Friday, October 29, 2021

राजनीति की दूध तलैय्या

राजनीति की दूध तलैय्या


किसी भी राजनीतिक दल को अब निखालिस नहीं कहा जा सकता। जो वर्तमान में सत्ता संभाल रहा होता है वह धीरे धीरे अपना स्वरूप बदलने लगता है। कभी कभी तो पता ही नहीं चलता कि आखिर पहले वाले दल से वह कितना अलग है। ऐसे में एक दंतकथा याद आती है।


एक गांव में दूध से भरी एक पवित्र तलैया थी। ग्रामवासी उसे ईश्वर की कृपा मानते थे। कभी वह सूखती नहीं थी। किसी दुष्ट पापी ने चुपके से उसमें स्नान कर लिया तो अगली सुबह तलैया सूख गई। फिर तो जैसे ग्रामीणों पर कहर ही बरसने लगा। सूखा पड़ा। महामारी फैली। लोग मरने लगे।


किसी संत ने कष्टों से छुटकारे का उपाय बताया। तलैया को फिर से दूध से लबालब कर दें तो दुख दूर हो सकते हैं। हर रोज हर व्यक्ति अपनी सामर्थ्य से तलैया में दूध का दान करने लगा। कुछ दिनों तक तो यह सब चला किन्तु फिर अर्पित किए जाने वाले दूध में थोड़ा थोड़ा पानी भी मिलाया जाने लगा। हर व्यक्ति सोचता कि अन्य तो दूध डाल ही रहे हैं। उसके थोड़े से पानी डालने से क्या फर्क पड़ने वाला है। अंत में जब संत ने तलैया का निरीक्षण किया तो पाया कि वहां सिर्फ दूधिया पानी ही भरा हुआ था। लगता है मिलावट प्रक्रिया की इसी तरह से कभी शुरुआत हुई होगी।


राजनीति में भी मिलावट की प्रक्रिया कुछ इसी प्रकार दिखती है। सत्ताधारी दूध में पानी मिलता रहता है। पानी ही क्या, यहां तो दही और सिरका भी प्रवेश कर जाता है। अब यदि दूध में थोड़ा सिरका चला जाए तो उसे तो फटना ही है। क्या किया जाए अब?  छैना बनाइए और रसगुल्लों का मजा लीजिए। दूसरे दलों से आए अन्य विचारधाराओं से संस्कारित नेता यही तो करते हैं। फटे दूध से बढ़िया व्यंजन बना ले जाते हैं। मिल्क केक के साथ रसगुल्लों का आनन्द भी उठाते हैं।


इसी तरह  एक चम्मच जावन की कुनकुने दूध में मिलावट से दही जमता है। दूध से सीधे आप घी नहीं निकाल सकते। दूध का रूपांतरण करके दही जमाना पड़ता है।  दही को मथने से मक्खन निकलता है। मक्खन से अन्ततः घी मिलता है। राजनीति का घी। आजकल इस मिलावट का बड़ा महत्व है। घी की आकांक्षा में हर कोई दूध की तलैया में मिल जाना चाहता है।


निसंदेह यह मिलन परमात्मा और आत्मा की तरह आध्यात्मिक या मोक्ष की अभिलाषा में नहीं होता है। यह सुमन और सुगंध की तरह निस्वार्थ और प्राकृतिक भी नहीं होता। इस मिलन में सांसारिक महत्वाकांक्षाओं व लिप्सा की गंध समूचे वातावरण में महसूस की जा सकती है।


ऐसी ही मिलावट की प्रक्रिया चलती रही तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए कि लोकतंत्र की तलैया में हमे एक दिन निखालिस दूध की जगह सिर्फ मटमैला सा पानी ही दिखाई दे।


ब्रजेश कानूनगो

Sunday, October 24, 2021

रिवर्स में जाता समय

रिवर्स में जाता समय


पिछले कई दिनों से मैं साधुरामजी का इंतजार कर रहा था। देश प्रदेश में इतना सब घट जाने के बाद भी उनका आगमन नहीं हुआ था। किसानों का धरना प्रदर्शन लम्बे समय से जारी था। फिल्मी सितारों के परिवार और उनके बच्चे संकट में घिरे हुए थे। कोरोना काल की कई करुण कहानियां सामने आ रहीं थीं। उधर महामारी के योद्धाओं का सम्मान भी होने लगा था। सौ करोड़ डोज के टीकाकरण का जश्न भी मन गया था।


