Wednesday, February 28, 2024

आओ जोड़ने पर जोर लगाएं

आओ जोड़ने पर जोर लगाएं

जोड़ने का उपक्रम हर कोई करता आया है। देश जोड़ने के लिए पद यात्राएं और मन जोड़ने के लिए भीतर का द्वेष बाहर निकालना पड़ता है।

जोड़ने के लिए कुछ तोड़ना भी पड़े तो लोग कोई कसर नहीं छोड़ते। बनी बनाई सरकार को भी विपक्ष की पार्टियां सत्ताधारियों को अपने में जोड़कर तोड़ डालने में संकोच नहीं करतीं। सरकार को बचाने में भी ऐसा ही कुछ जोड़तोड़ हमेशा से होता रहा है।

आज थोड़ा सकारात्मक ही बात करते हैं। तोड़ने की बजाए थोड़ी जोड़ने की क्रिया को समझने की कोशिश करते हैं।


बिना जोड़ लगाए कोई बात बनती नहीं। जोड़ना बहुत जरूरी है। यह कोई नई बात नहीं है। बिना जोड़ लगाए कोई बात बनती नहीं।  प्रभु राम के लंका प्रवेश को सुगम बनाने के लिए वानरों ने बिना किसी साधन के मात्र पत्थर से पत्थर जोड़कर सेतु निर्मित कर दिया था। आज तो ऐसे ऐसे पदार्थ बाजार में उपलब्ध हुए हैं कि सब कुछ जोड़ा जा सकता है। हाथियों से खींचकर भी कपलिंग तोड़े नहीं जा सकते। हरियाणा का लकड़ा पंजाब के पीतल से जुड़ जाता है और कर्नाटक का ग्रेनाइट राजस्थान के मार्बल से।


बोलचाल की भाषा में कहें तो ’कपलिंग’ चाहे जीवन की कठिन डगर पर निकले स्त्री-पुरुष के बीच दाम्पत्य का हो या लोहे की चिकनी पटरियों पर फिसलती तेज रफ़्तार रेलगाड़ी के डिब्बों के बीच के लीवर का, इनकी मजबूती ही सुखद यात्रा की गारंटी होती है। इस कपलिंग में की गयी ज़रा-सी लापरवाही रेलगाड़ी को दो हिस्सों में विभक्त कर देती है।


सच तो यह है कि बिना जोड़ लगाए कोई बात बनती नहीं। जोड़ना बहुत जरूरी है। जोड़ लगाए बगैर कोई फर्नीचर भी तैयार नहीं किया जा सकता। कुर्सी भी नहीं बनाई जा सकती। जरा देखिए, सत्ता की कुर्सी के लिए तो राजनीतिक दलों को कितनी कपलिंग करना पड़ती हैं। कपलिंग बोले तो गठबंधन। कई बार तो ऐसी कपलिंगों में कोई मेल ही नहीं होता, मजबूरी होती है। प्रजातंत्र की रेल दौड़ाने के लिए बेमेल कपलिंग भी करना पड़ जाती हैं। लोकतंत्र की गाड़ी फिर जहां तक पहुँच जाए... जब की तब देखेंगे। कपलिंग टूटेगा तो नए लीवर लगाकर आगे का सफ़र पूरा कर लिया जाएगा। चिंता में अभी से दुबले होने से क्या फ़ायदा।


चीजों के जुड़ाव में कड़ियों का बहुत महत्त्व होता है। रेल डिब्बों को कड़ियों से कपलिंग किया जाता है। जब तक कड़ियाँ आपस में नहीं जुड़ती निर्माण को विस्तार नहीं मिलता।

रेलगाड़ी बनती है, मकान हो या देश, कड़ी से कड़ी मिलती है तब ही दिखाई देता है कि भवन बन रहा है, देश बन रहा है। ईंट से ईंट मिलती है तो दीवार खडी होती है। आदमी से आदमी जुड़ता है तो देश खडा होता है।


कई कड़ियाँ होती हैं जिनसे आदमी से आदमी जुड़ता चला जाता है।  प्रेम, सौहार्द , भाई चारे और शान्ति में जो यकीन रखते हैं वे हमेशा इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि कड़ियाँ जुडी रहें। अपने अपने हाथों की कड़ियाँ जोड़कर मानव श्रंखलाएं बनाते हैं, मगर विघ्न संतोषी सांड हर क्षेत्र में बहुतायत से पाए जाते हैं। कुछ निरंकुश सांड अक्सर इन शांतिप्रिय लोगों के बीच घुस आते हैं एक दूसरे का हाथ थामें लोगों की कड़ियों को तोड़ने के उपक्रम में उत्पात मचाने लगते हैं। इसके बावजूद विभिन्न भाषाओं, धर्मों, रीति रिवाजों और संस्कारों के इतने बड़े देश में भी ऐसी अनेक कड़ियाँ हैं जिन्होंने राष्ट्र को एक साथ जोड़ रखा है।


