Wednesday, October 26, 2016

स्मार्टनेस और 'इमोजी'

व्यंग्य
स्मार्टनेस और 'इमोजी'
ब्रजेश कानूनगो

पहले तो आप 'इमोजी' नाम से  कतई भ्रमित न हों। यह कोई 'सूमोजी' या 'शर्माजी' जैसा जीता जागता प्राणी नहीं है और न ही  रजवाड़ी स्टाइल का कोई अनुरोध है कि भोजन की थाली में छप्पन भोज सजाकर कोई सास अपने दामाद से कहे- 'आइये कंवर साब  "जीमोजी!".

यदि आप अभी भी एक बार में पांच दिन के लिए चार्ज हो जाने वाले सुदृढ़ चलित भाष्य यंत्र को पट्टे से लटकाकर बुशर्ट की ऊपरी जेब में रखकर धडकनों को सुनते हैं तो आप ‘इमोजी’ को ठीक से समझ नहीं पाएंगे।

'इमोजी' को समझने और उसके संग-साथ के लिए आपको थोड़ा स्मार्ट होना पड़ेगा। बाजार भी यही चाहता है कि आप पुराने को पितामह मानकर ‘मार्ग दर्शक’ का सम्मान दें और उसे  शो-केस में सजाते रहें. इसके लिए पुराने जमाने के परमप्रिय हैंडसेट को अपनी काम वाली बाई को समर्पित करके 'स्मार्ट फोन' के नए युग  में आपको प्रवेश करना होगा। हालांकि शास्त्रीय अर्थों में एक युग बारह वर्षों का माना गया है किंतु स्मार्ट और तकनीकी समय में अब साल-दो साल में युगांतर हो जाता है। नई जनरेशन का बस इतना ही स्मार्ट युग होता है। वह ‘जी-वन’ से होता हुआ फोर जी,फाइव जी सिक्स होने में जी जान लगा देता है.... और जल्दी जल्दी दौड़ता चला जाता है। मनुष्य की औसत आयु भले ही बढ़ गयी हो मगर  स्मार्ट उत्पादक कभी नहीं चाहेंगें कि उनका कोई भी प्रोडक्ट अमरता का वरदान लेकर बाजार में अवतरित हो.

दरअसल, जो लोग स्मार्ट हो गए हैं, वे शब्दों और वाक्यों की बजाय ‘इमोजी’ का प्रयोग करते हैं। जैसे हमारे समाज में वर्ग विभाजन होता है उसी तर्ज पर सूचना संसार में भी एक वे होते हैं, जिनके मोबाइल फोन में इमोजी हैं और दूसरा वह वर्ग जो इमोजी के बगैर ही अपना काम चलाने को अभिशप्त है। वास्तविक दुनिया में जैसे राजनीतिज्ञों,उद्योगपतियों, फिल्मी सितारों के घराने सिक्का जमाये होते हैं, ठीक उसी तरह स्मार्ट संचार में 'इमोजी परिवारों' का बोलबाला होता है। 'इमोजी वंश' के सदस्य आभासी दुनिया के  जगमगाते सितारे होते  हैं। और ये सितारे यही चाहते हैं कि आम लोग ‘शब्दों’ की बजाय ‘चित्रों’,’संकेतों’ या ‘इमोजी’ आदि में उलझे रहें, इससे ‘विचार’ का उनका निरर्थक परिश्रम बचेगा. विचार से क्रान्ति हो सकती है, बगावत की आग फैलने और खून खराबे की आशंका बलवती होती है. शांति-सद्भाव के लिए ‘इमोजी’ शब्दों की तरह खतरनाक और हानिकारक नहीं होते.

