Tuesday, November 30, 2021

हवाबाजी का दिलकश मौसम

 हवाबाजी का दिलकश मौसम


जब देश में कहीं भी चुनाव आने होते हैं न जाने क्यों मुझे बचपन का वह दोस्त याद आने लगता है जो बिलकुल मालगुडी के प्रसिद्द महाबातूनी चरित्र की तरह था। अक्सर ऊंची-ऊंची फैंकता रहता था। जिस दिन वह कोई लम्बी नही हांक पाता, उसके पेट में मरोड उठने लगती थी और रात को बड़ी देर तक वह सो नही पाता था। शायद इसी नींद के प्रबंधन के लिए दिन भर वह इस जुगाड़ में लगा रहता था की कोई मिले तो वह अपनी नई गप्प या नया किस्सा सुनाकर  हल्का हो ले।  इस आदत की वजह से ही लोगों ने उसे ‘हवाबाज’ के नाम से विभूषित किया था।  उसकी हवाबाजी का यह आलम था कि वह अपनी बातों से किसी की भी हवा बना सकता था और जब चाहे किसी की हवा निकाल भी दिया करता था।  हवा बनाने और हवा निकालने में वह माहिर था। उन दिनों नगर पंचायत के चुनावों में कुछ प्रत्याशी अक्सर उसकी सेवाओं का अक्सर लाभ भी लिया करते थे।

यह वही समय था जब डाक्टर ,वैद्य या हकीम साहब मरीज को देखने के बाद महंगी-महंगी जांचें करवाने के परामर्श देने की बजाए मरीज को हवा बदली की सलाह देना पसंद किया करते थे। नई जगह और नए वातावरण की नई हवा के साथ ही रोगी अपने कष्टों से मुक्त भी होने लगता था।  शरीर की बीमारियाँ भाग खड़ी होती थीं। कमाल है कि यही नुस्खा इन दिनों भारतीय राजनीति में प्रबल होता दिखाई देता रहा है। इस महादेश के हर हिस्से को तथाकथित असाध्य बीमारियों से मुक्त करने के लिए जोर दिया जाता है कि अब हर जगह सत्ता में बदलाव की बयार बहे।  यही वजह है कि मेरे बचपन के उस महाबातूनी हवाबाज दोस्त की तरह के लोगों की पूछ परख चुनावों के दिनों में काफी बढ़ जाती है।उनकी मांग का सूचकांक लगातार ऊंचा उठता चला जाता है।

देखा जाए तो नए जमाने में हवा बनाने के तरीकों में बदलाव भी आया है। बडी बडी बातों के तीर फैंकने के लिए अब किसी चौपाल या हाट-बाजार में मजमा लगाने की जरूरत नहीं रही है, मीडिया और सोशल मीडिया पर ऐसे हवाबाजों की आंधियां चलने लगती हैं।  नामी-गिरामी विज्ञापन एजेंसियां भी आपकी सेवा में हाजिर हो जाती हैं, जो मोटी रकम लेकर अपने नियुक्त किए हवाबाजों के जरिये इस काम को अंजाम देने में मुस्तैदी से जुट कर धन की फसल काटती हैं।  इस विज्ञापित हवाबाजी का आलम यह होता है कि वे अपनी सरकार और मंत्रीमंडल तक की घोषणा करने में सफल होते दिखाई देने लगते हैं।   

हवाबाजों की दृष्टि के भी क्या कहने वे साफ़-साफ़ देख लेते हैं कि बाजार में अभी किसकी हवा चल रही है और कैसे नई हवा बनाई जा सकती है।  किसी महान मौसम विज्ञानी  की तरह वे हवा का विश्लेषण करने का भरपूर सामर्थ्य रखते हैं।  किस हवा में कितनी आक्सीजन और कितनी कार्बनडाय आक्साइड है। कितनी नायट्रोजन किसी और हवा से आकर अपनी  हवा में अपना असर छोड़ सकती है।  कितनी प्राणवायु अगर दक्षिण दिशा से आकर उत्तर की हवा में मिल जाए तो नई यौगिक या मिश्र हवा का परिणामों पर क्या सकारात्मक असर हो सकता है।  ऐसी तमाम बातों को यह ‘हवा’ विज्ञानी समझ लेते हैं।  कोई भी हवाबाज ऐसे गणित में बड़ा निपुण होता है।  वह हर हवा पर उसका नाम लिखने में सक्षम होता है। जानकार लोग उसके लिखे शब्दों के रंग से पहचान जाते हैं कि कौनसा  झंडा इस बार हवा में लहराने वाला है।  

