Saturday, August 29, 2020

टीवी बहस में प्रवक्ता और उत्तेजना का कारोबार

टीवी बहस में प्रवक्ता और उत्तेजना का कारोबार 

टीवी पर होने वाली बहसों के लाइव शो इन दिनों बडी समस्याएँ खडी कर रहे हैं।माइक और कैमेरा छोड़कर प्रवक्ताओं द्वारा एक दूसरे की कॉलर पकड़ते हुए तो कई बार साक्षात दर्शन हुए हैं परन्तु  कई बार इनमें जो गर्मागर्मी देखने को मिलती है उससे विचार आता है कि उत्तेजना में कहीं किसी प्रवक्ता की तबीयत ही खराब न हो जाए। 

नेताओं के बयानों को लेकर एक समाचार चैनल पर बडी जोरदार बहस चल रही थी। एक घंटे के उत्तेजक विमर्श के बाद एंकर का अंतिम जुमला बहुत दिलचस्प रहा। अपने ही कार्यक्रम की बहस और नेताओं के बयानों पर घटिया तर्कों से असंतुष्ट होते हुए उन्होने पेनल के एक गंजे विचारक को सम्बोधित करते हुए कहा...आप तो श्रीमान चाहते हुए भी अपने बाल नोच नही सकते लेकिन शो देख रहे दर्शक चाहें तो अपने बाल नोच सकते हैं।

ज्वलंत मुद्दों पर टीवी पर होनेवाली ज्यादातर बहसों में इन दिनों यही हो रहा है। चैनल के वफ़ादार एंकर जानते हैं कि होना-जाना कुछ नही है। चैनलों को तो अपना पेट भरना ही है। उन्हे तो ऐसी चुइंगमों की तलाश सदा बनी रहती है,जिसे वह चौबीसों घंटे चबाते रह सकें। संत हों, नेताजी हों, मंत्रीजी या पार्टी अध्यक्ष अथवा कोई राजनीतिक प्रवक्ता रहा हो, मीडिया की क्षुधा  को शांत करने की ये लोग भरपूर कोशिश करते रहते हैं।

जहाँ तक दर्शक या आम आदमी की बात है,वह तो हमेशा से भ्रमित बना रहा है। अपने-अपने पक्ष के समर्थन में जो तर्क या कुतर्क उसके सामने रखे जाते हैं वह लगभग सब से संतुष्ट होता दिखाई देता है। ‘न हम हारे ,न तुम जीते’ की तर्ज पर उसके मन में कोई मनवांछित धुन गूंजने लग जाती है।

किसी भी राजनीतिक पार्टी में परम्परागत रूप से दो तरह के लोगों का समावेश रहता आया है। कुछ नेता होते हैं और अधिकाँश को कार्यकर्ता माना जाता है। यह अलग बात है जब नेताजी को पार्टी हाईकमान उनके दायित्वों से किसी कारणवश मुक्त कर देता है तो वे पार्टी के स्वघोषित ‘सिपाही’ के रूप में पार्टी का हिस्सा बने रहते हैं। किन्तु यह केवल अपने आपको सांत्वना देना भर ही होता है। वस्तुतः पार्टी मार्केट में उनका सूचकांक उच्च शिखर से गिरता हुआ जमीन से आ मिलता है।

पार्टी का नेता जब कोई रास्ता दिखाता है तो सारे कार्यकर्ता उसका अनुगमन करने लगते हैं। यही उनका धर्म होता है। नेता जब कोई शंखनाद या उद्घोष करता है तो सभी कार्यकर्ता नगाड़े बजा ताल देकर उसे चहुँओर विस्तारित करने की कोशिश करते हैं।  नेता के मुख्य स्वर में कार्यकर्ताओं की संगत से पार्टी का राग मोहक बन उठता है। सदा से यही होता रहा है।

लेकिन जब से देश में इलेक्ट्रोनिक मीडिया का नव साम्राज्य स्थापित हुआ है, पुराने मानक बदलने लगे हैं। संघर्ष और आन्दोलन पहले की तरह जमीन पर नहीं दिखाई देते। अब टेलीविजन के स्क्रीन पर युद्ध होते हैं। जब प्रतिद्वंदी की किसी भी छवि या अर्जित सम्मान के शिखरों को ध्वस्त किया जाना आवश्यक हो जाता है तब इतिहास की गर्त में दबे सुप्त प्रसंगों के बमों को यहाँ  चिंगारी दिखाई जाती है. आग उगलते बयानों की धधकती मिसाइलें विरोधियों पर दागी जाती हैं। और तो और न्यायालयों में जाने से पहले ही विवादों को टीवी चैनलों की खौफनाक जिरह का सामना करना पड़ता है। सर्वज्ञानी एंकरों के चीखते सवालों का जवाब देना न तो किसी कार्यकर्ता के बस में होता है और न ही किसी ईमानदार नेता की प्रतिष्ठा के अनुकूल। ऐसे में इस नई परिस्थिति के मुकाबले के लिए एक नया चरित्र उभरकर सामने आया है, वह है- ‘पार्टी प्रवक्ता।’ असली सिपाही तो यही होता है जो पार्टी नेतृत्व और विचारधारा की रक्षा के लिए विपक्ष की धुंवाधार गोलीबारी के बीच भी अपनी बन्दूक चलाता लगातार डटा रहता है।

