व्यंग्य
मुर्गी के पक्ष में
ब्रजेश कानूनगो
मुर्गी फिर चर्चा में है इन दिनों. महंगाई के दौर में कुछ अलग ढंग से
चर्चा में है. प्रजातंत्र में किसी भी चीज पर चर्चा की जा सकती है. संविधान में ही
व्यवस्था दी गयी है कि राष्ट्र के नागरिक किसी भी बात पर पूरी स्वतंत्रता से अपने
विचार प्रकट कर सकते हैं. चाहें तो सेंसेक्स की चिंता करें या आर्थिक मंदी की. सड़क
के गड्ढों की बात करें या संसद के अवरोध की . भ्रष्टाचार पर लगाम के उपायों की
करें या बढ़ती महंगाई पर रोकथाम की. कोई प्रतिबन्ध नहीं है. चिंतन शिविरों के महत्वपूर्ण
दौर में किसे एतराज होगा किसी भी विषय में आपके चितन से. सबके साथ-साथ लोग मुर्गी को
लेकर भी चितन-चर्चा कर सकते हैं. वैसे चर्चा तो प्याज और दालों की भी हो रही है
लेकिन मेरी रूचि मुर्गी चर्चा में है.
बहुतों को याद होगा कभी कड़कनाथ नाम की मुर्गियां बड़ी चर्चा में रहा
करतीं थी. अफसर-नेता जब कभी दौरे पर जाते मेजमान सब काम छोड़कर कड़कनाथ मुर्गी के
इंतजाम में जुट जाया करते थे. ये तब की बात है जब निजी क्षेत्र के होटलों का इतना
विकास नहीं हुआ था. डाकबंगलों के खानसामाओं को ही साहब के भोजन का ध्यान रखना पड़ता
था. कुछ खानसामा और चौकीदार तो मुर्गियों का एक छोटा-मोटा फ़ार्म ही मेंटेन किया
करते थे ताकि अं वक्त पर दौड़-भाग न करनी पड़े. साहब आयें तो जायकेदार मुर्गी उनकी
तश्तरी में प्रस्तुत की जा सके.
पुराने जमाने में मुर्गे का बड़ा महत्व हुआ करता था. किसी ऊंचे टीले पर
चढकर रात भर वह सूरज के निकलने की टोह लिया करता था. जैसे ही उसे आभास होता कि बस
अब उजाला होने को है, वह तुरंत जोरदार बांग लगा देता ताकि सब जाग जाएँ. जो चौकीदार
के ‘जागते रहो’ की चेतावनी के कारण जागे हुए ही होते थे वे भी नीम का दातून लिए
दिशा मैदान की ओर कूच कर जाया करते थे. चोर आदि भी अपना चौर्यकर्म निपटाकर अपने-अपने
घर चले जाया करते थे. वे भी गरीब आदमी की
तरह सुबह दाल-रोटी खाते और दिन भर के लिए चादर तान कर सो जाते ताकि अगली रात को
फिर काम पर निकला जा सके. अब यह आप पूछ सकते हैं कि चोर जैसे लोग भी दाल रोटी ही
क्यों खाते थे उन दिनों, वे चाहते तो अपने नियमित चौर्य कर्म के अंतर्गत मुर्गी का
इंतजाम तो बड़ी आसानी से कर सकते थे. सच तो यह है कि उन दिनों गरीब आदमी के भी कुछ
उसूल होते थे. पेट की खातिर वह चोरी जरूर करता था लेकिन ‘मुर्गी चोर’ कहलाने में
अपना अपमान समझता था. वैसे भी गरीब आदमी की औकात दाल बराबर ही हुआ करती थी. मुर्गी
कहाँ सबके नसीब में होती है जनाब. गरीब तो दाल-रोटी ही खाकर तृप्ति की ऊंची डकार लेकर
ऐलान कर दिया करता था कि हुजूर हमारा पेट भर गया है.
बहरहाल, मामला कुछ यों है कि बाजार में मुर्गी और दाल का भाव एक हो
गया तो ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ वाले मुहावरे को सच साबित करने की कुचेष्टा की जारही
है. नादान लोग समझ ही नहीं पा रहे कि इसमें सरकार का कोई दोष नहीं है. लाख समझाया
जा रहा है उन्हें कि खराब मौसम के कारण दालों का उत्पादन प्रभावित हुआ है इसलिए वह
महंगी हो गयी है. बियर विथ अस. मगर लोग हैं कि मानते नहीं, बस दाल का रोना लेकर
बैठ गए हैं.
कहाँ दाल और कहाँ मुर्गी? कोई तालमेल ही नहीं दिखता. अरे भाई एक किलो
की मुर्गी तो बस एक बार ही पकाई जा सकती है मगर दाल तो कई दिनों तक चलती है. घर
में ज्यादा लोग हों तो ‘दे दाल में पानी..!’ वैसे भी विशेषज्ञ कहते हैं शरीर के
लिए पानी बहुत जरूरी होता है. जितना ज्यादा पानी पीयेंगे उतना स्वस्थ रहेंगे.
तो भैया, ये दाल और मुर्गी की बेमतलब की तुलना करना छोडो. मुर्गी को मुर्गी ही रहने दो और दाल को दाल की तरह ही पकाओ-खाओ, उसे मुर्गी बनाने
से गरीब आदमी का कोई भला नहीं होने वाला. हमारा तो बस इतना ही कहना है..आगे आपकी
मरजी.
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018
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