Wednesday, October 12, 2016

लेखक से चुराइटर तक

व्यंग्य
लेखक से चुराइटर तक
ब्रजेश कानूनगो

हमारी एक रचना चोरी होकर अन्य लेखक के नाम से कहीं और प्रकाशित हो गयी तो हमने अपना दर्द मित्र को बताया. इसपर उन्होंने अपनी संवेदनाएं जाहिर करते हुए कहा कि ‘इन दिनों बाजार में बहुत सारे ‘चुराइटर’ पैदा हो गए हैं. उन्होंने चोरी और राइटर को मिलाकर बहुत पारिभाषिक शब्द का निर्माण मजे-मजे में भले ही कर दिया था किन्तु उनकी बात मेरे मन में चिंतन का ज्वार-भाटा ले आई. आखिर उन्होंने ‘चौर्य रचनाकर्मी’ या ‘चोर लेखक’ नहीं कहते हुए ‘चुराइटर’ ही क्यों कहा. आइये तनिक विचार करते हैं.
  
‘राइटर’ का ऐसा है कि वह सचमुच ‘राइटर’ होता है। जिस बात को अंगरेजी में कहा गया हो, उसका महत्त्व वैसे ही बढ़ जाता है. इस लिए राइटर ही सही मायने में राइटर है .प्रेमचन्द, परसाई वगैरह सब लेखक थे। वे राइटर नहीं थे। राइटर होना उनके बस में भी नहीं था। हिंदी में लिखते हुए उस वक्त कोई राइटर नहीं हो सकता था। उर्दू में जरूर कुछ होते थे राइटर। हिंदी में तो सब लेखक ही होते थे या फिर जो थोड़ा रिदम में कहते थे वे कवि कहलाते थे। हिंदी में उन्हें ‘पोएट’ नहीं बोलते थे। कवि प्रदीप, हरिवंश राय बच्चन सब कवि थे। बच्चन अंग्रेजी के प्रोफेसर होने के बावजूद पोएट नहीं कवि ही कहलाते थे। 
अब ऐसा नहीं है. हिन्दी में कविता करने वाला अपने को पोएट कहलाना पसन्द करता है और  हिंदी में गद्य लिखने वाला 'राइटर' का संबोधन चाहता है।

वो क्या है कि अंग्रेजी में छपे  रैपर में  देसी माल का उठाव ठीक रहता है। बाजार का समय है। भविष्य के उपभोक्ता तो वैसे भी हिंदी समझते नहीं हैं। हिंदी में ‘उनचास’ बोल दो तो समझ ही नहीं पाते की ‘सिक्सटी नाईन’ है या ‘सेवेंटी नाइन’। पेरेंट्स बताने का प्रयास करते है कि बेटा ‘फिफ्टी नाईन’ बोलो। हिन्दी के वरिष्ठ लेखक दादाजी सिर पीट लेते हैं, वे राइटर नहीं हैं। अब उन्हें राइटर हो जाना चाहिए। समझते ही नहीं हैं यार! , लेखक ही बने रहना चाहते हैं।

अब जब हिंदी का अखबार संपादकीय का शीर्षक रोमन में 'एडिटोरियल' छापता है। नगर की हलचल 'सिटी एक्टिविटी' और सार संक्षेप 'ब्रीफ' का ताज पहनकर खुश है तो वरिष्ठ लेखक को राइटर कहलाने में क्या दिक्कत है? उनके जमाने में अदालतों में अर्जी नवीस हुआ करते थे, अब भी होते हैं उन्हें जरूर राइटर कह लीजिये। वे मुवक्किलों के आवेदन वगैरह लिखते हैं। चूंकि उनके लिखे पर कारवाई तो अभी भी अंग्रेजी में ही होती है, कोई दिक्कत नहीं है।
हिन्दी फिल्मों के पटकथाकार शुरू से रोमन में स्क्रिप्ट लिखते हैं, अभिनेता रोमन में पढ़ते हैं, मगर संवाद हिंदी में बोलते हैं। अभिनेताओं को राइटर के लिखे को हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी में बोलना चाहिए और फैन्स से हिंदी में बतियाना चाहिए। होता बिलकुल उलटा है. ये तो बहुत उलटबासी हुई। अभिनेताओं को संवाद राइटर लिखकर देता है हिन्दी में। मगर बातचीत उनकी मौलिक होती है। 'राइटर' ही नेताओं के जोशीले भाषण लिखकर चुनाव जितवाने का दमखम रखता है। इस अर्थ में ‘राइटर’ लेखक से ज्यादा प्रतिभाशाली होता है.

लेखक में मौलिकता के संस्कारों का खतरा हमेशा बना रह सकता है। राइटर में यह आग्रह उतना बलवती नहीं होता। यहां-वहां से माल जुटाकर भी वह कुछ न कुछ राइट कर ही लेता है। अपने लेखन के लिए उसे ‘राइट’ को अपनाने और ‘लेफ्ट’ को तिलांजलि देने में भी कोई संकोच नहीं रहता है। ‘लेफ्ट’ चलते हुए वह ‘राइट’ में भी अपनी कार को घुसेड़ ने के लिए स्वतन्त्र होता है। लेकिन लेखक मूल्यों, भाषा,विचार,व्याकरण आदि के बहुत से बंधनों से बंधा होता है बेचारा। समझदार वही व्यक्ति है जो लेखक नहीं 'राइटर' बनने का लक्ष्य सामने रखता है। इसमें उन्नति के बहुत से रास्ते खुल जाते हैं। 

‘लुग्दी लेखक’ भले ही साहित्य में बड़ी आलोचना के केंद्र में रहकर बहुत लोकप्रिय हुए हैं लेकिन वे भी इतने गुणी कभी नहीं रहे जितने कि आज के ये ‘चुराइटर’ होते हैं.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018


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