Tuesday, October 12, 2021

विकास के उजाले में अंधेरे का सूरज

विकास के उजाले में अंधेरे का सूरज


शहर अब सपना नहीं रह गया था। गांव कस्बे शहरों में बदल चुके थे। जो नहीं बदले थे वह इस कोशिश में लगे थे कि शीघ्र शहरों में बदल जाएं। शहर होना बदलते वातावरण में जरूरी हो गया था। जो नहीं हो सकता था उसे जबरदस्ती शहर बनाने के प्रयास किए जा रहे थे। गरज यह कि हर संभव शहरीकरण के लिए मीटिंग में हो रही थी जो शहर बन चुके थे उन्हें स्मार्ट सिटी बनाने के प्रस्ताव पारित हो रहे थे,योजनाएं बन रहीं थीं। और तो और हमारी प्राचीन अवधारणा 'कर्ज करो और घी पियो'  की तर्ज पर सरकार विदेशों से इसके लिए कर्ज प्राप्त करने में जुटी हुई थी। देश का स्वास्थ्य शहरीकरण पर निर्भर हो गया था। सरकार का विश्वास था कि देश का स्वास्थ्य कर्जे के घी या विदेशी ग्लूकोज़ चढ़ाने से ज्यादा जल्दी सुधरता है। उधार की पूंजी के साथ-साथ उधार की संस्कृति भी शहरीकरण पर उतारू देश के पास गेहूं में कंकड़ की तरह आ रही थी।

 

गांव की कजरी ने खेत की मिट्टी से अपना सिर धोना बंद कर दिया था। प्रोटीन युक्त शैंपू से अपने बालों को रेशमी और चमकदार बनाने में व्यस्त हो चुकी थी। ओढनी में सुनहरी किनारी और लहंगे में चमकीले फूल की जगह फटी जींस बदन पर चढ़ाने के मोहक खयालों में खो गई थी। गेरू और खड़िया मिट्टी से अपने आंगन में मांडना वह इसलिए नहीं उकेर पा रही थी कि वे सब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कनस्तर में बेचे जाने लगे थे। उधार की पूंजी ने अभी इतना असर नहीं दिखाया था कि वह उन्हें खरीद सके।


शहर हो चुके हिस्सों में बाजार सजे थे। भागदौड़ मची हुई थी। रोशनी की चकाचौंध में लोग बटन दबाते ही जमीन से सातवें आसमान पर पहुंच रहे थे। उनके हौसले और उत्साह भी उसी रफ्तार से बुलंदियां छू रहे थे। वे लगातार ऊपर चढ़ रहे थे। विकास के साथ ही विकसित लोगों का शरीर भी  बेढंगे रूप से विकसित हो रहा था। बिजली की मशीनों से देह नियंत्रण के प्रयासों के बावजूद उनके शरीर फूल रहे थे।


जो जगह शहरों में बची थी वह या तो गाजर घास से पटी थी या वहां वे लोग आ बसे थे जिन्हें गाजर घास की तरह कभी भी उखाड़ फैंका जा सकता था। आवागमन इतना बढ़ गया था कि लोग अपने हर अंग का बीमा करवाने लगे थे। कुछ अधिक सावधान लोग स्टेपनी की तरह अतिरिक्त रूप से कुछ अंग अपने साथ रखने का भी सोचने लगे थे। मुख्य आंतरिक मार्ग के दबाव को कम करने के लिए शहर के बाहर एक जगमगाता बाहरी मार्ग बनाया गया था,जो रात को तो जगमग करता ही था, दिन में भी वहां के जलते हुए लेड बल्ब शहर की प्रगति के घमण्ड में सूरज को मुंह चिढ़ाते रहते थे।


गांव को शहर आने से रोका गया तो गांव स्वयं शहर हो गया। वाशिंग मशीन से कपड़े धुलने लगे और मिक्सर में चटनी पीसी जाने लगी। कुओं पर बिजली की मोटरें लग गईं। पत्थर की घट्टियों और सिलबट्टों पर मकड़ी ने जाले बना लिए। चौपालें उठ गईं। माच,लोक नृत्य,गीत और नौटंकियाँ लुप्त हो गए। गांव वाले भी टीवी पर नकचड़े सीरियलों और उत्तेजक खबरों के बीच देश की प्रगति का लुफ्त उठाने लगे।


अचानक एक झटका लगा। सब कुछ अंधेरे में डूब गया।  प्रगति और विकास चार कदम चलकर अचानक रुक गए। पांचवा कदम जाम हो गया, वह आगे बढ़ ही नहीं पा रहा था। कदम यांत्रिक थे। यंत्र बंद पड़ गया। ऊर्जा का वितरण रुक गया था। राष्ट्र नायक का मुस्कुराहट से भरा चेहरा और आश्वस्ति में उठता हाथ अंधकार में विलीन हो गया। उजाले की ओर देखती निगाहें शहर में छाए अंधेरे में डूब गई।


ऐसे में प्रवेश किया शहर ने इतिहास में। जो शहर धड़क रहा था अचानक खामोश हो गया। इतिहास में प्रवेश करते ही प्राकृतिक जीवन संभव था। हेल्थ क्लब और ब्यूटी पार्लरों पर ताले पड़ गए। महिलाएं सिर पर मटकी रख पनघट जाने लगीं। घट्टियाँ फिर घूमने लगी,सिलबट्टों की रगड़ घर में और खेतों में रहट का मधुर संगीत फिर गूंजने लगा। चिमनी और लालटेनों की दुकानें पुनः सज गईं। प्रतिभा और चिमनी की रोशनी का पुराना गणित साकार हुआ। देश में फिर से मशाल और केरोसिन लैंपपोस्ट संस्कृति का विकास हुआ। लेम्पपोस्ट और लालटेन के चमत्कारी प्रकाश में प्रतिभाएं दृश्य में आने लगीं। कालिदास और तुलसी के नए संस्करण साहित्य में स्वीकार किए जाने लगे। देश पुनः विश्वगुरु कहा जाने लगा।


मोमबत्तियां के प्रकाश में कॉफी हाउस की टेबल पर दुखी आत्माओं में नई क्रांतिकारी विचारधाराओं का जन्म होने लगा। बिजली की तेज रोशनी में जिस महीन साहित्यिक, सांस्कृतिक,संस्कारित जीवाणुओं का नाश हो गया था, चिमनी, दीपक और मोमबत्ती के मुलायम प्रकाश में वे फिर जागृत होने लगे। कारखानों की मशीनें निष्प्राण हो गईं तो ध्वनि प्रदूषण से मुक्ति मिली। पर्यावरण की समस्या का बगैर सरकारी खर्च के निदान हो गया। मशीनीकरण समाप्त हुआ तो हस्तकला को प्रोत्साहन मिलने लगा। जुलाहे, बुनकर, चर्मकार , काश्तकार, पिछड़ी जातियां तथा वास्तविक बुनियादी उद्योगों को रोजगार के अवसर बढ़ गए। वे ऊपर उठने लगे। अंत्योदय होने लगा। गांधी, जयप्रकाश, लोहिया जी के सपने साकार होने लगे।

उधर उनके सपने साकार हो रहे थे, इधर अचानक आई तेज रोशनी से मेरा सपना टूट गया। दूरदर्शन का चेहरा फिर दमक उठा। चमकदार बॉर्डर की साड़ी पहने समाचार वाचिका बता रही थी, देश में उपस्थित हुए बिजली संकट को सरकार शीघ्र दूर करने का प्रयास कर रही है।


ब्रजेश कानूनगो

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