Tuesday, November 29, 2016

उक्तियों की पीठ पर सवार युक्तियाँ

व्यंग्य
उक्तियों की पीठ पर सवार युक्तियाँ
ब्रजेश कानूनगो

कभी कभी ऐसा वक्त भी आता है जब परम्परागत उक्तियाँ फेल हो जाती हैं और नई युक्तियाँ पुरानी उक्तियों पर भारी पड़ने लगती हैं। कहा जाता रहा है कि आग लगने से पहले कुआँ खोद लिया जाना चाहिए। लेकिन यह वह दौर है जब बस्ती में आग लग जाए तब भी तुरन्त जमीन खोद कर पानी निकाला जा सकता है। यह वही महान देश है जहां शय्यासीन भीष्म पितामह की प्यास शांत करने के लिए अर्जुन का एक तीर काफी होता है। बुजुर्ग दादाजी अपने पोते को पाजामें में हवा भरकर बावड़ी में धकेल दिया करते थे। पोता खुद हाथ पैर मारते हुए तैरना सीख ही लेता था।

कभी दो नावों में सवारी करना ठीक नहीं माना जाता था। इससे दुर्घटना होने की शत प्रतिशत संभावना बनी रहती है। मगर अब शायद ऐसा नहीं है। एक पाँव एक नाव में और दूसरा दूसरी नाव में रखकर नदी पार करना अब कौशल का काम है. एडवेंचर का रोमांच होता है इसमें. इस काम के लिए आदमी में जोखिम उठाने की क्षमता और इच्छा शक्ति भी होना जरूरी है.

साधुरामजी बड़े साहसी व्यक्ति हैं और जोखिम लेते रहते हैं. कविता और व्यंग्य लेखन जैसी दो विधाओं पर सवार होकर साहित्य की नदी को पार करने की अभिलाषा में एडवेंचर स्पोर्ट्स करते  रहते हैं. इस अभियान में होता यह है कि कविता की कमजोरियां यह कहकर नजर अंदाज हो जाती हैं कि भाई एक व्यंग्यकार और क्या लिखेगा, ठीक ठाक लिखा है। दूसरी तरफ कमतर व्यंग्य भी धक जाता है कि कवि महोदय बेचारे सह्रदय व्यक्ति हैं, कितना कुछ कटाक्ष कर पाएंगे। अपवाद स्वरूप कभी कभार नुकसान भी हो जाता है। खुदा न खास्ता कभी कुछ बेहतर रच दिया तो कवि बिरादरी उनकी श्रेष्ठ  कविता को भी नजर अंदाज कर देती है। दूसरी तरफ उनका लिखा शानदार मारक व्यंग्य लेख भी ‘जमात-ए-व्यंग्य’ द्वारा नोटिस  में ही नहीं लिया जाता। चूंकि इतने वृहद साहित्य समाज में ऐसी छोटी मोटी बातें तो होती ही रहती हैं इसलिए उनकी सवारी सदैव जारी रहती है.  

सरकारी फैसलों को लेकर भी कुछ लोग दो नावों की सवारी करते दिखाई देते हैं। निर्णय के साथ भी दिखाई देते हैं और लागू करने के तरीके के विरोध में मंत्रीजी का पुतला भी जला देते हैं. अजीब स्थिति बनती रहती है। भ्रम की ऐसी धुंध में एक दिशा में सोचते दो समूहों के साथ जुड़े होने पर मतिभ्रम भी हो जाता है. लगता है दोनों पक्ष विरोधी हैं. दोनों समझते हैं कि हम दूसरे वाले के गुट में हैं। इसीलिये एक साथ होते हुए भी दुर्घटनाएं होती रहती है। इसके बावजूद सबकी ख्वाहिश यही होती है कि किसी तरह नाव और यात्री सुरक्षित किनारे लग जाएं।

सच तो यह है कि यह बदलाव का महत्वपूर्ण समय है। देश समाज से लेकर नीतियों और व्यवस्थाओं तक में आमूल चूल परिवर्तन हर घड़ी हो रहे हैं। यों कहें सूरज की हर किरण बदलाव की नई रोशनी लेकर आ रही है। ऐसे में आग लगने पर कुआँ खोदना और दो नावों की सवारी करने जैसी उक्तियाँ अप्रासंगिक हो गईं हैं. युक्तियाँ अब उक्तियों की पीठ पर सवार हैं.


ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-18



Sunday, November 20, 2016

पिंकीसिंह की प्रेरक कहानी

व्यंग्य कथा
पिंकीसिंह की प्रेरक कहानी  
उर्फ़ पिक्चर अभी बाकी है..
ब्रजेश कानूनगो  

बहुत पुरानी कहावत है कि ‘समय सदा एक-सा नहीं रहता.’ देश पर भी अक्सर संकट आते रहते हैं और वह कठिन समय भी पिंकीसिंह के परिवार पर आये संकट की तरह बीत ही जाता है.  आइये आज आपको मैं वह प्रेरक कथा सुनाता हूँ.    
     
कुंवर पिंकीसिंह का जन्म दरअसल तब हुआ था जब जाना माना ‘मुद्रा परिवार’ बड़े संकट के दौर से गुजर रहा था। उसके दादा और प्रपिता के व्यवसाय करने के लायसेंस अवैध घोषित किये जा चुके थे। उस बुरे वक्त में वे दोनों अपने बच्चों को बचे खुचे कारोबार की बागडोर थमाकर हिमालय की ओर प्रस्थान  करने को उद्यत हो चुके थे।

श्रीमान मुद्राजी सदा से हमारे क्षेत्र की जानी मानी हस्ती रहे, लेकिन समय का चक्र देखिये कि एक दिन उन्हें अपने पिताजी का हाथ थामें  पितामहों का अनुसरण  करते हुए  वानप्रस्थ के लिए हिमालय की ओर कूच कर जाना पडा.

यो समझ लीजिए जब से देश आजाद हुआ तब से मुद्रा परिवार की प्रतिष्ठा देश-समाज में बनी रही है। आजादी के पहले भी उनके पूर्वज बड़े सम्मानित रहे। दरअसल रियासतों और राज तंत्र के जमाने से ही उनकी साख  ऐसी रही कि उनकी मात्र उपस्थिति से सारे कामकाज बड़ी आसानी से हो जाया करते।

गुलामी के दौर में फिरंगी राजा-रानियों से उनके परिवार की काफी नजदीकियां रही, जब देश आजाद हुआ तो वे गांधी टोपी धारण करने लगे। चरखा भी उन्होंने खूब चलाया। सम्राट अशोक के चिन्हों को अपने भीतर संजोया। मुद्राजी के पूर्वजों का मानना था कि महापुरुषों के विचारों की प्रेरणा से उनकी आगामी पीढियां भी विचारवान और नेक बन सकेंगी.

इस प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य भी हमारी तरह अमरता का वरदान प्राप्त करके दुनिया में नहीं आये हैं। कुछ ने लंबी उम्र पाई और कुछ असमय भी काल के गाल में समा गए। बरसों बरस पिंकी सिंह का परिवार सात्विक, पवित्र और शुद्धता का उदाहरण बना रहा.  दीपावली जैसे त्योहारों पर मुद्रा परिवार को सम्मानित करने की जैसे परम्परा ही पड़ गयी ।

लेकिन दुर्भाग्य से या किसी की कारस्तानी से इस  कुटुंब में कुछ दूसरे लोग अपने को इसी परिवार के डीएनए वाला बताकर शामिल हो गए।  इन लोगों की नीयत में ही खोट था। मुद्रा परिवार की प्रतिष्ठा का दुरूपयोग कर, इन नकली सदस्यों ने सब जगह अपनी गन्दगी फैलाना शुरू कर दी। भ्रष्टाचार और अराजकता के कुत्सित लक्ष्यों के साथ ये धीरे धीरे अपना काला कारोबार  स्थापित करने में संलग्न हो गए। मुद्रा परिवार के पिता और पितामह के नाम को सबसे ज्यादा बट्टा लगाने का घृणित काम इन्होने ही किया । हरेक तरह की गन्दगी और दुराचार के लिए परिवार के वास्तविक वरिष्ठ सदाचारियों पर उंगली उठने लगी।