हर हाल में यह जरूरी होगा कि जोड़ने वाली हरेक कपलिंग को मजबूती देने का हर संभव उपाय सुनिश्चित किया जाए। किसी ने कहा भी है किसी चीज को तोड देना बहुत आसान होता है लेकिन जोड़ना बहुत मुश्किल काम है। जीवन में विवाह हो,लोकतंत्र में राजनीति की रेल हो या देश दुनिया के हालात, ऐसी ही कपलिंग से सुचारू संचार संभव हो पाता है। रहस्यों के राज तक पहुंचने के लिए कई कड़ियों को जोड़ना जरूरी होता है। हाथ से हाथ जोड़ते हुए लोगों तक पहुंचने में सफलता मिलती है। दिल के दरिया मिल जाते हैं तो सौहार्द्र का सागर लहराने लगता है। बस ध्यान इतना जरूर रखना पड़ता है कि सभी कड़ियों की मजबूत कपलिंग करने में कोई कसर न रहे। बाकी तो जो है सो है।


ब्रजेश कानूनगो

शिकारी की सबसे बड़ी ताकत

शिकारी की सबसे बड़ी ताकत 

यदि आप किसी से पूछें कि किसी कुशल शिकारी की सबसे बड़ी ताकत क्या होती है? तो संभवतः इसका उत्तर यही मिलेगा, उसकी बंदूक या वह हथियार ही असली चीज है जिससे वह लक्ष्य पर वार करता है। लेकिन यह पूरा सच और जवाब नहीं है। दरअसल शिकारी की सबसे बड़ी ताकत उसके कान होते हैं।


जंगल का राजा जब शिकार की तलाश में निकलता है तो जरा सी हलचल या आहट उसके कान खड़े कर देती है। आम बस्तियों में भी चूहों के इंतजार में बिल्लियां सदैव अपने कान खड़े किए इधर उधर सूंघती फिरती हैं। शिकारियों के मजबूत इरादे उनके कान से होकर गुजरते हैं। शिकार को कानों कान ख़बर नहीं होने देते कि कभी भी उन्हें दबोचा जा सकता है।  कानों को लेकर यह प्रवृत्ति इंसानों  में भी प्रायः देखी जा सकती है।


कुछ लोग कान के बड़े कच्चे होते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे लोगों के कान बहुत नाजुक होते हैं और हल्की सी बात का भार वे अधिक देर तक उठा नहीं पाते होंगे। बात ठीक इससे उलट है।दरअसल किसी व्यक्ति का कान का कच्चा होना इस बात का प्रमाण होता है कि उस व्यक्ति का कान नहीं बल्कि मन बड़ा कोमल होता है। ऐसे लोगों को सच्चा,झूठा कुछ भी कह दो वे विश्वास कर लिया करते हैं।  चतुर और अपना हित साधने वाले पक्के लोग सदैव कच्चे कानों की तलाश में रहते हैं। मौका मिलते ही उनके कानों पर कब्जा कर लेते हैं।


कान के कच्चे होने को गुण या दुर्गुण जो भी कह लें किंतु  धारण करने वाले सुपात्रों के कानों में स्वार्थ सिद्धि का मंत्र फूंक कर मंतव्य साधा जा सकता है। उन्हें बड़ी आसानी से बरगलाया जा सकता है। इन दिनों यह अभियान हर क्षेत्र में जोर शोर से जारी है। चाहे आपको अपना उत्पाद बेचना हो या विचार। धरती, समुद्र और आकाश की बोलियां लगानी हो। लोकतंत्र के बाजार में वोटर खरीदना हो या विधायक, कच्चे कान वाले भोले लोगों का शिकार जारी है। हमारे इस प्रलाप से कहीं आपके कान ही न पकने लगे हों लेकिन यह हकीकत है। सोशल मीडिया,अखबारों और टीवी चैनलों के जरिए हम सबके कानों में ऐसे ही मंत्र फूंके जा रहे हैं।


पुराने जमाने में कभी गुणी उस्ताद और आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्य और भक्तों के कानों जीवन में सुख शांति के लिए 'गुरुमंत्र' फूंक दिया करते थे। इसी मंत्र के नियमित मनन और पारायण से भक्त का कल्याण हो जाता था। अब भी छद्म गुरुओं द्वारा भक्तों के कानों में मंत्र फूंके जा रहे हैं लेकिन उनसे कल्याण भी इन सौदागर गुरुओं का ही हो रहा, भक्त बेचारा तो अपनी जेब और जीवन खाली कर देने को विवश है।