स्मार्ट संचार(संसार)  में इमोजी का अपना नमस्कार होता है, इमोजी का सुख- दुःख होता है, इमोजी के फूल, पक्षी,आसमान,नदी ,पहाड़, उसकी प्रकृति होती है, उसका अपना वैभव होता है, सब कुछ होता है। 'इमोजी' की पूरी अपनी दुनिया होती है। वह सब दिखलाती है, महसूस करवाती है जो असल दुनिया में बहुत मुश्किलों से संभव हो पाता है। इमोजी ठीक उसी तरह काम करता है जैसे भूखे व्यक्ति के लिए  चाँद रोटी का काम करता है। रोटी का आभास होता है आकाश का चाँद , अनुभूतियों का आभास होता है मोबाइल मैसेज का 'इमोजी' 

गब्बर के तमंचे की तरह निर्देशक ने पिस्तौल में दुनिया की मैगजीन को ऐसा घुमा दिया है...कि अब किसी को पता नहीं है कहाँ असली है और कहाँ आभासी.. हमें कुछ नहीं पता... विकास के इस महत्वपूर्ण समय में इमोजी से दोस्ती जरूरी है या रू-ब-रू अनुभूतियों, दिली संवेदनाओं का सम्प्रेषण... किसी को कुछ नहीं मालूम...!   स्मार्टनेस की रेस में कहीं हम पीछे न छूट जाएं, इस चिंता में सब दौड़े जा रहे हैं. इस दौड़ में भी 'इमोजी' हमारा बहुमूल्य पसीना बचा लेता है। बस एक ‘पिक’ तो ‘टच’ करनी होती है धावक इमोजी की, अपने स्मार्टफोन में।

ब्रजेश कानूनगो 
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर -18


Sunday, October 16, 2016

डाकिया दाल लाया

डाकिया दाल लाया...
ब्रजेश कानूनगो

जब कोई अपना काम ठीक से नहीं कर पाए तो उसका काम दूसरों को सौंप दिया जाना चाहिए जो उसे कुशलता पूर्वक कर सके. अड़ियल और शक्तिहीन हो गए खच्चर से काम लिए जाने और उसे घी-मेवा खिलाते रहने से कोई फ़ायदा नहीं. समय पर अपना काम किसी तरह निकाल लेना ही समझदारी है. केंद्र सरकार बुद्धिमान है जिसने बढ़ती महंगाई को रोकने और राज्यों  के असहयोग के चलते अब  डाकघरों के मार्फ़त लोगों को सस्ती दालें मुहय्या करवाने की प्रशंसनीय पहल की है.

यह पहली बार नहीं हुआ है. बरसों से यह नुस्खा आजमाया जाता रहा है. अब देखिये कुछ राज्यों में सरकारी रोडवेज नागरिकों को अपनी सेवाएं ठीक से न दे पाया तो अन्ततः यह काम सेठों, साहूकारों और बिल्डरों को सौंपना पड़ा। और देखिये क्या चका-चक बसें दौड़ रहीं हैं.

अस्पतालों, कॉलेजों में कुप्रबंधन का वायरस आया तो स्वस्थ नेताओं और उनके समाज सेवी परिजनों को जिम्मेदारी का हस्तांतरण करना जरूरी माना गया। न सिर्फ इससे शिक्षा का स्तर ऊपर उठा बल्कि छात्रों के लिए सीटों की अनुपलब्धता की समस्या ही समाप्त हो गई.

बहुपरीक्षित कहावत है कि जो खच्चर बिना ना नाकुर किये बोझा ढोता है उसी पर अधिक  सामान लाद दिया जाता है। यही परंपरा रही है। सरकारी विभाग जब योजनाओं के कार्यान्वयन में गच्चा देने लगे तो बैंकों का राष्ट्रीकरण करके उनके ऊपर योजनाओं की पोटली धर दी गयी। 
बैंक जब ढीले पड़ने लगे तो फिर से उद्योगपतियों और कॉर्पोरेट्स को नए बैंक के लिए लायसेंस बांटने की पहल की जाने लगी।

हमारे यहाँ कभी गुरुजन ही कर्मठ माने जाते थे,  उन सम्मानितों पर समाज और सरकार को पूरा भरोसा हुआ करता था। संकट की घड़ी में इन्होने देश की काफी मदद की है. बच्चों को ज्ञान बांटने के अलावा मलेरिया की गोलियां और कंडोम बांटने तक का काम तल्लीनता से किया है.  जानवर से लेकर आदमी, कुओं से लेकर बोरिंग और ताड़-पत्रों से लेकर मत-पत्रों तक की गणना के कार्य को सफलता पूर्वक निष्पादित किया है.

