Thursday, December 15, 2022

सेवा का मेवा

सेवा का मेवा


गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, फल की चिंता किए बगैर कर्म किए जाओ। समय आने पर फल अवश्य मिलेगा। धैर्य रखिए। पर धैर्य रखना ही तो मुश्किल है। कब तक कोई धीरज धरे। मन रे तू काहे न धीर धरे। कर्म करे तो कब तक करे बेचारा प्राणी। प्राण निकल जाएं तब फल मिले तो क्या करे उसका वह। मरणोपरांत मिले सम्मान की तरह संततियां अपनी बैठक की दीवार पर मढवाकर इतरा सकती हैं बस।

बहुत से लोग अब कर्म करने को सेवा करना कहते हैं। सेवा शब्द में स्निग्धता है। कर्म थोड़ा खुरादरा सा लगता है। पसीने की गंध आती है इसमें से। सेवा में पावनता है, इसमें केवड़े सी पवित्र महक महसूस होती है। भवन बनाने वाले कर्म करके पसीना बहाते हैं। सदन में सेवा की शपथ लेते नेताओं के शब्द मंत्र की तरह बिखरकर सदन को पवित्रता की सुगंध से भर देते हैं। सेवा की सुवास से प्रजातंत्र का मंदिर महकने लगता है।

तमाम खट कर्म करके चुनाव में विजयश्री मिलने के बाद हर चुने हुए जनप्रतिनिधि की दिली तमन्ना होती है कि वह लोगों की सेवा कर सके। लेकिन क्या सेवा के लिए अपने आपको समर्पित कर देना अब इतना सहज रह गया है? सेवाभावियों की बड़ी भीड़ उमड़ती है अब। हर कोई सेवा करना चाहता है। जो सेवा करता है मेवा उसे ही मिलता है।


क्या क्या सपने देखे होंगे विजयी नेता जी ने। जल सेवा करेंगे,अपने क्षेत्र में नल लगवाएंगे। किसानों के खेतों तक नहरें बनवाएंगे। अस्पताल और स्कूल खुलवाएंगे गली गली। जर जर स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था का कायाकल्प करने का प्रयास करेंगे। पर ये हो न सका। विजयश्री का मुकुट धारण करने के बावजूद सेवा कार्य के अवसर नहीं दिखाई दे रहे। कर्म करने से फल मिलता है और सेवा करने से मेवा।

जी,हां,चौंकिए नहीं! फल को सुखा लिया जाए तो वह मेवा बन जाता है। ताजे से ज्यादा सूखे में ज्यादा सुख है। फल से ज्यादा मेवा मूल्यवान होता है। नेताजी यह बात अच्छे से समझते हैं। मेवा चाहते हैं इसलिए सेवा करना चाहते हैं। पर दिक्कत यह है कि जिस दल के टिकट पर चुनाव जीतकर आए हैं,उसकी सरकार नहीं बन सकती। सत्ता के बगैर कैसे करें सेवा? सेवा का संकल्प कैसे पूरा हो। मेवा पाने की ख्वाहिश अधूरी रह जाने की आशंका सामने खड़ी हो गई है। उनको लगता है कि सेवा का मेवा उनसे दूर खिसक गया है। वे कहते हैं सत्ता में रहे बगैर सेवा करना संभव नहीं। सत्ता में नहीं तो मेवा नहीं। चुनावी संग्राम में उनके कर्मों का विजय फल तो मिल गया है, परंतु उसे मेवा में रूपांतरित किया जाना संभव नहीं है। सत्ता की उम्मीद लिए थोड़े दिन पहले जिस दल में शामिल हुए वह भारी अल्प मत में आ गया है।
वे इसी जीवन में सेवा का मेवा सेवन करना चाहते हैं। देर रात उन्होंने बहुत विचार मंथन किया और सुबह उठकर बहुमत वाले दल में छलांग लगा दी।

ब्रजेश कानूनगो
 

Thursday, November 17, 2022

कुत्तों का खलल

कुत्तों का खलल


अक्सर वीकेंड पर साधुरामजी और मैं लांग ड्राइव के लिए निकल जाते हैं। इससे मेरी पुरानी कार भी हमारे साथ थोड़ी सी ताजगी प्राप्त कर लेती है। साधुरामजी के साथ देश दुनिया की खट्टी मीठी खबरों की चर्चा करके हम भी नई ताजगी से भर जाते हैं। बड़ा आनंद आता है।

'इन दिनों हमारे यहां कुत्तों ने बड़ा आतंक मचाया हुआ है बंधु!' साधुरामजी ने कार में बैठते ही चर्चा के विषय को आगे बढ़ाया।
'हां,बिलकुल! अभी हाल ही में एक बच्चे को लिफ्ट में  पालतू कुत्ते ने काट लिया। थोड़े दिन पहले एक सुरक्षा गार्ड को घायल कर दिया। हर कहीं लोग कुत्तों के इस खतरनाक व्यवहार से चिंतित हैं। हमारे जीवन में इनका अवांछित अतिक्रमण सबको परेशान कर रहा है।' मैने कार स्टार्ट करते हुए कहा।
'कुछ न कुछ इनका करना ही पड़ेगा!' साधुरामजी बोले।

तभी एक पिल्ले ने मेरी कार के सामने आकर खुदकुशी करने का विचार बनाया। मैं कह नहीं सकता किस वजह से उसने मेरी ही कार को आत्महत्या का माध्यम बनाया होगा।

'कुत्ता कहीं का, इसे मेरी ही कार मिली मरने के लिए!'  घबराहट में मेरे मुंह से उसके लिए कुत्ते की ही गाली निकली। मुझे गुस्से के साथ साथ एतराज भी था कि वह इंसानों के लिए बनाई गई सड़क पर आया ही क्यों!'

'तुम्हारा मतलब है कि जब कुत्ते के पिल्ले कोई सड़क पार करें तब उन्हे इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि वह उनके बाप दादा की जागीर नही है कि यहाँ वहाँ ताकते हुए उस पर आराम से चहल कदमी करते फिरें। सड़क सरकार मनुष्य के लिए बनाती है। यह सरकार की मर्जी पर है कि उस पर भ्रमण करने की इजाजत वह किसे दे और किसे नही दे। कुत्ते और अन्य प्राणियों के पिल्ले कोई टैक्स नही चुकाते कि वे भी उसका उपयोग करें और फ्री-फोकट में हमारी गाड़ियों के सामने आकर हमारी जान को मुसीबत में डालें।' साधुरामजी चुहुल के मूड में आकर मजे लेने लगे।

'और नहीं तो क्या! न कुत्ते का बच्चा सड़क का साझेदार बनने की कोशिश करता न वह हमारी गाड़ी के रास्ते में रुकावट बन पाता।  स्वयं की गलती का खामियाजा तो उसको भुगतना ही पडेगा साधुरामजी।'  अब थोड़ा मूड मेरा भी बनने लगा था।

'जब हम बडे आराम से कैलाश खैर के सूफियाना प्रेम गीतों के रस में सराबोर होते हुए सफर का मजा ले रहे थे कि साले इस कम्बख्त कुत्ते के पिल्ले ने सारा मजा किरकिरा करके रख दिया। यह तो अच्छा हुआ कि सामने कुत्ते का पिल्ला ही आया, खुदा ना खास्ता कोई आदमी का बच्चा आ गया होता तो...!' साधुरामजी पूरे मूड में आ गए।

हम कहां पीछे रहने वाले थे थोड़े दार्शनिक अंदाज में कहने लगे-'यों देखा जाए तो यह बात केवल डामर और सीमेंट से बनाई गई सड़कों तक ही सीमित नही है मित्र, जहाँ अनाधिकृत जीवों का आना-जाना बना रहता है...देश में कई प्रकार की अन्य सड़कें भी हैं और उन पर कई प्रकार की गाड़ियां दौड लगा रहीं हैं।'
'जैसे? जरा स्पष्ट तो करो...' साधुरामजी ने मेरी तरफ ताकते हुए कहा।

'मसलन राजनीति को ही लें। यह भी सत्ता तक पहुंचने की एक सड़क ही है। अनेक पार्टियाँ अपनी अपनी विचारधाराओं के रंगों और रणनीति के दुपट्टे टोपियां डाले, विभिन्न तकनीकों से लेस होकर, सत्ता प्राप्ति का महान लक्ष्य लिए प्रजातंत्र की सड़क पर दौड़ लगा रही हैं। अब इस दौड़ में यदि कोई अवांछित आपके राजनीतिक हितों की राह में आकर बाधक बन जाए तो उसका तो कुत्ते के पिल्ले की तरह कुचल जाना निश्चित ही है।' मैंने साधुरामजी की कमजोर नस को दबाया।

'तो भैया, इस बात को तो अब यहीं खत्म करो और जरा इन बेलगाम पिल्लों के आतंक पर अंकुश लगाने का उपाय करो वरना ये इसी तरह हमारे जीवन की खुशनुमा राह में आकर हमें मुश्किल में डालते रहेंगे।' कहते हुए साधुरामजी ने प्रसंग का लगभग पटाक्षेप ही कर दिया।

ब्रजेश कानूनगो

Tuesday, November 8, 2022

रोबोट भी बन रहा है मानव

रोबोट भी बन रहा है मानव  


सुबह की चाय की चुस्की भरी ही थी कि साधुरामजी अखबार थामें बड़ी ही चिंतित मुद्रा में उपस्थित हो गए। 

'मैंने कहा था ना कि एक दिन विज्ञान हमारे लिए अभिशाप बन जाएगा!' आते ही बोले।

'ऐसा क्या हो गया?' मैंने उत्सुकता से पूछा। 
'हो क्या गया! गजब हो गया है! अब हज्जाम, पुलिसकर्मी जैसे लोग बेकार हो जाएंगे। ऐसे यंत्र मानव याने रोबोट बनाए जा चुके हैं जो बहुत ही कुशलता से अपना काम कर सकते हैं।'  वह बोले।

'क्या रोबोट भी बाल काटते समय अपनी कैंची से ज्यादा जीभ चलाएगा?' मैंने पूछा। 
'पता नहीं।' बे बोले। 'हमारी दाढ़ी बनाते समय वह भी राजनीति के गिरते स्तर पर अपनी राय प्रकट करेगा?' मैंने पूछा तो वे बोले, 'तुम्हें मजाक सूझ रहा है अगर ये रोबोट मानव बहुतायत से वाकई हमारे देश में छा गए तो बेचारे कितने गरीब मजदूरों, कर्मचारियों, पुलिसकर्मियों की छुट्टी हो जाएगी, उनके परिवार भूखे मरेंगे।
दुनिया के कई देशों में तो काफी पहले ही रोबोट को नौकरी पर रखा जा चुका है। जहां जहां रोबोट नियुक्त किए गए हैं, उनके व्यवहार में बदलाव देखा जा रहा है। अभी अपने इंदौर जैसे शहर में एक ही रोबोट ट्रैफिक पुलिस यातायात को कंट्रोल कर रहा है,यदि वह कंट्रोल से बाहर हो जाए तो जरा सोचिए क्या हाल हो।

हाल ही के एक सर्वे के अनुसार रोबोटों में जो लक्षण नजर आ रहे उनसे उनके अंदर मानवीय गुण आ जाने के खतरे संभावित हैं।' साधुरामजी अपनी रौ में बोले चले जा रहे थे।

'कहने का मतलब अब रोबोट भी बलात्कार कर पाएगा,भ्रष्टाचार कर सकेगा। वाकई विज्ञान ने बहुत प्रगति कर ली है।' मैंने कहा तो साधुरामजी थोड़ा झुंझलाकर कर बोले,'हां, हां वह बलात्कार करेगा पैसे खाएगा और और...!' 
'और रोबोट अधिकारी के आदेश से एनकाउंटर भी करेगा।' मैंने बात पूरी की। 

साधुरामजी उठ कर जाने ही लगे थे कि श्रीमतीजी चाय का प्याला ले कर आ गईं। मैंने कहा, 'अजी बैठिए, बैठिए!  रोबोट पत्नी चाय ले आई है।' वे मुस्कुरा दिए और पुनः अपनी कुर्सी पर जम गए।

'मेरे ख्याल से जैसे हमने परमाणु बम नहीं बनाया है उसी तरह यह फैसला भी कर लेना चाहिए कि देशहित में हम रोबोट को भी बढ़ावा नहीं देंगे। डिजिटलाइजेशन व तरक्की के ढोल नगाड़ों के बीच भी हमें मशीनों की बजाय मजदूरों के श्रम का ही उपयोग करना चाहिए। देश में बेरोजगारी और गरीबी का स्तर अभी भी कम नहीं हुआ है। हंगर इंडेक्स में हमारा बड़ा बुरा हाल है।'  चाय का घूंट उतरते ही साधुरामजी का कामरेड जाग उठा। 

'लेकिन हमने रोबोट नहीं बनाए और पड़ोसियों ने रोबोट सैनिक बना लिए तो?' मैंने पूछा।

'नहीं वे ऐसा नहीं करेंगे। वे ऐसा तभी करेंगे जब हम वैसा करें। वे अक्सर हमारा अनुसरण करते हैं। महात्मा गांधी पर फ़िल्म बनने के काफी बाद उनके यहां भी कायदे आदम जिन्ना पर फ़िल्म बनीं। वे बस हमारी नकल करते हैं।'   