आंखों देखी और कानों सुनी का मुहावरा अब अर्धसत्य है। किसी की आंखों देखी,कानों तक पहुंचते पहुंचते सच्चाई खो देती है।

झूठ की चाकलेट सच के रैपर में पैक होकर हम तक पहुंचने लगती है। हमारी आंखों देखी हमारे ही कानों में झूठ की झंकार बनकर लौट आती है। सच की पड़ताल की फाइलों को झूठ की तिजोरियों में बंद कर दिया जाता है। दीवारों के कान तो होते ही नहीं, दीवारों की जुबानें भी नहीं होती।


अच्छे अच्छे मजबूत कान वालों की भी अपनी कुछ समस्याएं होती हैं। आपने सुना होगा,ऊंचाई पर पहुंचने पर हमारे कान बंद हो जाते हैं। लोग पहाड़ चढें या हवाई जहाज में उड़ें, सत्ता का सिंहासन हो या समृद्धि का शिखर, कानों पर एक सा असर डालते हैं। ऊपर वाले को कुछ सुनाई नहीं देता। यह स्वाभाविक और प्राकृतिक प्रक्रिया है। नीचे खड़ा आदमी गलत कहता है कि ऊपर वाले ने कानों में तेल डाला हुआ है। दरअसल वह सुनने की स्थिति में होता ही नहीं। यह उसकी चढ़ाई का अंतिम पड़ाव होता है। प्रारंभ में उसे एक कान से सुनाई भी देता है लेकिन दूसरे कान से निकल जाता है। कान से वह अनुलोम विलोम भी नहीं कर पाता है। कान बंद हो जाते हैं। उसके कानों पर किसी भी पुकार से जूं तक नहीं रेंगती। घंटे,घड़ियाल और नगाड़ों के भारी शोर से भी इस समस्या का उपचार नहीं हो पाता।  हम आप जैसे कान के कच्चे लोग इन पक्के लोगों की इस परेशानी को समझ ही नहीं सकते! शिकार कभी भी शिकारी की समस्या को महसूस ही नहीं कर सकता। 


ब्रजेश कानूनगो

Monday, February 26, 2024

महानता के ताज की आकांक्षा

महानता के ताज की आकांक्षा 


कभी कभी जो दिखता है वह होता नहीं और जो होता है वह दिखाई नहीं देता। अनेक ढपोरशंखों के आगे लोग नतमस्तक होते रहते हैं और वास्तविक गुणवानों की पूछ परख पर ध्यान ही नही दिया जाता। वे नजर ही नहीं आते।
बिना योजना बनाए हर ऐरा गैरा लक्ष्य हासिल करने की तमन्ना मन में पाले रखता है। ऐसा कोई मन नहीं जिसमें देश दुनिया और समाज में नाम कमाने की कोई ख्वाहिश न रही हो। रथ पर सवार हुए बिना 'रथी' नहीं नहीं कहला सकता और फिर 'महारथी' को तो  महानता का कोई न कोई ताज सिर पर धारित करना ही होता है। बस लफड़ा यहीं से शुरू हो जाता है। ताज के चक्कर में महानता के अनेक उपक्रम चलाए जाने लगते हैं। सच्चे हकदार कछुए की तरह पीछे रह जाते हैं और तेज तर्रार खरगोश आगे निकल जाते हैं। अबकी बार खरगोश रास्ते में सोता नहीं है बल्कि देखने समझने वालों की आंखों पर चतुराई से झूठ व भ्रम का पर्दा तान देता है। 
सब जानते हैं कि महानता के लिए व्यक्ति की किसी भी विधा या विद्या में निपुणता या कुशलता जरूरी मानी गई है। कुशल निशानेबाज को केवल टारगेट दिखाई देता है। कुछ प्राकृतिक रूप से टारगेट होते हैं, कुछ को टारगेट किया जाता है। जैसे अर्जुन ने चिड़िया की आँख को टारगेट किया था।

अर्जुन अपने फन में उस्ताद था। लक्ष्य भेदन के वक्त अर्जुन का लक्ष्य केवल चिड़िया की आँख होती थी। कुशल निशानेबाज था, इसलिए महान भी था। मगर इन दिनों महानता के मर्म को जाने बिना हर कोई महान कहलाने को लालायित दिखाई देता है।

बिना महान कार्य किए 'महान' नहीं बना जा सकता। यही परम्परा रही है। इससे उलट अब व्यक्ति को पहले ही 'महामानव' घोषित कर दिया जाता है। फिर वह अपने कारनामें करने लगता है। जयकारों और प्रशस्तियों से आभासी प्रभामण्डल उसके आसपास जगमग करने लगता है। तदनुसार वह क्रमशः महान से महानतम बनता जाता है।

