Thursday, October 14, 2021

और वे घोड़े बेचकर सो गए

 और वे घोड़े बेचकर सो गए

ब्रजेश कानूनगो

उनकी परेशानी यह थी कि वे जितना दिमाग खपा रहे थे उतना ही मामला उलझता जा रहा था। उन्होंने सोचा भी नहीं था कि वे इस तरह परेशान हो जाएंगे। पिछले शनिवार को क्लास लेते समय एक छात्रा के प्रश्न पर वे बड़े विचलित हो उठे थे। स्वयं अपने उत्तर से संतुष्ट नहीं थे। उल्टे झुंझलाहट  और खीज से भर उठे थे।  छात्रा ने उनसे प्रश्न किया था 'सर यह नौ मन तेल होगा राधा नाचेगी' का क्या मतलब हो सकता है?'

नौ मन तेल और राधा को लेकर अनुमानों के समुद्र में उनके तर्कों और विश्लेषण की नाव लगातार हिचकोले खा रही थी। भला वह कौन सी राधा थी जिसे नाचने से पहले नौ मन तेल की आवश्यकता पड़ती थी। कृष्ण की राधा तो वह हो नहीं सकती। उन्हें अगर आवश्यकता होती तो कृष्ण उन्हें जितना चाहे उतना घी अथवा मक्खन भिजवा देते। मान लिया जाए कि वह कोई और राधा थी जिसे नाचने से पहले तेल की आवश्यकता महसूस होती थी। तब विचारणीय है कि वह उस तेल का करती क्या होगीक्या वह तेल पीकर नाचती थी, या तेल बिखेर कर तत्कालीन कोई डिस्को अथवा ब्रेक डांस जैसा नृत्य किया करती थी। ज्यादा पहले की बात रही हो तो यह भी हो सकता है कि तब तेल को जमीन पर फैलाकर तांडव नृत्य का अभ्यास किया जाता हो। तेल की मात्रा का सवाल है तो वह पूरे नौ मन रहा है। वह दस मन क्यों नहीं रहाभारतीय परंपरा में शून्य को इस तरह के मामलों में अशुभ माना जाता है तो वह ग्यारह मन क्यों नहीं था? राधा को नौ नंबर से ही इतना मोह क्यों रहाकहीं उस समय तेल की टंकियों की धारण क्षमता ही नौ मन तो नहीं हुआ करती थी। या फिर दस मन की टंकी से एक मन व्यवस्था में बट जाता था ताकि राधा निर्बाध नृत्य कर सके। एक मन तेल का बटना क्या तत्कालीन भ्रष्टाचार की प्राथमिक स्थितियां हुआ करती थीं?

वह लगातार सोचे जा रहे थे उनका अनुमान था कहावत के पीछे की कथा अवश्य ही उस देश काल से संबंधित रही होगी, जब दो चम्मच तेल के इंतजाम के लिए किसी राधा को हाथ पैर नहीं नचाना पढ़ते थे, बल्कि नौ मन तेल के अभाव में नृत्य करने से इंकार कर दिया करती थी।

वे अपने चिंतन से तनिक ऊब गए तो विद्यालय के ग्रंथालय से लाई पसंदीदा पत्रिका के पन्ने पलटने लगे। उन्हें लग रहा था पत्रिका में कोई वैचारिक सामग्री होगी। किन्तु वहां किसी युवा अभिनेत्री का इंटरव्यू छपा था। वह पिछले बरस आत्महत्या करने वाले अभिनेता के साथ अपने आत्मीय रिश्तों की कहानियाँ बता रही थी। चिकने पन्नों पर खूबसूरत चित्र उनकी विचार प्रक्रिया में बाधा डालने लगे तो उन्होंने पत्रिका झोले में वापिस रख ली। निराशा में सिर झटका।  वैचारिक गम्भीर पत्रिका से शायद उनका भरोसा ही उठ गया था। मुहावरे की भाषा में पत्रिका की भैंस ने पाड़ा जन दिया था।

भरोसे भाई की कभी कोई भैंस रही होगी। जिस पर किसी ने भरोसा किया होगा, और हो सकता है उसके भरोसे पर किसी ने भरोसा करके भैंस के पेटे कर्ज उपलब्ध करा दिया हो। वक्त आने पर भैंस ने कन्या के बदले पुत्र रत्न को जन्म देकर कर्जा लेने और देने वाले के बीच कटुता  स्थापित कर दी हो। पूछा गया हो, आखिर हुआ क्या? तब किसी के मुंह से बरबस फूट पड़ा होगा 'भरोसे की भैंस ने पाड़ा जन दिया' है। बन गई कहावत।

मन ही मन सोचने लगे क्या आज का भविष्य कल का वर्तमान नहीं होगाऐसा वर्तमान जिसमें लोग आज बने मुहावरों में अटके होंगे। जैसे वे 'राधा और उसके तेल नृत्य' में फसें हैं।
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गुस्से में नेता कानून फाड़ता है, मरीज बीमारी से नहीं ऑक्सीजन से मरता है , तू क्यों कोबरा हुआ जाता है, इतिहास का गुनहगार इतिहास, बादलों का सुरक्षा कवर, खेला का रेला, दहकते भाषण की छांव में लोकतंत्र।' ऐसे ही कई और जुमले कल के मुहावरे बनकर भविष्य के छात्रों का दिमाग खराब करेंगे।
कहावत या मुहावरे के पीछे कोई कथा जरूर होती है जो धीरे धीरे समय की गर्द में धूमिल होकर भुला दी जाती है। रह जाती है सिर्फ छात्रों और मास्टरों की सिर फुटव्वल।

लकड़ी की बेंच में जाने ऐसी क्या बात थी उस पर बैठकर उनका दिमाग लगातार नए-नए विश्लेषण देर तक करता रहा।  अपने चिंतन से वे थोड़ा संतुष्ट भी हुए, खुश भी। मुहावरों से भाषा और साहित्य इसी तरह समृद्ध होता रहा है।

रात घिर आई तो टाउनहाल की बैंच से उठकर घर का रुख किया और घोड़े बेचकर सो गए। उसी तरह जैसे पन्द्रहवीं सदी में अरब से आया एक सौदागर  बादशाह को बीस घोड़े बेचकर निश्चिंत होकर शाही बाग में चैन से सो गया था। मन, मस्तिष्क को राहत मिल जाए तो गहरी नींद आती है। जागने पर तो फिर नए सवाल और चिंताओं के घोड़े फिर हिनहिनाने लगते हैं।

ब्रजेश कानूनगो




 

 

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