बात पुरानी थी पर कुछ ठीक ही लगी। 'हां गांधी फिल्म ने तो वाकई कमाल ही कर दिया था। शायद यह कमाल कोई रोबोट भी नहीं कर पाता जो अभिनेता बेन किंग्सले ने कर दिखाया। रोबोट से तो आदमी ही बेहतर होता है।' मैंने कहा तो वे फिर उत्तेजित हो गए। 'तुम्हें फिर मजाक सूझ रहा है।' 

'मैं मजाक नहीं, सच कह रहा हूं। इन रोबोटों का उपयोग आपकी राजनीति में बहुत अच्छी तरह किया जा सकता है। इन दिनों तो सब राजनीतिक कार्यकर्ता रोबोट की तरह ही तो कार्य करते हैं। जैसा ऊपर से आदेश होता है, करने लगते हैं। सब अलग अलग रंगों की टोपी और दुपट्टा पहने रोबोट हैं।' मैंने साधुराम जी की दुखती रग पर उंगली रख दी। 

'तुम तो राजनीति को बहुत ही गिरी हुई चीज समझते हो। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के नागरिक होकर ऐसी घटिया बातें तुम्हे शोभा नहीं देती।' वे गुस्से से लाल हो गए।

मैंने चुटकी लेते हुए कहा, 'नहीं नहीं राजनीति तो बहुत अच्छी चीज है। रोबोट और राजनीतिज्ञों की क्या तुलना। रोबोट वह नहीं कर सकता जो राजनेता करते हैं। रोबोट कुर्सी से प्यार नहीं कर सकता। रोबोट असंतुष्ट नहीं हो सकता। वह कोई गुट नहीं बना सकता। रोबोट दल नहीं बदल सकता। रोबोट की राजनीतिज्ञ से क्या तुलना। आप ठीक कहते हैं।' 

साधुरामजी की चाय खत्म हो गई। गुस्से से लाल पीले होते लौट गए। शायद कल फिर कोई नया समाचार लेकर आएं।

ब्रजेश कानूनगो

Friday, September 30, 2022

मोबाइल धारक की स्मार्ट शपथ

मोबाइल धारक की स्मार्ट शपथ


हम भारत के मोबाइल धारक स्मार्ट लोग सोशल मीडिया रसरंजन में आकंठ डूबे, पूरी मदहोशी में शपथ लेते हैं कि जो कुछ यहां कहेंगे देश काल और परिस्थितियों के मद्देनजर सच कहेंगे। इसके अलावा यदि थोड़ा बहुत सच न भी रहा हो तो वह आपको सच ही लगेगा। हम बिना किसी भेदभाव के अपनी बात देश दुनिया में गाजर घास की तरह फैलाने में पूरे तन मन से लगे रहेंगे। ऐसी हरियाली को विस्तारित करने में हम कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे।

हमें पता है अब यह मोबाइल यंत्र पांच वर्ष के मुन्नू से लेकर पिचासी वर्षीय दादू मुरारी लाल तक के हाथों की रौनक है। अपने परंपरागत आराध्य को चंदन,वंदन,नमन करने के पहले तड़के ही इस मोबाइल मूर्ति के सामने नत मस्तक होकर इसे माथे से लगाता है। अस्सी वर्षीय अनुभवी वैज्ञानिक का संदेश दस वर्षीय कालू मेकेनिक के पास पल में पहुंच जाता है। उसे तुरंत लाभ मिल जाता है।
गांधी का विचार गोविंद तक और सुभाषबाबू की बात साधुराम तक पहुंचती रहती है। यह माध्यम छोटे बड़े, जाति धर्म, प्रबुद्ध मूर्ख,विचार संस्कृति और देश परदेस की सीमाओं में बंधा नही होता। पश्चिम का खुलापन पूरब के लोगों को झकझोर सकता है। रूस की नीति और चीन की रीति के राज अपनों के बीच उघाड़े जा सकते हैं। यूएस की उपराष्ट्रपति में भारत के डीएनए और ब्रिटेन के पीएम की रेस में अपने अंश की दौड़ के गौरव को समान रूप से सब तक पहुंचाने की सुगमता यहां उपलब्ध है। हर बात हर स्तर पर समान रूप से पहुंचती रहती है। हम इस पुनीत कार्य को सदैव मुश्तैदी से आगे बढ़ाते रहेंगे।

हम संकल्प लेते हैं जब तक आवश्यक न हो और ऐसा करने को न कहा जाए तब तक हमे प्राप्त संदेशों को पूरे मन,आत्मा और अंतः करण से सत्य की तरह स्वीकार करेंगे और इसे सम्पूर्ण निष्ठा से चहुँओर त्वरित रूप से अग्रेषित व विस्तारित करने को तत्पर रहेंगे। आयातित संदेशों की पुष्टि के लिए कभी भी किसी भी संदर्भ ग्रंथ को खोलकर उसकी प्राचीन और जर जर जिल्द को क्षति पहुंचाने की धृष्टता करने की कोशिश कदापि नहीं करेंगे। एक तो उनमें जो कुछ लिखा है जरूरी नहीं कि वह सही ही हो। इसमें कोई शक नहीं कि ज्यादातर सामग्री हर शासनकाल में अपनी सुविधा से बदली जाती रही है। खासतौर से इतिहास की पुस्तकें तो बेहद जर्जर और अप्रासंगिक हो चुकीं हैं। पन्ने गल चुके हैं। अन्य विषयों के संदर्भ भी काफी कालातीत हो चुके हैं। सब कुछ बदल डालने का सुविचार बहुत सोच विचार के बाद लाया गया है।

बदलाव के इस महत्वपूर्ण समय में ज्ञान के प्रसार प्रचार में हमारी भूमिका किसी देशभक्त समाजसेवी से कम नही है। सोशल मीडिया के जरिए हमने नवजागरण का बीड़ा उठाया है, जिसका मूल्यांकन भविष्य में अवश्य होगा। बहुत संभव है इस प्रक्रिया में और भी शोध कार्य हो और तमाम शिक्षण संस्थाओं पर हो रहे बेवजह के खर्च को नियंत्रित किया जा सके। वैज्ञानिक और चिकित्सा जगत में प्रयोगशालाओं और अन्वेषण की आगे आवश्यकता ही न रहे। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसमें शासन,प्रशासन की बजाए जनभागीदारी की बड़ी भूमिका है। लोकतंत्र में यह बड़े काम की चीज है। हमने इस पवित्र विचार को आत्मसात किया है। संकल्प में असीम शक्ति होती है। विश्वास दिलाते हैं आने वाला समय नए समाज के निर्माण में हमारे योगदान को जरूर याद रखेगा। यह जगत पहली बार स्मार्ट जगत बनने में सफल होगा। इति।

ब्रजेश कानूनगो  

सस्ते महंगे रावण

सस्ते महंगे रावण

वे सुबह सुबह मेरे घर आए। थोड़ा परेशान लग रहे थे। क्या बात है साधुरामजी? क्या आज फिर माइग्रेन का दौरा पड़ा है?

कोई दौरा वोरा नहीं पड़ा है। समय का ऐसा दौर आएगा हमारे जीते जी, कभी सोचा नहीं था। वे बोले। आखिर हुआ क्या है? हमने पूछा तो उबल पड़े, कहने लगे, माना कि इस कलियुग में सब कुछ बिकता है लेकिन इतना पतन हो जाएगा। यह तो अति ही हो गई है कि रावण भी बिक रहे हैं बाजार में। सस्ते-महंगे हर भाव मे मिल रहे हैं। ग्यारह सौ से लेकर सवा लाख रुपयों तक के रावण उपलब्ध हैं।

तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है साधुरामजी। आदमी बिकते हैं इस समाज में तो पुतलों के बिकने में कैसी परेशानी। आप भी खरीद लाइये और जला दीजिये अपने आंगन में दशहरे पर। रावण के पुतले का दहन करके हम समाज में घुस आई बुराइयों को जला डालते हैं और आने वाले समय के लिए अपना शुद्धिकरण कर लेते हैं। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की।

तुम्हारी ये आदर्श बातें अपने तक ही सीमित रखो। यदि ऐसा हो रहा होता तो हम अब तक सतयुग में लौट गए होते। घर,मोहल्ले के कूड़ा करकट को बोरी में भरकर बचपन में हम भी रावण बनाते थे और मोहल्ले के मैदान में दहन करते थे। दशहरा समितियां भी अपने बड़े बड़े रावण के पुतले बनवाया करती थीं। पर अब ये घरों घर रावण का पुतला जलाना? बाजार में पुतलों का बाजार सजना? रावण कोई ऐसी शख्सियत थी जिसको इतना भाव दिया जाए? इसे नैतिक नहीं कहा जा सकता। साधुरामजी अपनी रौ में बोलते जा रहे थे।

साधुरामजी, यह आपके जमाने वाला कलियुग नहीं है। यह बाजारयुग है। इस युग में अच्छा बुरा सब माथे लगाने योग्य है। जहां से जैसे भी मुद्राओं का आगमन सम्भव हो वह काम करना समय की रीत है। सच भी बिकता है और झूठ भी। आदमी भी बिकता है और पुतला भी। इसमें कोई नैतिक अनैतिक वाला प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। आप अधिक बेचैन न होइए, बीपी बढ़ जाएगा आपका! मैंने कहा।

लेकिन यह भी तो देखिए एक पुतला ग्यारह सौ का है,एक पांच हजार का और कुछ तो सवा लाख रुपयों तक की कीमतों के हैं। पुतला जब प्रतीकात्मक है तो वे एक जैसे भी हो सकते हैं। एक साइज और एक जैसी सामान्य कीमतों के। हर व्यक्ति खरीद सके। साधुरामजी ने अपने को थोड़ा सहज बनाने का प्रयास किया।


साधुरामजी मैं आपको समझाता हूँ ठीक से। देखिए आपने भी माना है कि रावण का पुतला तो बुराई का प्रतीक मात्र है,जिसे जलाकर हम अपनी बुराइयों पर विजय का संकल्प लेते हैं हर साल। मान लीजिए कोई व्यक्ति अपने भीतर के भ्रष्टाचार रूपी रावण को नष्ट करने का संकल्प लेना चाहता है तो वह पुतला खरीद कर अपने आंगन में उसका दहन करेगा ही न! मैंने कहा।

लेकिन इसके लिए सवा लाख कीमत के पुतले की क्या आवश्यकता है? साधुरामजी बोले।

वह इसलिए साधुरामजी कि जो व्यक्ति हजार रुपयों तक का भ्रष्टाचार करता होगा वह क्यों कर महंगा रावण खरीदेगा। अपनी अपनी बुराइयों की साइज के हिसाब से ही तो रावण दहन करेगा न ! जितना बड़ा दोष, उतना बड़ा रावण खरीदेगा। बड़ी कॉलोनी में ज्यादा लोग रहते हैं तो बड़ा और महंगा रावण जलाना पड़ेगा। मैंने समझाया।

इस विश्लेषण को सुनते ही साधुरामजी पूरी तरह सामान्य हो गए। चिर परिचित अंदाज में ठहाका लगाकर बोले, क्या खूब कही आपने, अब समझ आया कि राजधानियों में इतने बड़े बड़े रावण क्यों जलाए जाते हैं।


ब्रजेश कानूनगो

Thursday, September 8, 2022

कतरा कतरा सुख

कतरा कतरा सुख 

कोई भी चीज अचानक जीवन में आ जाए तो धड़कनें ऊपर नीचे होने लगती हैं। जैसे अचानक पता चले कि पिताजी सारी संपत्ति किसी ट्रस्ट के नाम करके सिधार गए हैं तब बेटे की मनोदशा का आकलन कीजिए। उसको तो हृदयाघात होना निश्चित ही है। बात केवल आघात की ही नहीं है,अचानक मिली बहुत सारी खुशियों के मिल जाने पर भी यही संभावनाएं बन जाती हैं। मनुष्य बड़ा संवेदनशील प्राणी है इसलिए भलाई इसमें है कि सब कुछ शनै शनै ही हो। कहा भी तो गया है, धीरे धीरे रे मना,धीरे सब कुछ होए,माली सीचे सौ घड़ा,ऋतु आए फल होए। 

बीमारी से जूझते किसी परेशान व्यक्ति को जब छोटी सी राहत मिल जाती है तो वह भी उसके स्वस्थ होने की दिशा में संजीवनी का काम करने लग जाती है। मूंग के पापड़ का एक टुकड़ा मुंह मे रखते ही बेस्वाद हुई जीभ की स्वाद ग्रंथि पुनः जाग्रत हो उठती है। जीवन आनंद से भरने लगता है। 

आप सोंचते होंगे कि मैं बड़ी अजीबोगरीब बात कर रहा हूँ। बहक गया हूँ। बिल्कुल भी नहीं बहका हूँ जनाब। उस बीमार आदमी का उदाहरण मुझे यों ही नहीं नजर नहीं आ रहा। 

दरअसल यह उस आनन्द की बात है, उस राहत की बात है जिसे पाकर हमारा मन बल्ले बल्ले करने लगता है। जीवन की सारी परेशानियों और दुखों को अकस्मात भूल जाने का मन करता है। जैसे ऊपर उल्लेखित वह बीमार व्यक्ति पापड़ का एक कतरा अपने मुंह में रखते ही सारी बीमारियों को महसूस करना भूलकर स्वाद के संसार में लौटने लगता है।

चलिए पहेलियां बुझाना छोड़कर सीधे बात करते हैं। दरअसल आम आदमी ही कहानी का वह बीमार व्यक्ति है जिसे अनेक परेशानियों ने जकड़ा हुआ है। ऊपर से महंगाई डायन की कुटिल नजरें भी उसके जीवन को निशाना बनाए हुए है। पेट्रोल और गैस के दामों ने उसके जीवन के सुखों में आग सी लगा दी है।

इन संकटों के बीच अखबार में एक दिन खबर छपती है, 'पेट्रोल की कीमतों में पन्द्रह पैसों की जबरदस्त राहत'।

अब बताइए क्या असीम संकटों के बीच इस खुशखबर से किस परेशान व्यक्ति का दिल बल्ले बल्ले नहीं करने लगेगा। पन्द्रह पैसों की राहत पन्द्रह मिनट के लिए भी मन को सुकून देती हैं तो वह भी क्या कम महत्वपूर्ण बात नहीं है? 

