Monday, December 21, 2020

मुट्ठी चरित

मुट्ठी चरित

मेरे घर के ड्राइंगरूम की दीवार पर लगे टीवी स्क्रीन पर उस दिन गब्बरसिंह के साथी शोले बरसा रहे थे। काशीराम घर मे से आधी बोरी अनाज ले आया। ‘क्या लाये हो कासीराम?’ कालिया ने अपनी घनी मूंछों के पीछे से पीले दांत दिखाते हुए कहा। ‘हुजूर जुवार लाया हूँ।’ काशीराम ने चबूतरे पर बोरी रखते हुए कहा तो कालिया भड़क गया- ‘हमारे लिए बस आधी मुट्ठी जुवार... बाकी क्या बेटी के बारातियों को खिलाने के लिए रखी है..’ आधी बोरी अनाज कालिया के लिए केवल 'आधी मुट्ठी' के बराबर है। बोरी भर अनाज में काशीराम का सुख-चैन दांव पर लगा हुआ था।


मुट्ठी मुट्ठी में फर्क होता है। मित्र सुदामा की एक मुट्ठी में श्रीकृष्ण को एक लोक नजर आता है। जब तक मुट्ठी बंद रहती है तब तक रहस्य पर पर्दा पड़ा रहता है। जैसे ही मुट्ठी खुलती है चावल के दाने दोनों मित्रों के हृदय सागर को असंख्य प्रेममोतियों से मालामाल कर देते हैं।


मुझे तो इस पुरानी कहावत में भी संदेह रहता है कि ‘बंद मुट्ठी लाख की,खुल जाए तो ख़ाक की’। ये बिलकुल गलत बात है। यदि बंद मुट्ठी में से थोड़ी सी भस्म भी निकलती है तो उसका भी बड़ा मोल हो सकता है। वह भी बहुमूल्य हो सकती है। किसी पुराने वैद्यराज से पूछकर देखिये, कितनी महंगी होती है ‘स्वर्ण भस्म'। कल्लू पंसारी की मुट्ठी ही क्या उसकी चुटकी में दबी ‘केसर’ या गफूर गुल्लू की पुड़िया में बंद ‘पावडर’ का भाव कितना होता है यह खरीदने वाला ही जानता है।


यों देखा जाए तो इंसान की मुट्ठी हमेशा से सामूहिकता और एकजुटता का सटीक उदाहरण रही है। जब सारी उंगलियाँ एक साथ मिल जाती हैं तब मुट्ठी बनती है। एक नेताजी अपनी जीत के प्रति आश्वस्त थे, कहने लगे ‘मुट्ठी भर लोग’ यदि उनके खिलाफ वोट देते भी हैं तो क्या फर्क पड़ने वाला है। लेकिन वे यह नहीं जानते थे कि ये ‘मुट्ठियाँ’ ही जब संकल्प,साहस और शक्ति से भर जाती हैं तो ‘मुक्का’ में बदल जाया करती हैं। जब जब मुट्ठियों नें संकल्पों की मशालें और विचारों के झंडे थामे हैं देश और दुनिया में महान क्रांतियाँ होती रही हैं। एकता में शक्ति होती है, यह बात यों ही नहीं कह दी गयी है। 


मतदान के बाद अनाज की बोरी 'काशीराम' चबूतरे पर रख आता है। 'सुदामाओं' की पोटली खुलने का इंतज़ार कई 'द्वारकाधीश' करने लगते हैं। बूट पॉलिश’ फिल्म का ख़ूबसूरत गीत हमारे यहाँ खूब लोकप्रिय है , ‘नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है !’ मुट्ठी में है तकदीर हमारी, हमने किस्मत को बस में किया है। 'ईवीएम' और 'मतपेटियां' भी प्रजातंत्र की ऐसी ही बंद मुट्ठियाँ होती हैं जो खुलने पर किसी को विजेता का ताज पहनाकर मालामाल करती हैं और किसी के सामने जीवन का सुखचैन छिन जाने का संकट ला खड़ा कर देती हैं।


इन प्रजातांत्रिक मुट्ठियां जब धीरे धीरे खुलने रखती हैं, अनेक दिल धड़कने लगते हैं, बहुतों  की ‘बल्ले बल्ले’ होने लगती है....कई के दिल बैठ भी जाते हैं. फूगे हुए गुब्बारों की तरह उछलते दिलों के अलावा कई पंक्चर दिल भी चुनाव परिणाम वाले दिन सहजता से  अपने आसपास दिखाई देने लगते हैं... 


ब्रजेश कानूनगो