कुछ महात्वाकांक्षी लोग बिना विचारे इसी जुगाड़ में लगे रहते हैं कि किसी तरह वे ‘महामानव’ कहला सकें। परन्तु इस बात को नजर अंदाज कर जाते हैं कि जो महान हुए वे लक्ष्य साधने के लिए पहले उचित योजना बनाते रहे हैं और पूर्व तैयारी और अभ्यास भी करते रहते
 हैं।

राजनीति में भी ऐसा ही होता है। नेता विजेता बनने के लिए वोटर को टारगेट करता है। जब तक आप लक्ष्य नहीं भेद देते, तब तक महान नहीं बन सकते। महान बनने के लिए योद्धा भी बनना पड़ता है। ठीक ठाक निशानेबाज होना भी जरूरी है। वरना गोली चलती तो है मगर घायल कोई और हो जाता है। महानता की चाह में योंही कुछ लोग लक्ष्य की दिशा में चाक़ू सन्नाते रहते हैं।

अज्ञान और जल्दबाजी में कभी-कभी महानता की आकांक्षा का मरण हो जाता है। कभी वार खाली चला जाता है तो कभी सिर पर रखे तरबूज की बजाय आदमी की गरदन उतर जाती है। इसे ही बिना तैयारी के नदी में कूदना कहते हैं। नदी पार करने का लक्ष्य अधूरा रह जाता है तैराक का। समुद्र लांघ जाने का बड़ा लक्ष्य धरा का धरा रह जाता है। उथले जल में डूब जाने से एक महान तैराक के महान हो जाने की संभावना असमय काल कलवित हो जाती है।

इसलिए संत भी कह गए हैं, ‘हे राजन! पूरी तैयारी के साथ महायज्ञ में  ज्वाला को प्रज्वलित करें! हवन सामग्री की शुद्धता का भी ख़याल रखें। अशुद्ध सामग्री से धूम्र उत्पन्न होता है। यह धुंआ प्रासाद के गुम्बद में उपस्थित मधुमक्खियों को कदापि प्रिय नहीं होता। वे महानता के महोत्सव के आनन्द और उल्लास में बाधक होने को तत्पर हो उठती है।

बिना तैयारी कोई महान तो क्या साधारण लक्ष्य भी हासिल नहीं होता। सामान्य जन तक आवश्यक तैयारी रखते हैं। बिजली गुल होगी तो अन्धेरा घिर आएगा इसलिए रात को दियासलाई और मोमबत्ती साथ में रखकर सोते हैं। बारिश आने के पहले किसान अपने खेत जोत लेता है। बेशक उन्हें भी महानता की उतनी ही चाह होती है जितनी किसी सम्राट और योद्धा को।

महान तो वे भी हैं जिन्होंने दूरदृष्टि रख हमारे लिए कुएँ खोदे, तालाब बनाए। आज की तरह उनकी भी सोच रही होती तो शायद हमारे खेत प्यासे रह जाते, बस्ती में आग लगती तो हम शायद तुरंत उसे बुझा भी नहीं पाते।  विडम्बना यही है कि महानता की सूची में उनके नाम कहीं दिखाई नहीं देते।  ताज तो किसी और के माथे पर ही जगमगाना तय होता है। बदलते समय की अब यही रीत है। 

ब्रजेश कानूनगो 

मन मंदिर की घंटी और निर्माण की साधना

मन मंदिर की घंटी और निर्माण की साधना


एक सुंदर सपना मन मंदिर की घंटी बजाता रहता था कि अपना भी एक घर हो बादलों की छांव में. टेंट में तो नहीं रह रहा था,पुश्तैनी हवेली बाप दादा छोड़ गए थे. जो कबूतर खाने की तरह कालांतर में कुटुंब के लोगों में  बंट कर बीस बाय बीस के पिंजड़ों में बदल  गई.  
अपने खुद के बनाए झोपड़े का सुख अलग होता है. सो इन दिनों मैं अपना भी नया मकान बनवा रहा हूँ. जब कोई  मकान बनवा रहा होता है तब वह सिर्फ मकान ही बनवा रहा होता है. मकान के बनते कोई और काम नहीं बनते. अगर अन्य कोई कार्य किया भी जाता है तो वह सिर्फ इसलिए कि मकान बनता रहे. नौकरी करने जाते हैं तो इसलिए कि माह के अंत में वेतन मिले और हम ठेकेदार या बिल्डर को पेमेंट कर सकें. मान लीजिये कि मकान बनवाने वाला मास्टर है और वह नियमित स्कूल जाता है, तो इस विश्वास के साथ नहीं जाता कि उसके पढ़ाने के बाद छात्रों में से कोई गांधी अथवा कलाम बनेगा बल्कि इसलिए कि स्कूल जाने से उसे तनख्वाह मिलेगी और उससे एक कमरे का प्लास्टर हो सकेगा.