सिंघाड़े का आटा हुआ दो रुपए सस्ता पढ़कर व्रत उपवास प्रधान राष्ट्र के किस धर्मप्राण नागरिक का मन जयकार नहीं करने को होगा। 

एक दिन खबर आती है कि सोने का भाव सौ रुपए टूटा। चांदी का भाव पांच सौ रुपए गिरा। अब सोचिए सोने के बिस्कुट चबाने वाले और चांदी के जेवर पहनने वाले गरीबों के टूटे दिल कितने प्रफुल्लित होने लगे होंगे। 

एक दम से दी गई भारी राहत नागरिक के दिल को भारी झटका दे इससे बेहतर यही है कि सलाइन की तरह खुशी की बूंदें धीरे धीरे उस तक पहुंचाई जाएं। 

दिल का खयाल रखना बहुत जरूरी है श्रीमान!  अचानक ढेर सारी खुशियां भी घातक हो सकती हैं। इसलिए कतरा कतरा खुशी का स्वागत करना सीखिए। इसी में सबका भला है। जरा समझिए जनाब!! 


ब्रजेश कानूनगो

Thursday, June 16, 2022

मुस्कुराइए और कत्ल कर दीजिए

मुस्कुराइए और कत्ल कर दीजिए

अगर विचार करें तो पाएंगे कि जिस तरह आदमी अलग अलग तरह से रोता है,उसी तरह अलग अलग प्रकार से हंसता भी है। कोई खुलकर ठहाके लगाता है तो कोई खिसियानी हंसी हंसता है। और भी भिन्न रूप देखे जा सकते हैं हंसी के, लेकिन जो बात 'मुस्कुराहट' में है वह भला और कहां! मुस्कुराहट को किसी ने मनमोहक मीठी छुरी भी कहा है, खून भी नहीं बहता और सामने वाला कत्ल हो जाता है।

बहरहाल, इन दिनों मैं उनकी मुस्कुराहट का कायल हो गया हूँ । वे अक्सर टीवी पर होने वाली बहसों में दिखाई देते हैं। बहस का मुद्दा कुछ भी रहा हो, चाहे जो दलीलें दी जा रहीं हों , मुझे कोई फर्क नही पडता, मैं तो बस उनकी मुस्कुराहट में डूबा रहता हूँ। विपक्षी वक्ता के वक्तव्य पर वे मुस्कुराहट की ऐसी छुरी चलाते हैं कि सामनेवाला लहुलुहान हो जाता है। निसन्देह उनकी मुस्कुराहट उनके व्यक्तित्व और आचरण पर कोई विपरीत प्रभाव नही छोडती लेकिन वह एक ऐसी ढाल जरूर बन जाती है जो विपक्षी प्रवक्ता के तीखे शब्द बाणों की मारक क्षमता को बोथरा कर देती है।

बहरहाल, बात मुस्कुराहट की निकली है तो मुझे चीन की वह लोकप्रिय कहावत याद आ रही है जिसमें कहा गया है कि ‘मुस्कुराएँ और सभ्य नागरिक बनें’। चीन और हमारे देश की संस्कृति में बहुत सी समानता होने के बावजूद मुझे नही लगता कि हमारे यहाँ मुस्कुराहट और सभ्यता के बीच ऐसा कोई रिश्ता सही बैठता होगा। यह सही है कि मुस्कुराहट एक संक्रामक क्रिया है,अगर आप मुस्कुरा रहे हैं तो सामनेवाला भी मुस्कुराने लगता है, लेकिन यह कतई जरूरी नही है कि हर मुस्कुराते व्यक्ति के भीतर सभ्यता या मूल्यों की मधुरता के सोते फूट रहे होंगे।

किसी व्यक्ति का जनाजा उठ रहा है और आप मुस्कुरा रहे हैं, पडोसी की बिटिया को मुहल्ले का गुंडा परेशान कर रहा है और आप गुंडे की हरकत पर उसके सम्मान में मुस्कुराहट के फूल बरसा देते हैं। आन्दोलनकारी किसानों और अपने हक के लिए प्रदर्शन करते मजदूरों पर पुलिस की लाठियों और पानी की बौछार से भागते गिरते लोगों को देखकर आपकी आंखों में पानी नही आता बल्कि आप खिलखिला उठते हैं। चीन की यह कहावत कोई गारटी नही देती कि जो मुस्कुरा रहा है वह सभ्य या सुसंस्कृत होगा ही। इसकी बजाय हमारे एक फिल्मी गीत का दर्शन शायद अधिक सटीक उत्तर देने की क्षमता रखता है। गीत में कहा गया है -‘मुस्कुराते हुए दिन बिताना..’ । गीत में आगे यह दावा नही किया गया है कि इससे आप सभ्य बन जाएँगे बल्कि समय की अनिश्चितता की आशंका व्यक्त करते हुए आगाह किया गया है कि-‘यहाँ कल क्या हो किसने जाना..’ आज तो जी भर कर मुस्कुरा लो ,कल का क्या भरोसा, मुस्कुराहट पर कल कोई नया नियम कानून लागू हो जाए या बुद्धिमत्ता और सहिष्णुता की तरह मुस्कुराने को भी हीनता के भाव से एक गलती की तरह देखा जाने लगे। तब शायद मुस्कुराना भी दूभर हो जाए। इसलिए जितना हो सके बस मुस्कुराते रहिए। चीन में मुस्कुराहट का कोई सम्बन्ध भले होता हो, हम तो अपनी सभ्यता खुद बनाते हैं। पेट्रोल के दाम बढ़ें या नींबू ,प्याज के। बकासुरों के आग उगलते बयान हों या बुलडोजरों से कुचले घरों से निकली सिसकारियां। हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हम चुपचाप मुस्कुराते रहते हैं। जितना चाहते हैं, जब चाहते हैं,मुस्कुराते हैं।

आप भी बेआवाज मुस्कुराइए। पर ध्यान रखें ठहाका मत लगाइए। वह लाउड होता है। महाभारत का कारण बनता है। अपने प्राकृतिक स्पीकर को लाउडस्पीकर न बनने दें। मुस्कुराहट में मोहकता है। मोहते रहिए। इसी में सबका कल्याण है। इति!!

ब्रजेश कानूनगो

Saturday, June 4, 2022

पानीपुरी है दुनिया का सबसे अहम जायका

पानीपुरी है दुनिया का सबसे अहम जायका

वे आए। पूरे लवाजमें के साथ आए। उन्होंने बहुत सी बातें कीं। गरीब के कंधे पर विश्वास का हाथ रखा। दुखी बिटिया के आंसू पौंछे। राज्य का मुखिया हो या देश का, उनका ऐसा करना भला लगता है। उनका मुस्कुराना, भावुक हो जाना एक ओर जहां मनुष्य के मन पर भावनाओं की फुहार करता है वहीं अगले चुनावों में वोट की बौछारों में बढ़ौतरी भी सुनिश्चित करता है।

वे सबके साथ भोजन करते हैं। चाट चौपाटी पर गोलगप्पे खाते हैं। अच्छा लगता है। वे हमारे जैसे हैं। हममें से ही एक होते हैं।  बहरहाल, उन्होंने पानीपूरी का भी आनंद लिया होगा।

मुझे लगता है दुनिया ‘नारंगी’ की तरह न होकर ‘पानीपूरी’ की तरह है। एक विशाल पानीपूरी जिसके भीतर जिन्दगी का जायका है। यदि नारंगी की तरह होती तो उसमें बस एक ही स्वाद होता। इस बहुरंगी दुनिया में कितने सारे रस भरे हुए हैं...जीवन के अनेक जायके इस बड़ी पानी पूरी के भीतर लबालब भरे पड़े हैं। और यह भी सच है कि प्राणीमात्र का जीवन जायके पर ही कायम है। रिश्तों की मिठास है, दुःख का खारापन, दुश्मनी की खटास, घृणा की कड़वाहट...और भी बहुत से जायके हैं... स्वाद नहीं तो जीवन बेकार है।


खाने के लिए जीने वाले लोग हों या जीने के लिए खाने वाले, जायका और स्वादिष्टता सबको आकर्षित करती है। सराफा बाजार के रात्रि कालीन ठीये हों या ‘खाऊगली’ की पैंतीस गुमटियां या इंदौर की छप्पन दुकान। स्वाद सागर के पास की ‘चाट चौपाटी’ हो या ‘ सिटी उद्यान ’ की छतरियाँ, जायके का यही आकर्षण जिव्हा की स्वाद ग्रंथियों को ललचाने लगता है और लोग अपनी दुनिया को स्वादिष्ट बनाने की तमन्ना लिए खिंचे चले आते हैं।

स्वाद से भरी इस महकती दुनिया के माथे की बिंदिया होती है ‘पानीपूरी’ की दूकान। इसके बिना बाजार सौभाग्यहीन है। गुलाब जामुन है, पेटिस है, कचोरी है, रबडी है, समोसा है, दही बड़ा है लेकिन पानी पतासे का ठेला नजर नहीं आए तो संसार नीरस लगेगा। लेकिन ऐसा होता नहीं है। हमारे विश्वास की तरह वह होता है और जरूर होता है। शरीर में आत्मा और भोजन में नमक की तरह ‘फूड बाजार’ के प्राण ‘पानीपूरी के ठिये’ में बसे होते हैं।


जहां ‘चाट’ होगी, वहां चटोरे भी होंगे। जो चटोरे नहीं भी हैं, लेकिन चाट के ठेले या दूकान के करीब हैं, उन्हें चटोरा होने से कोई रोक नहीं सकता। पानीपूरी चुम्बक है और यह शरीर मात्र लोहे का टुकड़ा...ऐसा नहीं कि ‘बाजार से निकला हूँ...खरीददार नहीं हूँ...!’  ‘दुनिया में आए हैं तो जीना ही पडेगा...!’ गुनगुनाते हुए पानीपूरी की प्याली आगे बढाते हुए बोलना ही पडेगा..’भैया, ज़रा पुदीने वाली बनाना..!’

किसी गुब्बारे की तरह फूले हुए पतासे के भीतर स्वाद का सागर हिलोरें मारता रहता है। अब तो ‘ठेले पर हिमालय’ की बजाए विभिन्न जायकों के नौ समुद्र स्टील के मर्तबानों में पतासों के पेट से होकर हमारे भीतर उतर जाने को लालायित रहते हैं। इन समन्दरों के ज्वार-भाटे इतने तेज होते हैं की उनके प्रभाव से अगले पतासे के इंतज़ार में खडे जातक (बंदा) के भीतर की ग्रंथियों में अद्भुत रसयुक्त रिसन होने लगती है। वह बैचैन होने लगता है। लेकिन जैसे ही पानीपूरी वाला एक छलकती दुनिया उसके प्यालें में धर देता है, वह सर्वोच्च आनंद और संतोष से निहाल हो जाता है। इस पापी पेट की दुनिया में भी हमें इस ‘असीम सुख’ के अलावा और चाहिए भी क्या !