महात्मा जी ने कभी स्वच्छता का पाठ पढ़ाया था हमें। देश की हर सरकार बापू के विचारों को अपनाने को कृत संकल्पित रहती है, न भी रहती है तो यह विश्वास दिलाने का प्रयास जरूर करती है कि वह गांधीवाद के साथ है.और वह बापू के विचारों के साथ चलती है. उन दिनों भी स्वच्छता का अभियान हर स्तर पर जारी था। शासन-प्रशासन यह जतलाने में सफल हो गया था  कि गन्दगी दूर करने में कई बार कुछ स्वच्छ सामान भी बुहारना पड़ जाता है। ऑपरेशन में कुछ स्वस्थ हिस्सा भी सम्पूर्ण शरीर को बीमारी से बचाने के लिए सर्जन अलग कर देता है। इसी अभियान में मुद्रा परिवार के दोनों बड़े सदस्यों से कारोबार का लाइसेंस छीन लिया गया। परिवार के छोटे सदस्य निरुपाय और कारोबार चलाने में अक्षम सिद्ध होने लगे.

उसी दौरान गुलाबी आभा लिए परिवार में तेजस्वी बालक का जन्म हुआ. परिवार की परंपरा के अनुसार उसे मुखिया का मानद पुश्तैनी ताज पहना दिया गया। उसकी वरिष्ठता नए होने के बावजूद सबसे अधिक हो गयी। यही थे कुंवर पिंकीसिंह. मुद्रा परिवार के चश्मों चिराग.  

वंश-परम्परा के अनुसार पिंकीसिंह को अब मुद्रा परिवार के बिजनेस को लीड करना था। लेकिन यह भी यथार्थ था कि  उसके माथे पर वरिष्ठता का ताज जरूर शोभायमान हो गया था, किंतु था तो वह कम आयु का बालक ही।

दादा और प्रपिता के पलायन के बाद कारोबार की सारी जिम्मेदारी पिता और अन्य युवा सदस्यों पर थी लेकिन वे इतने बड़े कारोबार को संभाल पाने में पूरी तरह सक्षम सिद्ध नहीं हो रहे थे। देश भर में मुद्रा परिवार का व्यवसाय बहुत  फ़ैल चुका था, बाजार और दफ्तरों में माल की  डिमांड भी असीमित बढ़ गयी थी।

यह प्राकृतिक विडम्बना थी कि  पिंकीसिंह चाहकर भी परिवार के काम में हाथ नहीं बटा पा रहा था। बालक होते हुए भी उसकी हालत परिवार के उस बुजुर्ग की तरह हो गयी थी जो गद्दी पर बैठा सब कुछ देखता तो रहता है, लेकिन कर कुछ नहीं पाता। उसका महत्व महज प्रतिष्ठा चिन्ह से ज्यादा नहीं रह पाता।

यों बालक पिंकीसिंह का गुलाबी सौंदर्य सभी को आकर्षित करता था, सब लोगों का सम्मान उसे सहज मिलता था, सब उसे गोद में उठाते, दुलारते,प्यार करते लेकिन इन सबसे मुद्रा परिवार के कारोबार में कोई ख़ास लाभ नहीं हो रहा था। हालांकि परिवार के लोग यह समझते रहे कि पिंकीसिंह के सौंदर्य के आकर्षण में ग्राहकों को लुभाया जा सकेगा लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा था।
मुद्रा परिवार के हितचिंतक उन दिनों को याद करके बहुत दुःखी होते रहे जब पलायन के पहले पिंकीसिंह के  पितामह और उसके दादा जी कारोबार सहजता से संभाल रहे थे।

बड़े-बुजुर्गों ने सलाह दी कि जब हमारे हाथ में कुछ नहीं रहे तो हमें सब कुछ भगवान पर छोड़ देना चाहिए और भक्ति-भाव के साथ भजन-कीर्तन में लीन हो जाना चाहिए. मुद्रा परिवार ने भी यही किया. प्रभु की तस्वीर के सामने अखंड दीप जलाया और ‘जाही विधि राखे राम, ताही विधि रहिये’ का पारायण करने लगे.