‘प्रवक्ता’ की भूमिका मीडिया आधारित राजनीति में इन दिनों बहुत अहम हो गयी है. इसका कहा ही आम लोगों तक पार्टी के कहे की तरह पहुंचता है. बहुत कुशल और प्रतिभावान के चयन के बावजूद इस प्राणी की स्थिति टीवी पर अक्सर बहुत ही नाजुक बनी रहती है। तर्क-कुतर्क के कई दांव पेंच आजमाते हुए यह लगातार अपने प्रतिद्वंदी को परास्त करने के उपक्रम में जुटा रहता है. बल्कि यों कहें इस जुझारू योद्धा को  चौतरफा आक्रमणों का मुकाबला अकेले ही करना होता है। टीवी बहस में उपस्थित विचारकों के प्रस्तुत तथ्यों, विरोधी प्रवक्ता द्वारा कब्र खोदती टिप्पणियों, सहयोगी दल की नासमझ अपेक्षाओं और महा ज्ञानी एंकर की स्पीड ब्रेकर चीखों के बीच संतुलित जवाब देना कितना कठिन हो जाता है यह आसानी से समझा जा सकता है।

प्रवक्ताओं का संघर्ष सचमुच प्रणम्य है। ये अभिमन्यु नहीं होते, समयसीमा में बंधे चक्रव्यूह से बाहर निकल ही आते हैं। कुछ न कुछ उपाय खोज ही लेते हैं. कुछ प्रवक्ता  आद्ध्यात्मिक हो जाते हैं और मोटिवेशनल सूक्तियों की फुहार से बहस की ज्वाला को शांत करने की कोशिश करते हैं तो कुछ किसी लोकप्रिय शेर या कविता का अंश सुनाते हुए मुस्कुराने लगते हैं। लेकिन सबसे अचूक हथियार इनका यह होता है कि प्रतिपक्षी या एंकर के सवाल के उत्तर में ही प्रवक्ता अपना नया सवाल दाग देता है। याने प्रश्न के जवाब में एक नया प्रश्न। टीवी की बहसों में यही सब देख कर विख्यात गीतकार शैलेन्द्र के गीत की कुछ पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं- ‘एक सवाल तुम करो, एक सवाल मैं करूँ। हर सवाल का जवाब हो एक सवाल।’

सवालों से लबालब टीवी बहस के प्याले में उत्तरों की एक बूँद भी क्यों नहीं मिलती ? एक मात्र यही सवाल हर वक्त मन में घंटी बजाता रहता है।

ब्रजेश कानूनगो

Friday, August 28, 2020

सूत्रों के हवाले से

सूत्रों के हवाले से

 उस जमाने में आज की तरह जोशवर्धक रसायनों और ताकत बढाने वाली कैप्सूलों का इतना ज्यादा प्रचार-प्रसार नही हुआ था। अखबारों में ऐसे विज्ञापनों से ज्यादा कविताएँ छपा करती थीं। लोह भस्म का सेवन किए बगैर ही कवि सबसे लोहा लेता रहता था। उसकी शक्ति के आगे बडे-बडे तुर्रम और सम्राट नत मस्तक हो जाते थे। उसकी वाणी में इतना दम होता था कि वह लोगों के भीतर चिंगारी सुलगाने का सामर्थ्य रखती थी। उनके विचारों से ऐसी आग धधक उठती थी जिससे लोग क्रांति की मशाल प्रज्ज्वलित कर सत्ता का तख्त आदि तक पलट दिया करते थे। कवि की इसी ताकत और पहुंच की व्यापकता के कारण कहावत बन गई –‘जहाँ न पहुंचे रवि,वहाँ पहुंचे कवि।’ जिन दुर्गम स्थलों और कोनों तक पहुंचने में सूरज की भी साँस फूल जाया करती थी वहाँ से कवि अपने विचारों की रोशनी में अपने बल पर सच्ची खबर ले आता था।