मकान बनाने का कार्य शुरू तो हो जाता है लेकिन समाप्त नहीं होता. मैं जानता हूँ, जिन्होंने कुछ वर्ष पहले मकान बनाना शुरू किया था वे आज तक कुछ-न-कुछ तोड़ रहे हैं, फिर बना रहे हैं. फिर तोड़ रहे हैं, फिर-फिर बना रहे हैं. यह जानते हुए कि भवन निर्माण की ऊंखली की गहराई  अंध महासागर की तलहटी की तरह असीम है, मैनें निर्माण में सर दिया है तो ईंटों और सरियों से कैसा डर !  जिसने शुरू करवाया है, वही समाप्त भी करवाएगा. भली करेंगे राम.

इस दौरान एक दिन  मित्र साधुरामजी आये बोले-‘भाई आज तो प्रेमचंद का जन्म दिन है.’ मेरे मुंह से अनायास निकल गया-‘ तभी वह आज  काम पर नहीं आया.’ इस पर साधुरामजी  खिलखिला कर हँस पड़े. दरअसल महान कथाकार प्रेमचंद की बजाए मेरा सारा ध्यान अपने ठेकेदार प्रेमचंद भाटिया की ओर दृष्टिगोचर हो रहा था. ऐसा हो जाता है. जो मकान बनवा रहा होता है उसके साथ ऐसी स्थितियां अक्सर पैदा होती रहती हैं. जिसके पैरों में फटी न बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई.

टीवी देखना कोई दो तीन साल पहले से छोड़ ही रखा है. वैसे यूट्यूब पर कभी कभार पुराने सीरियल और कार्यक्रम देखता रहता हूं. वहां भी मुझे जेठालाल और दया भाभी की नोंक झोक हंसा नहीं पाती, बल्कि मुझे उनके किचन की बनावट और सिंक की डिजाइन आकर्षित करती है. शिवकुमार शर्मा के इंटरव्यू के समय उनके संतूर पर कैमरा केन्द्रित होने पर मुझे कोफ़्त होने लगती है, मैं कैमरामेन से आशान्वित रहता हूँ कि वह उनके घर की बालकनी की जाली और दरवाजे की फ्रेम पर भी कैमरा घुमायेगा.यह बड़ा अच्छा रहा कि एक दिन मैंने गूगल पर भवन निर्माण विषय को सर्च कर लिया तो फेसबुक पर बिल्डिंग मैटेरियल ,खिड़कियों,जालियों, टोटियों, रंग रोगन और बिजली फिटिंग सामग्री की बाढ़ आने लगी.

अपनी गजल के वजन की बजाए मुझे छत में लगने वाले सरियों के वजन का हिसाब विचलित करता रहता है. ईपेपर और मैगजीनों के ले-आउट और पेज सेटिंग की बजाय मेरा ध्यान अपने निर्माणाधीन बाथरूम और टायलेट में सेनेटरीवेयर की सेटिंग की ओर भटक जाता है. पुराने जमाने की सोच का व्यक्ति हूं. मेरे द्वारा अधिक से अधिक दरवाजे और खिड़कियाँ रखने के आग्रह पर मेरा आर्किटेक्ट चिढ जाता है लेकिन मैं जानता हूँ इससे महंगी ईंटों और महंगी सीमेंट और प्लास्टर का थोड़ा खर्च बचाया जा सकता है. यही बचत रंग-रोगन और अन्य मदों में खर्च की जा सकती है.

यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि मकान निर्माण की इस साधना के बीच मैं यह लेख कैसे लिख पा रहा हूँ? इसका भी एक कारण है, जैसे भूखे व्यक्ति को चाँद में भी रोटी ही दिखाई देती है उसी तरह इस सृजन में भी मुझे थोड़ा सा अपना लाभ ही दिखाई दे रहा है. लेख छपेगा तो कुछ न कुछ पत्रम-पुष्पम भी प्राप्त होने की संभावना बनती है और उस से कुछ नहीं तो कम से कम दरवाजों की कुछ चिटकनियाँ  तो अवश्य ही खरीदी जा सकेगी. और यदि अखबारों की कॉस्ट कटिंग के चलते वह नहीं भी मिला तो सक्रीय साहित्यकार होने का गौरव भाव भी इस जमाने में कुछ कम नहीं.
बहरहाल, मुझे उम्मीद है मेरा सपनों का झोपड़ा भी अंततः बन ही जाएगा. जो शुरू होता है वह समाप्त भी होता ही है। भली करेंगे राम! 

