Saturday, November 28, 2015

डिजिटल भरोसा

व्यंग्य
डिजिटल भरोसा
ब्रजेश कानूनगो  

साधुरामजी इन दिनों बहुत खुश हैं. बायपास पर बनी नई-नई टाउनशिप में आये थे तो अक्सर बहुत दुखी रहते थे. पुराने शहर और दोस्तों से दूर होकर उनका मन और तन कमजोर पड़ता जा रहा था. लेकिन जब से जन्मदिन पर अमेरिका में बसे ग्रीनकार्ड धारी सुपुत्र ने एक टेबलेट ऑनलाइन उनको भेंट कर दिया है उनके सारे दुःख दूर हो गए हैं. उनका अकेलापन देश के बुरे दिनों की तरह चला गया है . पूरी दुनिया उनकी हथेलियों में सिमट आईं है. उँगलियो के इशारे पर मनचाहे वातावरण, दोस्तों के बीच दिन भर बतियाते रहते हैं.

‘साधुरामजी आजकल घूमने के लिए आप मुझे लेने नहीं आते, बल्कि मुझे आपके घर आना पड़ता है..कहाँ व्यस्त रहते हैं?’ रोज की तरह शाम को जब हम टहलने निकले तो मैंने चर्चा शुरू करते हुए कहा.
‘अरे भाई , इन दिनों एक कविता कार्यशाला में नवलेखकों को लिखने के सूत्र समझाने में लगा रहता हूँ. छोड़ते ही नहीं देर तक. आप लेने आते हैं तब पता चलता है कि शाम हो गयी है, सैर को जाना है.’ साधुरामजी ने मुस्कुराते हुए कहा.
‘लेकिन आप तो अपने फ्लेट से निकलते ही नहीं और नहीं किसी को आपके यहाँ आते-जाते देखा है, तब ‘कविता-कार्यशाला’ की बात कुछ समझ में नहीं आई!’ मैंने जिज्ञासा व्यक्त की.
‘ये नई चीज है. ओन लाइन कविता कार्यशाला है. वाट्स एप समूह पर चलती है. कविता पर बात होती है, रचना प्रक्रिया से लेकर साहित्य के सरोकारों तक बात होती है यहाँ. इसी में लगा रहता हूँ. तुम भी इस के सदस्य बन जाओ.. मैं एडमिन को तुम्हारा नंबर भेजता हूँ.’ साधुरामजी ने उत्साह से कहा.
‘नहीं-नहीं!  साधुरामजी, मैं तो वैसे ही मस्त हूँ. अखबार और किताबें ही बहुत हैं मेरे लिए. मुझसे यह सब नहीं होगा.’ अपनी अरुचि दर्शाई तो उन्होंने मेरे पिछड़ेपन पर हिकारत से मुंह बिचकाया और बोले- ‘अरे भैया जरा जमाने के साथ चलो..ऐसे तो वहीं के वहीं रह जाओगे..देखो देश ‘डिजिटल इंडिया’ बनने की राह पर चल पडा है और तुम अभी तक पुरानी पीढी के मोबाइल को कान से लगाए बैठे हो. स्मार्ट बनों और स्मार्ट फोन और टेबलेट के रास्ते अपना विकास करो..अपने और देश के सपने पूरे करो..इसी रास्ते से होकर खुशहाली आयेगी..हम विकसित देश की पंक्ति में आ खड़े होंगे !’
‘क्या होगा डिजिटल हो जाने से ? यह सब जुमले बाजी है बस और कुछ नहीं.’ मैंने कहा तो वे चिढ गए.
‘हर अच्छी चीज का विरोध करने की तुमको आदत हो गयी है. जब हमने सेटेलाईट अंतरिक्ष में भेजा था तब भी तुमने विरोध किया था.अब वही देखो कितनी मदद कर रहा है हमारी. हजार चैनल हैं हमारे घर में. मौसम की जानकारी है. सबको लाभ मिल रहा है.’ साधुरामजी खबरिया चैनल पर आये पीएम के उद्बोधन को दोहराने लगे.
‘हाँ, मैं मानता हूँ मोबाइल क्रान्ति से परिवर्तन आया है, डिजिटल होने से एक छोटे से मोबाइल में पूरा भारत सिमट जाएगा..सरकारी तंत्र आपके इशारों पर काम करने लगेगा...  लेकिन प्रश्न तो करना ही पड़ेंगे साधुरामजी.’ मैंने कहा.
‘करिए ना प्रश्न कौन मना कर रहा है. यह एक ऐसी बात है जिससे चुटकियों में आपकी कठिनाइयां दूर हो जायेगी. अस्पताल में आपको लाइन में नहीं लगना होगा, डॉक्टर आपकी बीमारी की दवाई घर बैठे लिख भेजेगा. किसान को खेती की सारी जानकारियाँ खेत खलिहान में ही उपलब्ध हो जायेगी..बीज खाद और तकनीक की जानकारी मिल जायेगी..बहुत सी सुविधाएं मिलेंगी इससे...!’ साधुरामजी टीवी बहस के किसी प्रवक्ता की तरह जोश में बोल रहे थे.
‘साधुरामजी, डिजिटल हो जाने से समय पर बारिश होगी इसकी कोई गारंटी नहीं मिल जाती. मोबाइल लगाने से डॉक्टर अस्पताल में फोन उठा लेगा और गाँव में दवाइयाँ उपलब्ध रहेंगी ही, मुझे विश्वास नहीं हो रहा.’ मैंने आशंका व्यक्त की.
‘भरोसा करना सीखो भाई ! दुनिया हम पर भरोसा कर रही है तुम भी करो ज़रा.’ उन्होंने आश्वस्त करना चाहा.
मैं दुनिया के साथ हो गया. पूरे भरोसे के साथ घर लौटकर बत्ती का स्विच दबाया, बिजली गुल थी. शिकायत दर्ज करने के लिए फोन उठाया..वह शवासन में लीन था . मोबाइल में देखा..सिग्नल शून्य में विलीन हो गए थे. ब्राडबेंड मेरे यहाँ नहीं था.  उम्मीद है साधुरामजी लिंक की मंथर गति से जूझते हुए दुनिया को अपने ड्राइंग रूम में लाने में सफल हो गए होंगे.

