टीवी बहस में प्रवक्ता और उत्तेजना का कारोबार
Saturday, August 29, 2020
टीवी बहस में प्रवक्ता और उत्तेजना का कारोबार
Friday, August 28, 2020
सूत्रों के हवाले से
सूत्रों के हवाले से
अब कवि के बस में यह सब नही रहा। बहुत गिनती के ऐसे कवि रह गए हैं जो जोखिम में पडकर परहित के दुर्गम रास्तों और अन्धेरों में भटकने का दुस्साहस दिखा पाते हों। आ बैल मुझे मार वाला अब यह काम ‘सूत्र’ करता है। चूंकि वह बैल से मार नही खाना चाहता इसलिए अपनी पहचान छुपा कर यह काम करता है। दरअसल यह ‘सूत्रों’ का ही समय है। ऐसा लगता है कि इन दिनों हमारा कोई असली शुभचिंतक है तो वह सिर्फ मीडिया समाज की वह ‘सूत्र बिरादरी’ ही है जो छुपी हुई वास्तविकताओं और उनके कारणों को सच्चाई के साथ उजागर करके पुण्य कमा रही है।
सूत्र ही वह प्राणी है जो अब पूर्व के कवि का काम करता है। ‘सूत्र’ रवि और कवि दोनों से अधिक प्रभावी और प्रतिभाशाली होते हैं। सच्चाई तक पहुंचने के लिए रवि और कवि दोनों को स्वयं भी प्रकाशित होना पडता रहा है, इसलिए उनको काम करते हुए हर कोई देख सकता है। यह बहुत खतरनाक होता है। सूत्रों के साथ ऐसा नही होता। वे अदृश्य रहकर अपना काम करते रहते हैं। इन्हे कोई नही जान पाता। न ही उनके तौर-तरीके पर कोई सवाल करना सम्भव होता है।
सूत्र मिस्टर इंडिया की तरह अदृश्य रहकर बडी निडरता से काम करता है
लेकिन उसके काम करने की प्रक्रिया में डर की बडी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जहाँ
वह जाता है अंजान भय से लोग घबराने लगते हैं कि कहीं कोई गुप्त कैमेरा, छुपा हुआ
रेकार्डर तो अपना काम नही कर रहा। लक्ष्य
प्राप्ति के लिए सूत्र हर नीति कुटनीति को अपनाने में हिचक नही रखता। वह हमेशा
परिणाम में विश्वास रखता है। जब सूत्र नतीजे पर पहुंच जाते हैं तब सूत्रधार उनके
नतीजों का खुलासा करता है और खबरों की दुनिया में आग लगा देता है। यह आग तब तक बनी
रहती है जब तक की कोई अन्य सूत्र किसी और नतीजे पर नही पहुँच कर नया धमाका नही
करता।
सूत्र बस सूत्र होते हैं। उनका कोई नाम नही होता। टीवी चैनलों पर हमे केवल इतना भर पता चलता है कि उन्हे यह खबर सूत्रों के हवाले से मिली है। सूत्रों को गुमान होता है कि वे हमारे जीवन को बेहतर बनाने के कार्य में पूरी मुस्तैदी से लगे हुए हैं। शोले के जेलर के जासूसों की तरह चैनल के सूत्र देश के कोने कोने में फैले हुए रहते हैं । इनका नेटवर्क बडा व्यवस्थित होता है। मंत्रालयों की मक्खियों से लेकर कैटरिना के बाथरूम के साबुन तक उनकी नजरें लगी रहती हैं।
चैनलों के इन बेनाम सूत्रों पर भरोसा करना हमारी स्वाभाविक प्रकृति है। बहुत सी बातों पर हम विश्वास करते हैं, समोसे को हरी चटनी से खाने से कृपा होने और सपने के संकेत से खजाना मिलने की उम्मीद पर हम विश्वास करते हैं। विश्वास करना हमारे संस्कारों का हिस्सा है । पहले कभी बेताबी से डाकिया बाबू का इंतजार किया करते थे अब रोज अपलक टीवी निहारा करते हैं देखें आज क्या खबर आनेवाली है सूत्रों के हवाले से। इन सूत्रों से ही जीवन का सूत्र कायम है। ये सूत्र ही हमारे जीवन को रसमय बना रहे हैं, यह क्या छोटी मोटी बात है।
Wednesday, August 5, 2020
वाट्सएप पर महाकवि
किसी ने कहा है जीवन एक कविता है। कई पद हैं इसमें। चौपाइयां हैं, दोहे, सोरठा,कुंडलियां, क्या नहीं है इस कविता में। लय है, तुक है, तो कभी बेतुकी भी हो जाती है जीवन की कविता। हुनर चाहिए जीवन कविता को मनोहारी बनाने के लिए।
मैं कुछ इस तरह लिखते हुए अपने लेख की शुरुआत कर ही रहा था कि मित्र साधुरामजी आ धमके। बोले- 'यह क्या दिन भर टेबल पर झुके रहते हो! और कुछ काम धाम भी है या नहीं। जब देखो साहित्य, साहित्य करते रहते हो...'