यूपी,पंजाब,राजस्थान,छत्तीसगढ़ में राजनीतिक सुनामी और तूफानों का दौर अभी थमा नहीं था। महंगाई डायन फिर जोश खरोश से महामंच पर तांडव कर रही थी। लोग मुग्ध होकर तालियां पीट रहे थे। किसी को कोई परेशानी नहीं थी।  सब कुशल मंगल था। कुछ ही मूर्ख लोग चिंतित थे। एक तरह से दुखी रहना उनका स्थायी मानसिक रोग होता है।


ऐसे में मुझे साधुरामजी की चिंता सता रही थी। मेरा अपना भी थोड़ा सा स्वार्थ था इसमें। रोज का वैचारिक विमर्श नहीं हो पाने से मैं बेचैन रहने लगा था। मुझे आशंका हुई कि कहीं उन्हें डेंगू, चिकनगुनिया वगैरा ने तो नहीं घेर लिया है। इसी चिंता के चलते मैं उनके घर पहुंचा। यह देखकर राहत महसूस हुई कि वह स्वस्थ थे और अपनी साइकिल के पहिए में तेल डाल रहे थे। 


क्या बात है साधुराम जी बहुत दिनों से दिखाई नहीं दिए। आपके नहीं आने से मन बेचैन हो रहा था। मुझे तो लग रहा था कि आप के विरह में मैं कहीं अवसाद का शिकार न हो जाऊं। मैंने कहा।

आप क्यों डिप्रेशन में आते हैं, मैं स्वयं ही बहुत निराशा से गुजर रहा हूँ। इतनी बहस करते हैं, विचार करते हैं लेकिन इस देश का कुछ होने वाला नहीं है। ऐसा लगता है कि हम फिर से पाषाणयुग में लौट रहे हैं। साधुरामजी बड़ी उदास आवाज में बोले। 

ऐसा क्यों सोचते हैं आप?  मैंने पूछा। 

देश के हालात देखिए क्या यह किसी कबीलाई संस्कृति से अलग नजर आता है? अपने ही राष्ट्र में छोटे-छोटे समूहों में बंट जाते हैं लोग। बोली, जाति, धर्म, अपने अपने स्वार्थ और विश्वास उन्हें जोड़ते नहीं बल्कि प्रतिस्पर्धी बना देते हैं,शत्रुता की हद तक। लोग मनुष्य जाति की सामूहिकता  और एकरसता की अवधारणा अब वर्तमान समय में महत्व खो रही है। साधुरामजी की निराशा उनके शब्दों में और चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी। मैं समझ गया देश प्रदेश के पिछले घटनाक्रमों से वे आहत थे। 


इतने बड़े और विविधता पूर्ण गणतंत्र में यह छोटा मोटा तो होता रहता है आप क्यों निराश होते हैं। मैंने कहा। 

मुश्किल यही तो है कि विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र में ऐसा हो रहा है। यही सब देखना था तो हम गणतंत्र क्यों बने, वही जनपदीय और साम्राज्यवादी व्यवस्था क्या बुरी थी। इसीलिए मेरा मानना है कि विकास का भले ही आर्केस्ट्रा बजाया जा रहा हो, वैचारिक और मानसिक धरातल पर हम अभी भी बीहड़ वन में नगाड़ा पीट रहे हैं। पीछे लौट रहे हैं। साधुरामजी बोले। 


ठीक ही कहा आपने साधुरामजी हम पीछे तो लौट रहे हैं। महंगाई इतनी बढ़ गई है कि साइकिलें निकल आई हैं। गांव में फिर मिट्टी के चूल्हों में लकड़ियां जलाकर खाना पकाया जाने लगा है। विरोध स्वरूप विपक्ष के सांसद विधायक  गैस सिलेंडरों को अपने कंधों, माथों पर उठा कर नारे लगाने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। साइकिलों, बैलगाड़ियों से संसद,विधानसभा की यात्रा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। परिणाम कुछ निकलता नहीं। ये जो आज कुर्सी पर हैं विपक्ष में रहते हुए ये भी यही करते थे। अब बेचारी जनता क्या करे? आप ही बताइए? इसे पीछे लौटना ही तो कहा जाएगा। मैंने चुटकी ली।