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर -452018  

   

मुर्गी के पक्ष में

व्यंग्य
मुर्गी के पक्ष में
ब्रजेश कानूनगो

मुर्गी फिर चर्चा में है इन दिनों. महंगाई के दौर में कुछ अलग ढंग से चर्चा में है. प्रजातंत्र में किसी भी चीज पर चर्चा की जा सकती है. संविधान में ही व्यवस्था दी गयी है कि राष्ट्र के नागरिक किसी भी बात पर पूरी स्वतंत्रता से अपने विचार प्रकट कर सकते हैं. चाहें तो सेंसेक्स की चिंता करें या आर्थिक मंदी की. सड़क के गड्ढों की बात करें या संसद के अवरोध की . भ्रष्टाचार पर लगाम के उपायों की करें या बढ़ती महंगाई पर रोकथाम की. कोई प्रतिबन्ध नहीं है. चिंतन शिविरों के महत्वपूर्ण दौर में किसे एतराज होगा किसी भी विषय में आपके चितन से. सबके साथ-साथ लोग मुर्गी को लेकर भी चितन-चर्चा कर सकते हैं. वैसे चर्चा तो प्याज और दालों की भी हो रही है लेकिन मेरी रूचि मुर्गी चर्चा में है.    

बहुतों को याद होगा कभी कड़कनाथ नाम की मुर्गियां बड़ी चर्चा में रहा करतीं थी. अफसर-नेता जब कभी दौरे पर जाते मेजमान सब काम छोड़कर कड़कनाथ मुर्गी के इंतजाम में जुट जाया करते थे. ये तब की बात है जब निजी क्षेत्र के होटलों का इतना विकास नहीं हुआ था. डाकबंगलों के खानसामाओं को ही साहब के भोजन का ध्यान रखना पड़ता था. कुछ खानसामा और चौकीदार तो मुर्गियों का एक छोटा-मोटा फ़ार्म ही मेंटेन किया करते थे ताकि अं वक्त पर दौड़-भाग न करनी पड़े. साहब आयें तो जायकेदार मुर्गी उनकी तश्तरी में प्रस्तुत की जा सके.

पुराने जमाने में मुर्गे का बड़ा महत्व हुआ करता था. किसी ऊंचे टीले पर चढकर रात भर वह सूरज के निकलने की टोह लिया करता था. जैसे ही उसे आभास होता कि बस अब उजाला होने को है, वह तुरंत जोरदार बांग लगा देता ताकि सब जाग जाएँ. जो चौकीदार के ‘जागते रहो’ की चेतावनी के कारण जागे हुए ही होते थे वे भी नीम का दातून लिए दिशा मैदान की ओर कूच कर जाया करते थे. चोर आदि भी अपना चौर्यकर्म निपटाकर अपने-अपने  घर चले जाया करते थे. वे भी गरीब आदमी की तरह सुबह दाल-रोटी खाते और दिन भर के लिए चादर तान कर सो जाते ताकि अगली रात को फिर काम पर निकला जा सके. अब यह आप पूछ सकते हैं कि चोर जैसे लोग भी दाल रोटी ही क्यों खाते थे उन दिनों, वे चाहते तो अपने नियमित चौर्य कर्म के अंतर्गत मुर्गी का इंतजाम तो बड़ी आसानी से कर सकते थे. सच तो यह है कि उन दिनों गरीब आदमी के भी कुछ उसूल होते थे. पेट की खातिर वह चोरी जरूर करता था लेकिन ‘मुर्गी चोर’ कहलाने में अपना अपमान समझता था. वैसे भी गरीब आदमी की औकात दाल बराबर ही हुआ करती थी. मुर्गी कहाँ सबके नसीब में होती है जनाब. गरीब तो दाल-रोटी ही खाकर तृप्ति की ऊंची डकार लेकर ऐलान कर दिया करता था कि हुजूर हमारा पेट भर गया है.  