मुश्किल केवल इतनी सी रहती है कि किसी भी नाम की कोई भी हवा मात्रा से अधिक किसी भी रंग के गुब्बारे में पहुँच जाए तो उस के फट जाने का अन्देशा बढ जाता है।


ब्रजेश कानूनगो

बीती काहे बिसार दें

बीती काहे बिसार दें

समझदार लोग कहते आए हैं कि याद रखना उतना जरूरी नही जितना कि भूल जाना।इन्हीं के सामने कुछ समझदार लोग भी सामने आते रहे हैं, जो स्वयं को ‘भूलने के विरुद्ध’बताते हुए याद रखने की कला की तारीफ़ करते हैं. फिर भी आम समझ तो यही है कि सफर की तमाम मुश्किलों और पथ की दुर्गमता के बावजूद जिन्दगी की गाडी सहज चलती रहे तो जरूरी होगा कि पीछे रह गई बातों को हम भुलाते जाएँ. ‘बीती ताहि बिसार दे,आगे की सुधि ले’ यह मुहावरा भी इसी समझ से उपजा है.  हर कोई चाहता है की वह स्वस्थ बना रहे. तन और मन पर कोई भी पुरानी या गुजरी हुई बात विपरीत प्रभाव न डाल सके इसलिए नई घटनाओं और स्थितियों की रोशनी से विटामीन और ऊर्जा प्राप्त करने की भरपूर कोशिश करते रहना चाहिए.  बावजूद इसके कमबख्त कुछ विघ्न संतोषी हैं जो बार-बार भूली-बिसरी बातों को याद दिलाकर सारा मजा किरकिरा कर देते हैं. 


सरकारें तो पूरा प्रयास करती हैं कि पुरानी बातों को भूलकर हम विकास जैसे मुद्दे पर अपना ध्यान लगाएं, लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है. हर कोई अर्जुन की तरह एकाग्र नहीं हो सकता, इसलिए ध्यान बंट ही जाता है.  अब देखिए पिछली सरकार के समय भी एक घोटाले के बाद दूसरा नया घोटाला इसलिए किया जाता रहा ताकि पिछले वाले को पब्लिक भुला सके.  कब तक आदर्श, कब तक 2जी, कब तक कोयला, छोडिए भी अब पुराना, नए में मन रमाइए अपना। नए की ख्वाहिश में सरकार तक बदल डाली हमने पर बात बनी नहीं. पुराने निशान आसानी से नहीं मिटा करते.  


भूलने-बिसराने का एक सदाबहार उदाहरण हमारे यहाँ बड़ा प्रेरणास्पद रहा है. प्रणय प्रसंग के बाद सम्राट दुष्यंत अपनी प्रेयसी शकुंतला को बिसरा ही दिया था लेकिन भला हो उस मुद्रिका का जिसे देखते ही सम्राट को वन कन्या के साथ बिताए वे मधुर पल दोबारा याद आ जाते हैं.  इतिहास गवाह है कि कालान्तर में इन्ही प्रेमी युगल की होनहार संतान ‘भरत’ के नाम पर इस गौरवशाली महादेश का नाम ‘भारत’ रखा गया.


भारत वर्ष में वह मुद्रिका परम्परा आज भी कायम है. याद दिलाने के लिए ऐसी कई मुद्रिकाओ के दर्शन अक्सर हमें करवाए जाते रहे हैं। देश- विभाजन, भारत-पाक और भारत-चीन के पुराने युद्ध या बोफोर्स सौदा,इमरजेंसी, स्वतंत्रता आंदोलन में कुछ लोगों द्वारा अंग्रेजों को मदद और माफी आदि भी ऐसी ही हरदिल अजीज मुद्रिकाएं हैं जो भुला दिए गए अतीत के प्रसंगों की वक्त-बेवक्त याद ताजा करती रहीं है.


बेचारी जनता तो कब की भुला चुकी होती इन मुद्रिकाओं को लेकिन कुछ लोग हैं कि देश में कहीं भी चुनाव आने पर बार-बार नई-नई मुद्रिकाएं सामने लिए चले आते हैं. याद दिलाते रहते हैं कि भाई इस देश में इमर्जेंसी भी लगी थी और मज्जिद भी ध्वस्त की गई थी. गोधरा में कुछ लोग जिन्दा जला दिए गए थे और भोपाल के जहर ने कइयों की जानें और आँखों की रोशनी छीन ली थी। विद्वानों ने तो कई बार दुहराया है कि ‘बीती ताही बिसार दे, आगे की सुधि लेय।’  लेकिन उनका दिल है कि मानता नही। ज़रा गौर से देखिए तो पता चलता है कि मुद्रिका परम्परा के निर्वाह में इन दिनों भी कई संस्थान पूरी मुस्तैदी से लगे हुए हैं,जिन्हें वक्त के मरहम पर ऐतबार नहीं.