आपकी सब बातें ठीक हैं मगर साइकिल के प्रयोग को तो बढ़ाना ही चाहिए। महंगे तेल की बर्बादी को रोका जाना चाहिए। मैं तो कहता हूं कि इस क्षेत्र में पीछे जाना भी देश के लिए बेहतर होगा। साधुरामजी ने कहा। 

लेकिन साधुराम जब हम विकास की बात करते हैं तब आधुनिक परिवहन साधन भी तो विकास  का हिस्सा होते हैं। मैंने कहा। 

मैं कब कह रहा हूं कि आधुनिक परिवहन व्यवस्था का इंतजाम ना किया जाए। लोक परिवहन की व्यवस्था करें सरकार। इसके लिए जरूरी नहीं कि हर व्यक्ति के पास अपनी कार हो हर बेजरूरत व्यक्ति को कार खरीदने को प्रोत्साहित नहीं किया जाए। कंपनियां तो हर व्यक्ति को अपनी कार का सपना दिखाते हुए  मार्केटिंग में लगी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इस दुष्चक्र को समझा जाना चाहिए। 


भैया ठीक समझे आप!  यही उदारीकरण और वैश्वीकरण के दुष्परिणाम हैं। सरकार को चाहिए कि अब वह निजी कारों पर, बे जरूरत कार, अर्थव्यवस्था पर भार , जैसी वैधानिक चेतावनी लिखवाने का नियम लाए। आर्थिक विशेषज्ञ व सरकार स्वयं कहती है कि महंगाई पूरे विश्व में बढ़ रही है। हम अब केवल अपने देश को लेकर ही नहीं चल सकते। दुनिया की अर्थव्यवस्था से तालमेल बैठाना पड़ता है। चाहे तेल की कीमतें हो या खाद्यान्न की। सब कुछ ग्लोबल नीतियों के अनुसार चलेगा। ब्रिटिश काल में एक ही कंपनी आई थी अब दुनियाभर की कम्पनियों को इंडिया में आकर काम करने को आमंत्रित किया जा रहा है। इस तरह भी तो हम फिर पीछे लौट रहे हैं। साधुरामजी बोले। 


अब देखिये ना इन दिनों टीवी पर वे ही धारावाहिक व वेब सीरीज अधिक लोकप्रिय हो रहे हैं जिनमें पुरानी परिवार परंपराओं, रहस्य रोमांच,भूत-प्रेत, जादू-टोना टोटकों जैसे बीते समय के विषय प्रमुखता से दिखाए जा रहे हैं। सनसनी और अंधविश्वासों से भरी खबरों को बड़े चाव से देश के लोग देख रहे। मैंने उन्ही की बात को आगे बढ़ाते हुए उत्साह में कहा। 


यही सब होता है ऐसे प्रतिगामी समय में। जब विडंबनाओं और नीतियों के विरोध में कुछ नहीं किया जा सकता। सब कुछ ठीक किया जाना स्वप्न जैसा लगता है। राजनीतिक स्वार्थों के कारण सरकार और विपक्ष में अंतर नहीं रह जाता तब निराश नागरिक फेंटेसी का सहारा लेते हैं। अनहोनी में विश्वास करने लगते हैं। समय इसी तरह लौटता है। हम लौटते हैं इतिहास में। इतना कहकर साधुरामजी ने साइकिल उठाई और  गुटखा खरीदने लाल लँगोटी पान भंडार की ओर निकल पड़े।


ब्रजेश कानूनगो

Saturday, October 23, 2021

सूने मकान में विमर्श का उजाला

 व्यंग्यकथा

सूने मकान में विमर्श का उजाला


मोहल्ले के सूने मकान में बरसों बाद मैंने रोशनी देखी तो थोड़ी जिज्ञासा हुई। पन्द्रह बीस बरस पहले मेरे मित्र जीवनबाबू वहां रहा करते थे। देश-विदेश, समाज संस्कृति और व्यवस्था की विसंगतियों को लेकर अक्सर हम चर्चा करते थे। कभी सहमत होते तो कभी असहमत लेकिन हमारी दोस्ती में कभी कोई दूरी नहीं आई।

प्रतिभा पलायन की पिछली बाढ़ में जब उनका बेटा बह गया तो मजबूरन जीवनबाबू को भी अमेरिका जाना पड़ा। 

क्या बात है जीवनबाबू अमेरिका रास नहीं आया?  लौट आए। मैंने बातचीत को आगे बढ़ाने की गरज से पूछ लिया। सोचा तो था बेटे के पास रहकर पश्चिम को जानूंगा समझूंगा, अकेलापन भी दूर होगा और बच्चों को भी परदेस में मेरा सम्बल रहेगा। लेकिन यह मेरा भ्रम ही था यहां अपने देश और अपने लोगों की बात ही कुछ और है, मैं लौट आया। वे बोले। 


