Thursday, October 14, 2021

ट्वेंटी फोर सेवन' की बहार में माणकचंद

ट्वेंटी फोर सेवन' की बहार में माणकचंद


ट्वेंटी फोर सेवन। जबसे डिजिटल हुए हैं हर तरफ 'ट्वेंटी फोर सेवन' का जलवा छाया है। इसकी छाया उन लोगों के भीतर एक तरह निराशा का अंधेरा भर रही है जो दफ्तरों में निठल्ले बैठे कमला बाई की चाय की चुस्कियां भरते, उसी की पसंद का गुटखा चबाते मुंह में थूक भरकर नगर निगम के सूखे नल के चलते ही फुंकारते जल जैसी खरखराती आवाज में कहते हैं, सब बकवास है। दिखावा है 'ट्वेंटी फोर सेवन' का जुमला।

शुरुआत में सब बकवास ही लगता है। दफ्तरों में जब छह दिन काम होता था तब भी और फिर कामकाजी सप्ताह को पांच दिन का बना दिया गया तब भी।  माणकचंद बोले थे, कामकाजी सप्ताह तो बस रबर का एक धागा है। चाहे तो खींच कर छह दिन लम्बा कर लो या राहत की ढील देकर पांच दिनों का बना लो। रबर का वजन या मात्रा तो उतनी ही रहेगी,जितनी वह है।

जहां तक माणकचंद जैसे कमला प्रेमी लोगों की बात है,उनको तो कोई फर्क नहीं पड़ता रहा। सप्ताह के पहले दिन काम में कुछ मन नहीं लगता। काम का टेंपो ही नहीं बन पाता। दूसरे तीसरे दिन कुछ काम होता है तो चौथे दिन मीटिंग आंकड़ों की सरकारी मांग। प्रधान कार्यालय भेजे जाने विवरणों की तैयारी करते करते अगला दिन भी बीत जाता है। फिर अंतिम दिन छुट्टी पर जाने की मानसिकता और मूड के कारण कि एक दिन में कितना काम हो सकेगा। अगले सप्ताह देखेंगे। घड़ी का घंटा भले ही बजता रहे उनके कामकाज की रफ्तार घड़ी कुछ अलग ही गति से चलती रहती है।

काम मे गति आए यही सोचकर नीति बनी थी। पांच दिन काम करेंगे मुलाजिम और दो दिन अपने को तरोताजा बनाके लौटेंगे। अधिक गति से काम निपटाएंगे।

छुट्टियों का भी अपना अलग असर होता है। जैसे सीएम ,पीएम का होता है। वे ही तय करते हैं नीति। कोई और करता है तो वह भी उन्ही का जलवा माना जाता है। नीति ने सप्ताह के रबर की लंबाई को  छह से पांच इकाई किया। लेकिन रबर की मात्रा तो सात किलो ग्राम ही थी, जिसे कम ज्यादा करने की कोई गुंजाइश किसी सचिव के पास नही हो सकती। यह तो वही कर सकता है जिसने दिन रात बनाए। हमने तो कायदे से कायदे भी नहीं बनाए। कभी काम जल्दी निपटाने के इरादे से छुटियाँ कम कीं तो कभी कुर्सी के मोह व ईवीएम के बटन ने हमें छुट्टियां बढाने को विवश कर दिया।

विवशता क्या क्या नहीं करवा लेती हमसे। जमाने के साथ दौड़ लगाना हमारी विवशता है। दुनिया दौड़ रही है। माणकचंदों को भी दौड़ लगानी होगी। ट्वेंटी फोर सेवन। नहीं भी लगाएं तो जताना होगा कि वे सरपट दौड़ रहे हैं।

वे होशियार हैं। दूसरा विकल्प ही अधिक पसंद करेंगे। काम करने से खुद को बचा लेने के रास्ते खोजते रहते हैं। जानते हैं मेहनत से बचने के लिए थोड़ी मेहनत तो करना ही पड़ती है। कर लेंगे, वे सक्षम हैं।
देखिएगा,जो काम पांच व छह दिन के सप्ताह में नहीं करते थे,वह ट्वेंटी फोर  सेवन के दौर में भी नही करने वाले। ऐसे ही हैं माणकचंद।

ब्रजेश कानूनगो

No comments:

Post a Comment