ब्रजेश कानूनगो

Saturday, February 24, 2024

तीन सौ सत्तर की बेला में

तीन सौ सत्तर की बेला में 

वे मेरे बचपन के मित्र हैं. पक्के वाले. नदी पर नहाने जाते थे तो कभी कभी हम अपना कच्छा भी शेयर कर लिया करते थे. दोस्त इसलिए हमें लंगोटिया यार अब तक मानते रहे हैं. वे मुझसे उम्र में कोई एक दो बरस बड़े ही होंगे. स्कूल में मेरे सीनियर भी रहे किंतु एक साल उनके साथ पढ़ने के बाद मैं अगली कक्षा में चला गया. बाद में छोटे भाई के साथ भी उन्होंने कक्षा की बैंच का साथ निभाया. कालांतर में मैं दफ्तर में बाबू हो गया और वे पार्टी का झंडा बैनर उठाते उठाते पार्षद जैसे पद तक पहुंच गए. उनका सम्मान समाज में शनै शनै बढ़ता गया. शुरू से मैं उन्हें  ' श्री 108 श्री ' के विशेषण के साथ आदर भाव से संबोधित करता रहा हूं. 

वे आए तो उसी भाव से स्वागत किया, आइए आइए श्री 108 श्री साधुरामजी! '
बंधु, अब आप कृपया 108 वाला विशेषण मेरे नाम के आगे न जोड़ा करें. वे बोले.
ऐसा क्यों भाई?  इसमें क्या बुराई है. विद्वानों और महान लोगों के आगे श्री लगाना हमारी परंपरा रही है. जिसके आगे जितने श्री उसका उतना बड़ा मान. 108 से लेकर 1008 श्री लगाने की प्रथा है हमारे यहां. मैने कहा.
बंधु, 108 का आंकड़ा अब घिस चुका है. महत्वहीन हो गया है. नए दौर में सब कुछ नया हो रहा है. बदलाव की हवा बह रही है. कोई दूसरा अंक लाइए. साधुरामजी ने मुस्कुराते हुए कहा.
आप ही बताइए क्या कहूं आपको? 'श्री 56 श्री' कैसा रहेगा? 
बंधु यह भी घिस चुका है. इसकी भी चमक उतर गई है.
तो फिर आप ही सुझाइए. मैने कहा.
बंधु मार्केट में इन दिनों एक ही आंकड़ा चल रहा है. आप भी उसका प्रयोग कर सकते हैं. हर जगह 370 की चर्चा है. 370 का अंक आंकड़ों का सरताज है. आप 'श्री 370 श्री ' का उपयोग करके मुख्य धारा में प्रवेश कर सकते हैं. उन्होंने सुझाव दिया.
अरे वाह साधुरामजी आपने यह बात बड़ी खूब कही है. मेरा तो ध्यान ही नहीं गया इस ओर. लोकसभा चुनाओं में भी एक पार्टी 370 सीटों पर जीतने का आह्वान कर रही है तो दूसरी 370 पर उसे हराने के लिए रणनीति बनाने में जुटी है. आपका सुझाव सचमुच विचारणीय है. 370 के आंकड़े में देशभक्ति की ध्वनि निकलती है और राष्ट्रप्रेमी होने का गौरव भाव भी जागृत होता है. मैने कहा.

हममें और तुममें  समझ का यही तो अंतर है. तुम नीरस आंकड़ों के बस बाबू बने रहे और हमने इनमें नौ रस खोज लिए. आंकड़ों की व्यंजना में वीरता, दृढ़ता, संदेश और गौरव पताका फहराने की दृष्टि लोक जीवन से ही प्राप्त होती है. यह तुम क्या जानो बंधुवर!  साधुरामजी पूरे फॉर्म में आ गए थे, विद्वता उनके श्रीमुख से प्रवाहित हो रही थी.

मैने सोचा शायद ईश्वर सुमिरण की माला में भी साधुरामजी ने 108 मनकों की जगह 370 मनके रख लिए होंगे. 
मैं उनसे पूछता उसके पहले ही वे बोल उठे, बंधु अब इजाजत दीजिए संगठन की बूथ मैनेजमेंट बैठक में जाना है. इस बार हर बूथ पर पार्टी को कम से कम  370 वोटों से विजय दिलवाने का लक्ष्य प्राप्त करना ही है.
इतना कहकर श्री 370 श्री साधुरामजी मोहल्ला पार्टी कार्यालय की ओर कूच कर गए.

ब्रजेश कानूनगो

Tuesday, January 9, 2024

बुढ़ापे में व्यंग्य लेखन के खतरे

बुढ़ापे में व्यंग्य लेखन के खतरे

 
जीवन में खतरों से कौन नहीं खेलना चाहता! बिना जोखिम उठाए सफलता के झंडे नहीं गाड़े जा सकते. लक्ष्य नहीं साधा जा सकता. बिना पर्वतारोहण किए हिमालय फतह नहीं होता. जीवन पथिक लगातार खतरों से खेलते हुए आगे बढ़ता है. 