मैंने उनके पहले वाली चमक में आई कमी का राज जान लिया था।  जीवनबाबू आप अपने देश और शहर में भले ही लौट आए हैं लेकिन आप के आने के पहले ही पश्चिम यहां आ चुका है। पिछले सालों से वही सब यहां भी है जो वहां होता है। मैंने कहा।

तुम भौतिक और आर्थिक पक्ष की बात कर रहे हो मित्र, मैं मानवीय और भावनात्मक संदर्भों में अपनी बात कह रहा हूँ कि हमारे यहां अभी भी मूल्यों का महत्व बचा हुआ है। वे बोले। 

जीवनबाबू आप आज ही लौटे हैं, वहां के मीडिया में भारत की खबरें यदा-कदा ही देखने को मिलती होगी। अब जब आप यहां के अखबार पढ़ेंगे, टीवी देखेंगे,शहर में निकलेंगें,लोगों से मिलेंगे तब आपको सही स्थिति का पता चलेगा। मैंने कहा। 

हां, मैंने अखबार वाले को बोल दिया है काफी नए अखबार आ गए हैं अब तो। बड़ा बदलाव आया है अपने शहर में भी। अच्छा लगता है देखकर। रास्ते में देख रहा था बड़े सुंदर चौराहे बने हैं। सड़कें भी चौड़ी हो गई हैं। वे बोले। 

हाँ इसी रास्ते और चौराहों से गुजर कर ही तो आ रहा है पश्चिम।  प्लास्टिक के पेड़ लगे हैं। शॉपिंग मॉल बने हैं। मल्टीप्लेक्स सिनेमा शुरू हुए हैं। हुक्का क्लब खुले हैं। मदहोश नशेड़ी हैं। तेज रफ्तार गाड़ियां है।  सब कुछ स्मार्ट हो रहा है। आदमी भी और परिवेश भी। मैंने उनकी जानकारी में वृद्धि करते हुए कहा। 

तुम नहीं बदले अभी तक, अपने मतलब से बात को घुमा देते हो। मैं भौतिक बदलाव की बात नहीं कर रहा। मानसिक परिवर्तन की बात कर रहा हूँ। विकास देख कर मन को शांति मिलती है। जीवनबाबू बोले। 

मैं भी वही बात कर रहा हूँ इस विकास के बाद  बहुत परिवर्तन आया है। छोटे दुकानदार, ठेला गाड़ी चलाकर अपनी रोजी-रोटी कमाने वालों और गरीबों की आमदनी में कमी आई है। दिन भर पसीना बहा कर दो पैसे कमाने वालों की बजाय लोग शॉपिंग मॉल से सामान खरीद लाते हैं। ऑनलाइन बाजार सजे हैं, जहां से सीधे किराना और कफ़न का सामान बटन दबाते  खरीदा जा सकता है। मैं थोड़ा उत्तेजित हो गया। 

जीवनबाबू ने पानी का गिलास मेरी और बढ़ा दिया, बोले, अरे बैठो तो सही। इत्मिनान से बात करेंगे। यह बताओ और क्या समाचार है इधर के?  समाचार क्या है जीवनबाबू, जिन मूल्यों की आप बात करते हैं उन पर भरोसा नहीं रहा अब। पतन ऐसा हुआ है कि बेटा अपने ही बाप को चाकू से गोद सकता है।  गुंडे पुलिस थानों का घेराव कर लेते हैं। अपराध कम करने की बजाए अपराधी के एनकाउंटर की मांग उठने लगी है। कल तक जो पूज्य और आदरणीय थे, बिना विचार उन्हें जूतों की माला पहनाने और मुंह काला कर देने में कोई हिचक नहीं। चौराहे पर स्कूल बस में आग लगा दी जाती है। कानून अपने हाथ में लेकर जनतंत्र धीरे धीरे भीड़तंत्र में बदलने लगा है।  जिसकी लाठी उसकी भैंस कहावत नहीं सच्चाई है। हम लोग तो बस किसी अवतार या सच्चे नेता की प्रतीक्षा ही करते रहते हैं। सब कुछ भगवान भरोसे ही चल रहा है। मैंने सोफे में धंसते हुए कहा। 

