Thursday, August 25, 2016

अधबीच में

व्यंग्य
साहित्य के अधबीच में उनकी कश्ती
ब्रजेश कानूनगो

साहित्य और जीवन के समुद्र में साधुराम जी की कश्ती अधबीच में खड़ी है। वरिष्ठ वे हुए नहीं हैं क्योंकि नौकरी के अभी सात साल बाकी हैं। चूंकि सिर के सारे बाल दूधिया हो चुके तो युवा उन्हें अपने वर्ग में स्वीकार नहीं करते। दफ्तर में उन्हें लेखक के रूप में जाना जाता है और साहित्य बिरादरी में एक मामूली हिन्दी अधिकारी, जिसके कारण देश में हिन्दी की अवनति हुई । जो कुछ थोड़ा बहुत वे रचनात्मक लिखते हैं वह या तो संपादक अपने पास दबा कर बैठ जाता है या फिर किसी युवा लेखक का लिखा समझकर उसका पुनर्लेखन कर के इस तरह छाप देता है कि पता ही नहीं चलता कि वह कभी उन्होंने ही भेजा था।

यह भी गौर करने वाली बात है कि वरिष्ठ की तरह हिम्मत जुटा कर सम्पादक को वे यह भी कह नही पाते कि रचना में कोई कतर ब्यौन्त की तो अखबार का बहिष्कार कर देंगे। कई वरिष्ठ लेखकों  की अपनी विशेष हेकड़ी होती है कि एक शब्द की हेरा-फेरी भी वे मंजूर नहीं करते।ऐसा कर पाना  साधुराम जी के स्वभाव में ही नहीं।

साहित्य की प्रमुख पत्रिकाएं उन्हें घास नहीं डालतीं। कहानी लिखकर वहां भेजते भी हैं तो संपादक रपट कह कर लौटा देता है। उसी  कहानी को रपट बनाकर अखबार में भेजते हैं तो संपादक कहता है कि यह तो उनके रिपोर्टर का काम है। कोई खोजी स्टोरी भेजिए। समाचार पत्रों में साहित्य की गुंजाइश खोजते रहते हैं और साहित्य पत्रिकाओं में सांस्कृतिक समाचार भेजकर ही संतोष कर लेते हैं। याने वे अब तक पूरे साहित्यकार भी न हो सके और न ही पत्रकार जैसा तेज-तर्रार और चमकदार चोला पहन सके। हालांकि उनके करीबी उन्हें अब वरिष्ठ युवा  साहित्यिक पत्रकार की तरह सम्मान देते हैं।

सामान्यतौर पर जो कुछ वे लिखते हैं, अखबारों के संपादकीय पृष्ठों के मध्य में स्थान पाता है। कहने को भले ही ये इन्हें तिरछी नजर, उलटबासी, कुल्हड़ में हुलहड़, चिकोटी, चुटकी या व्यंग्य  आदि नामधारी शीर्षकों वाले कॉलमों में छापा जाता हो, मगर इनमें छपने वाला हरेक रचनाकार नवोदित  व्यंग्यकार होने का सुख जरूर यहां पा लेता है। हालाकि दो दशक से कलम घिसते हुए भी वे यहाँ भी अधबीच में ही हैं.न स्थापित हुए,न नवोदित कहे जा सकते हैं. विडंबना है  कि बड़े साहित्यकार ऐसे  कॉलमों में छपे आलेख को  व्यंग्य ही नहीं मानते और अनेक आलोचक तो व्यंग्य विधा को ही नकारने के अभियान में जुटे हुए हैं।

मुश्किल तो यह भी कुछ कम नहीं कि दूरदृष्टि से कोई विषय चुनकर लिखा जाए तो उसका समय नहीं आया होता, वह प्रासंगिक नहीं है, प्रकाशन योग्य नहीं है । अखबारों की ताजा सुर्खियों को विषय बनाकर लिखते हैं तो 'आज लिखा, कल छपा और परसों मरा,' जैसा आरोप लग जाता है।

साधुराम जी सचमुच बड़े परेशान हैं. परसाई की तरह चोट कर नहीं सकते, शरद जोशी की तरह शब्दों की ड्रिब्लिंग कोई समझता नहीं, के पी का ककहरा दूर की कौड़ी है, श्रीलाल शुक्ल की तरह समाज को गहरे से समझा नहीं। अब क्या किया जाए। उपन्यास लिखने जैसा धैर्य नहीं उनमें, कविता कोई छापता नहीं, व्यंग्य सपाट बयानी हो जाता है, कहानी रिपोर्ताज की तरह हो जाती है।