इसे चमत्कार ही कहिये कि कुछ समय बाद उनके दिन सुधर गए. थोड़े दिनों में, थोड़ी सी परेशानी सहने के बाद फिर सब लाइन पर आने लगा। व्यवसाय में आई मंदी से परिवार आखिर उभर गया। पिंकीसिंह भी अब युवा हो चुके थे। चचेरे भाई स्लेटीसिंह ने भी उनका सहयोग करना शुरू कर दिया था।

किसी ने ठीक ही कहा है आपातकाल में हमें धैर्य कदापि नहीं खोना चाहिए। ईश्वर के यहां देर हो सकती है, अंधेर तो कतई नहीं होता, कथा भी यही सन्देश देती है।इति।।

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018












Thursday, November 17, 2016

दास्तान मुद्रा परिवार की

दास्तान मुद्रा परिवार की
ब्रजेश कानूनगो  

श्रीमान मुद्राजी हमारे क्षेत्र की जानी मानी हस्ती रहे हैं, लेकिन आज वे अपने पिताजी का हाथ थामें  पितामहों का अनुसरण  करते हुए  वानप्रस्थ के लिए हिमालय की ओर निकल पड़े हैं।
यो समझ लीजिए जब से देश आजाद हुआ तब से मुद्रा परिवार की प्रतिष्ठा देश-समाज में बनी हुई है। यों आजादी के पहले भी उनके पूर्वज बड़े सम्मानित ही रहे हैं। दरअसल रियासतों और राज तंत्र के जमाने से ही उनकी साख  ऐसी रही है कि उनकी उपस्थिति से सारे कामकाज बड़ी आसानी से हो जाया करते हैं।

गुलामी के दौर में फिरंगी राजा-रानियों से उनके परिवार की काफी नजदीकियां रही, जब देश आजाद हुआ तो वे गांधी टोपी धारण करने लगे। चरखा भी उन्होंने खूब चलाया। सम्राट अशोक के चिन्हों को अपने भीतर संजोया। मुद्राजी के पूर्वजों का मानना था कि महापुरुषों के विचारों की प्रेरणा से उनकी आगामी पीढियां भी विचारवान और नेक बन सकेंगी.

इस परिवार के सदस्य भी हमारी तरह अमरता का वरदान प्राप्त करके दुनिया में नहीं आये हैं। कुछ ने लंबी उम्र पाई और कुछ असमय भी काल के गाल में समा गए। बरसों बरस मुद्रा परिवार सात्विक, पवित्र और शुद्धता का उदाहरण बना रहा.  दीपावली जैसे त्योहारों पर मुद्रा परिवार को सम्मानित करने की जैसे परम्परा ही पड़ गयी ।

लेकिन दुर्भाग्य से या किसी की कारस्तानी से इस  कुटुंब में कुछ दूसरे लोग अपने को इसी परिवार के डीएनए वाला बताकर शामिल हो गए।  इन लोगों की नीयत में ही खोट था। मुद्रा परिवार की प्रतिष्ठा का दुरूपयोग कर, इन नकली सदस्यों ने सब जगह अपनी गन्दगी फैलाना शुरू कर दी। भ्रष्टाचार और अराजकता के कुत्सित लक्ष्यों के साथ ये धीरे धीरे अपना काला कारोबार  स्थापित करने में संलग्न हो गए। मुद्रा परिवार के पिता और पितामह के नाम को सबसे ज्यादा बट्टा लगाने का घृणित काम इन्होने ही किया । हरेक तरह की गन्दगी और दुराचार के लिए परिवार के वास्तविक वरिष्ठ सदाचारियों पर उंगली उठने लगी।

महात्मा जी ने कभी स्वच्छता का पाठ पढ़ाया था हमें। हर सरकार बापू के विचारों को अपनाने को कृत संकल्पित रहती है.  स्वच्छता का अभियान हर स्तर पर जारी था। गन्दगी दूर करने में कई बार कुछ स्वच्छ सामान भी बुहारना पड़ जाता है। ऑपरेशन में कुछ स्वस्थ हिस्सा भी सम्पूर्ण शरीर को बीमारी से बचाने के लिए सर्जन अलग कर देता है। इसी अभियान में मुद्रा परिवार के दोनों बड़े सदस्यों से कारोबार का लाइसेंस छीन लिया गया। कुछ समय के लिए छोटे सदस्य निरुपाय और अक्षम सिद्ध होने लगे.