हां सुना है मैंने, यहां के नेताओं ने तो उत्सव मनाने ,बड़े-बड़े होर्डिंग लगवाने और अपना जयकारा लगवाने को ही अपना मुख्य काम समझ रखा है। जीवनबाबू ने अपनी आंखों में तनिक गुस्सा और मुंह से कटाक्ष की चिंगारी बरसाई तो मैंने भी थोड़ा सा घी उंड़ेला, बोला, अब नेतागण बेचारे अपने क्षेत्रों में कब तक घूम घूम कर नागरिकों से मिलेंगे,जुलेंगे?  अपने कीमती समय को किफायत से खर्च करते हैं। चौराहों पर तस्वीर टांग कर ज्यादा से ज्यादा लोगों की नजरों में बने रहना भी क्या बड़ी बात नहीं? 

और नहीं तो क्या!  भगवान भी तो कैलेंडर और चित्रों के जरिए इसी तरह भक्तों के दिलों में उतरते हैं। अबकी बार जीवनबाबू की चुटकी से अचंभित था। प्रायः वे नेताओं का मजाक नहीं बनाते थे।

क्या बात कही जीवनबाबू आपने! मैंने उनके हाथ पर हाथ मारते हुए कहा। चलिए! अब आप आ ही गए हैं। मैं भी वैचारिक बहस के लिए तरस गया था।  मित्र तो बहुत हैं लेकिन खुलकर कोई बात नहीं करता।  सबको खुद के और देश के विकास की इतनी हड़बड़ी है कि विचार कोई नहीं करना चाहता। सभी जगह हड़कंप मचा हुआ है। मोबाइल घनघना रहे हैं।  लेकिन दिल की बात कोई नहीं कहता सुनता। मैंने अपनी निराशा व्यक्त की और घर लौट आया। 

मुझे मालूम था जीवनबाबू  रात भर सो नहीं पाए होंगे। मुझे खुशी है कि वे लौट आए हैं। ऐसे लोगों की हमें अभी बहुत जरूरत है विडंबनाओं, मूर्खताओं और विसंगतियों को देखकर जिनकी नींद उड़ जाती हो। 

ब्रजेश कानूनगो

थके घोड़े से बेहतर है कर्मठ खच्चर

थके घोड़े से बेहतर है कर्मठ खच्चर

हमारे यहां प्रायः यह देखा गया है कि थके नेता से अभिनेता का काम करवाया जाता है और ढलते अभिनेता को राजनीति के बक्खर में जोत कर वोटों की फसल उगाई जाती है। ऐसी समझदारी का काम हर क्षेत्र में होता रहता है। थके, निठल्ले और ठंडे लोगों का काम उतावलों के माथे मढ़ देना नई बात नही है। 

जब कोई अपना काम ठीक से नहीं कर पाए तो उसका काम दूसरों को सौंप दिया जाना चाहिए जो उसे कुशलता पूर्वक कर सके। अड़ियल और शक्तिहीन हो गए घोड़े से काम लिए जाने और उसे घी-मेवा खिलाते रहने से कोई फ़ायदा नहीं। समय पर अपना काम किसी तरह निकलवा लेना ही समझदारी है। 

बहुपरीक्षित कहावत है, जो खच्चर बिना ना नाकुर किये बोझा ढोता है उसी पर अधिक  सामान लाद दिया जाता है। बरसों से यह नुस्खा आजमाया जाता रहा है।  सरकारी रोडवेज का घोड़ा थकने लगा तो यह काम सेठों, साहूकारों और बिल्डरों की कम्पनियों के घोड़ों को सौंपना पड़ा। और देखिये क्या चका-चक बसें दौड़ रहीं हैं। विकास की रेल घोड़ियाँ भी शायद ऐसे ही सरपट कुलांछें भरेंगी। 

अस्पतालों, कॉलेजों में कुप्रबंधन का वायरस आया तो स्वस्थ नेताओं और उनके समाज सेवी परिजनों को जिम्मेदारी का हस्तांतरण करना जरूरी माना गया। न सिर्फ इससे शिक्षा का स्तर ऊपर उठा बल्कि छात्रों के लिए सीटों की अनुपलब्धता की समस्या ही समाप्त हो गई। यही परंपरा रही है। सरकारी विभाग जब योजनाओं के कार्यान्वयन में गच्चा देने लगे तो कर्मठ बैंकों को राष्ट्रीकरण की खुराख देकर उनके ऊपर योजनाओं की पोटली धर दी गयी। सरकारी बैंक जब बोझ से लदे ढीले पड़ने लगे तो फिर से उद्योगपतियों और कॉर्पोरेट्स को नए निजी अस्तबल खोलने के लिए लायसेंस बांटने की पहल की जाने लगी। 