बात केवल एवरेस्ट पर झंडे गाड़ने की नहीं है.  हरेक क्षेत्र के अपने अपने शीर्ष हैं जहां पहुंचने के दुर्गम रास्ते हैं, सीढियां हैं. संघर्ष हैं. जोखिम हैं. कोशिश सब करते हैं. इसके लिए खतरों का खिलाड़ी बनना होता है, लेकिन उसका भी एक समय और उम्र होती है जब कोई अपना जीवन जोखिम में डाल सकता है. 

जानी मानी बात है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. समाज और मनुष्य को सच्ची छवि दिखाकर उसे बेहतर बनाने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. इसी बेहतरी के लिए लेखक सृजन की राह पर आगे बढ़ता जाता है. सृजन के भी अपने शिखर हैं, लेखन पथ के कठिन शीर्ष हैं,दुर्गम पड़ाव हैं. मानसिक और दैहिक क्षति के खतरे हैं. 

जोखिम तो साधुरामजी भी लेना चाहते हैं. सृजन के सरताजों की सूची में शीर्ष तक पहुंचने की तमन्ना  उनके भी हृदय में कुलांचे भरती रहती है पर तन अब साथ नहीं देता. साहित्य के खेत में कलम कुदाली लेकर उतरे थे तब न जाने क्या क्या मंसूबे  मन में उछलकूद करते थे. समाज की सफाई करेंगे, कंटीली झाड़ियां और कूड़ा करकट खोद फैंकेंगे. पहले थोड़े बहुत खतरे उठाया भी करते थे, आपातकाल के दिनों में भूमिगत रहकर भी लिखा लेकिन अब बड़ा जोखिम है. कटिली झाड़ियों में हाथ डालना खतरनाक है. खासतौर से व्यंग्य विधा में लिखने पर हड्डियों के टूट फुट की आशंका बनी रहती है. यद्यपि अतीत में कई रचनाकार अपनी हड्डियां तुड़वाकर समाज की गंदगियां उजागर करते रहे. लेकिन वे उजागरसिंह नहीं बन पा रहे, नाम में ही साधु जुड़ा है तो रिस्क नहीं लेना चाहते. नाम में बट्टा क्यों लगाना इस बुढ़ापे में. जवान होते तो उबलता खून होता, मजबूत इरादे होते, समाज को बदल दूंगा टाइप. 

इन दिनों अक्सर दुखी और निराश रहते हैं साधुरामजी. सोचते रहते हैं जो युवा टाइप के लेखक हैं वे क्यों जोखिम नहीं उठा पा रहे. वे तो खतरों से खेल ही सकते हैं. जवान हड्डियों और मजबूत इरादों के मालिक हैं. तब क्यों घबराना? वह ललकारें कहां गईं जब गा उठता था लेखक, देखना है जोर कितना बाजुओं कातिल में है.
एक युवा लेखक से साधुरामजी का वार्तालाप हुआ. युवा लेखक ने उन्हें बताया कि एक तो वह पहले से बेरोजगार है और लिख छप कर परिवार का पेट नहीं भरा जा सकता दूसरा यदि गलत को गलत लिख दिया जाए तो नींद नहीं आती, आती है तो सपने में ट्रोल करती अनेक भेड़ें सिंग लहराती दौड़ती हमारी हड्डियां तोड़ने को आतुर आती दिखाई देने लगती हैं. भय लगता है, जोखिम नहीं लेना चाहता.  और फिर पता चला है कि जल्दी ही साहित्य से व्यंजना, लक्षणा शब्द शक्तियों सहित व्यंग्य विधा को निष्काशित किए जाने का कोई कानून प्रभाव में आने वाला है. युवा लेखक की बात सुन साधुरामजी भौचक्क रह गए! 

ब्रजेश कानूनगो 

Monday, January 8, 2024

कोहरे में घटती दृश्यता और कर्तव्य पालन

कोहरे में घटती दृश्यता और कर्तव्य पालन

उस दिन सुबह से वे उसे जगा रहे थे. पर वह बिस्तर छोड़ने को तैयार ही नहीं था. रजाई एक तरफ से उलेटते तो वह दूसरी तरफ से खींच कर मुंह ढंक लेता. यों सामान्य स्थितियों में भी सुबह सात बजे स्कूल जाने में उसको अपनी स्वर्गवासी नानी जी याद आने लगती थी तब कड़कड़ाती ठंड में तो बड़ी मुश्किल हो रही थी. ऊपर से बेमौसम बरसात और ओला वृष्टि ने जैसे अलास्का या साइबेरिया को ही घर तक पहुंचा दिया था. बिना कुछ खर्च किए पर्यटन के सुख और आनंद का बंदोबस्त मुफ्त में उपलब्ध था.