इस बीच मुद्रा परिवार में गुलाबी आभा लिए एक तेजस्वी बच्चे ने जन्म लिया। सुकोमल बालक को जन्म लेते ही परिवार के सबसे बड़े सदस्य का मानद ताज पहना दिया गया, इस उम्मीद से कि जल्द ही परिवार का कारोबार सभी सदस्यों के सहयोग से फिर शुद्धता, स्वच्छता और सदाचार के साथ पुनः चल निकलेगा।

ब्रजेश कानूनगो










Monday, November 14, 2016

कतार में कवि

कतार में कवि
ब्रजेश कानूनगो

हे कवि!  तू नाहक विलाप करता है। देख जराये जो तेरे आगे और पीछे पंक्तिबद्ध खड़े हैं, जो धूप के कारण पसीना पसीना हुए जा रहे हैं, ये देश के सिपाही हैं जो देशहित में अपने धर्म का पालन कर रहे हैं। इन लोगों से कुछ सीख ले. हालांकि, ये यहां लाइन में नहीं लगते तो कहीं ओर लगना पड़ता। लाइन में लगना इनकी नियति है। ये यहाँ नहीं कतार में होते तो कहीं ओर लगे अपना पसीना बहा रहे होते. इनके पिता और पितामह, माता,भाई-बहन सब लाइन में लगते रहे हैं।

बगैर लाइन में लगे इस कलयुग में कुछ भी कार्य संभव नहीं है. लाइन में लगकर ही अराजकता से मुक्ति संभव है. लाइन बनाना अनुशासन की दिशा में बढ़ने का पहला कदम होता है. राशन की दूकान से लेकर अस्पताल की खिड़की तक, स्कूल प्रवेश की अप्लिकेशन से लेकर वोटर कार्ड और आधार कार्ड तक, मतदान केन्द्रों से लेकर मुफ्त भंडारों तक कतार में लगना जरूरी है. हे कवि! इस वृहद अनुशासन पर्व के दौरान इस महान कतार में खडा होकर यूं आँसू मत बहा. 

हे,सर्जक! इंतज़ार में ही जीवन का सच्चा आनन्द मिलता है। जो सहज यों ही मिल जाए उसमें कौन बड़ी बात हुई। तू स्वयं जानता है रचना जब तुरन्त छप जाती है और जो इन्तजार के बाद विशेषांक या  पत्रिका में छपती है इन दोनों खुशियों में कितना बड़ा अंतर होता है। इसलिए इस लाइन की महत्ता को समझ। जिसका नंबर कतार में जितने पीछे होता है वह उतना अधिक भाग्यशाली है, उनके सुख और आनन्द की तीव्रता अन्यों के लिए ईर्ष्या का विषय हो जाती है।

हे, कविवर! ये मत देख की तेरे आगे और कितने लोग हैं, ये महसूस करके खुश हो कि तुझसे ज्यादा वे कितने नसीब वाले हैं जिन्हें तेरे पीछे खड़े होने का अवसर मिला है। यह गौरव की बात है कि तेरे यहाँ इतने सारे फालोवर हैं।

फालोवर होना न सिर्फ प्रतिष्ठा की बात होता है, बल्कि यह बहुत कठिन कार्य भी होता है कि कोई हमारे पीछे पीछे चले। यह बड़ी सिद्धि का कार्य है जो तुझे यों ही उपलब्ध हो गया है। आज जो कतार क्षेत्र के अलावा प्रसिद्धि में सबसे आगे हैं, उनसे कभी जानना, अपने अनुयायी बनाने के लिए उन्होने कितने पापड बेले हैं। कई तो मात्र संवाद ही बोलते रहे कि-'जहां हम खड़े हो जाते हैं, लाइन वहीँ से शुरू हो जाती है।'  तुम समझ सकते हो कि लाइन में खड़े होने जैसे  काल्पनिक संवाद के जरिये भी सुख का सागर कैसा हिलोरे मार सकता है, जबकि तुम तो वास्तविक जीवन की कतार में सशरीर खड़े हो। तनिक धैर्य रखो। छोटे मोटे कष्टों को नहीं सहोगे तो बड़ी आपदाओं से कैसे मुकाबला कर पाओगे। 

देखो कवि! जो अभी-अभी द्वार से बाहर आया है विजय पताका लहराते हुए, उसके मुख मंडल पर कितना तेज छाया हुआ है! प्रफुल्लता की इस गुलाबी आभा को ज़रा महसूस करो। इस अद्भुत आनंददायी क्षण की लंबी प्रतीक्षा के बाद जब तुम भवन से बाहर आओगे, जीवन की सच्ची कविता के आनन्द से लबालब भर उठोगे।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018