Saturday, October 23, 2021

सूने मकान में विमर्श का उजाला

 व्यंग्यकथा

सूने मकान में विमर्श का उजाला


मोहल्ले के सूने मकान में बरसों बाद मैंने रोशनी देखी तो थोड़ी जिज्ञासा हुई। पन्द्रह बीस बरस पहले मेरे मित्र जीवनबाबू वहां रहा करते थे। देश-विदेश, समाज संस्कृति और व्यवस्था की विसंगतियों को लेकर अक्सर हम चर्चा करते थे। कभी सहमत होते तो कभी असहमत लेकिन हमारी दोस्ती में कभी कोई दूरी नहीं आई।

प्रतिभा पलायन की पिछली बाढ़ में जब उनका बेटा बह गया तो मजबूरन जीवनबाबू को भी अमेरिका जाना पड़ा। 

क्या बात है जीवनबाबू अमेरिका रास नहीं आया?  लौट आए। मैंने बातचीत को आगे बढ़ाने की गरज से पूछ लिया। सोचा तो था बेटे के पास रहकर पश्चिम को जानूंगा समझूंगा, अकेलापन भी दूर होगा और बच्चों को भी परदेस में मेरा सम्बल रहेगा। लेकिन यह मेरा भ्रम ही था यहां अपने देश और अपने लोगों की बात ही कुछ और है, मैं लौट आया। वे बोले। 


मैंने उनके पहले वाली चमक में आई कमी का राज जान लिया था।  जीवनबाबू आप अपने देश और शहर में भले ही लौट आए हैं लेकिन आप के आने के पहले ही पश्चिम यहां आ चुका है। पिछले सालों से वही सब यहां भी है जो वहां होता है। मैंने कहा।

तुम भौतिक और आर्थिक पक्ष की बात कर रहे हो मित्र, मैं मानवीय और भावनात्मक संदर्भों में अपनी बात कह रहा हूँ कि हमारे यहां अभी भी मूल्यों का महत्व बचा हुआ है। वे बोले। 

जीवनबाबू आप आज ही लौटे हैं, वहां के मीडिया में भारत की खबरें यदा-कदा ही देखने को मिलती होगी। अब जब आप यहां के अखबार पढ़ेंगे, टीवी देखेंगे,शहर में निकलेंगें,लोगों से मिलेंगे तब आपको सही स्थिति का पता चलेगा। मैंने कहा। 

हां, मैंने अखबार वाले को बोल दिया है काफी नए अखबार आ गए हैं अब तो। बड़ा बदलाव आया है अपने शहर में भी। अच्छा लगता है देखकर। रास्ते में देख रहा था बड़े सुंदर चौराहे बने हैं। सड़कें भी चौड़ी हो गई हैं। वे बोले। 

हाँ इसी रास्ते और चौराहों से गुजर कर ही तो आ रहा है पश्चिम।  प्लास्टिक के पेड़ लगे हैं। शॉपिंग मॉल बने हैं। मल्टीप्लेक्स सिनेमा शुरू हुए हैं। हुक्का क्लब खुले हैं। मदहोश नशेड़ी हैं। तेज रफ्तार गाड़ियां है।  सब कुछ स्मार्ट हो रहा है। आदमी भी और परिवेश भी। मैंने उनकी जानकारी में वृद्धि करते हुए कहा। 

तुम नहीं बदले अभी तक, अपने मतलब से बात को घुमा देते हो। मैं भौतिक बदलाव की बात नहीं कर रहा। मानसिक परिवर्तन की बात कर रहा हूँ। विकास देख कर मन को शांति मिलती है। जीवनबाबू बोले। 

