Friday, October 29, 2021

राजनीति की दूध तलैय्या

राजनीति की दूध तलैय्या


किसी भी राजनीतिक दल को अब निखालिस नहीं कहा जा सकता। जो वर्तमान में सत्ता संभाल रहा होता है वह धीरे धीरे अपना स्वरूप बदलने लगता है। कभी कभी तो पता ही नहीं चलता कि आखिर पहले वाले दल से वह कितना अलग है। ऐसे में एक दंतकथा याद आती है।


एक गांव में दूध से भरी एक पवित्र तलैया थी। ग्रामवासी उसे ईश्वर की कृपा मानते थे। कभी वह सूखती नहीं थी। किसी दुष्ट पापी ने चुपके से उसमें स्नान कर लिया तो अगली सुबह तलैया सूख गई। फिर तो जैसे ग्रामीणों पर कहर ही बरसने लगा। सूखा पड़ा। महामारी फैली। लोग मरने लगे।


किसी संत ने कष्टों से छुटकारे का उपाय बताया। तलैया को फिर से दूध से लबालब कर दें तो दुख दूर हो सकते हैं। हर रोज हर व्यक्ति अपनी सामर्थ्य से तलैया में दूध का दान करने लगा। कुछ दिनों तक तो यह सब चला किन्तु फिर अर्पित किए जाने वाले दूध में थोड़ा थोड़ा पानी भी मिलाया जाने लगा। हर व्यक्ति सोचता कि अन्य तो दूध डाल ही रहे हैं। उसके थोड़े से पानी डालने से क्या फर्क पड़ने वाला है। अंत में जब संत ने तलैया का निरीक्षण किया तो पाया कि वहां सिर्फ दूधिया पानी ही भरा हुआ था। लगता है मिलावट प्रक्रिया की इसी तरह से कभी शुरुआत हुई होगी।


राजनीति में भी मिलावट की प्रक्रिया कुछ इसी प्रकार दिखती है। सत्ताधारी दूध में पानी मिलता रहता है। पानी ही क्या, यहां तो दही और सिरका भी प्रवेश कर जाता है। अब यदि दूध में थोड़ा सिरका चला जाए तो उसे तो फटना ही है। क्या किया जाए अब?  छैना बनाइए और रसगुल्लों का मजा लीजिए। दूसरे दलों से आए अन्य विचारधाराओं से संस्कारित नेता यही तो करते हैं। फटे दूध से बढ़िया व्यंजन बना ले जाते हैं। मिल्क केक के साथ रसगुल्लों का आनन्द भी उठाते हैं।


इसी तरह  एक चम्मच जावन की कुनकुने दूध में मिलावट से दही जमता है। दूध से सीधे आप घी नहीं निकाल सकते। दूध का रूपांतरण करके दही जमाना पड़ता है।  दही को मथने से मक्खन निकलता है। मक्खन से अन्ततः घी मिलता है। राजनीति का घी। आजकल इस मिलावट का बड़ा महत्व है। घी की आकांक्षा में हर कोई दूध की तलैया में मिल जाना चाहता है।


निसंदेह यह मिलन परमात्मा और आत्मा की तरह आध्यात्मिक या मोक्ष की अभिलाषा में नहीं होता है। यह सुमन और सुगंध की तरह निस्वार्थ और प्राकृतिक भी नहीं होता। इस मिलन में सांसारिक महत्वाकांक्षाओं व लिप्सा की गंध समूचे वातावरण में महसूस की जा सकती है।


ऐसी ही मिलावट की प्रक्रिया चलती रही तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए कि लोकतंत्र की तलैया में हमे एक दिन निखालिस दूध की जगह सिर्फ मटमैला सा पानी ही दिखाई दे।


ब्रजेश कानूनगो

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