Tuesday, October 5, 2021

धुआं तो कहानी कहेगा ही...

धुआं तो कहानी कहेगा ही...      


जब कोई व्यक्ति सांस लेता दिखता है तो हम समझ जाते हैं कोई लौ अभी आदमी के भीतर प्रज्वलित है. इसी तरह जहां धुआँ होता है वहां भीतर कहीं आग भी होती है. आग और धुएं का पुराने मुहावरे में ‘चोली-दामन’ जैसा और नए जुमले में ‘नोट और एटीएम’ जैसा रिश्ता होता है. नोट के बगैर मशीन शव के सामान है, नोट प्राण हैं, मशीन देह है. धुआँ कहीं दिख रहा है तो आग वहां अभी बची हुई है.  


देश के हालात भी कभी कभी किसी भीतरी चिंगारी से सुलग जाते हैं. अंदर ही अंदर आग फैलती रहती है,किन्तु पता ही नहीं चल पाता. थोड़ा बहुत धुंआ नजर आने लगता है तो उस पर ध्यान दिए बगैर सब अपनी ही मस्ती में लगे रहते हैं.  राज्यो की सत्ता की रुई और राजनीतिक पार्टियों के भीतर जब असंतोष की ज्वाला भीतर ही भीतर फैलती है तो यकायक एक दिन विस्फोट हो जाता है. इसके पहले निसंदेह धुआं तो उठता ही है लेकिन उसका आकलन ठीक से करने में शायद विवेक का इस्तेमाल नहीं हो पाता। यह बात भी सही है कि धुएं धुएं में फर्क भी होता है. इसका अध्ययन करने और पूर्वानुमान हेतु विशेषज्ञों की दरकार रहती है. 


अब यह समझना भी जरूरी है कि जो दिखाई दे रहा वह धुआँ ही है. कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी ने रसोई घर में बघार लगाया हो और हम दमकल लेकर दौड़ पड़ें आग बुझाने के लिए. धुएं धुएं में फर्क होता है. विविधता होती है उसकी प्रकृति में. तो धुएं की पहचान करना भी जरूरी है. कचरा जलता है तो भी धुआँ निकलता है और बस्तियां जलती हैं तब भी काले-घने गुबार दिखाई देते हैं.


ये अलग बात है कि कभी-कभी नफ़रत का बघार भी ऐसा लगाया जाता है कि बस्तियां जलने लगती है. धुआँ हमारी समझ को ढँक लेता है. बस्तियों और कचरे के जलने में भेद नहीं कर पाते हम लोग . आग बुझाने के प्रति उदासीनता ज्यों की त्यों बनी रहती है. ख़याल ही नहीं रहता कि सुलगते घरों में निर्दोष लोग जल रहे हैं. रेलगाड़ियाँ और अन्य सम्पत्तियाँ नहीं हमारा अपना खून–पसीना धुएं में बदलता जा रहा है. छतों से सुलगते शहर और आसमान में धुएं का दानव हमारे आसुओं को सुखा देता है...        


घमण्ड की कढाई में शेखी का बघार लगाने पर झूठ का तेल उछलता है तो उसके छीटे धुएं के साथ मिलकर कालिख पोत देते हैं हमारे चेहरों पर. इसका उछाल इतना तीव्र होता है कि सात समंदर पार करके छींटे घर के आँगन तक पहुँच जाते हैं. सत्ता तक की सडकों पर चिकनाई फ़ैल जाती है.. नेता ओंधे मुँह गिर पड़ते हैं.


धुएं और आग के अंतर्संबंधों को थोडी आध्यात्मिक दृष्टि से समझने की कोशिश करें तो कई बार बाहर निकलते हुए धुएं को सहजता से देख पाना मुश्किल हो जाता है. मसलन जो किसी तीव्र गुस्से की वजह से धधकने वाली आग के कारण अदृश्य बाहर निकलने लगता है.परेशानियों के निदान का कुछ उपाय नहीं सूझने पर जब अंतर्मन में आग लगती है, बैचैनी का धुआँ गहराने लगता है, ईर्ष्या की आग में जीते-जी जो चिता भीतर कहीं जल उठती है उसके धुएं की जलन इतनी तीव्र होती है कि मनुष्यता ही राख में तब्दील हो जाती है.  किसी दुःख में दिल सुलगने लगता है तब भी निकलता है धुआँ.. लेकिन धुएं के ऐसे अदृश्य गुबारों को देख पाने के लिए संवेदनाओं की सूक्ष्म नजर की दरकार होती है... रूई में लगी आग की तरह कष्टों, दुखों और असंतोष की आग धीरे-धीरे भीतर ही भीतर सुलगती रहती है..और एक दिन जब गुबार तेज हवा के झोंके से आग के गोले में तब्दील हो जाता है.... खौफनाक विस्फोटों को रोक पाना किसी के बस में नहीं रह पाता.


धुंआ निश्चित ही हमेशा से उठता रहा है. चाहे पंजाब का मसला हो, गुजरात की बात हो,छत्तीसगढ़ का किस्सा हो. किसानों की बात हो, युवाओं के बेरोजगार होते जाने के प्रश्न हो. महंगाई डायन के पुनः लौट आने पर मध्यमवर्ग की आश्चर्यजनक खामोशी हो.... धुआं तो उठता दिख ही रहा है. नेताओं की लोकप्रियता का कम होता ग्राफ हो...धुएं की पहचान जरूरी है.


यदि हम दूध के जले हैं तो हमे सचेत रहने की और ज्यादा जरूरत है. वैश्विक महामारी के वक्त स्वास्थ्य सुविधाओं के भीतर लम्बे समय से निकल रहे धुएं को हमने नजर अंदाज किया तो दूसरी लहर की आग में निरपराध नागरिको को अपनी जान गंवाने को मजबूर होना पड़ गया. आग और धुएं के बड़े गहरे सम्बन्ध और संकेत होते हैं. इतना समझ लीजिये, धुआँ दिखते ही उससे तुरंत निपटने में ही सबकी भलाई है. आगे आपकी मर्जी साहब !!


ब्रजेश कानूनगो

No comments:

Post a Comment