हमारे यहाँ कभी गुरुजन ही कर्मठ माने जाते थे। उन सम्मानितों पर समाज और सरकार को पूरा भरोसा हुआ करता था। संकट की घड़ी में इन्होने देश की काफी मदद की है। बच्चों को ज्ञान बांटने के अलावा मलेरिया की गोलियां और कंडोम तक  बांटने का काम तल्लीनता से किया है।  जानवर से लेकर आदमी, कुओं से लेकर बोरिंग और ताड़-पत्रों से लेकर मत-पत्रों तक की गणना के कार्य को सफलता पूर्वक निष्पादित किया है निरीह मास्टरों ने।

यह भी हुआ कि  मास्टरजी के बाद पोस्टमास्टर जी को इस भरोसे के काबिल समझा गया। डाकघर अब बैंकों का काम करते हुए आपका खाता खोलते हैं, बुजुर्गों को पेंशन बांटते हैं, टेलीफोन और बिजली का बिल जमा करते हैं। क्या कुछ नहीं करते।  चिट्ठी-पत्री भले ही समय पर गन्तव्य तक पहुंचे ना पहुंच पाए, डाक सामग्री उपलब्ध हो न हो, लेकिन इस बात का पूरा विश्वास है कि ये अब भी गंगाजल पूरी तत्परता से धर्मप्राण जनता तक पहुंचा रहे होंगे।

पिछला अनुभव तो यह भी रहा है कि जब  कार्यपालिका ढीली पड़ती है तो विधायिका कमर कसती है। जब विधायिका कमजोर पड़ती है तो बहुत सा काम न्यायपालिका के कन्धों पर आन पड़ता है। इसमें कोई अचरज की बात भी नहीं है। घर परिवार में भी यही होता है। जो काम करता है, उसे ही नया काम मिलता है। बोझ तो उन्हीं कंधों पर पड़ता है जो निष्काम भाव से काम में जुटे रहते हैं। जो बैल रस्सी तोड़कर इधर उधर भागते रहते हैं , उन्हें गाड़ी में नहीं जोता जाता।

 ब्रजेश कानूनगो

Thursday, October 14, 2021

ट्वेंटी फोर सेवन' की बहार में माणकचंद

ट्वेंटी फोर सेवन' की बहार में माणकचंद


ट्वेंटी फोर सेवन। जबसे डिजिटल हुए हैं हर तरफ 'ट्वेंटी फोर सेवन' का जलवा छाया है। इसकी छाया उन लोगों के भीतर एक तरह निराशा का अंधेरा भर रही है जो दफ्तरों में निठल्ले बैठे कमला बाई की चाय की चुस्कियां भरते, उसी की पसंद का गुटखा चबाते मुंह में थूक भरकर नगर निगम के सूखे नल के चलते ही फुंकारते जल जैसी खरखराती आवाज में कहते हैं, सब बकवास है। दिखावा है 'ट्वेंटी फोर सेवन' का जुमला।

शुरुआत में सब बकवास ही लगता है। दफ्तरों में जब छह दिन काम होता था तब भी और फिर कामकाजी सप्ताह को पांच दिन का बना दिया गया तब भी।  माणकचंद बोले थे, कामकाजी सप्ताह तो बस रबर का एक धागा है। चाहे तो खींच कर छह दिन लम्बा कर लो या राहत की ढील देकर पांच दिनों का बना लो। रबर का वजन या मात्रा तो उतनी ही रहेगी,जितनी वह है।

जहां तक माणकचंद जैसे कमला प्रेमी लोगों की बात है,उनको तो कोई फर्क नहीं पड़ता रहा। सप्ताह के पहले दिन काम में कुछ मन नहीं लगता। काम का टेंपो ही नहीं बन पाता। दूसरे तीसरे दिन कुछ काम होता है तो चौथे दिन मीटिंग आंकड़ों की सरकारी मांग। प्रधान कार्यालय भेजे जाने विवरणों की तैयारी करते करते अगला दिन भी बीत जाता है। फिर अंतिम दिन छुट्टी पर जाने की मानसिकता और मूड के कारण कि एक दिन में कितना काम हो सकेगा। अगले सप्ताह देखेंगे। घड़ी का घंटा भले ही बजता रहे उनके कामकाज की रफ्तार घड़ी कुछ अलग ही गति से चलती रहती है।