जैसे ही रस भरा गुब्बारा मुंह में पहुंचकर फटता है,स्वाद की नौ रसधार जिव्हा से होकर मन और आत्मा तक को आनंदित करने लगती है। कौन ऐसा व्यक्ति होगा जिसके इस अनुपम आनंद में बढ़ती महंगाई, नफरती बयानों या बेरोजगारों के बुझे हुए चेहरों का स्मरण हो पाता होगा।

राजा हो या रंक, नेता हो या वोटर, पार्षद हो या मंत्री सभी इस सुख की तमन्ना मन में बसाए रखते हैं। पानीपूरी का जायका इस दुनिया को एक बेहतरीन तोहफा है।

ब्रजेश कानूनगो

Wednesday, May 11, 2022

भाषणवीरों पर भारी हैं आग उगलते बकासुर

भाषणवीरों पर भारी हैं आग उगलते बकासुर 

हेटस्पीच की बड़ी चर्चा है इन दिनों। स्पीच बोले तो भाषण। ऐसा है कि 'राशन पर भाषण तो बहुत हुए पर भाषण पर राशनिंग' कभी ठीक से हो नहीं पाई। जिसे जो मन पड़ता है बक देता है। संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है लेकिन 'बकासुर' हो जाने की नहीं। बोलते बोलते कौन कितना बकासुर हुआ है यह आखिर में कोर्ट को ही तय करना पड़ रहा है। क्लीन चिट भी वही देता है। आमतौर पर इसमें चीटिंग नहीं होती, गवाह दगा दे जाते हैं। समय रहते अपराध के दाग क्लीन हो जाएं तो कोई क्या कर सकता है।


बहरहाल, बात भाषणों की ही करते हैं। सभाओं में भाषणों की समकालीन शैली का इन दिनों हर कोई कायल हो गया है। वक्ता जनता के प्रश्नों का उत्तर नहीं देते बल्कि स्वयं उनसे सवाल पूछने लगते हैं। यही भाषणों की नई और रोमांचक शैली है। ऐसा ही कुछ ख्यात फ़िल्म 'शोले' में हुआ था।


इसी कारण मैं ‘शोले’ फिल्म का भी मुरीद हो गया था। कुछ चीजों का हमारे मन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ जाता है कि उन्हें भुला पाना बहुत कठिन होता है।


पैंतालीस साल पहले धधके ’शोले’ के संवादों की गर्मी आज भी वैसी ही बनी हुई है। ‘तेरा क्या होगा कालिया?’ ‘कितने आदमी थे?’ ‘कब है होली? होली कब है?’ ‘तेरा नाम क्या है बसन्ती?’ भुलाए नहीं भूलते।


कहने को ये एक फिल्म के संवाद थे, असल में ये कुछ सवाल थे। इनके उत्तर में क्या कहा गया ज्यादा मायने नहीं रखता मगर सवाल अब तक हमारी जबान पर थिरकते रहते हैं।आमतौर पर ज्यादातर सवाल बिलकुल साफ़ और स्पष्ट रहते  हैं लेकिन उनके जवाब विविधता के साथ आते हैं। परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों में भी केवल प्रश्न ही छपे होते हैं, हर ईमानदार परीक्षार्थी यदि व्यापम शैली के अपवाद को छोड़ दें तो भी अब तक उनके भिन्न-भिन्न उत्तर ही लिखता रहा है।


आइये ! इसे ज़रा यों समझने की कोशिश करते हैं, जैसे एक प्रश्न होता है - ‘कैसा समय है?’


मैं कहूंगा- अच्छा समय है। साधुरामजी कहेंगे- कहाँ अच्छा समय है..अच्छा समय तो आने वाला है। कोई कहता है- ‘दिन का समय है। वाट्सएप  पर कनाडा से बेटा बताता है –‘नहीं पापा रात है, मगर सूरज की रोशनी है अभी यहाँ। कहीं रात में उजाले का समय है, कहीं दिन में अन्धेरा घिर आया है। अजीब समय है ! लेकिन यह स्पष्ट है कि हर व्यक्ति का अपना विशिष्ठ उत्तर संभावित है।


सच तो यह है कि अक्सर प्रश्न ही महत्वपूर्ण होते हैं, उत्तर नहीं। विद्वानों का मत भी यही रहा है कि विकास के लिए सवाल होना बहुत जरूरी है। उत्तरों की विविधता के बीच से उन्नति की पगदंडी निकलती है। सवालों के उत्तर खोजता हुआ मनुष्य चाँद-सितारों तक पहुंच जाता है। ये सवाल ही हैं जो हमारे अस्तित्व को सार्थकता प्रदान करते हैं।सही उत्तर वही जो प्रश्नकर्ता मन भाये ! ऐसे उत्तराकांक्षी सवाल करना भी एक कला है जो हर कोई नहीं कर सकता  इसके लिए गब्बर जैसा तन-मन, दमदार आवाज और स्टाइल भी होना चाहिए। सवाल पूछने की भी प्रभावी शैली होना चाहिए। जैसे भीड़ भरी सभा में अवाम से पूछा जाता है... बिजली आती है कि नहीं? तो लोग एक सुर में उत्तर देते हैं ‘नहीं.’ बिजली चाहिए कि नहीं?’ उत्तर आता है ’हाँ,चाहिए?’ ये होता है प्रश्न पूछने का प्रभावी तरीका। कोई ऐरा-गैरा क्या खा कर सवाल करेगा।


केबीसी की भारी लोकप्रियता के बावजूद मैं बिग बी के सवालों की शैली से से ज़रा कम सहमत रहा हूँ। यह भी क्या हुआ कि करोड़पति बनाने के लिए हॉट सीट पर बैठे प्रतियोगी से एक प्रश्न किया और उत्तरों के चार विकल्प दे दिए। यह तो कोई ठीक बात नहीं। एक प्रश्न हो, एक उत्तर हो। जैसे पूछा जाता है - ‘इस बार सरकार बदलना है कि नहीं.?’ उत्तर एक ही आता है- ‘हाँ, बदलना है।’ ये हुई न स्पष्टता। कोई विकल्प नहीं,कोई भ्रम की स्थिति नहीं उत्तर देने में।


यह सच है कि ‘शोले’ फिल्म के संवादों की लोकप्रियता का लंबा इतिहास रहा है।  मगर बदलाव के इस महत्वपूर्ण समय में अब पुराने रिकार्डों को ध्वस्त करने का वक्त आ गया है. इन दिनों जो डायलाग जन सभाओं सुनाई देने लगे हैं,उनसे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि अब शोले के संवादों की दहक कम पड़ गई है। और अब हेटस्पीच के बकासुरों ने तो जनसभाओं के परंपरागत भाषणों को भी पीछे छोड़ दिया है। खुदा खैर करे!!


ब्रजेश कानूनगो

डर के आगे जीत है!

डर के आगे जीत है!

ऐसा व्यक्ति ढूंढ निकालना बड़ा मुश्किल है जो नितांत  निर्भय हो। जहां किसी परिंदे ने डर के डैने  कभी फड़फड़ाए ही नहीं हों। हर प्राणी किसी न किसी चीज से डरता है। कोई तो यह कहने तक से डरता है कि वह निडर है। कल से कह दिया और दुम दबाकर भागने की नौबत आ जाए तो फिर क्या होगा।


बहरहाल, डरना हमारा प्राकृतिक गुण है,सबके स्वभाव में थोड़ा बहुत शामिल है। डर है, तो डराने वाले भी हैं। हमेशा से दो तरह के हमारे हितैषी रहे हैं। एक वो जो डराने जैसा पुण्य का काम करते हैं, ताकि यह डर भाव जो सर्वदा प्रकृति प्रदत्त है कायम रह सके। दूसरे वे होते हैं जो डबल पुण्याई करते हुए सचेत करते हैं कि भाई डरो मत। दोनों तरह के लोग हमारे कल्याण के लिए ही सोचते हैं। ये तमाम व्यवसायी हमारी डर सम्पदा का दोहन करके लाभ कमाते हैं। इनके गिरगिटिया हितोपदेश में आत्महित अधिक समाया होता है।


जैसे ही वक्त बदलता है, ये अपनी भूमिकाएं बदल लेते हैं। डराने वाले डरो मत, डरो मत का उद्घोष करने लगते हैं और  निर्भयता की सब्सिडी  देने वाला, रंग बदल कर खुद डराने लग जाता है।


ये लोग यह जताने में सफल भी हो जाते हैं  कि इनमें लोकोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी है। ये भलीप्रकार जानते हैं कि किसी राजनीतिक पार्टी विशेष के अस्तित्व की तरह किसी भी व्यक्ति को ’भय मुक्त’ नहीं बनाया जा सकता। भय समस्त प्राणी मात्र का स्थायी भाव है, इसी भाव को ये भरपूर भाव देते हैं और लोकतंत्र की मंडी में ऊंचे भाव पर इसकी बोली लगा देते हैं। 

  ये लोग यह जताने में सफल भी हो जाते हैं  कि इनमें लोकोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी है। ये भलीप्रकार जानते हैं कि किसी राजनीतिक पार्टी विशेष के अस्तित्व की तरह किसी भी व्यक्ति को ’भय मुक्त’ नहीं बनाया जा सकता। भय समस्त प्राणी मात्र का स्थायी भाव है, इसी भाव को ये भरपूर भाव देते हैं और लोकतंत्र की मंडी में ऊंचे भाव पर इसकी बोली लगा देते हैं।   


दरअसल, जो डराते हैं, वे हमारे हितैषी हैं। डरने के बाद ही आदमी मजबूत होता है। उसके भीतर साहसी हो जाने की आकांक्षा बलवती होने लगती है। असीम शक्ति का संचार होता है,और अधिक बड़ी और भयावह स्थितियों से निपटने की क्षमता विकसित होने लगती है। अब देखिए, बरसों तक केरोसिन और राशन की कतार में लगने की आदत और अनुभव ने हमारी कितनी मदद की है कि नोट बंदी की राष्ट्रीय बेला में  निहायत अनपेक्षित बैंकों की दैत्याकार लाइन में लगने की भयावह स्थितियों का हम निडर होकर सामना कर पाए। चालीस पैंतालिस वर्षों तक छोटे-मोटे घोटालों के भय से डरते हुए पिछले वृहद घोटालों को हमने हंसते-हंसते सहन कर लिया। जाली नोटों के बार बार उजागर होते बड़े बाजार ने भी अब हमारा डर कितना कम कर दिया है कि ए टी एम से चूरन वाले नोट निकलने पर हम बस मुस्कुराकर रह जाते हैं।

प्राकृतिक आपदाओं से हम डरते हैं। महामारी हमें भयाक्रांत कर देती है। महंगाई से डरते हैं। ईडी से डरते हैं, आईटी से डरते हैं। फिर भी सब कुछ चंगा है जी!!  डर के आगे जीत है। यदि विजेता बनना चाहते हैं तो डर का सामना करना होगा। डर होगा तब ही आदमी डरेगा। यदि डर ही नहीं होगा तो वह किससे डरेगा। डर पर विजय के उसके संघर्ष का क्या होगा? संघर्षों से ही जीत का सच्चा आनन्द मिलता है। बिना डरे कुछ हासिल हो जाए तो मजा नहीं। इसलिये डर भी जरूरी है, डरना भी जरूरी है। डर से मुक्ति का संघर्ष भी जरूरी है।


डर का कोहरा छटने के बाद सूरज के दर्शन होते हैं। डर रात का अँधेरा है, सुबह उजियारा लाती है। सूरज की रौशनी में सब साफ़ दिखाई देने लगता है। क्या मोहक है और क्या डरावना है। अँधेरे में तो सुंदर भी खौफ़नाक हो जाता है। खुद आदमी अपने अक्स से डर जाता है। 


ब्रजेश कानूनगो

Thursday, April 7, 2022

भ्रातृप्रेम की महान परंपरा

भ्रातृप्रेम की महान परंपरा


जब भी हमारे पड़ोसी पर संकट आया है,हमने एक भाई की तरह उसकी मदद की है। उसका दुख हमारी आंखों में पानी ला देता है। चाहे वह पड़ोसी देश ही क्यों न रहा हो। श्रीलंका हो, नेपाल हो या बांग्लादेश रहा हो एक भाई की तरह हमने कठिन वक्त में उनकी मदद की है। पाकिस्तान माने न माने पर उसके दुखों पर भी हमारे मन में करुणा उमड़ ही जाती है। यही हमारी परंपरा रही है।

भारतीय भूत में भाई की बड़ी महत्ता रही है. भाई की खातिर भाई जान पर खेल जाया करते थे. राम को वनवास भेजने वाली सगी माँ को एक सोतेला भाई  आजीवन क्षमा नहीं कर पाता  और स्वयं राम की पादुकाएं सिंहासन पर रखकर वनवासी सा जीवन चौदह वर्षों तक व्यतीत करता है ,दूसरा अपनी नवब्याहता पत्नी को छोडकर भाई की सेवा में वन को चला जाता है. कहावत सी बन गई है कि इस युग में राम तो बहुत मिल जाएँगे लेकिन भरत और लक्ष्मण सा भाई  मिलना कठिन है.

फिल्मों में भी भाई—भाई को लेकर अनेक रोचक  कहानियां आती रहीं हैं.  अलग –अलग विचारधारा और चरित्र के भाई अंत में परम्परानुसार एक दूसरे के शुभचिंतक हो जाते हैं. लेकिन वास्तविक जीवन में भ्रातृप्रेम  के ऐसे सच्चे प्रसंग कभी-कभार ही देखने को मिल पाते हैं.

इसी भ्रातृप्रेम का निर्वाह करते हुए एक युवक परीक्षा देते हुए इंदौर में पकड़ लिया  गया था. यह हमारी  सामाजिक कमजोरी ही कहा जाएगा कि नियम कानून के तहत उनका केस बना दिया गया.  एक महान परम्परा जो साकार होने जा रही थी,एक इतिहास जो फिर अपने को दोहराने का प्रयास कर रहा था, ना-समझ निरीक्षकों की नादानी की वजह से संभव नहीं हो पाया.