बहरहाल,  जहां चाह है, वहीं राह भी होती है. जहां कुछ नहीं होता, वहां सब कुछ होता है। एक जमाने की फार्मूला हिंदी फिल्मों के बारे में जरा सोचिए! कुछ नहीं होने के बावजूद सब कुछ होता था वहां। बस ऐसे ही होते हैं हमारे ये लोकप्रिय कॉलम। भले ही कोई साहित्यिक आलोचक उनके मूल्यांकन पर  ध्यान दे या न दे। उनका अपना बाजार है। किसी विद्वान ने कहा भी है, ये सारा अधबीच लेखन एक तरह से सेतु साहित्य होता है, जो लक्ष्य की दिशा में  आगे बढ़ना सुगम करता है।

बेशक साधुराम जी आज अधबीच में हैं,  उम्मीद करें, एक दिन साहित्य की दुनिया का किनारा छू ही लेगा ये कोलंबस।

ब्रजेश कानूनगो



Friday, August 5, 2016

अग्रिम पंक्ति के नाम की ख्वाहिश

अग्रिम पंक्ति के नाम की ख्वाहिश 
ब्रजेश कानूनगो

तुलसीराम की समस्या यह है कि अब्दुल नईम और अमरजीत को ज्यादा देर कक्षा में रुकना नहीं पड़ता। जैसे ही माधुरी मेम उनका नाम पुकारती है वे 'यस मेम' का उद्दघोष करते हुए कक्षा से तुरन्त प्रस्थान कर जाते हैं और अपने शहर के  'कोटा कोचिंग संस्थान' की पिछली बैंचों पर जा बैठते हैं और तीन सौ छात्रों को माइक से गाइड करते गड़बड़कर सर को सुनने लगते हैं। 
तुलसीराम को वहां पहुँचने में बहुत देर हो जाती है क्योंकि कक्षा में अनिवार्य उपस्थिति के लिए अपना नाम पुकारे जाने तक उसे वहीँ इन्तजार करना होता है। क्योंकि अल्फ़ा बेटिकल रूप से 'टीसे शुरू होने के कारण उसका नाम  हाजरी रजिस्टर में बहुत पीछे दर्ज है।  

यतीश समझदार था जिसने अपने उज्जवल भविष्य के मैनेजमेंट के लिए स्कूल छोड़कर प्रायवेट बोर्ड की परीक्षा देने का निर्णय ले लिया । उसका नाम भले जाकिर के पहले आता था लेकिन जाकिर का तो इलेक्ट्रॉनिक का अपना जमा जमाया कारोबार है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता की कक्षा में उसका नाम कब पुकारा जाए। कभी कभी तो कक्षा में कदम धरते ही 'यस मेम' कहते हुए किसी भी  बैंच पर जा बैठता, तब तक कक्षा में बैठक के लिए उसके सामने कई बैंचों के विकल्प रहते थे।

यही कारण है कि ज्यादातर पालक इन दिनों '' या अंग्रेजी के '' से शुरू होने वाले नामों को प्राथमिकता देकर अपने बच्चों का नामकरण करने की कोशिश करते हैं। उनकी चिंता बहुत वाजिब होती है। 
ऐसा हर जगह हो सकता है। अब राज्यों के नामों को ही लीजिये, असम, अरुणाचल आदि के कितने बाद महाराष्ट्र और हमारे मध्यप्रदेश का नंबर आता है। और तमिलनाडु और वेस्ट बंगाल के तो और बुरे हाल हैं , वे तो बिलकुल 'यतीश' और 'जाकिर' की तरह ही हो गए हैं  न!  तमिलनाडु तो फिर 'जाकिर' की तरह  संतोषी होने का माद्दा रख  सकता है मगर पश्चिम बंगाल का हाल तो अक्सर बेचारे ' यतीश' जैसा ही हो जाता है।

अब खबर आई है कि पश्चिम बंगाल के  पालकों का ध्यान इस ओर गया है। 'डब्ल्यू' से शुरू होने वाले पश्चिम बंगाल राज्य का नाम बदला जाएगा। सम्भवतः अब वह 'बीसे शुरू होगा और अन्य राज्यों की तुलना में उसका क्रम थोड़ा जल्दी आया करेगा। इस पहल का जरूर स्वागत किया जाना चाहिए।
नाम बदलने से शहरों की तकदीर बदलने की हमारी कोशिशों के अच्छे  परिणाम देखने को मिलते रहे हैं।  गुडगांव को गुरुग्राम और मद्रास को चेन्नई कहे जाने जैसे कुछ कुछ अपवाद हो सकते हैं लेकिन एक दो घटनाओं से निराश होने की बात नहीं है। नाम बदलने का यह क्रम जारी रहना चाहिए। मेरा सुझाव है अब मध्यप्रदेश को 'अग्रजप्रदेश' और छत्तीसगढ़ को 'बत्तीसगढ़' के रूप में नामान्तरित कर देना विवेकपूर्ण कदम होगा। इससे इन तथाकथित  पिछड़े राज्यों को अग्रिम पंक्ति में शुमार होने का रास्ता आसान हो सकेगा।सोचिये ज़रा !

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाड़िया रॉड,इंदौर 452018