उन्हें रात को लिखी अपनी नई कविता सुनाई। कविता को उन्होंने सराहा भी मगर थोड़ा निराश होते हुए गोकुलधाम सोसायटी के एकमेव सेक्रेटरी आत्माराम तुकाराम भिड़े की तरह अतीत गमन करते हुए बोले-‘हमारे जमाने में कविताएँ कभी इतनी रूखी-सूखी नहीं हुआ करती थीं, उनमें रस होता, पढ़ते-सुनते समय मन आनंद से सराबोर हो जाता था. तुम्हारी कविताएँ दुखीं कर देती हैं, वो आनंद नहीं रहा अब की कविताओं में।’
‘मगर अब कविताएँ यथार्थवादी होती हैं साधुरामजी, कला की बजाए इनमें कथ्य महत्वपूर्ण होता है,’ मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की।
'क्या मिल जाएगा ऐसे यथार्थवादी लेखन से तुम्हे?' वे बोले।
'लिखने से मुझे आत्म संतोष मिलता है,साधुरामजी।' मैने कहा।
'अब ज्यादा बातें मत बनाओ! कोई पद्मश्री नहीं मिल जाएगा तुम्हे इससे!' वे बोले।
'मैं किसी सम्मान,पुरस्कार की आकांक्षा से नहीं लिखता, मेरा लेखन स्वान्तः सुखाय है साधुरामजी।' मैने कहा तो वे चिढ़ गए-'अरे छोड़ो भी अब, इतना समय घर के कामकाज में देते, भाभीजी को सहयोग करते तो उनकी दुआएं लगतीं।'
'उनकी दुआएं तो सदैव मेरे साथ ही हैं। उनका सहयोग नहीं होता तो मैंने जो थोड़ा बहुत लिखा पढा है वह भी नहीं कर पाता।' मैंने तनिक खिसियाते हुए कहा।
'और सुनो बन्धु ! ये जो तुम लिखते हो क्या सब तुम्हारा अपना है? ये देखो तुम्हारी वह ग़ज़ल जो तुमने पिछले हफ्ते गोष्ठी में सुनाई थी, वह तो गुलजार साहब की है। यह देखो!' साधुरामजी ने उनका मोबाइल में मेरी ओर बढ़ा दिया।
वहां एक वाट्सएप समूह में मेरी वही कविता शेयर की गई थी, किन्तु नीचे शायर का नाम 'गुलजार' लिखा हुआ था। अब यह मेरे लिए सम्मान की बात थी या गुलजार साहब के लिए सिर पीट लेने वाली, कह नहीं सकता।
'अरे भाई आप तो 'गुलजार साहब' हो गए हैं अब! सफेद कुर्ता पहनों और पहुंच जाओ मुम्बई। खूब काम मिलेगा और अवार्ड भी।' साधुरामजी मजे लेने के मूड में आ गए थे।
'और बंधु जरा कभी अपना रोल बदल कर भी देखो...मसलन कभी पत्नी के काम अपने हाथ में ले लो...बडा मजा है... महरी नही आने पर बरतन मांजने में भी बडा मजा है...अपनी इस कला को भी सार्थकता देकर चमकाया जा सकता है... कपडे धोना-सुखाना किसी तार पर...छत पर...अपने हाथों से आटा मथ कर गर्मा-गर्म रोटियाँ अपनों को खिलाना...वाह! अद्भुत आनन्द... एक नई कहानी...नई कविता लिखने के संतोष से भरा-भरा सा ... जैसे विविध-भारती पर नीरज या साहिर का गीत सुन रहे हों...!'
अब साधुरामजी जैसे पूरे साहित्य जगत को ही संबोधित कर रहे थे मानो वहां सारे रचनाकार अपनी घर गृहस्थी से विरक्त होकर सिर्फ सृजन में ही संलग्न हो गए हों।
तभी मेरे मोबाइल में चिड़िया चहकी। एक वाट्सएप मेसेज आया था। खोलकर पढा तो चेहरे पर मुस्कुराहट दौड़ गई। मैंने मोबाइल साधुरामजी के आगे कर दिया। वहां साधुरामजी की एक नज्म हरिवंशराय बच्चन जी के नाम से शेयर हुई थी।
ब्रजेश कानूनगो