बड़ा जालिम है यह ज़माना. जब-जब भाई ने भाई के लिए कुछ करना चाहा है ,तब तब फच्चर फसाया गया है. कुछ वर्ष पूर्व भी एक भाई के साथ ऐसा ही हुआ था, संयोग से वह पुलिसकर्मी था. उसने अपनी छुट्टी के लिए विभाग को आवेदन किया तो स्वीकृत नहीं हुई . तब अंतत: भाई ही भाई के काम आया. उसने अपने छोटे भाई  को वर्दी पहनाई और ड्यूटी पर तैनात कर दिया.   लेकिन वही हुआ , भाई का भाई से यह प्रेम जमाने की कुटिल निगाहों में आ गया. भाई पकड़ा गया और आदर्श का एक शिलालेख स्थापित होने के पहले ही खान नदी के पेंदे में पहुँच गया.

दोषी वही है जो पकड़ा जाए. ये भाई पकड़ लिया गया  इस लिए अपराधी हो गया. बड़ी विडम्बना है यह तो! वे अनेक लोग जो विभिन्न योजनाओं में दूसरों के हकों का लाभ ले रहे हैं, वे जो दूसरों के खेतों पर अपनी फसल काट रहे हैं, निर्दोष हैं. भाई भाई  के काम आ रहा है तो वह दोषी हो गया है.

भूल गए हैं हम अपनी परम्पराओं और अपनी महान संस्कृति को जब एक भाई दूसरे भाई की पादुकाएं सिंहासन पर रखकर राजकाज चलाया करते थे. और अब जब एक भाई दूसरे भाई की सहायता करना चाहता है उसे अपराधी घोषित कर दिया जाता है. परीक्षा में भाई के भले के लिए अपने ज्ञान का  मौन समर्पण करने पर उसे मुन्नाभाई जैसे  गुंडे की श्रेणी में ला खडा कर दिया जाता है.

हमारी संस्कृति रही है कि भाई भाई के काम आए. मुँह बोले भाईयों तक ने वक्त पड़ने पर एक दूसरे की मदद की है.  लेकिन  समय ने अब ऐसी करवट बदली है कि ऐसा आसानी से करने नहीं दिया जाता है. अब तो भाई तो क्या अपने स्वयं के खून को ही आगे बढाने का काम करते हैं तो 'परिवारवाद' को बढ़ावा देने का आरोप लगने लगता है। खासतौर पर लोकतंत्र में 'वंशवाद' को एक वायरस की तरह देखा जाने लगा है। जब राजनेता का बेटा तक मंत्रीपद की दौड़ में केवल इसी वजह पिछड़ जाता है तब किसी भाई या बहिन की महत्वाकांक्षा की पूर्ति तो बहुत दूर की बात होगी।

पूरे विश्व को अपना परिवार मानने वाले हमारे संस्कारों से प्रेरित होकर जब हम कदम उठाते हैं मन गर्व से भर जाता है। यह उचित समय है जब हम भ्रातृप्रेम की महान परम्परा को बचाने के लिए विमर्श की शुरुआत कर सकते है। ज़रा सोंचिए..!

*

ब्रजेश कानूनगो

Tuesday, April 5, 2022

व्यंग्य बाण : महंगाई पर कुछ दोहे

 व्यंग्य बाण : महंगाई पर कुछ दोहे

1
महंगाई सुरसा भई

याचक बन मत मांगते,
कैसे हो इंकार।
सत्ता पाते ही सभी,
बन जाते भरतार।

बड़ी चीज को लघु करें,
बोले बड़ी लकीर।
कुर्सी के मद में पड़ें,
खुद को कहें फकीर।

बात पुरानी हो गई,
जनता करे हिसाब।
सत्ता जिसकी आ जाए ,
देता नहीं जवाब।

दुनिया हुई उलट-पुलट,
जीवन है दुश्वार।
सुरसा महंगाई हुई,
प्रभु करो उद्धार।

000

2
महंगाई का वध करें

अपने घर की क्या कहें,
खस्ता सबका हाल।
कैसे शरबत खुद पिएं,
जब कोई बेहाल।

रोज बढ़ रही कीमतें,
जीना हुआ हराम।
रावण की लंका जली,
मदद करे श्रीराम।

महंगाई इक दैत्य है,
रोक रहा प्रवाह।
कुम्भकर्ण सी नींद में,
कैसे निकले राह।

यूँ हलाल सा लग रहा,
अनचाहा यह दर्द।
झटके में निपटाइए,
कहलाओगे मर्द।

महंगाई का वध करें,
यही वक्त की मांग।
सुख चैन की हवा बहे,
मिटे नफरती भांग।

000

ब्रजेश कानूनगो


Tuesday, March 22, 2022

परम्परागत घर की गुझिया

परम्परागत घर की गुझिया

त्यौहार आए तो समझ लीजिए घर मे गुझिया का बनना तय है। जैसे सर्दी पडती है तो स्वेटर बनना शुरू हो जाते हैं वैसे ही त्यौहार आता है तो गुझिया बनना निश्चित है। सर्दी है तो जर्सी है, बरसात है तो भजिया है ऐसे ही होली, दिवाली है तो गुझिया है। गुझिया बनी है तो समझ लो त्यौहार है या त्यौहार की तैयारी है। गुझिया बनी है तो आस पडोस को भी पता चलना चाहिए कि गुझिया बनी है, सो पडोसिने बाकायदा गुझिया के पैकेट पहुँचाकर सन्देश भिजवाने लगतीं हैं कि गुझिया बन चुकी है। पैकेट एक घर से दूसरे, फिर घरों घर पहुँचाए जाने लगते हैं। गुझिया चर्चा का मुख्य विषय बन जाती है। ‘शर्मा जी के यहाँ तो इस बार बहुत अच्छी गुझिया बनी है भाई।’ ‘वर्माजी के यहाँ कुछ ज्यादा ही तला गईं, कडक हो गई उनकी तरह।’  ‘माथुर साहब के यहाँ की गुझिया में तो बहुत मेवे डाले गए हैं , क्यों न डालें बेटा जो अमेरिका मे डॉक्टर है।’ ‘जैन साहब की ऊपरी कमाई इस बार उनके यहाँ की गुझिया मे भी ठूस ठूस कर भरी गई है।’  गुझिया की उत्कृष्टता परिवार के स्टेटस,स्तर का पैमाना बन जाता है। इसीलिए गृहस्वामिनियाँ दाल बघारने मे एक बार लापरवाही बरत सकतीं हैं लेकिन गुझिया पूरे मन और अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए बनातीं हैं। 


गुझिया का बनना,त्यौहार का आधा मन जाना होता है। त्यौहार आया तो मुझे वह सब सामग्री बाजार से लाकर देने का आदेश हुआ जिससे गुझिया बनती है। सामग्री लाकर देने के बाद गुझिया बनने का इंतजार करने लगा बल्कि यों कहिए कि गुझिया के बनाए जाने मे पूरी तरह सहयोग करने लगा। प्राय: देखा गया है कि गुझिया की कटिंग का भार पति पर ही पडता है, अगर पति गृह कार्य मे दक्ष हुआ तो ‘मुझे तो घी तेल से एलर्जी है या आप तो बहुत बढिया तल लेते हैं’ आदि शब्दों के वाक्यों मे प्रयोग से पत्नियाँ बडी चतुराई से पतियों को फुसला लेतीं हैं और उन्हे आसानी से गुझिया तलने के कार्य मे जोत देती हैं। सो मैने भी गुझिया काटी और गुलाबी होने तक तली, यह कार्य मेरे लिए कोई नया तो था नही।


गुझिया बहुत अच्छी बनी थी। श्रीमतीजी ने इस बात पर खुश होकर नई जुराबें खरीद कर देने का वायदा किया। यह अलग बात है कि जब जुराबें खरीदने बाजार गईं तो बार बार के चक्कर से बचने के लिए दो साडियाँ भी लेतीं आईं। खैर गुझिया बनी और पूरी कॉलोनी मे पहुँचाई गई। फिर शुरू हुआ गुझिया परोसने का सिलसिला। जो भी मिलने आता उसे गुझिया अवश्य खिलाई जाती। खानेवाला तारीफ करता तो श्रीमतीजी खिल जातीं। अपने घर की गुझिया खत्म हो गी तो पडोसी के यहाँ की आयातित गुझिया परोसी जाने लगी। मेहमान तो तारीफ करते ही,श्रीमतीजी भी यह कदापि नही बतातीं कि गुझिया पडोसी के यहाँ की हैं।


उल्टे गर्व से कहतीं ‘अब की बार तो बहुत रुचि से बनाई है हमने, तली भी बहुत बढिया है इन्होने।’ मै भी अपनी प्रशंसा सुनकर गुब्बारे की तरह फूल जाता।


जो फूलता है, वह फूटता है। दूसरों की मेहनत पर हम फूल रहे थे, इसलिए हमारी हवा निकल जाना निश्चित था। मल्होत्राजी गुझिया खाते जा रहे थे और तारीफ किए जारहे थे ‘बहुत खूब, क्या बढिया गुझिया बनाई है भाभी आपने, बिल्कुल पप्पू की मम्मी की तरह।’ अचानक वे उदास हो गए बोले ‘अबकी बार त्यौहार का मजा ही किरकिरा हो गया।’ ‘क्यों भला?’ मैने पूछा।


‘पप्पू की मम्मी की अँगूठी गुम हो गई, खाने पीने का मजा ही चला गया।’ मल्होत्राजी ने गुझिया का आखिरी हिस्सा मुँह मे रखते हुए कहा।               

तभी मल्होत्राजी ने दूसरी गुझिया तोडी तो उसकी भरावन स्टफिंग से एक अँगूठी बाहर निकल आई। अँगूठी निकली तो हमारी हवा भी निकल गई। मल्होत्राजी के यहाँ की गुझिया हम अपनी बताकर उन्ही को खिला रहे थे।


बहरहाल, जो होना था,  वह तो होचुका था,लेकिन भविष्य के लिए सबक भी मिल गया कि आयातित गुझिया न तो किसी को खिलानी चाहिए और न ही किसी के यहाँ भिजवानी चाहिए। गुझिया अपने घर की ही सबसे अच्छी होती है।

(मूल रचनाकाल : मार्च 1980)

ब्रजेश कानूनगो

Sunday, February 27, 2022

मूँछ और पूँछ के बाल

मूँछ और पूँछ के बाल 

मूँछ और पूँछ के बालों की अलग महत्ता रही है। यों कहें कि ये भी एक तरह का वर्ग विभाजन है। एक ओर वे लोग हैं जो किसी के मूँछ के बाल होने का सौभाग्य प्राप्त किए हुए हैं और दूसरी ओर वे लोग भी हैं जो किसी की दुम या पूंछ या अन्य हिस्सों से झर कर यहाँ उपस्थित हैं।

बड़े लम्बे समय से हमारे यहां मूँछ रखना बड़े गौरव की बात रही है। लेकिन अब किसी के मूँछ का बाल हो जाना उससे भी ज्यादा महत्त्व रखता है। जमाने के चलन और नए फैशन के दौर में आप भले ही मूँछ मुंडवा चुके हों लेकिन किसी तरह नेताजी,बाहूबली या मंत्री जी की मूँछ के बाल होने का सौभाग्य यदि प्राप्त कर लेते हैं तो आपका कद समाज में ऊंचा होने की पूरी सम्भावना बन जाती है।

जो मूँछ के बाल की कद्र करते हैं, वे अच्छी तरह इसके मूल्य को भी जानते हैं। कभी इन्हीं मूँछों की कसमें खाई जाती थीं। वादे-इरादे न पूरे कर पाने पर मूंछों के बलिदान कर देने का महान कार्य सम्पन्न कर इतिहास को समृद्ध किया जाता रहा है। मूँछ का एक-एक बाल बेशकीमती हुआ करता था। केवल एक बाल को गिरवी रखने पर करोड़ों के ऋण के लिए मार्डगेज या जमानत की व्यवस्था हो जाया करती थी। मूँछ के बाल की कीमत तुम क्या जानो साहब!