ब्रजेश कानूनगो

Saturday, November 13, 2021

उनकी शुभकामनाएं और मेरा आभार

उनकी शुभकामनाएं और मेरा आभार     


वे विनम्रता की प्रतिमूर्ति हैं। कुछ लोगों में विनम्रता और सद्भाव जैसे गुण कूट कूट कर वैसे ही भरे होते हैं जैसे गजक में गुड़ समाया होता है। तिल्ली के साथ गुड़ की कुटाई से गजक जैसी लोकप्रिय और गुणकारी मिठाई बनती है। बचपन में मन और देह के साथ सद्गुणों की कुटाई करके गुरूजी भी अपने शिष्यों का गुणी व्यक्तित्व बनाने के प्रयास किया करते थे। हालांकि उस पिटाई से मन पर कम और देह पर चोट ज्यादा लगती थी, फिर भी उसका खासा असर सिर की तेल मालिश की तरह भीतर तक हो जाता था।

इस प्रक्रिया में विनम्रता और सद्भाव जैसे गुणों की चाशनी स्वभाव में उसी तरह सहज बनती चली जाती थी, जैसे मुंह में लार बनती है। यह तो सभी भली प्रकार जानते हैं कि हमारी लार शरीर की कई बीमारियों को हर लेने की असीमित क्षमता रखती है। आयुर्वेदाचार्य सुबह उठते ही बासी मुंह दो गिलास पानी लार सहित पी जाने का आज भी परामर्श देते हैं। इसी तरह विनम्रता और सद्भाव की चाशनी भी लार की तरह काम करती है, जीवन में अनेक समस्याओं और कठिनाइयों से निपटने में इस दवाई का भी बड़ा योगदान होता है।

उन्होंने जीवन में इसी चाशनी युक्त दवाई को चाय की तरह अपना रखा है। जब भी जरूरत पड़ती है सामने वाले को पिला देते हैं। हर मौके पर वे खूब शुभकामनाएं व्यक्त करते हैं। 

जीवन को सुगम और सुखद बनाने के लिए एक दूसरे के प्रति भरपूर सद्भावनाएँ व्यक्त करना एक बढ़िया उपाय है। उनके लिए यह मात्र औपचारिक रस्म नहीं होती है। उनकी शुभकामनाएं सदैव हार्दिक होती हैं और हृदय से निकलकर आती हैं। कभी कभी तो यह अंतरतम की गहराइयों से बोरिंग के पानी की तरह फूटकर बहुत वेग से बाहर आती हैं। उनका एक 'हार्दिक' से काम नहीं चलता, व्याकरण और भाषाई अनुशासन का दिल पे क्या लगाम।  'हार्दिक' गुणित में निकलकर दो-दो बार उनके ह्रदय को निचोड़ देता है।  यह होता है विनम्रता, सद्भाव,संवेदनाओं और शुभेच्छाओं की अभिव्यक्ति का शानदार जलवा।

इस बार उनकी शुभकामनाएं पाकर मैं हतप्रभ रह गया। कार्ड पर हमेशा की तरह 'हार्दिक हार्दिक शुभकामनाएं ' नहीं लिखा था।  कार्ड पर लिखा था , 'आर्थिक आर्थिक  शुभकामनाएं!'
वे हिंदी के विद्वान हैं। उनके लिखे में वर्तनी का दोष हो ही नहीं सकता। अखबारों तक में वे प्रूफ की गलतियां देख क्रोध से उबल पड़ते हैं। संपादक को चिट्ठी लिखते हैं। मैंने एक बार पुनः कार्ड पर नजर दौड़ाई। वही लिखा था। 'आर्थिक आर्थिक शुभकामनाएं।' मुझे विश्वास है इसबार उनकी संवेदनाएं दिल से नहीं बल्कि दिमाग से निकलकर आई हैं। महंगाई के इस दौर में मुझे इसी की जरूरत थी। शुक्रिया मित्र। बहुत आभार!! ओह, क्षमा! बहुत बहुत आभार!!

ब्रजेश कानूनगो