बहरहाल, मामला कुछ यों है कि बाजार में मुर्गी और दाल का भाव एक हो गया तो  ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ वाले  मुहावरे को सच साबित करने की कुचेष्टा की जारही है. नादान लोग समझ ही नहीं पा रहे कि इसमें सरकार का कोई दोष नहीं है. लाख समझाया जा रहा है उन्हें कि खराब मौसम के कारण दालों का उत्पादन प्रभावित हुआ है इसलिए वह महंगी हो गयी है. बियर विथ अस. मगर लोग हैं कि मानते नहीं, बस दाल का रोना लेकर बैठ गए हैं.

कहाँ दाल और कहाँ मुर्गी? कोई तालमेल ही नहीं दिखता. अरे भाई एक किलो की मुर्गी तो बस एक बार ही पकाई जा सकती है मगर दाल तो कई दिनों तक चलती है. घर में ज्यादा लोग हों तो ‘दे दाल में पानी..!’ वैसे भी विशेषज्ञ कहते हैं शरीर के लिए पानी बहुत जरूरी होता है. जितना ज्यादा पानी पीयेंगे उतना स्वस्थ रहेंगे.

तो भैया, ये दाल और मुर्गी की बेमतलब की तुलना करना छोडो.  मुर्गी को मुर्गी ही रहने दो   और दाल को दाल की तरह ही पकाओ-खाओ, उसे मुर्गी बनाने से गरीब आदमी का कोई भला नहीं होने वाला. हमारा तो बस इतना ही कहना है..आगे आपकी मरजी.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018
       



हंगामे का संस्कार

व्यंग्य
हंगामे का संस्कार
ब्रजेश कानूनगो

भारी बारिश के बावजूद साधुरामजी अचानक बारह ताड़ी की छतरी थामें मेरे घर चले आये. मुझे थोड़ा अचरज भी हुआ. ऐसे खराब मौसम में भले ही कितना ही जरूरी काम क्यों न हो वे घर से नहीं निकलते हैं.
‘क्या बात है साधुरामजी ! इतनी बारिश में यहाँ ?  सब ठीक तो है?’ मैंने दरवाजा खोलते हुए पूछा.
‘सोंचा है आज पूरा दिन आपके साथ टीवी देखेंगे. अकेले–अकेले संसद की कारवाही देखने में मजा नहीं आयेगा.’ अपनी छतरी को सुखाने के लिए वरांडे में फैलाते हुए वे बोले.
‘अरे वाह! यह तो बड़ा अच्छा किया आपनें. मौसम भी बहुत अच्छा है. चाय-पकौड़े और संसद का सत्र. खूब मजा आयेगा. आइये-आइये.’ मैंने सोफे की ओर इशारा करते हुए उन्हें बैठने का आग्रह किया.
‘संसद की कारवाही भी पकौड़ों के आनंद से कम नहीं होती साधुरामजी.’ मैंने चुहुल की. ‘कैसे?’ उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा.  
‘मानसून सत्र की विशेषता ही यह होती है साधुरामजी कि सदन के बाहर बारिश की ठंडी फुहारें होती हैं और भीतर गरमा गर्म बहसों का पकौड़ों की तरह भीतर बैठे सदस्य लुत्फ़ उठाते रहते हैं.’ मैंने कहा.
टीवी चालू किया तो देखा जबरदस्त हंगामें के बाद अध्यक्ष महोदय ने नें सदन की कारवाही आधे घंटे के लिए स्थगित कर दी थी.
‘इस बार थोड़ा मुश्किल ही होगा सदन का सुचारू रूप से चलना.’ साधुरामजी ने आशंका व्यक्त की.
‘इस बार क्यों, सदन का चलना तो हर बार ही मुश्किल होता है. जब ये सत्ता में थे तब भी विपक्ष ने चलने नहीं दिया था. अब ये विपक्ष में हैं तो भी यही होगा, कौन सी नई बात है.’ मैंने कहा.
‘पर इस बार ललितगेट, व्यापम जैसे ज्वलंत मुद्दे हैं.’ वे बोले.
‘तब भी कोयला, स्पेक्ट्रम आदि होते थे. बस नाम ही तो बदला है साधुरामजी. गठबंधन बदला है.  नाम बदलने से कुछ नहीं होता, सब पहले जैसा ही होता रहेगा.’ मैं निराशा में बोलता गया.
‘क्या करें भाई ! यही प्रजातंत्र है. किसी के माथे पर नहीं लिखा होता कि कोई  ठीक काम करेगा. अब देखिये अब उस संस्थान का नाम भी बदला जा रहा है.’ साधुरामजी आज मुझ से थोड़े सहमत दिखाई दिए.
‘केंद्र सरकार ने भी तो ऐसा ही कुछ किया था ‘योजना आयोग’ के साथ. वह भी अब ‘नीति आयोग’ हो गया है. अब देखिये आयोग-आयोग भर ही दिखाई देता है. पहले योजना रुकी रहती थी अब नीति लापता है.’ साधुरामजी ने सरकार पर तंज करते हुए कहा.
‘व्यापम की बिगड़ी छवि सुधारने के लिए उसका नाम ‘भरती एवं प्रवेश परीक्षा मंडल’ कर देने से यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि अब वहां गडबडी नहीं होंगी. कपडे बदल लेने से आँखों का रंग नहीं बदला करता.’ मैंने अपनी बात बढाई.
‘बिलकुल तुम ठीक कहते हो. नागनाथ कह लो या सांपनाथ, दोनों एक ही हैं. दोनों में से कोई भी डस ले हमारा मरना स्वाभाविक ही है.’ साधुरामजी मुस्कुराए.
‘दरअसल, व्यापम संस्था नहीं, संस्कार है साधुरामजी! जैसे कभी कहा जाता था कि ईश्वर कण-कण में व्याप्त है ,उसी तरह व्यापम तंत्र की रग-रग में समाविष्ट हो गया है. व्यापम में हम इतनें संस्कारित हो चुके हैं कि लगता है उसके बगैर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता. कुछ पाने के लिए व्यापम स्नान के बाद ही फल की आकांक्षा की जा सकती है अब.’ मेरा गुबार निकल रहा था.
‘ठीक है भाई, इतना गुस्सा भी ठीक नहीं. तुम्हारा ही बीपी बढेगा इससे, कहीं अस्पताल न जाना पड़ जाए.’ साधुरामजी ने वातावरण को थोड़ा सहज बनाना चाहा.
‘और वहां किसी व्यापम हितग्राही डाक्टर से सामना हो जाए तो और भी मुश्किल हो जायेगी.’ मैं हंसते हुए कहने लगा.‘ खैर, जाने दीजिये किसी ने कहा भी है ‘नाम में क्या रखा है’ कुछ भी रख लो, जयकिशन नाम बदलकर जैकी हो जाता है तो उसकी नाक छोटी नहीं हो जाती. बहुत समय हो गया है आप भी साधुरामजी ही बने हुए हैं अब तक, आपको भी अब ग्लोबलाइजेशन के दौर में ‘एस राम’ कहूं तो कोई आपत्ति तो नहीं है आपको?’
‘चलो अब टीवी लगाओ, शायद संसद की कारवाही फिर शुरू हो गयी होगी.’ साधुरामजी ने बात बदलते हुए टीवी की तरफ इशारा किया तो मैंने रिमोट का बटन दबा दिया. देखा कि संसद में फिर हंगामा हो गया था , अध्यक्ष ने दोबारा आधे घंटे के लिए कारवाही स्थगित कर दी थी.


ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018     .                    


   


         

विकास का लट्टू

व्यंग्य
विकास का लट्टू
ब्रजेश कानूनगो  

कुछ वर्षों पहले तक हमारी सरकारें ठोस कदम उठाया करती थीं. लेकिन बकौल शरद जोशी कदम इतने ठोस हुआ करते थे कि वक्त पर उठ ही नहीं पाते थे.

पिछले कई वर्षों से देश से गरीबी हटाने के लिए सरकारें इसी तरह कदम उठाया करतीं थी. इतने सालों बाद भी हर घर में टीवी और हर हाथ में मोबाइल आ जाने के बाद भी गरीबी ज्यों की त्यों विद्यमान है. ऐसा कैसे चल सकता था. कोई नया रास्ता तो खोजा ही जाना था. अब वह हमारे सामने है- विकास का रास्ता. अब विकास पर जोर दिया जा रहा है.     

अब सरकारें पहले की तरह असफल कदम उठाने की बजाय ‘जोर’ देने का प्राचीन उपाय अपना रही है . उनका मानना है कि जब तक किसी बात पर पर्याप्त जोर नहीं दिया जाता तब तक काम होता नहीं. यदि कार्य को संभव करना है तो जोर देना ही होगा. इसे ज़रा ‘लट्टू घुमाने’ जैसे आसान तरीके से समझते हैं. लट्टू घुमाना है तो उस पर एक रस्सी को जोर से लपेटना होगा, तनिक जोर देकर उसको जमीन पर फैंकना होगा, तब कहीं जाकर उसमें गति उत्पन्न होगी और वह घूमने लगेगा. मतलब यह कि लट्टू को गति देने के लिए उस पर जोर देना आवश्यक है. बगैर जोर दिए उसे रफ़्तार नहीं दी जा सकती.