यह बहुत खुशी की बात है कि मास्टरजी के बाद पोस्टमास्टर जी ने इस भरोसे को अर्जित कर लिया है. डाकघर अब बैंकों का काम करते हुए आपका खाता खोलते हैं, बुजुर्गों को पेंशन बांटते हैं, टेलीफोन और बिजली का बिल जमा करते हैं। क्या कुछ नहीं करते।   चिट्ठी-पत्री भले ही समय पर गन्तव्य तक पहुंचे ना पहुंचे, डाक सामग्री उपलब्ध हो न हो, लेकिन इस बात का पूरा विश्वास है कि गंगाजल की तरह दाल भी जरूर हमारी रसोई तक पहुँच जायेगी. डाकिया बाबू के इंतज़ार के वे मार्मिक दिन बस अब लौटने ही वाले हैं.

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018  

  

Wednesday, October 12, 2016

लेखक से चुराइटर तक

व्यंग्य
लेखक से चुराइटर तक
ब्रजेश कानूनगो

हमारी एक रचना चोरी होकर अन्य लेखक के नाम से कहीं और प्रकाशित हो गयी तो हमने अपना दर्द मित्र को बताया. इसपर उन्होंने अपनी संवेदनाएं जाहिर करते हुए कहा कि ‘इन दिनों बाजार में बहुत सारे ‘चुराइटर’ पैदा हो गए हैं. उन्होंने चोरी और राइटर को मिलाकर बहुत पारिभाषिक शब्द का निर्माण मजे-मजे में भले ही कर दिया था किन्तु उनकी बात मेरे मन में चिंतन का ज्वार-भाटा ले आई. आखिर उन्होंने ‘चौर्य रचनाकर्मी’ या ‘चोर लेखक’ नहीं कहते हुए ‘चुराइटर’ ही क्यों कहा. आइये तनिक विचार करते हैं.
  
‘राइटर’ का ऐसा है कि वह सचमुच ‘राइटर’ होता है। जिस बात को अंगरेजी में कहा गया हो, उसका महत्त्व वैसे ही बढ़ जाता है. इस लिए राइटर ही सही मायने में राइटर है .प्रेमचन्द, परसाई वगैरह सब लेखक थे। वे राइटर नहीं थे। राइटर होना उनके बस में भी नहीं था। हिंदी में लिखते हुए उस वक्त कोई राइटर नहीं हो सकता था। उर्दू में जरूर कुछ होते थे राइटर। हिंदी में तो सब लेखक ही होते थे या फिर जो थोड़ा रिदम में कहते थे वे कवि कहलाते थे। हिंदी में उन्हें ‘पोएट’ नहीं बोलते थे। कवि प्रदीप, हरिवंश राय बच्चन सब कवि थे। बच्चन अंग्रेजी के प्रोफेसर होने के बावजूद पोएट नहीं कवि ही कहलाते थे। 
अब ऐसा नहीं है. हिन्दी में कविता करने वाला अपने को पोएट कहलाना पसन्द करता है और  हिंदी में गद्य लिखने वाला 'राइटर' का संबोधन चाहता है।

वो क्या है कि अंग्रेजी में छपे  रैपर में  देसी माल का उठाव ठीक रहता है। बाजार का समय है। भविष्य के उपभोक्ता तो वैसे भी हिंदी समझते नहीं हैं। हिंदी में ‘उनचास’ बोल दो तो समझ ही नहीं पाते की ‘सिक्सटी नाईन’ है या ‘सेवेंटी नाइन’। पेरेंट्स बताने का प्रयास करते है कि बेटा ‘फिफ्टी नाईन’ बोलो। हिन्दी के वरिष्ठ लेखक दादाजी सिर पीट लेते हैं, वे राइटर नहीं हैं। अब उन्हें राइटर हो जाना चाहिए। समझते ही नहीं हैं यार! , लेखक ही बने रहना चाहते हैं।