यदि आप मूँछ के बाल नहीं बन पा रहे तो घबराइए नहीं, नाक के बाल बनने का प्रयास कीजिए। मूँछ के बाल और नाक के बाल में कोई ज्यादा अंतर नहीं होता है। जैसे विज्ञान विषय में एडमीशन नहीं मिल पा रहा हो तो कॉमर्स की डिग्री ले लेते हैं, जैसे आईआईएम में प्रवेश नहीं मिलता तो बी-ग्रेड बिजनेस स्कूल से काम चलाते हैं, वैसे ही यदि आप मूँछ के बाल नहीं बन पा रहे हों तो नाक के बाल होने के लिए भी कोशिश करें।  नाक के बाल भी वही करिश्मा दिखाने का सामर्थ्य रखते हैं जो मूँछ के बाल करते हैं।

जहाँ तक पूंछ के बालों का सवाल है, वह ज्यादा लोकप्रिय नहीं हुए हैं। अब कोई पूंछ का बाल बनना भी नहीं चाहता। और जो पूंछ के बाल हो गए हैं वे भी समाज में बहुत अपमानित महसूस करते हैं। कभी घोड़े की पूंछ के बालों से सारंगी को कसा जाता था, और मधुर धुन पैदा की जाती थी। अब सारंगी कोई सुनना ही नहीं चाहता। बालों के समाज में पूंछ के बाल उपेक्षित श्रेणी में देखे जाते रहे हैं। पूंछ के बाल सदियों से मूँछ के बालों द्वारा तिरस्कृत रहे हैं। अपने हितों के लिए पूंछ के बालों का संघर्ष बड़ा असंगठित है। नेतृत्व विहीन है। उनका आन्दोलन भी पूंछ की तरह केवल हिलता-डुलता रहता है, जिससे महज कीट-पतंगों के आक्रमण से तो अपने को बचाया जा सकता है, किंतु मूँछ के बालों के सुनियोजित हमलों का मुकाबला नहीं किया जा सकता।

पूँछ के बाल बरसों से यही आस लगाए बैठे हैं कि कभी कोई ऐसा भी उद्धारक पूंछ का बाल अवतरित होगा जो सभी पूंछ के बालों को गूंथकर शस्त्र बनाएगा और शत्रुओं से लोहा लेने में सफल होगा।

ब्रजेश कानूनगो


Thursday, February 24, 2022

रात दो बजे का प्रलाप

 रात दो बजे का प्रलाप 

जिस दौर में खबरिया चैनलों पर समाचार वाचक 'कर्मचारी' को 'करमचारी' उच्चारित करते हों। 'संभावना' और 'आशंका' जैसे शब्द  समानार्थी समझे जाते हों, तब मेरे किसी भाषाई 'आलाप'  के कोई ख़ास मायने नहीं हैं। मेरी बात  को  किसी बेसुरे राग में घोषित हो जाने की पूरी आशंका है। इसे  बेवजह और असमय के   ‘प्रलाप’ का  आरोप भी झेलना पड़ सकता है। फिर भी  दुस्साहस की प्रबल इच्छा से मैं बेहाल हूँ।

कभी-कभी ऐसा होता है कि हम आंखें बंद किए बिस्तर पर पड़े रहते हैं लेकिन नींद नहीं आती। घड़ी की हर टिक पर हमें आशा रहती है कि शायद अगली टिक हम नहीं सुन पाएँ और नींद के रेशमी जाल में जकड़ लिए जाएं। लेकिन वह नहीं आती तो नहीं आती। 

नींद नहीं आने के अनेक कारण हो सकते हैं।मच्छर आपके शरीर पर आतंकवाद फैला रहे हों, गर्मी पड़ रही हो, हवा चलना बन्द हो। ये नींद नहीं आने के सामान्य कारण हैं। नींद हराम होना इससे थोड़ा अलग है। परोक्ष भावनात्मक कारणों से इंसान की नींद हराम होती रही है। मन में कोई डर बैठा हो कोई दुखद घटना से  कोई दुख साल रहा हो या किसी सुखद समाचार से मन अधिक प्रफुल्लित हो , मनचाही बात अकस्मात फलीफूत हो गई हो अथवा अनचाही पीड़ा ने तन मन को झकझोर दिया हो तब भी  प्यारी निंदिया रानी बाहें नहीं फैलाती।

किसी छोटे दुकानदार से पूछिए जिसका दिवाला निकल रहा हो,किसी युवा से पूछिए जिसने वर्षों मेहनत करने के बाद किसी परीक्षा में सफलता पाई हो लेकिन नौकरी नहीं मिल सकी हो, किसी आम निवेशक से पूछें जिसके शेयरों के भाव अचानक गिर गए हों ... रात भर करवटें बदलने के बहुत से कारण होते हैं। सभी पीड़ितों का जवाब एक ही होगा कि कोशिश करते हैं लेकिन रात को नींद नहीं आती। नींद की चोरी हो जाती है। यह भी सच है कि चोर उनके अंदर ही मौजूद होता है। 

मेरी व्यथा उस दिन इन सबसे बिल्कुल अलग थी। जब बड़ी मुश्किल से  किसी तरह काल्पनिक भेड़ों की गिनती करते हुए आँख लगी ही थी कि मोहल्ले के कुत्तों ने सामूहिक स्वर में कोई 'श्वान गीत' छेड़ दिया। जब नींद उचट ही गयी और वाट्सएप के सारे जीव-जंतु स्वप्नदर्शी हो चुके तो मेरे लिए इसके अलावा कोई चारा नहीं रह गया कि मैं उस अद्भुत और सुरीले 'डॉग्स गान' के आनंद में डूब जाऊं।

क्या वह कोई विलाप था कुत्तों का?  विलाप था तो उन कुत्तों को आखिर क्या दुःख रहा होगा जो इस तरह समूह गान की शक्ल में यकायक वह फूट पड़ा था। यह दुःख कुत्तों को  सामान्यतः रात में ही क्यों सताता है? क्या दिन के उजाले में कुत्तों के अपने कोई  दुःख नहीं होते? अगर होते हैं तो वे उसे दिन में अभिव्यक्त क्यों नहीं करते। दिन में आखिर कुत्तों को किसका और कौनसा डर सताता है जो वे दुपहरी में अपना मुंह खोलकर विलाप नहीं करते?  

कुछ लोग दिन के कुम्भकर्ण होते हैं। दोपहर की नींद निठल्लों की नींद होती है। इन नींद प्रेमियों को देश प्रेमी बनाने के लिए जगाना जरूरी है, किन्तु यह कैसी हिमाकत है दुष्ट कुत्तों की जो वे थककर सोए कर्तव्यनिष्ठ और देश भक्त लोगों की नींद हराम कर देते हैं, रात के दो बजे।

थोड़ा सकारात्मक सोंचें तो यह भी संभव है कि ये कुत्ते अपनी विलुप्त हो रही किसी गायन परंपरा को जिन्दा रखने के महान उद्देश्य से रात को समवेत स्वर में 'आलाप' लेने का अभ्यास करते हों।  जो भी हो इनकी  निष्ठा असंदिग्ध है । पूरे मन से एक साथ, एक स्वर में इनकी तेजस्वी  प्रस्तुति न सिर्फ प्रशंसनीय बल्कि अनुकरणीय कही जा सकती है। अन्य प्राणी जगत में पुरानी परंपराओं को बचाने की यह प्रवत्ति दिखाई देना अब दुर्लभ है। मनुष्य समाज में तो अब हरेक का अपना अलग राग है, अपना अलग रोना है। हमें यह सामूहिकता कुत्तों से सीखनी चाहिए। क्या ख्याल है आपका !! 

ब्रजेश कानूनगो 


Tuesday, February 22, 2022

पत्र परंपरा : फूल तुम्हे भेजा है ख़त में

 पत्र परंपरा : फूल तुम्हे भेजा है ख़त में

पत्रलेखन की परम्परा हमारे यहाँ बहुत पुरानी है। जब मै चौथी कक्षा मे पढता था तब हिन्दी के पर्चे मे अपने पिता को पत्र लिखने के लिए कहा गया था जिसमे स्कूल की पिकनिक के लिए पिताजी से सौ रुपए मँगाने का अनुरोध करना था। पाँचवी कक्षा मे आने पर किसी मित्र को पत्र लिखने के लिए कहा गया। जैसे जैसे अगली कक्षाओं में चढ़ता गया,पत्रों के विषय जरूर बदलते गए लेकिन पत्र लेखन का प्रश्न अनिवार्य बना रहा। 

बचपन से ही पत्र लेखन के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन हमारे यहाँ दिया जाता रहा है। होठों के ऊपर काली रेखा के उगते ही,आम भारतीय छोरा ’मैने तुम्हे खत लिखा ओ सजनी...’ गाते हुए पत्र लेखन प्रतिभा का सार्वजनिक प्रदर्शन करने को आतुर हो उठता है। यहाँ तक कि निरक्षर प्रेमिका भी मुँह बोले भाई से ‘खत लिख दे साँवरिया के नाम बाबू’ कहने को विवश हो जाती है। पत्र लिखने लिखवाने की भावनाएँ बड़ी फोर्स से आती हैं। इसी विवशता और इसके महत्व के कारण सरकारों को भी प्रौढ़ शिक्षा जैसे कार्यक्रमों को बढ़ावा देना पडा ताकि पत्र परम्परा बनी रह सके। उद्देश्य यही है कि देश का हर व्यक्ति और कुछ नही तो कम से कम खत लिखना अवश्य सीख जाए। सोशल मीडिया के डिजिटल दौर के इस समय मे जो भी कागजी खत लिखे जा रहे हैं, देर सबेर उन्हे अपने गंतव्य तक पहुँचाने की गारंटी तो हमारे डाकघर अब भी देते ही हैं। चूँकि डाकघर आजादी के पहले खुल गए थे अत: लालडब्बे मे मय टिकिट और पते के डल जाने के पश्चात वे किसी न किसी तरह कभी न कभी ठिकाने लग ही जाते हैं। हमारे अग्रज व्यंग्यकार शरद भाई को भी इस बात का बडा संतोष था कि अँगरेज डाकघर यहीं छोड गए। 

एक वक्त वह भी था जब कालिदास की नायिका को मजबूरीवश मेघराज के मार्फत अपना सन्देश पहुँचाना पड़ा था। फिर कबूतर उडने लगे, चिट्ठियों के साथ। हरकारे दौडे, मोटरें,रेलें और हवाई जहाज आए तो खत भी सफर करने लगे। डाक विभाग अस्तित्व मे आया और एक बड़े महत्वपूर्ण प्राणी का विकास हुआ जिसे डाकिया कहा गया। डाकिया बाबू परिवार के आत्मीय सदस्य बन गए। इंतजारे डाकिया अपने आप मे एक हसीन अहसास रहा है। अहा ! कैसी अद्भुत रेशमी डोर हुआ करते थे साइकिल पर घर आए डाकिया बाबू। 

पत्र लेखन से हमारा साहित्य भी कम समृद्ध नहीं हुआ है। वो चाहे मिर्ज़ा ग़ालिब के खुतूत हों, महात्मा गांधी के हस्त लिखित पत्र हों या पंडित जवाहरलाल नेहरू के बिटिया इंदु के नाम लिखी चिठ्ठियाँ हों। विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर हैं ये खत ! अब्राहम लिंकन का अपने बेटे के शिक्षक के नाम लिखे पत्र को कैसे भुलाया जा सकता है। ख़त लिखने की शुरुवात करने से ही आम इंसान में से टॉलस्टाय,शेक्सपियर,और मुंशी प्रेमचंद  निकलने की संभावनाएं पैदा होती हैं। 

दशको पहले दादाजी,पिताजी के लिखे ख़त आज भी स्नेह और अपनत्व की खुशुबू बिखेरते रहते हैं ! प्रेयसी द्वारा लिखे प्रेम पत्र आज भी मता-ए-ज़ीस्त लगते हैं ! दीपावली और ईद पर मिले बधाई पत्र आज भी यादो की मरूभूमि में नखलिस्तान बन जाते हैं। एसएमएस या ईमेल या वाट्सएप संदेश सब कागज़ के फूल हैं ! लेकिन यह भी एक कड़वी हकीक़त है.... अश्कों में बह जाती थी जिनकी इबारतें ..! अब वो मज्मून कहाँ, वो ख़त कहाँ ... !

दरअसल, दिल हो,फूल हो या खत हो यदि उस पर कोई आँच आती है तो सचमुच वह तो बहुत बड़ी खता होगी। पत्र परम्परा को बचाए रखने की जिम्मेदारी अब हम सब पर है।


ब्रजेश कानूनगो 

Sunday, February 20, 2022

खटिया खड़ी करना

 खटिया खड़ी करना 

महानगर से ग्रामीण क्षेत्र में चुनाव प्रचार को आए नेताजी बड़े जोश से कह रहे थे कि इस बार तो वे अपने दल के प्रतिद्वंदी की खटिया ही खड़ी करके रख देंगे। 

एक स्थानीय हिंदी प्रेमी पत्रकार कम साहित्यकार ने उनसे पूछ लिया कि क्या उन्हें पता है कुछ खटिया के बारे में? कभी सोए हैं उस पर? मूँज की रस्सियों से कैसे कलात्मक रूप से वह बुनी जाती है? उत्तर में वे नेताजी बगलें झांकने लगे।

दरअसल हर कोई अपने विरोधी की खटिया खड़ी करने पर तुला रहता है भले ही वह खुद या सामने वाला खटिया का इस्तेमाल तो दूर उसकी बनावट,बुनावट आदि तक के बारे में ठीक से नहीं जानता होगा। मुहावरे का प्रयोग करने से पहले कम से कम उसके बारे में थोड़ा बहुत अवश्य जान लेना चाहिए। खटिया क्या होती है? कैसी होती है? कैसे बुनी जाती है। कब खड़ी की जाती है। पहले समझो फिर इस्तेमाल करो।

अभी कुछ वर्ष पहले का इतिहास ही टटोल लेते जब एक जनसभा के बाद उपस्थित श्रोताओं ने वहां बिछाई गईं ‘खाटो’ को लूट लिया था। 

राजनीतिक पार्टी ने अपनी रैली में जरूर यही सोंचकर जनता-जनार्दन के लिए खटिया बिछाई होंगी कि वह चुनाओं में उनके निशान वाला बटन दबाकर अपना ‘खटिया धर्म’ निभाएगी, मगर अफसोस, मतदाता खटिया ही ले उड़े।

मेरे ख़याल से वह दुनिया में पहली और अकेली बात थी जब हमारे लोगों ने इतनी बड़ी संख्या में खुले आम लूट की महानतम घटना को अंजाम दिया था। यह मामूली घटना नहीं थी। संख्या के लिहाज से भी और साहस के हिसाब से भी। किसी भी लूट में हजारों की संख्या में लुटेरों ने कभी इतना जोरदार धावा पहले नहीं बोला होगा। बहुत संभव है गिनीज बुक सहित दुनिया की सभी रिकॉर्ड पुस्तकों में इसे दर्ज भी किया गया हो। इतनी बड़ी घटना के बावजूद कोई उनकी खटिया खड़ी नहीं कर पाया आज तक। वही प्रसंग पढ़ लेते तो खटिया के बारे में जानकारी मिल जाती। लेकिन नेताजी क्यों इतनी जहमत उठाने वाले।बस कह दिया कि खटिया खड़ी कर देंगे। 

अरे भाई, कुछ पता भी है खटिया कब खड़ी की जाती है? कैसे खड़ी की जाती है? खटिया के खड़ी होने के पीछे कितना दुख है,व्यथा है,करुण रस है। भारतीय सिनेमा नहीं देखते क्या? विविधभारती की राष्ट्रीय चैनल पर गाने नहीं सुनते क्या? या बस यों ही राष्ट्रवाद का राग अलापते रहते हो।  सुना नहीं वह बेचारा नायक कैसे गा गा कर गिड़गिड़ाता रहता है अपनी प्रेयसी के सामने, सरकाय लियो खटिया जाड़ा लगे....और हमारे हरि बाबू की व्यथा को याद कीजिए, रामदुलारी मैके गई, खटिया हमरी खड़ी कर गई...