काम मे गति आए यही सोचकर नीति बनी थी। पांच दिन काम करेंगे मुलाजिम और दो दिन अपने को तरोताजा बनाके लौटेंगे। अधिक गति से काम निपटाएंगे।

छुट्टियों का भी अपना अलग असर होता है। जैसे सीएम ,पीएम का होता है। वे ही तय करते हैं नीति। कोई और करता है तो वह भी उन्ही का जलवा माना जाता है। नीति ने सप्ताह के रबर की लंबाई को  छह से पांच इकाई किया। लेकिन रबर की मात्रा तो सात किलो ग्राम ही थी, जिसे कम ज्यादा करने की कोई गुंजाइश किसी सचिव के पास नही हो सकती। यह तो वही कर सकता है जिसने दिन रात बनाए। हमने तो कायदे से कायदे भी नहीं बनाए। कभी काम जल्दी निपटाने के इरादे से छुटियाँ कम कीं तो कभी कुर्सी के मोह व ईवीएम के बटन ने हमें छुट्टियां बढाने को विवश कर दिया।

विवशता क्या क्या नहीं करवा लेती हमसे। जमाने के साथ दौड़ लगाना हमारी विवशता है। दुनिया दौड़ रही है। माणकचंदों को भी दौड़ लगानी होगी। ट्वेंटी फोर सेवन। नहीं भी लगाएं तो जताना होगा कि वे सरपट दौड़ रहे हैं।

वे होशियार हैं। दूसरा विकल्प ही अधिक पसंद करेंगे। काम करने से खुद को बचा लेने के रास्ते खोजते रहते हैं। जानते हैं मेहनत से बचने के लिए थोड़ी मेहनत तो करना ही पड़ती है। कर लेंगे, वे सक्षम हैं।
देखिएगा,जो काम पांच व छह दिन के सप्ताह में नहीं करते थे,वह ट्वेंटी फोर  सेवन के दौर में भी नही करने वाले। ऐसे ही हैं माणकचंद।

ब्रजेश कानूनगो

और वे घोड़े बेचकर सो गए

 और वे घोड़े बेचकर सो गए

ब्रजेश कानूनगो

उनकी परेशानी यह थी कि वे जितना दिमाग खपा रहे थे उतना ही मामला उलझता जा रहा था। उन्होंने सोचा भी नहीं था कि वे इस तरह परेशान हो जाएंगे। पिछले शनिवार को क्लास लेते समय एक छात्रा के प्रश्न पर वे बड़े विचलित हो उठे थे। स्वयं अपने उत्तर से संतुष्ट नहीं थे। उल्टे झुंझलाहट  और खीज से भर उठे थे।  छात्रा ने उनसे प्रश्न किया था 'सर यह नौ मन तेल होगा राधा नाचेगी' का क्या मतलब हो सकता है?'

नौ मन तेल और राधा को लेकर अनुमानों के समुद्र में उनके तर्कों और विश्लेषण की नाव लगातार हिचकोले खा रही थी। भला वह कौन सी राधा थी जिसे नाचने से पहले नौ मन तेल की आवश्यकता पड़ती थी। कृष्ण की राधा तो वह हो नहीं सकती। उन्हें अगर आवश्यकता होती तो कृष्ण उन्हें जितना चाहे उतना घी अथवा मक्खन भिजवा देते। मान लिया जाए कि वह कोई और राधा थी जिसे नाचने से पहले तेल की आवश्यकता महसूस होती थी। तब विचारणीय है कि वह उस तेल का करती क्या होगीक्या वह तेल पीकर नाचती थी, या तेल बिखेर कर तत्कालीन कोई डिस्को अथवा ब्रेक डांस जैसा नृत्य किया करती थी। ज्यादा पहले की बात रही हो तो यह भी हो सकता है कि तब तेल को जमीन पर फैलाकर तांडव नृत्य का अभ्यास किया जाता हो। तेल की मात्रा का सवाल है तो वह पूरे नौ मन रहा है। वह दस मन क्यों नहीं रहाभारतीय परंपरा में शून्य को इस तरह के मामलों में अशुभ माना जाता है तो वह ग्यारह मन क्यों नहीं था? राधा को नौ नंबर से ही इतना मोह क्यों रहाकहीं उस समय तेल की टंकियों की धारण क्षमता ही नौ मन तो नहीं हुआ करती थी। या फिर दस मन की टंकी से एक मन व्यवस्था में बट जाता था ताकि राधा निर्बाध नृत्य कर सके। एक मन तेल का बटना क्या तत्कालीन भ्रष्टाचार की प्राथमिक स्थितियां हुआ करती थीं?