इस वक्त जो सबसे लोकप्रिय लट्टू है वह है-विकास का लट्टू. अब इसमें यह न समझा जाए कि इस लट्टू पर जोर देने से यह होगा कि सारे सांसद और मन्त्रीगण अपने स्टाफ के साथ निकल कर सड़क बनाने लग जायेंगे या तालाब की खुदाई में अपना वातानुकूलित पसीना बहाने लगेंगे. सरकार तो बस विकास के लट्टू को गति देने पर जोर दे सकती है. अब यह बहुत कुछ लट्टू की प्रकृति और बनावट पर भी निर्भर करेगा कि वह किस स्मार्टनेस  से घूमकर गाँवों- शहरों और देश का विकास करता है.

कुछ और चीजें भी होती हैं जो  लट्टू के ठीक से घूमने में प्रभाव डालती है, वह है रस्सी या जाल, जिस पर जोर लगाया जा रहा है तथा वह धरातल जिस पर लट्टू को घुमाया जाना है.  रस्सी का लट्टू पर भली प्रकार लपेटा जाना और उस पर लगाए जाने वाले जोर का आदर्श परिमाण एक कुशल लट्टू बाज अच्छे से जानता है. जैसे गांधी जी जानते थे. उन्होंने स्वदेशी पर जोर दिया, देश ने विदेशी वस्तुओं की होली जला दी थी. सत्याग्रह पर जोर दिया, लोग उनके पीछे पीछे चले आये. बापू के जोर देने में बड़ा जोर हुआ करता था. उन्हें पता था जोर देने का सही तरीका. उनका लट्टू जब धरातल पर घूमता था तो अपना उद्देश्य पूर्ण करके ही थमता था.

गांधीजी के इस देश में हम जोर दे रहे हैं कि लट्टू के मैदान में साम्प्रदायिक सद्भाव और अहिंसा की हरी दूब खिली हो. लेकिन दलितों-कमजोरों और महिलाओं पर अत्याचार की दैनिक घटनाएँ इस मुलायम घास में आग लगा देती हैं.  सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उजाले पर जोर देने का सोचते हैं तो सही राह दिखाने वाले समाजसेवी और चिन्तक मार दिए जाते हैं. गलत के प्रतिरोध की अभिव्यक्ति पर कलाकारों, साहित्यकारों को प्रबुद्ध-आतंकी होने के पुरस्कार दिए जाने लगते हैं. बहुलतावाद के मुस्कुराते चेहरों को असहिष्णुता की कालिख से पोत दिया जाता है. किसानों-गरीबों के हितों की योजनायें बनाने के पर जोर देते हैं तो उसका हिस्सा उन तक पहुँच ही नहीं पाता. दूसरे मुल्कों को हमारे यहाँ आकर निवेश करने पर जोर देते हैं तो खाद्यान्न, दालें और और प्याज तक हमें आयात करना पड़ जाता है.

तो सवाल यह पैदा होता है कि विकास के लट्टू पर जो जोर हम दे रहे हैं उसकी बहुत सारी ऊर्जा कहाँ लुप्त हो जाती है. जिस रफ़्तार से लट्टू घूमना चाहिए क्यों नहीं घूम पाता. ऐसी कौनसी बाधाएं है जिसका घर्षण इस महत्वपूर्ण ऊर्जा का क्षरण या ह्रास कर रहा है. वह कौनसी बात है जो विकास और जनहित के लट्टू को भली प्रकार घूमने से रोक रही है. क्या रस्सी गलत है या कि लट्टू की घुरी ही वक्र है जिस पर उसे घूमना है या हमारा आँगन ही दोषपूर्ण हो गया है.    जो भी हो हमें इस बात पर जोर देना होगा कि जैसे भी हो विकास का लट्टू अब पूरी गति के साथ निर्बाध घूम सके.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018
               
     