अब जब हिंदी का अखबार संपादकीय का शीर्षक रोमन में 'एडिटोरियल' छापता है। नगर की हलचल 'सिटी एक्टिविटी' और सार संक्षेप 'ब्रीफ' का ताज पहनकर खुश है तो वरिष्ठ लेखक को राइटर कहलाने में क्या दिक्कत है? उनके जमाने में अदालतों में अर्जी नवीस हुआ करते थे, अब भी होते हैं उन्हें जरूर राइटर कह लीजिये। वे मुवक्किलों के आवेदन वगैरह लिखते हैं। चूंकि उनके लिखे पर कारवाई तो अभी भी अंग्रेजी में ही होती है, कोई दिक्कत नहीं है।
हिन्दी फिल्मों के पटकथाकार शुरू से रोमन में स्क्रिप्ट लिखते हैं, अभिनेता रोमन में पढ़ते हैं, मगर संवाद हिंदी में बोलते हैं। अभिनेताओं को राइटर के लिखे को हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी में बोलना चाहिए और फैन्स से हिंदी में बतियाना चाहिए। होता बिलकुल उलटा है. ये तो बहुत उलटबासी हुई। अभिनेताओं को संवाद राइटर लिखकर देता है हिन्दी में। मगर बातचीत उनकी मौलिक होती है। 'राइटर' ही नेताओं के जोशीले भाषण लिखकर चुनाव जितवाने का दमखम रखता है। इस अर्थ में ‘राइटर’ लेखक से ज्यादा प्रतिभाशाली होता है.

लेखक में मौलिकता के संस्कारों का खतरा हमेशा बना रह सकता है। राइटर में यह आग्रह उतना बलवती नहीं होता। यहां-वहां से माल जुटाकर भी वह कुछ न कुछ राइट कर ही लेता है। अपने लेखन के लिए उसे ‘राइट’ को अपनाने और ‘लेफ्ट’ को तिलांजलि देने में भी कोई संकोच नहीं रहता है। ‘लेफ्ट’ चलते हुए वह ‘राइट’ में भी अपनी कार को घुसेड़ ने के लिए स्वतन्त्र होता है। लेकिन लेखक मूल्यों, भाषा,विचार,व्याकरण आदि के बहुत से बंधनों से बंधा होता है बेचारा। समझदार वही व्यक्ति है जो लेखक नहीं 'राइटर' बनने का लक्ष्य सामने रखता है। इसमें उन्नति के बहुत से रास्ते खुल जाते हैं। 

‘लुग्दी लेखक’ भले ही साहित्य में बड़ी आलोचना के केंद्र में रहकर बहुत लोकप्रिय हुए हैं लेकिन वे भी इतने गुणी कभी नहीं रहे जितने कि आज के ये ‘चुराइटर’ होते हैं.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018


Friday, October 7, 2016

आलू की फैक्ट्री का सपना

व्यंग्य
आलू की फैक्ट्री का सपना
ब्रजेश कानूनगो

उन्होंने यदि कह भी दिया कि वे किसानों के लिए आलू की फेक्ट्री लगायेंगे. तो इसमें हंगामा करने की क्या बात है. एक बात कही उन्होंने. और आप हैं कि उसका बतंगड़ बनाने पर तुले हैं. जब विश्व में कृत्रिम दिल बनाने के प्रयास हो रहे हों तब आलू किस खेत की मूली है. वह भी फेक्ट्री में बनाया जा सकता है. चाहे उनकी जुबान ही क्यों न फिसल गयी हो लेकिन उनके कथन को सकारात्मक रूप से लिया जाना चाहिए.