मैं भी वही बात कर रहा हूँ इस विकास के बाद  बहुत परिवर्तन आया है। छोटे दुकानदार, ठेला गाड़ी चलाकर अपनी रोजी-रोटी कमाने वालों और गरीबों की आमदनी में कमी आई है। दिन भर पसीना बहा कर दो पैसे कमाने वालों की बजाय लोग शॉपिंग मॉल से सामान खरीद लाते हैं। ऑनलाइन बाजार सजे हैं, जहां से सीधे किराना और कफ़न का सामान बटन दबाते  खरीदा जा सकता है। मैं थोड़ा उत्तेजित हो गया। 

जीवनबाबू ने पानी का गिलास मेरी और बढ़ा दिया, बोले, अरे बैठो तो सही। इत्मिनान से बात करेंगे। यह बताओ और क्या समाचार है इधर के?  समाचार क्या है जीवनबाबू, जिन मूल्यों की आप बात करते हैं उन पर भरोसा नहीं रहा अब। पतन ऐसा हुआ है कि बेटा अपने ही बाप को चाकू से गोद सकता है।  गुंडे पुलिस थानों का घेराव कर लेते हैं। अपराध कम करने की बजाए अपराधी के एनकाउंटर की मांग उठने लगी है। कल तक जो पूज्य और आदरणीय थे, बिना विचार उन्हें जूतों की माला पहनाने और मुंह काला कर देने में कोई हिचक नहीं। चौराहे पर स्कूल बस में आग लगा दी जाती है। कानून अपने हाथ में लेकर जनतंत्र धीरे धीरे भीड़तंत्र में बदलने लगा है।  जिसकी लाठी उसकी भैंस कहावत नहीं सच्चाई है। हम लोग तो बस किसी अवतार या सच्चे नेता की प्रतीक्षा ही करते रहते हैं। सब कुछ भगवान भरोसे ही चल रहा है। मैंने सोफे में धंसते हुए कहा। 

हां सुना है मैंने, यहां के नेताओं ने तो उत्सव मनाने ,बड़े-बड़े होर्डिंग लगवाने और अपना जयकारा लगवाने को ही अपना मुख्य काम समझ रखा है। जीवनबाबू ने अपनी आंखों में तनिक गुस्सा और मुंह से कटाक्ष की चिंगारी बरसाई तो मैंने भी थोड़ा सा घी उंड़ेला, बोला, अब नेतागण बेचारे अपने क्षेत्रों में कब तक घूम घूम कर नागरिकों से मिलेंगे,जुलेंगे?  अपने कीमती समय को किफायत से खर्च करते हैं। चौराहों पर तस्वीर टांग कर ज्यादा से ज्यादा लोगों की नजरों में बने रहना भी क्या बड़ी बात नहीं? 

और नहीं तो क्या!  भगवान भी तो कैलेंडर और चित्रों के जरिए इसी तरह भक्तों के दिलों में उतरते हैं। अबकी बार जीवनबाबू की चुटकी से अचंभित था। प्रायः वे नेताओं का मजाक नहीं बनाते थे।

क्या बात कही जीवनबाबू आपने! मैंने उनके हाथ पर हाथ मारते हुए कहा। चलिए! अब आप आ ही गए हैं। मैं भी वैचारिक बहस के लिए तरस गया था।  मित्र तो बहुत हैं लेकिन खुलकर कोई बात नहीं करता।  सबको खुद के और देश के विकास की इतनी हड़बड़ी है कि विचार कोई नहीं करना चाहता। सभी जगह हड़कंप मचा हुआ है। मोबाइल घनघना रहे हैं।  लेकिन दिल की बात कोई नहीं कहता सुनता। मैंने अपनी निराशा व्यक्त की और घर लौट आया। 

मुझे मालूम था जीवनबाबू  रात भर सो नहीं पाए होंगे। मुझे खुशी है कि वे लौट आए हैं। ऐसे लोगों की हमें अभी बहुत जरूरत है विडंबनाओं, मूर्खताओं और विसंगतियों को देखकर जिनकी नींद उड़ जाती हो। 

ब्रजेश कानूनगो

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