वाट्सएप पर साहित्य

व्यंग्य
वाट्सएप पर साहित्य
ब्रजेश कानूनगो

मैं अभी फेस बुक पर अपना ताजा स्टेटस पोस्ट करने के बाद उसे लाइक करने वाले मित्रों की संख्या और कमेन्ट करने वाले नामों की गिनती कर ही रहा था कि किसी ने घंटी बजाई. मैंने दरवाजा खोला तो साधुरामजी सामने थे. मैंने नमस्कार किया मगर वे बगैर जवाब दिए सीधे सोफे में समा गए. कुछ झल्लाए से लग रहे थे. बोले-‘ साहित्य वाहित्य सब बेकार की बात है.. कैसा भी अच्छा लिख लो मगर  कोई ध्यान नहीं देता.’
‘क्या हुआ साधुरामजी?  कौन ध्यान नहीं देता.. ‘ मैंने पूछा.
‘लगातार लिखता रहता हूँ.. मगर कभी किसी साहित्यकार मित्र ने प्रशंसा नहीं की आज तक.’ वे बोले.
‘साधुरामजी, जब आप अच्छा लिखते हैं तो उसके लिए किसी की प्रशंसा पाने की आकांक्षा क्यों रखते हैं..आप तो लिखते जाइए बस..कुछ लोग स्वांत: सुखाय भी तो सृजन करते हैं.’ मैंने कहा.
‘लेकिन कुछ तो मूल्यांकन होना ही चाहिए हमारे लिखे का. प्रशंसा से प्रोत्साहन मिलता है.’ उनका क्षोभ बरकरार था.
‘आखिर हुआ क्या साधुरामजी? ‘ मैंने पूछा.
‘हुआ क्या, पहले तो उन्होंने अपने वाट्स एप समूह पर लगाने के लिए मेरी कविता मंगवाई ..फिर समूह में शेयर भी की... मगर जैसे ही मेरी कविता वहाँ लगी..समूह में चुप्पी छा गयी. मैं लगातार दो दिन तक इंतज़ार ही करता रहा कि अब कोई कुछ कहेगा, प्रतिक्रिया देगा. लेकिन प्रशंसा तो दूर किसी ने कविता की कमजोरी तक नहीं बताई.. यह तो अन्याय है भाई!’
साधुरामजी अपनी उपेक्षा से दुखी हो गए थे.
‘व्यस्त होंगे समूह के सदस्य शायद, या किसी ने देखी नहीं होगी आपकी कविता ..’ मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की.
‘कैसे नहीं देखी होगी? मैंने सर्च कर लिया था..जो बहुत बोलते थे वहाँ, वे भी खामोश हो गए थे..कुछ नहीं कह रहे थे.. बल्कि जैसे ही एक नई कवियत्री समूह से जुडी. सब साथी सक्रीय हो गए.. लगे उनका स्वागत करने..और मेरी कविताएँ पीछे ढकेल दी गईं.’ वे तमतमा गए.
‘दिल पर मत लो साधुरामजी, ये तो आभासी दुनिया है.. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता..’ मैंने कहा.
‘कैसे नहीं पड़ता? वहाँ वास्तविक दुनिया में भी यही था और यहाँ भी यही हो रहा है.. गोष्ठियों में, पत्र-पत्रिकाओं में, पुरुस्कारों में,  संगठनों में जो राजनीति होती है ..वह यहाँ भी आ गयी है.. ! अपने-अपने वालों की प्रशंसाएं होती हैं.. बाकियों को तवज्जो ही नहीं मिलती..’ साधुरामजी का गुबार लगातार निकल रहा था.
‘तो आप वह समूह छोड़कर दूसरे में चले जाओ.’ मैंने सुझाव दिया.
‘एक समूह छोड़कर ही तो आया था.. यहाँ भी वही और वहाँ भी वही हो रहा था..’  
‘आप अपना खुद का समूह क्यों नहीं बना लेते? ‘मैंने सलाह दी.
‘अरे भाई तुम तो बिलकुल ही बुद्धू हो. अरे उन समूहों में बड़े-बड़े लेखक और आलोचक हैं.. उनकी नज़रों से रचनाएं गुजरती हैं..तो अच्छा लगता है.’
‘तो फिर क्यों परेशान हो रहे हैं आप? वे देख ही लेते होंगे आपकी रचनाएं..शायद किसी पुरस्कार से आपको सम्मानित करके यकायक चौंका दें कभी.’ मैंने उन्हें शांत करने की कोशिश की.
‘ऐसा हो सकता है क्या?’ आशा की थोड़ी सी चमक उनकी आँखों में दिखाई दी.
‘क्यों नहीं हो सकता. हमेशा सकारात्मक सोचना चाहिए, मैं भी ऐसा ही करता हूँ रोज. देखो रोज फेस बुक पर अपना अभिमत दे आता हूँ..कोई न कोई तो पढ़ ही लेता है..हो सकता है कभी कोई क्रान्ति हो ही जाए!’ मैंने कहा.
साधुरामजी के भीतर मैंने उम्मीद भरा अपना कथन पोस्ट कर दिया था. उन्होंने अपने स्मार्ट फोन पर वाट्स एप समूह को खोल कर इस उम्मीद से देखा कि शायद किसी ने उनकी कविता पर अब तक कोई टिप्पणी जरूर कर दी होगी. मगर यहाँ नजारा ही कुछ अलग था, वाट्स एप की सूची से उनका साहित्यिक समूह गायब था. एडमिन ने उन्हें शायद समूह से बाहर कर दिया था. मुझे बताते हुए बहुत अफसोस है कि साधुरामजी यहाँ भी राजनीति के शिकार हो गए थे.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018

            

       

बायपास के पास

व्यंग्य
बायपास के पास
ब्रजेश कानूनगो  

गाँव-बस्ती का विकास होता है तो वह क़स्बे में बदल जाते हैं. फिर कस्बा शहर में बदलने लगता है. शहर भी अपना विकास करता है. ऐसे में मजबूत इरादे हों तो खेतों को कालोनियों में बदल देना भी कठिन नहीं होता. जहां कभी घरोंदों की तरह गोभियाँ और गन्नों की मीनारें नजर आती थीं वहाँ रो हाउस, बंगलों और बहुमंजिला इमारतों की फसल लहलाने लगती है. पगडंडी सड़क में, सड़क मेन रोड में, बाहरी रास्ते रिंग रोड में परिवर्तित होते जाते हैं. धीरे-धीरे शहर का वजन बढ़ने लगता है. बढ़ता वजन बीमारी का लक्षण होता है. शहर के ह्रदय में ब्लोकेज और धमनियों में रुकावट की रिपोर्ट आने लगतीं हैं. ऐसे में शहर की बायपास सर्जरी ही एक मात्र उपचार हो जाता है.