हाँ, यह बात अवश्य है कि पटाटो जैसी इतनी पापुलर चीज के बारे में इतने पापुलर व्यक्ति का अज्ञान संदेह अवश्य पैदा करता है. भारतीय भोजन में आलू की लोकप्रियता निर्विवाद है. एक तरह से इसे राष्ट्रीय कन्द के खिताब से नवाजा जा सकता है. कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानियों से लेकर लीडरकिंग लालू प्रसाद के गुण-गौरव तक में ‘आलू’ की उपस्थिति चर्चित रही है. हमारे भोजन में आलू ठीक उसी प्रकार उपस्थित रहता है, जैसे शरीर के साथ आत्मा, आतंकवाद के साथ खात्मा, नेता के साथ भाषण, यूनियन के साथ ज्ञापन, मास्टर के साथ ट्यूशन,वोटर के साथ कन्फ्यूजन, टेलर के साथ टेप, भूगोल के साथ मैप, पुलिस के साथ डंडा और इलाहाबाद के साथ पंडा, अर्थात भोजन है तो आलू है. आलू है तो समझो भोजन की तैयारी है.

आलू हमारी तरह धर्म निरपेक्ष है. हर सब्जी का धर्म उसका अपना धर्म है. हर सब्जी के रंग में डूबकर वह उसके साथ एकाकार हो जाता है.बैगन,पालक,गोभी,टमाटर,बटला,दही,खिचडी,पुलाव, आलू सभी में अपने को जोड़े रखता है.आपसी मेल-मिलाप हमारी परम्परा रही है,यही संस्कार हमारे आलू में भी देखे जा सकते हैं.

विनम्रता और और दूसरों की अपेक्षाओं के अनुसार अपने को ढाल लेना हमारे चरित्र की विशेषताएं होती हैं.उबलने के बाद आलू भी हमारी तरह नरम और लोचदार होकर अपने आपको समर्पित कर देता है. चाहो तो आटे में गूंथकर पराठा सेंक लो या मैदे में लपेटकर समोसा तल लो अथवा किसनी पर किस कर चिप्स का आनंद उठा लो.

आलू की नियति से हमारी नियति बहुत मिलती है. राजनीतिक नेता और पार्टियां जिस तरह हमारी भावनाओं को उबालकर उनके पराठें सेंकते हैं, समोसा तलते हैं या चिप्स बनाकर वोटों के रूप में उदरस्थ करते हैं, उसी तरह आलू हमारे पेट में जाता है.

परम मित्र साधुरामजी ने बताया कि जहां हम आलू के दीवाने हैं, वहीं रूसियों को मूली, गाजर और गोभी बहुत पसंद है. इसी तरह अमेरिकियों को शकरकन्द खाने का बहुत शौक होता है. पिछले रविवार जब हमने साधुरामजी के यहाँ भोजन ग्रहण किया तो तो उन्होंने एक नई सब्जी परोसी जिसका नाम था- ‘इंडो-रशिया फ्रेंडशिप वेजिटेबल’ (भारत-रूस मित्रता सब्जी). जब मैंने वह खाई तो मुझे आलू, मूली और गोभी का मिला-जुला जायका आया. मित्रता की खुशबू दिलों से होकर सब्जियों तक महसूस कर मुझे अपने आलुओं पर गर्व हुआ. अब तो शकरकंद में आलू मिलाकर बनाई गयी सब्जी भी हम बड़े चाव से खा रहे हैं, परोस रहे हैं. दुनिया में यह एक मिसाल भी है जब हमारा देश, दुनिया में हमारी आलू-प्रवत्ति का कायल हुआ है.

संभवतः उन्होंने हमारे सर्व प्रिय आलू के और अधिक विकास पर ध्यान दिया और आकांक्षा व्यक्त की है कि अब आलू की फेक्ट्री भी शुरू की जानी चाहिए. नया विचार रखा है, जेम्स वाट ने केतली से निकली भाप को देखकर जो विचार दिया था उससे आगे चलकर रेल गाड़ियां दौड़ने लगीं. ‘नवोन्मेष विचार’ ही भविष्य के किसी अन्वेषण का आधार बनता है. बुद्धिमान और हुनरमंद लोग घरों में डिटर्जेंट के पैकेटों और वनस्पति तेल के पीपों से भैस का दूध दुह रहे हैं, कोई आश्चर्य नहीं जब फैक्ट्रियों से निकले आलुओं से समोसे बनाए जाने लगें.


ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रीजेंसी चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018