कमान सम्भालने के लिए लालायित दिखाई देने लगता है।

अब भाई ! इस आने-जाने को कौन रोक सकता है भला। जहाँ जिसे अच्छा लगे, वहाँ वह पलायन करने को स्वतंत्र है। चाहें तो सरकारी नौकरी  छोडकर कोई एनजीओ बना लो या एनजीओ चलाते-चलाते  इसे आन्दोलन का रूप दे दो। मन करे तो आन्दोलन को राजनीतिक दल में परिवर्तित कर डालो। चुनाव जीतने पर यदि सत्ता का सिंहासन रास न आए  तो दन्न से सडक पर धरने पर बैठ जाओ। ऐसे में कुछ और लोग भी आपके साथ जुडने को आतुर हो सकते हैं। आप उन्हे रोकें नही। उन्हे रोका नही जा सकता। बड़ी बारात में सम्मिलित होने से किसे रोका जा सकता है।

खैर, जो आते हैं वे चले भी जाते हैं। जमे जमाए घरों से लोग निकल लेते हैं। टीवी स्टूडियो की बहसों में कभी लगता ही नही था कि सबसे पुराने घराने का प्रतिष्ठित प्रवक्ता अचानक घर-परिवार छोडकर किसी और परिवार की गोद में जाकर बैठ जाएगा। कभी रुबाबदार प्रशासनिक अधिकारी  रहा और सत्ताधारी दल की बैसाखियों के सहारे राजनीति में राजनीति में आनेवाला व्यक्ति भी सत्ता सुन्दरी के आकर्षण में अचानक  अपने पितृ दल की उम्मीदवारी को तिलांजली देकर विरोधी दल में छलांग लगा देता है।

इस आने-जाने में कभी-कभी बडी होड दिखाई देती है। रोज पल पल  किसी न किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के पार्टी ज्वाइन करने की खबरें सुर्खियाँ बटोरने लगतीं हैं. जैसे इन दिनों हो रहा है.  कई बार आने-जाने वालों के सामने बडे भ्रम की स्थिति निर्मित हो जाती है। ‘मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ’ वाली स्थिति । चुनाओं की घोषणाओं के साथ ही राजनैतिक पार्टियों का सूचकांक रोज बदलता रहता  है। नेता ही क्या स्वयं पार्टियाँ तक समझ नही पाती कि वे किस के साथ जाएं? किसके साथ गठबन्धन करें। आज जिस नेता या दल की तूती बजती है अगले ही दिन किसी समन  के पहुंच जाने की खबर सामने आ जाती है। संभावनाओं के आकाश में शंकाओं के बादल घिरे रहते हैं। कोई जानता ही नही कि चुनावी ऊँट किस करवट बैठेगा। ऐसे आयाराम गयारामों को निर्णय लेने में भारी कठिनाई का सामना करना पड जाता है।  सत्ता सुन्दरी के खयालों में खोए इन सभी के अंतर्मन में एक ही धुन गूंजती रहती है-‘एक राह तो वो होगी, तुम तक जो पहुंचती हो।’ लेकिन दिक्कत यह होती है कि इस राह पर अक्सर कोहरा छाया रहता है, जब भी कोई कृत्रिम प्रकाश पुंज दिखाई देने लगता है ये उस ओर ही दौडने लगते हैं।

ब्रजेश कानूनगो