खेतों की भस्म पर खडी गेटेड टाउनशिप में पिछले दिनों मेरे मित्र साधुरामजी को आखिर शिफ्ट होना ही पड़ा. शहर के पुराने मोहल्ले को मजबूरी में उन्होंने बाय कह दिया. अलविदा क्यों कहा इसके पीछे की कहानी फिर कभी. फिलहाल वे अपना ‘जूनी’ से सब कुछ समेट कर ‘बायपास’ पर चले आये हैं. उनका अपने बेटे से अनुरोध बस इतना ही रहा था कि बायपास पर उसी टाउन शिप में मकान लिया जाए जहां मैं रहता हूँ. चूंकि कनाडावासी होकर भी बेटे में अयोध्यावासी संस्कार जीवित थे इसीलिये अब साधुराम जी मेरे बायपास-पड़ोसी हैं. अब मैं अकेला नहीं हूँ  बायपास पर.

रोज शाम को यादों के फ्लायओवर से बतियाते हुए जब हम दोनों टहलने निकलते हैं, पंद्रह किलोमीटर दूर की पुरानी बस्ती जैसे पुल के आसपास ही झिलमिलाने लगती है.

‘अब वहाँ रहना मुश्किल ही था साधुरामजी..! मैंने कहा. ‘यहाँ कितनी ताजी हवा है..स्वाइन फ़्लू आदि का भी कोई खतरा नहीं....’ ऐसी बातों से मन बहलाना हमारी रोज की मजबूरी होती है.
‘उंह! क्या रखा है यहाँ..कुछ भी तो नहीं..कोई मजा नहीं है..’ साधुराम जी का मन अभी रमा नहीं था बायपास पर. रह रह कर पुरानी गलियों की याद सताने लगती थी. बातों में ठीक से रस नहीं ले पाते थे.
‘ऐसा मत सोचिये..यहाँ देखिए यहाँ चिड़िया है..कोयल भी आ जाती है नीम पर..थोड़ी दूर पर खेतों में काम करते किसान भी दिखाई देते हैं..’ मैंने उन्हें खुश करने की गरज से कहा.
‘कितने दिन रहेगा ये सब? पता भी है तुम्हे हमारे पीछे का गाँव भी शहर की सीमा में आ गया है..सब उजड़ जाएगा.. बुलडोजर चलने में कोई ज्यादा देर नहीं है अब...’ साधुराम जी थोड़े झल्ला गए. ‘और ये एशिया का सबसे बड़ा मॉल जो बन रहा है पड़ोस में.. फिर वैसा ही नहीं लगने लगेगा यहाँ जैसा शहर में लगता था..’ वे बोले.
‘अच्छा है न सब सुविधाएँ घर के पास चली आएंगी.’ मैंने कहा. ‘अब देखिए यहाँ न तो चौराहे पर कोई लफंगा बच्चियों को परेशान कर रहा है..न कोई गुंडा हफ्ता वसूली के लिए चाकू दिखा रहा है. न लाउडस्पीकरों का शोर न कोई रैली न जुलूस, कोई जाम नहीं लगता है इधर.’ मैंने बात आगे बढाई.
‘लेकिन यहाँ पोहे-जलेबी नहीं है..दोस्त नहीं हैं.. गांधी चौराहे का धरना प्रदर्शन नहीं है..लायब्रेरी नहीं है..गोष्ठी नहीं है..कविता नहीं है...इनके बगैर मैं अकेला महसूस करता हूँ यहाँ..!’ साधुराम जी बोले.
‘तो आप दिन में वहाँ चले जाया करें.’ मैंने सलाह दी.
‘कैसे चला जाऊँ? सिटी बस नहीं है..कोई सस्ता साधन नहीं है जो मैं शहर जा सकूं.’ साधुराम जी दुखी हो गए.
मैं चुप हो गया. क्या कहता. वो भले ही एक गली थी हमारी जहां संवेदनाओं के ऊपर से कोई  फ्लाई ओवर नहीं गुजरता था. झगड़े थे, भय था, शोर था मगर दोस्त थे..गोष्ठियां थी..बहसें थी..कविताएँ थीं..जीवन था...
फ्लाय ओवर से उतर कर टाउनशिप के गेट से होते हुए हम अन्दर आ गये थे. लिफ्ट का छः नंबर का बटन मैंने दबा दिया.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018

  

          

आदमी और पुतला

व्यंग्य
आदमी और पुतला
ब्रजेश कानूनगो

आदमी और पुतले में कुछ बुनियादी फर्क होते हैं. मसलन आदमी हाड-मांस का बना होता है और आदमी ही उसे जन्म भी देता है. पुतले को कोई पुतला जन्म नहीं देता. आदमी किसी भी पुतले को छू सकता है. उससे आँखें मिलाकर बातें करने की कोशिश कर सकता है. हर कोई ऐसा कर सकता है. मैं कर सकता हूँ, आप कर सकते हैं, प्रधान मंत्री भी कर सकते हैं.