हिन्दुस्तानी समाज में खटिया की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। धरती पुत्र का जीवन है खटिया। शादी ब्याह में माता पिता द्वारा बच्चों को उपहार में खटिया देने की परम्परा रही है, ‘खाट बैठनी’ जैसी मांगलिक रस्म होती है जिसमें नव-दंपत्ति साथ-साथ जीने-मरने का संकल्प लेते हैं। घर के बुजुर्गों के अवसान के बाद गाय, छतरी, बिछौने के साथ एक खटिया भी दान की जाती है। ऐसा कहा जाता है कि इससे संतान को बड़ा पुण्य मिलता है और मृतात्मा को सीधे स्वर्ग में खटिया सुख नसीब होता है। 

आज भी जब हम ग्रामीण क्षेत्र में जाते हैं तो सबसे पहले मेजमान आपके लिए खटिया बिछाता है, बैठाता है, फिर जलपान की व्यवस्था करता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो वह बहुत अपमान जनक माना जाता है। सामने वाला कहता है ’फलां ने तो हमारे लिए खटिया तक नहीं बिछाई!’ 

इस कथा के नायक नेताजी ‘खटिया खड़ी’ करना चाहते थे ? अगर खटिया खड़ी भी करना चाहते हैं तो वह सीधी खड़ी करना चाहते थे या उल्टी खड़ी करना चाहते थे?  किसी के सिधार जाने के बाद जब खटिया का पैरों के तरफ वाला हिस्सा दीवार पर सटाकर ऊपर की ओर रखकर खडा किया जाता है उसे खटिया को उल्टी खड़ा करना कहा जाता है। अब बताइए किसी भी व्यक्ति की खटिया को खड़ी कर देना या अपने प्रतिद्वंदी की मौत की कामना करना भारतीय संस्कृति के अनुकूल है? क्या किसी भी राजनीतिक पार्टी या व्यक्ति के गुजर जाने की चाह प्रजातंत्र की मौत की आकांक्षा की तरह नहीं होगी। विचार करें।

ब्रजेश कानूनगो


Friday, February 18, 2022

दम्भी गोभी की सोच और विनम्र चने की मौज

 दम्भी गोभी की सोच और विनम्र चने की मौज

जो स्थान पुष्प समाज मे गोभी को प्राप्त है लगभग वही स्थान वृक्ष जगत में चने को मिला हुआ है। गोभी फूल होकर भी पुष्प नहीं है और चने का वृक्ष नहीं होकर भी झाड़ कहलाता है। यद्यपि गुलाब को फूलों का राजा माना गया है लेकिन बदलती दुनिया में उसके स्थान धीरे धीरे अब कमल कब्जा करता जा रहा है। पुष्प समाज में गोभी के फूल की कोई औकात नहीं है फिर भी  शक्ल सूरत में कमल सी रंगत के चलते मन में कमल होने का भ्रम पाले रहती है। अब कहाँ राजा हिंदुस्तानी और कहां गंगा पनिहारिन ! कोई तुलना ही नहीं है। 

चना इस मामले में थोड़ा गोभी से अलग सोचता है। उसे कोई मुगालता नहीं है। लोग जुमलो में कितना ही चने के झाड़ पर चढ़ने की खयाली कवायद करते रहे हों किन्तु चना जानता है कि उसके तनों में इतना जोर नहीं कि अकड़कर अपना सीना ताने इठलाता फिरे। वृक्ष कुटुम्ब का हिस्सा होकर भी कभी यह चिंता नहीं करता कि उसे समाज का सदस्य माना भी जाए या नहीं। इसीलिए वह सुखी है। फालतू की महत्वाकांक्षा पालने के चक्कर में नहीं पड़ता। दूसरों को भले चने के झाड़ पर चढ़ाते गिराते रहिए पर चना स्वयं इस चक्कर में कभी नहीं पड़ता। चने को अपनी इसी विनम्रता व समझदारी की वजह से लोगों का भरपूर प्यार मिला है।

इस मामले में गोभी का चरित्र अलग है।  पत्ते उतरते ही उसका असंतुष्ट व कुपित चेहरा उजागर हो जाता है। कमल न हो पाने व पुष्प न माने जाने का दुख उसे सदैव परेशान करता रहता है। जब कमल स्वयं गुलाब का स्थान पाने में कामयाब नहीं हो पा रहा,संघर्षरत है, तब गोभी की क्या बिसात कि वह बगीचे की सरताज बन सके। क्यों जबरन ये भाजी बहिने बुआओं की तरह मुंह फुलाए बागवान को मुंह चिढाती रहती हैं। यदि आलू मटर के साथ ऊब गईं हों तो कमल गट्टे के साथ मिलकर नए जायके से लोगों का मन जीतने की कोशिश करें। इधर फुलवारी में अतिक्रमण क्यों करना चाहती हैं। 

गोभी के मुकाबले चना बड़ा संतुष्ट रहता है। कई तरह से वह लोगों के दिलों में जगह बनाने में कामयाब हुआ है। इससे जो खुशी मिलती है वही शायद उसकी धरोहर है। कच्ची उम्र में ही चना लोगों का मन मोह लेता है। उसका हरापन बहुत लुभाता है। पत्तियों से लदी डाल से घेटियों या लिलुओं से निकले मुलायम दानों की मुस्कुराहट जरा महसूस कीजिए... और जब चखेंगें,चबाएंगे तो काजू किशमिश और बादाम को भूलने लगेंगें। 

चना हर आम और खास का मेवा है। क्या राजा और क्या प्रजा। चने का खेत देखा नहीं कि वाहन से उतरने का मन करने लगता है। सेवक हो या प्रधान सेवक, छोड़ ही नहीं सकते इसे। एक बार चने के लिलुए से दाना निकाल चबाना शुरू किया तो मुंह रुकता ही नहीं। चबाते जाइए... इसके विपरीत गोभी के लाख तरह के पकवान बना लीजिए पर वह आनन्द कहाँ जो गुड़ चने में है। शायद महान बलशाली बजरंगबली को भी इसीलिए गुड़ चने का भोग लगाने की परंपरा रही है। 

यह बड़ा दिलचस्प है कि ज्यादातर प्रधानमंत्री अपनी शेरवानी पर गुलाब का फूल या कमल का बैज धारण करते रहे हैं। गोभी का फूल आज तक किसी ने नहीं लगाया लेकिन हर प्रधान ने चने के खेत में उतरकर स्वयं छोड़ तोड़कर चने के दाने अवश्य सेवन किए हैं। चने की विनम्रता देखिए इतना गौरव पाकर भी वह चने के झाड़ पर नहीं चढ़ता। खैर छोड़िए अब... छोड़ सेंकिए, होला खाइए...!!

ब्रजेश कानूनगो


Thursday, February 17, 2022

महंगाई का मुर्गा और पॉपकॉर्न

 महंगाई का मुर्गा और पॉपकॉर्न

कभी कभी इतना जोरदार प्रेशर बनता है कि रोक पाना मुश्किल हो जाता है। तन मन में ऐसे कई प्रेशर उठते रहते हैं। तन को प्रेशर मुक्त करना  फिर भी प्रकृति सम्मत और सहज है किंतु जब मन पर प्रेशर बनता है तब बड़ी मुश्किल हो जाती  है। उस वक्त सामने या तो सुनने वाला कोई हितचिंतक या भक्त हो या फिर कागज कलम या कोई उपयुक्त गैजेट, कम्प्यूटर आदि उपलब्ध हो। अपने मन की बात को तब आप वहां स्खलित करके प्रेशर मुक्त हो सकते हैं। 

एक मुहावरा बड़े दिनों से मक्का के दाने की तरह मन के प्रेशर कुकर में पॉपकॉर्न की तरह उछलकूद मचा रहा है। एक मुर्गा सुबह होते ही कम्प्यूटर के स्क्रीन पर बाग देने को आतुर हो जाता है। मेरे चिंतन में दाल भी है और मुर्गी भी। दाल बराबर मुर्गी।  प्रजातंत्र में किसी भी चीज पर चर्चा की जा सकती है। संविधान में ही व्यवस्था दी गयी है कि राष्ट्र के नागरिक किसी भी बात पर पूरी स्वतंत्रता से अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। उठते सेंसेक्स की चिंता करें या गिरते नैतिक मूल्यों व चरित्र के पतन की। सड़क के गड्ढों की बात करें या संसद के अवरोध की। भ्रष्टाचार पर लगाम की करें या बढ़ती महंगाई की। साहित्य की करें या संस्कृति की। जुमलों की करें या किवतंति की। कोई प्रतिबन्ध नहीं है। सोशल मीडिया के इस उन्नत व महत्वपूर्ण दौर में अपने चिंतन को दूसरों पर जबरन थोपने से भी किसी को कोई  गुरेज नहीं है। आप तो बस शुरू हो जाइए।  

दाल बराबर मुर्गी। केवल मुहावरे में ही नहीं, जीवन में भी दाल और मुर्गियों के बीच अंतरसंबंध सदा से रहे हैं। दाने पर मुर्गियां जीवित रहती हैं तो स्वार्थ सिद्धि हेतु अधिकारियों,मंत्रियों के लिए मुर्गियों को ही उनका दाना बना दिया जाता है। बहुतों को याद होगा कभी कड़कनाथ नाम की मुर्गियां बड़ी चर्चा में रहा करतीं थीं। अफसर-नेता जब कभी दौरे पर जाते मेजमान सब काम छोड़कर कड़कनाथ मुर्गी के इंतजाम में जुट जाया करते थे। ये तब की बात है जब निजी क्षेत्र के होटलों का इतना विकास नहीं हुआ था। डाकबंगलों के खानसामाओं को ही साहब के भोजन का ध्यान रखना पड़ता था। कुछ खानसामा और चौकीदार तो मुर्गियों का एक छोटा-मोटा फ़ार्म ही मेंटेन किया करते थे ताकि ऐन वक्त पर दौड़-भाग न करनी पड़े। साहब आएं तो जायकेदार मुर्गी उनकी तश्तरी में प्रस्तुत की जा सके।

जब समय सूचक घड़िया नहीं होती थीं तब मुर्गियों से भी ज्यादा मुर्गे का महत्व हुआ करता था। उसकी आवाज उसी तरह सुनी जाने की परंपरा रही है,जैसे आज लालकिले की प्राचीर से हम भारतीय प्रधानमंत्री को सुनते हैं। किसी ऊंचे टीले पर चढकर  लाल कलगी वाला मुर्गा रात भर  सूरज के निकलने की टोह लिया करता था। जैसे ही उसे आभास होता कि बस अब उजाला होने को है, वह तुरंत जोरदार बांग लगा देता ताकि सब जाग जाएँ। जो लोग चौकीदार के ‘जागते रहो’ की चेतावनी के कारण जागे हुए ही होते थे वे भी नीम का दातून लिए दिशा मैदान की ओर कूच कर जाया करते थे।  चोर आदि भी अपना चौर्यकर्म निपटाकर अपने-अपने  घर चले जाया करते थे। वे भी गरीब आदमी की तरह सुबह दाल-रोटी खाते और दिन भर के लिए चादर तान कर सो जाते ताकि अगली रात को फिर काम पर निकला जा सके।  अब यह आप पूछ सकते हैं कि चोर जैसे लोग भी दाल रोटी ही क्यों खाते थे उन दिनों? वे चाहते तो अपने नियमित चौर्य कर्म के अंतर्गत मुर्गी का इंतजाम तो बड़ी आसानी से कर सकते थे।  सच तो यह है कि उन दिनों गरीब आदमी के भी कुछ उसूल होते थे। पेट की खातिर वह चोरी जरूर करता था लेकिन ‘मुर्गी चोर’ कहलाने को अपना अपमान समझता था। वैसे भी गरीब आदमी की औकात दाल बराबर ही हुआ करती थी। मुर्गी कहाँ सबके नसीब में होती है जनाब। गरीब तो दाल-रोटी ही खाकर तृप्ति की ऊंची डकार लेकर ऐलान कर दिया करता था कि हुजूर हमारा पेट भर गया है।  