पोते को न उठना था तो नहीं उठा. उसे स्कूल बस तक पहुंचाने की जिम्मेदारी दादा का पारिवारिक कर्तव्य था. वैसे सरकार की कल्याणकारी नीतियों और योजनाओं के फायदों का प्रचार प्रसार के राष्ट्रीय दायित्व को सोसायटी के वाट्सएप ग्रुप में नियमित रूप से निभाते रहते हैं.  सरकारी सेवा से रिटायरमेंट के बाद कुछ पारिवारिक दायित्व भी उनके लिए अब निर्धारित कर दिए गए थे.


शीतकाल के इस समय में बड़ी समस्या आ रही थी दादाजी के समक्ष. कड़ाके की ठंड ने उनकी सारी गरमाहट को जैसे  दबोच लिया है. नियमित कर्तव्य पालन में बड़ी दिक्कत आ रही है. सब तरफ कोहरा छाया हुआ है. पोते में स्कूल जाने की गर्मी नहीं है, दादा की सरगर्मी कोई काम नही आ रही. सारे प्रयास विफल हो रहे. ऊपर से सोसायटी के वाट्सएप ग्रुप में संदेशे आने लगे कि बच्चे आपके हैं, कलेक्टर या सरकार के नहीं, ठंड में उन्हें स्कूल मत भेजें. लेकिन दादा का पुराना नेहरूकालीन मस्तिष्क यह बात स्वीकारने को तैयार नहीं. खुद की दादी के निधन हो जाने पर भी बचपन में उन्हें स्कूल भेज दिया गया था. पर अब नया देश था, नया संसार था.


बहरहाल, पोते को जगाने, बिस्तर छुड़वाने की माथापच्ची से मुक्त होकर उन्होंने ताजा अखबार उठा लिया. हालांकि अखबार में भी कोहरा छाया हुआ था. उसने भी दो दो जैकेट धारण कर रखी थी और उनमें भी हीटर,ऊनी कपड़ों, गर्मी लाने के साधनों और कंबलों के विज्ञापन छपे थे. सरकारों के गरमाहट से भरे बड़े बड़े पोस्टर छपे थे. जीवन में गर्मी की गारंटियां थीं.

भीतर के पृष्ठों पर वे ही खबरें थीं जो रात को ही वे टीवी पर देख चुके थे. जिन खबरों को वे विस्तार से पढ़ना चाहते थे वे थी ही नहीं या जो थोड़ी बहुत दिखाई दे रहीं थी वे भी ठिठुरकर छोटी हो गई थीं.


दो जैकेटों के बाद अखबार में जो सुर्खियां थी उनमें भी एक्सप्रेस हाइवे पर वाहनों के टकराने और दुर्घटनाओं की सूचनाएं थीं. नीतियों, कूटनीतियों में कोहरे और विचारहीनता की वजह से देशों और नेताओं के टकराव के शोले भड़कने की रिपोर्टिंग नजर आ रही थीं. आसमान में सूरज नहीं था पर राजनीति के आकाश में कई सूर्य और नक्षत्र अपनी तेजस्विता से कोहरे को भेदने की सफल,असफल कोशिश करते दिखाई दे रहे थे. 


चारों तरफ कोहरा घना था. दृश्यता सिमट गई थी. औसतन सौ मीटर रह गई थी. कहीं कहीं इससे भी कम. कोहरा इतना अधिक प्रभावी था कि आंखें तो आंखें दिमाग भी जैसे शून्य होता जा रहा था. न कुछ दिखता था न कुछ सोच पाता था. गजब का कोहरा काल था यह.


तीसरे पन्ने पर जैसे ही उनकी एक खबर पर दृष्टि पड़ी उन्होंने बड़ी राहत महसूस की. कलेक्टर ने अगले सात दिनों के लिए सभी स्कूलों को सुबह सुबह की बजाए प्रातः दस बजे से खोलने के निर्देश दे दिए थे. कोहरे के सामने सबने हथियार डाल दिए थे. सच है दुर्घटनाओं को रोकना है, परेशानियों से बचना है, सुखी, प्रसन्न रहना है तो कोहरे और अल्प दृश्यता को गले लगाने में ही भलाई है.

दादाजी ने अखबार को समेटकर मोबाइल उठाया और सोसाइटी के ग्रुप में सरकार के निर्णय और कलेक्टर के नए आदेश को प्रसारित करने का राष्ट्रीय कर्तव्य का निर्वहन प्रारंभ कर दिया. दृश्यता अब केवल सात इंच रह गई थी. कोहरे की वजह से दूरदृष्टि उनकी ही नहीं पूरे समाज की गड़बड़ा गई है. न जाने यह कोहरा कब छटेगा!


ब्रजेश कानूनगो