किसी पुतले को छूकर  हम महसूस कर सकते हैं कि वह कितना संवेदनशील या मुलायम है , वह मिट्टी का बना है या धातु का. अगर मिट्टी का है तो थोड़ा–सा चख कर भी पता कर सकते हैं कि उसमें कितनी मिठास है या वह कितनी नमकीन मिट्टी का बना हुआ है,उसकी मिट्टी का स्वाद हमारे आँगन की मिट्टी से कितना मिलता है . अधिक रूचि हो तो पुतले की मिट्टी का रासायनिक विश्लेषण भी करा सकते हैं लेकिन पुतले को यह सुविधा नहीं होती. वह पर्यटक को स्पर्श नहीं कर सकता. आदमी की प्रकृति में कोई दिलचस्पी लेना उसके बस में नहीं होता.  पुतले के लिए पर्यटक मात्र पर्यटक होता है, चाहे वह किसी भी मिट्टी का बना हो. पुतला हमसे आँखें नहीं मिला सकता . उसकी निगाहें बस अतीत में ताकती रहती है. वर्तमान से उसका कोई लेना-देना नहीं है. हम अतीत को अपने हिसाब से देख सकते हैं सुन्दर पर पलकें बिछा सकते हैं तो खराब से नजरें चुरा भी सकते हैं.

पुतला शौक़ीन तबीयत का नहीं होता. जो एक बार पहना दिया सो वह जीवन पर्यंत पहना रहता है. जो उसके हाथ में थमा दिया वह अंत तक थामे रहता है. आदमी के साथ ऐसा नहीं है. वह रंगबाज होता है. हर रंग में रंग जाता है. जैसा देश-वैसा भेष में विश्वास करने वाला होता है . पूरी स्वतंत्रता है उसे. वह चाहे तो लूंगी पहन ले. टाई लगा ले. चप्पल, सैंडिल जूते कुछ भी पहन सकता है. चूडीदार,जैकेट, कुर्ता पायजामा अथवा सूट-बूट धारण करके भी आदमी देश-विदेश कहीं के भी पुतलों से बात करने जा सकता है. मगर पुतला बहुत विवश होता है. धोती लाठी लिए बरसों बरस से कड़ी धूप में, बारिश में भीगता चौराहे पर खडा अतीत में खोया रहता है. उस पर कोई छाता नहीं तानता , वह कभी धूप का चश्मा नहीं लगा सकता. आदमी धूप का चश्मा लगा कर प्रोटोकाल तक का उलंघन बे-झिझक कर सकता है.
एक महान योद्धा तलवार लिए घोड़े पर बरसों से एक ही मुद्रा में बैठा है. एक पुतला युगों से एक ही दिशा में अपनी अंगुली उठाए राह दिखा रहा है. उसे इस बात की चिंता नहीं है कि अब लोग किसी और रास्ते पर चल पड़े हैं. चिंता तो आदमी को होती है. हजारों चिंताओं से घिरा है बेचारा आदमी. करे तो क्या करे. खुद की चिंता, परिवार की चिंता, समाज की चिंता, देश और दुनिया की चिंता. चिंताएं हैं तो आदमी सक्रीय बना रहता है वरना वह भी कब का पुतला बन गया होता. यही चिंताएं उससे भाग-दौड़ करवाती रहती हैं. आम आदमी तो बेचारा परेशान है ही मगर देखिये देश की चिंता (मेक इन इंडिया और इन्वेस्टमेंट की चिंता)  पीएम तक से कितनी भाग-दौड़ करवा रही है. कभी इस देश तो कभी उस देश. चैन ही नहीं मिल रहा है ज़रा–सा भी.

बहरहाल, सबसे बड़ी चिंता तो यह है कि पुतलों के प्रति लोगों का अनुराग दिनों–दिन बढ़ता ही जा रहा है. पुतलों को स्थापित किये जाने की ख्वाहिश ऐसी बढ़ रही है कि जीते-जी लोगों के पुतले संग्रहालयों से लेकर चौराहों तक लगाए जाने लगे हैं. पुतलों के साथ खुद व्यक्ति अपना सेल्फी उतारने में सुख महसूस करने लगा है. पुतले में रूपांतरित हो कर ही शायद चिताओं से मुक्ति का रास्ता खोजा जाना आसान है. जिन्हें आदमी होना चाहिए वे धीरे-धीरे पुतलों में बदलते जा रहे हैं.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018