Saturday, October 23, 2021

थके घोड़े से बेहतर है कर्मठ खच्चर

थके घोड़े से बेहतर है कर्मठ खच्चर

हमारे यहां प्रायः यह देखा गया है कि थके नेता से अभिनेता का काम करवाया जाता है और ढलते अभिनेता को राजनीति के बक्खर में जोत कर वोटों की फसल उगाई जाती है। ऐसी समझदारी का काम हर क्षेत्र में होता रहता है। थके, निठल्ले और ठंडे लोगों का काम उतावलों के माथे मढ़ देना नई बात नही है। 

जब कोई अपना काम ठीक से नहीं कर पाए तो उसका काम दूसरों को सौंप दिया जाना चाहिए जो उसे कुशलता पूर्वक कर सके। अड़ियल और शक्तिहीन हो गए घोड़े से काम लिए जाने और उसे घी-मेवा खिलाते रहने से कोई फ़ायदा नहीं। समय पर अपना काम किसी तरह निकलवा लेना ही समझदारी है। 

बहुपरीक्षित कहावत है, जो खच्चर बिना ना नाकुर किये बोझा ढोता है उसी पर अधिक  सामान लाद दिया जाता है। बरसों से यह नुस्खा आजमाया जाता रहा है।  सरकारी रोडवेज का घोड़ा थकने लगा तो यह काम सेठों, साहूकारों और बिल्डरों की कम्पनियों के घोड़ों को सौंपना पड़ा। और देखिये क्या चका-चक बसें दौड़ रहीं हैं। विकास की रेल घोड़ियाँ भी शायद ऐसे ही सरपट कुलांछें भरेंगी। 

अस्पतालों, कॉलेजों में कुप्रबंधन का वायरस आया तो स्वस्थ नेताओं और उनके समाज सेवी परिजनों को जिम्मेदारी का हस्तांतरण करना जरूरी माना गया। न सिर्फ इससे शिक्षा का स्तर ऊपर उठा बल्कि छात्रों के लिए सीटों की अनुपलब्धता की समस्या ही समाप्त हो गई। यही परंपरा रही है। सरकारी विभाग जब योजनाओं के कार्यान्वयन में गच्चा देने लगे तो कर्मठ बैंकों को राष्ट्रीकरण की खुराख देकर उनके ऊपर योजनाओं की पोटली धर दी गयी। सरकारी बैंक जब बोझ से लदे ढीले पड़ने लगे तो फिर से उद्योगपतियों और कॉर्पोरेट्स को नए निजी अस्तबल खोलने के लिए लायसेंस बांटने की पहल की जाने लगी। 

हमारे यहाँ कभी गुरुजन ही कर्मठ माने जाते थे। उन सम्मानितों पर समाज और सरकार को पूरा भरोसा हुआ करता था। संकट की घड़ी में इन्होने देश की काफी मदद की है। बच्चों को ज्ञान बांटने के अलावा मलेरिया की गोलियां और कंडोम तक  बांटने का काम तल्लीनता से किया है।  जानवर से लेकर आदमी, कुओं से लेकर बोरिंग और ताड़-पत्रों से लेकर मत-पत्रों तक की गणना के कार्य को सफलता पूर्वक निष्पादित किया है निरीह मास्टरों ने।

यह भी हुआ कि  मास्टरजी के बाद पोस्टमास्टर जी को इस भरोसे के काबिल समझा गया। डाकघर अब बैंकों का काम करते हुए आपका खाता खोलते हैं, बुजुर्गों को पेंशन बांटते हैं, टेलीफोन और बिजली का बिल जमा करते हैं। क्या कुछ नहीं करते।  चिट्ठी-पत्री भले ही समय पर गन्तव्य तक पहुंचे ना पहुंच पाए, डाक सामग्री उपलब्ध हो न हो, लेकिन इस बात का पूरा विश्वास है कि ये अब भी गंगाजल पूरी तत्परता से धर्मप्राण जनता तक पहुंचा रहे होंगे।

पिछला अनुभव तो यह भी रहा है कि जब  कार्यपालिका ढीली पड़ती है तो विधायिका कमर कसती है। जब विधायिका कमजोर पड़ती है तो बहुत सा काम न्यायपालिका के कन्धों पर आन पड़ता है। इसमें कोई अचरज की बात भी नहीं है। घर परिवार में भी यही होता है। जो काम करता है, उसे ही नया काम मिलता है। बोझ तो उन्हीं कंधों पर पड़ता है जो निष्काम भाव से काम में जुटे रहते हैं। जो बैल रस्सी तोड़कर इधर उधर भागते रहते हैं , उन्हें गाड़ी में नहीं जोता जाता।

 ब्रजेश कानूनगो

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