वह लगातार सोचे जा रहे थे उनका अनुमान था कहावत के पीछे की कथा अवश्य ही उस देश काल से संबंधित रही होगी, जब दो चम्मच तेल के इंतजाम के लिए किसी राधा को हाथ पैर नहीं नचाना पढ़ते थे, बल्कि नौ मन तेल के अभाव में नृत्य करने से इंकार कर दिया करती थी।

वे अपने चिंतन से तनिक ऊब गए तो विद्यालय के ग्रंथालय से लाई पसंदीदा पत्रिका के पन्ने पलटने लगे। उन्हें लग रहा था पत्रिका में कोई वैचारिक सामग्री होगी। किन्तु वहां किसी युवा अभिनेत्री का इंटरव्यू छपा था। वह पिछले बरस आत्महत्या करने वाले अभिनेता के साथ अपने आत्मीय रिश्तों की कहानियाँ बता रही थी। चिकने पन्नों पर खूबसूरत चित्र उनकी विचार प्रक्रिया में बाधा डालने लगे तो उन्होंने पत्रिका झोले में वापिस रख ली। निराशा में सिर झटका।  वैचारिक गम्भीर पत्रिका से शायद उनका भरोसा ही उठ गया था। मुहावरे की भाषा में पत्रिका की भैंस ने पाड़ा जन दिया था।

भरोसे भाई की कभी कोई भैंस रही होगी। जिस पर किसी ने भरोसा किया होगा, और हो सकता है उसके भरोसे पर किसी ने भरोसा करके भैंस के पेटे कर्ज उपलब्ध करा दिया हो। वक्त आने पर भैंस ने कन्या के बदले पुत्र रत्न को जन्म देकर कर्जा लेने और देने वाले के बीच कटुता  स्थापित कर दी हो। पूछा गया हो, आखिर हुआ क्या? तब किसी के मुंह से बरबस फूट पड़ा होगा 'भरोसे की भैंस ने पाड़ा जन दिया' है। बन गई कहावत।

मन ही मन सोचने लगे क्या आज का भविष्य कल का वर्तमान नहीं होगाऐसा वर्तमान जिसमें लोग आज बने मुहावरों में अटके होंगे। जैसे वे 'राधा और उसके तेल नृत्य' में फसें हैं।
'
गुस्से में नेता कानून फाड़ता है, मरीज बीमारी से नहीं ऑक्सीजन से मरता है , तू क्यों कोबरा हुआ जाता है, इतिहास का गुनहगार इतिहास, बादलों का सुरक्षा कवर, खेला का रेला, दहकते भाषण की छांव में लोकतंत्र।' ऐसे ही कई और जुमले कल के मुहावरे बनकर भविष्य के छात्रों का दिमाग खराब करेंगे।
कहावत या मुहावरे के पीछे कोई कथा जरूर होती है जो धीरे धीरे समय की गर्द में धूमिल होकर भुला दी जाती है। रह जाती है सिर्फ छात्रों और मास्टरों की सिर फुटव्वल।

लकड़ी की बेंच में जाने ऐसी क्या बात थी उस पर बैठकर उनका दिमाग लगातार नए-नए विश्लेषण देर तक करता रहा।  अपने चिंतन से वे थोड़ा संतुष्ट भी हुए, खुश भी। मुहावरों से भाषा और साहित्य इसी तरह समृद्ध होता रहा है।

रात घिर आई तो टाउनहाल की बैंच से उठकर घर का रुख किया और घोड़े बेचकर सो गए। उसी तरह जैसे पन्द्रहवीं सदी में अरब से आया एक सौदागर  बादशाह को बीस घोड़े बेचकर निश्चिंत होकर शाही बाग में चैन से सो गया था। मन, मस्तिष्क को राहत मिल जाए तो गहरी नींद आती है। जागने पर तो फिर नए सवाल और चिंताओं के घोड़े फिर हिनहिनाने लगते हैं।

ब्रजेश कानूनगो