बाजार में अब मुर्गी और दाल का भाव जब एक हो जाया करता है तो ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ वाले मुहावरे की याद आने लगती है। मुहावरे को सच में बदलते देखते हैं भोले लोग। नीति नियन्ताओं की बात को समझ ही नहीं पाते कि इसमें सरकार का कोई नीतिगत दोष नहीं होता है। वह तो कभी कभी खराब मौसम के कारण उत्पादन प्रभावित होने से ऐसा हो जाता है। समझते ही नहीं हैं कि आटा, दाल, तेल या डीजल-पेट्रोल की कीमतों का ही नहीं दरअसल महंगाई का घरेलू नीतियों से कोई सीधा संबंध होता ही नहीं है। यह तो बस अंतरराष्ट्रीय हालातों या ईश्वरीय प्रकोप का परिणाम होती है।  बीयर विथ अस। मगर लोग हैं कि मानते नहीं, बस महंगाई का रोना लेकर बैठ जाते हैं। 

भैया छोड़िए भी अब, कौनसी नीति और कैसी  महंगाई। जो दाल खाते हैं वे दाल खाएं। और जो  मुर्गी खिलाना चाहें खूब खिलाएं। बस इतना जरूर समझ लीजिए कि एक मुर्गी तो बस एक बार ही पकाई जा सकती है मगर एक किलो दाल तो कई दिनों तक चलाई जा सकती है। घर में ज्यादा लोग हों तो ‘दे दाल में पानी..!’ वैसे भी विशेषज्ञ कहते हैं शरीर के लिए पानी बहुत जरूरी होता है।  जितना ज्यादा पानी पीएंगे उतना स्वस्थ रहेंगे। हमारा तो बस इतना ही कहना है...आगे आपकी मरजी।

ब्रजेश कानूनगो



       



कपलिंग कथा

कपलिंग कथा

एक गोष्ठी में विमर्श के दौरान जब उन्हें अकस्मात कहा गया कि वे भी विषय पर अपनी बात कहें। शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा कि वे अपनी बात 'टुकड़े टुकड़े' में कहने की कोशिश करेंगे।  उनका ऐसा कहने पर कुछ लोगों के चेहरों पर जो मुस्कान उभरी उसमें हास्य मिश्रित उपहास का भाव दिखाई दिया जैसे वे तथाकथित किसी अनैतिक गैंग के सदस्य हों।

सच यह है कि टुकड़ों टुकड़ों को जोड़ना ज्यादा जरूरी और उल्लेखनीय कार्य होता है।  बिना जोड़ लगाए कोई बात बनती नहीं। जोड़ना बहुत जरूरी है। यह कोई नई बात नहीं है। प्रभु राम के लंका प्रवेश को सुगम बनाने के लिए वानरों ने बिना किसी साधन के मात्र पत्थर जोड़कर सेतु निर्मित कर दिया था। आज तो ऐसे ऐसे पदार्थ बाजार में उपलब्ध हुए हैं कि सब कुछ जोड़ा जा सकता है। हाथियों से खींचकर भी कपलिंग तोड़े नहीं जा सकते। हरियाणा का लकड़ा पंजाब के पीतल से जुड़ जाता है और कर्नाटक का ग्रेनाइट राजस्थान के मार्बल से।

बोलचाल की भाषा में कहें तो ’कपलिंग’ चाहे जीवन की कठिन डगर पर निकले स्त्री-पुरुष के बीच दाम्पत्य का हो या लोहे की चिकनी पटरियों पर फिसलती तेज रफ़्तार रेलगाड़ी के डिब्बों के बीच के लीवर का, इनकी मजबूती ही सुखद यात्रा की गारंटी होती है। इस कपलिंग में की गयी ज़रा-सी लापरवाही रेलगाड़ी को दो हिस्सों में विभक्त कर सकती है।

बड़ी दिलचस्प है जोड़ने व कपलिंग की यह माया। जोड़ लगाए बगैर शायद ही कभी कोई फर्नीचर तैयार हुआ होगा। कुर्सी भी नहीं बनाई जा सकती। सत्ता की कुर्सी के लिए तो राजनीतिक दलों को कितनी कपलिंग करना पड़ती हैं। कपलिंग बोले तो गठबंधन। कई बार तो ऐसी कपलिंगों में कोई मेल ही नहीं होता, मजबूरी होती है। प्रजातंत्र की रेल दौड़ाने के लिए बेमेल कपलिंग भी करना पड़ जाती हैं। लोकतंत्र की गाड़ी फिर जहां तक सहजता से पहुँच जाए... नहीं तो जब की तब देखेंगे। कपलिंग टूटेगा तो नए लीवर लगाकर आगे का सफ़र पूरा कर लिया जाएगा। चिंता में अभी से दुबले होने से क्या फ़ायदा।

चीजों के जुड़ाव में कड़ियों का बहुत महत्त्व होता है।  जब तक कड़ियाँ आपस में नहीं जुड़ती निर्माण को विस्तार नहीं मिलता। विकास इसी निर्माण में झलकता है। रेलगाड़ी बनती है, मकान हो या देश, कड़ी से कड़ी मिलती है तब ही दिखाई देता है कि भवन बन रहा है, देश बन रहा है। ईंट से ईंट मिलती है तो दीवार खडी होती है। आदमी से आदमी जुड़ता है तो देश खडा होता है।

कई कड़ियाँ होती हैं जिनसे आदमी से आदमी जुड़ता चला जाता है।  प्रेम, सौहार्द , भाई चारे और शान्ति में जो यकीन रखते हैं वे हमेशा इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि कड़ियाँ जुडी रहें। इसी सदइच्छा से नागरिक हाथों की कड़ियाँ जोड़कर मानव श्रंखलाएं बनाते हैं।  कुछ निरंकुश नरसांड अक्सर इन शांतिप्रिय लोगों के बीच घुस आते हैं, एक दूसरे का हाथ थामें लोगों की कड़ियों को तोड़ने के उपक्रम में उत्पात मचाने लगते हैं। इसके बावजूद विभिन्न भाषाओं, धर्मों, रीति रिवाजों और संस्कारों के इतने बड़े देश में अब भी कुछ ऐसे पदार्थ हैं जिन्होंने बड़ा शानदार कपलिंग किया हुआ है। ऐसी अनेक कड़ियाँ हैं जिन्होंने राष्ट्र को एक साथ जोड़ रखा है।

विवाह और राजनीति की रेल ही कपलिंग के कारण नहीं दौड़ती है बल्कि हमारी यह प्यारी दुनिया प्रकृति,मनुष्य और रिश्तों के मजबूत कपलिंग से ही खूबसूरत और जीने लायक अब तक बनी हुई है।अब यह हम पर है कि कपलिंग को मजबूती देने वाले एधेसिव को हम कितना महत्व देते हैं।किसी ने कहा भी है किसी चीज को तोड देना बहुत आसान होता है लेकिन जोड़ना बहुत मुश्किल काम है। विचार करें!!

ब्रजेश कानूनगो 



Thursday, January 27, 2022

व्यंग्य बाण : कुछ दोहे

 

व्यंग्य बाण : कुछ दोहे

ब्रजेश कानूनगो  

नीति राजनीति 

1
कल है उनका जन्मदिन
वे अवतार दबंग। 
मनुज हैं पर मना रहे,
प्रकट उत्सव प्रसंग।

2
यों आई समता यहां,
कारज बिना उपाय।
गंगू जी टोपी पहन
राजा भोज कहाय। 

3
ध्वजदंड लहराय के
ऊंचे सुर गरियाय।  
देख विरोधी सामने
फटके खूब लगाय। 

4
बोतल में है सोम रस,
यौवन का है संग।
अपना हक जो मांगता
रंजन करता भंग। 

5
लाते हैं जन योजना,
लोकतंत्र सिरमौर। 
प्रशस्ति बांचे मंडली,
ऐसा आया दौर।

6
सत्य रहा संदिग्ध ही,
मत समझो परिहास।
आज वही मैं लिख रहा,
झूठों का इतिहास।

8
गगरी अधजल झर गई,
मद में उसकी चाल।
मिला नहीं जल कंठ को,   
बुझा पाई आग।

9
विक्रेता वह बड़ा चतुर,
बोली यों लगाए।
जुमलों के सच झूठ से
कंकड़ भी बिक जाए।

10
अपने शाही देव को
छप्पन भोग चढ़ाय।
खेतीहर की पत्तल में,
काजू नहीं सुहाय। 

11
चीजें कुछ मिटती नहीं,
जैसे भ्रष्टाचार। 
दे दें उसको वैधता,
बुरा नहीं सुविचार।

12
मन धतूरा जुबाँ शहद,
एक छुरी मुस्काए।
ढाई आखर प्रेम का,
कब कैसे हो पाए।

14
रंग बिरंगी पोशाख़ें,
बदलूँ दिन में चार।
पहन सूट घोड़ी चढ़े,
छीतू खाए मार।

15
राज विरोधी बात जब,
देश द्रोह कह लाय।
'
बुद्धिजीवी' तंज बने,
ज्ञान भाड़ में जाय।

16
दिखता लीडर सामने,
डोर सेठ के हाथ।
नीति नियम वैसे बनें,
देते पूँजी साथ।

17
नया हो रहा इंडिया,
आया ऐसा काल।
हो बात अधिकारों की,
मचता खूब बवाल।  

18
यथा स्थिति से समझौता,
सुख की यही है कल।
कल की चिंता मत करो,
प्रभु जी निकालें हल।

19

चीजें कुछ मिटती नहीं,
जैसे भ्रष्टाचार। 
दे दें उसको वैधता,
बुरा नहीं विचार।

 

20

ध्वनि मत से पारित हो,

कानून वही सही।

कोई करे विरोध भी,

हम तक पहुँच  नहीं।

 

21

चले मिटाने गरीबी,

बढ़ गए नव अमीर।

हुआ नहीं लेवल ऊंचा,

बदली गयी लकीर।

 

22

सत्ता भोगिये इस तरह,

कूटनीति से आज।

दोष विरोधी पर मढो,

हो सके जब काज।

 

23

अपना मत जब कम पड़े,

अक्ल लगाएं खूब।

दुर्बल विपक्षी अश्व को,

ज़रा खिलाएं दूब।  

 

24

ना काहू से दोस्ती,

ना काहू से बैर।

जनता हो नाराज यदि,

नही किसी की खैर।

 

०००   

महामारी: पांच स्टेज

1
बहुत रहे दिन खुशहाल,
जैसे हो त्योहार।
खुद को डाल संकट में,
स्वयं पड़े बीमार।

2
नियम प्रकृति के बदले,
भोगा हमने कष्ट।
दूषित जल या संक्रमण,
जीवन सबका नष्ट।

3
अस्पताल सितारा में,
सुखी बहुत बीमार।
परिजन से डॉक्टर लगें,
सिस्टर है तीमार।

4
बीमारी छोड़े नहीं,
रोगी है लाचार।
सेवा करके रात दिन,
परिजन भी बीमार।

5
खबर मौत की गई,
मचा खूब कुहराम।
बचा रहे तब तक मनुज,
बीमा करता काम।

000


सुनो ससुरजी

1

रुके नहीं इच्छा प्रबल,
पाने को सम्मान।
डाले घास कोई
कैसे बनें महान।

2

नाच रहे बाजार में
ऐसे हैं हम मोर।
लिखें खूब कागज रंगें,   
छपते भी घनघोर।

3

दाल बराबर ये मुर्गी,
बुने महल का ख्वाब।
कितनी कटी निर्णय में,  
इसका नहीं जवाब। 

4

जामाता के दरद का,
ससुर यही उपचार।
सम्मानित करें तुरन्त
आप रहे सरकार।


5

यही हो रहा हर जगह,
कब कहाँ एतराज।
बटती खीर अपनों में,
समझो इसे रिवाज।

6

मिले हमे सम्मान यदि,
गौरव की ये बात।
पुत्री का भी मान बढ़े,
समझो इसको तात।

000 

 

 

बीता समय यों आए

 

1

सौ के ऊपर पैट्रोल,

मोटर का क्या काम।

बीता समय यों आए,

हाथ साइकिल थाम।

 

2

उड़े सिलेंडर गगन में,

कीमत जैसे गैस।

गोबर छाब चूल्हे पर,

घर में पालो भैंस।

 

3

घृतं दूध की नदी बहे,

गोधन है अनमोल।

रामू शामू खींचे हल,

डीजल खर्चा गोल।

 

4

रोटी होए सात्विक,

पके उपले आग

धरती से मानव जुड़े,

गाए जीवन राग।

 

5

गौरव किया अतीत पर ,

करते संस्कृति नाज

क्या मालूम इसी तरह,

जाए प्रभुराज    

 

०००

 

ब्रजेश कानूनगो