अब कवि के बस में यह सब नही रहा। बहुत गिनती के ऐसे कवि रह गए हैं जो जोखिम में पडकर परहित के दुर्गम रास्तों और अन्धेरों में भटकने का दुस्साहस दिखा पाते हों। आ बैल मुझे मार वाला अब यह काम ‘सूत्र’ करता है। चूंकि वह बैल से मार नही खाना चाहता इसलिए अपनी पहचान छुपा कर यह काम करता है। दरअसल यह ‘सूत्रों’ का ही समय है। ऐसा लगता है कि इन दिनों हमारा कोई असली शुभचिंतक है तो वह सिर्फ मीडिया समाज की वह ‘सूत्र बिरादरी’ ही है जो छुपी हुई वास्तविकताओं और उनके कारणों को सच्चाई के साथ उजागर करके पुण्य कमा रही है।

सूत्र ही वह प्राणी है जो अब पूर्व के कवि का काम करता है। ‘सूत्र’ रवि और कवि दोनों से अधिक प्रभावी और प्रतिभाशाली होते हैं। सच्चाई तक पहुंचने के लिए रवि और कवि दोनों को स्वयं भी प्रकाशित होना पडता रहा है, इसलिए उनको काम करते हुए हर कोई देख सकता है। यह बहुत खतरनाक होता है।  सूत्रों के साथ ऐसा नही होता। वे अदृश्य रहकर अपना काम करते रहते हैं। इन्हे कोई नही जान पाता। न ही उनके तौर-तरीके पर कोई सवाल करना सम्भव होता है। 

सूत्र मिस्टर इंडिया की तरह अदृश्य रहकर बडी निडरता से काम करता है लेकिन उसके काम करने की प्रक्रिया में डर की बडी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जहाँ वह जाता है अंजान भय से लोग घबराने लगते हैं कि कहीं कोई गुप्त कैमेरा, छुपा हुआ रेकार्डर तो अपना काम नही कर रहा।  लक्ष्य प्राप्ति के लिए सूत्र हर नीति कुटनीति को अपनाने में हिचक नही रखता। वह हमेशा परिणाम में विश्वास रखता है। जब सूत्र नतीजे पर पहुंच जाते हैं तब सूत्रधार उनके नतीजों का खुलासा करता है और खबरों की दुनिया में आग लगा देता है। यह आग तब तक बनी रहती है जब तक की कोई अन्य सूत्र किसी और नतीजे पर नही पहुँच कर नया धमाका नही करता।

सूत्र बस सूत्र होते हैं। उनका कोई नाम नही होता। टीवी चैनलों पर हमे केवल इतना भर पता चलता है कि उन्हे यह खबर सूत्रों के हवाले से मिली है। सूत्रों को गुमान होता है कि वे हमारे जीवन को बेहतर बनाने के कार्य में पूरी मुस्तैदी से लगे हुए हैं। शोले के जेलर के जासूसों की तरह चैनल के सूत्र देश के कोने कोने में फैले हुए रहते हैं । इनका नेटवर्क बडा व्यवस्थित होता है। मंत्रालयों की मक्खियों से लेकर कैटरिना के बाथरूम के साबुन तक उनकी नजरें लगी रहती हैं।

चैनलों के इन बेनाम सूत्रों पर भरोसा करना हमारी स्वाभाविक प्रकृति है। बहुत सी बातों पर हम विश्वास करते हैं, समोसे को हरी चटनी से खाने से कृपा होने और सपने के संकेत से खजाना मिलने की उम्मीद पर हम विश्वास करते हैं। विश्वास करना हमारे संस्कारों का हिस्सा है । पहले कभी बेताबी से डाकिया बाबू का इंतजार किया करते थे अब रोज अपलक टीवी निहारा करते हैं देखें आज क्या खबर आनेवाली है सूत्रों के हवाले से। इन सूत्रों से ही जीवन का सूत्र कायम है। ये सूत्र ही हमारे जीवन को रसमय बना रहे हैं, यह क्या छोटी मोटी बात है। 

ब्रजेश कानूनगो  

 

Wednesday, August 5, 2020

वाट्सएप पर महाकवि

वाट्सएप पर महाकवि


किसी ने कहा है जीवन एक कविता है। कई पद हैं इसमें। चौपाइयां हैं, दोहे, सोरठा,कुंडलियां, क्या नहीं है इस कविता में। लय है, तुक है, तो कभी बेतुकी भी हो जाती है जीवन की कविता।  हुनर चाहिए जीवन कविता को मनोहारी बनाने के लिए।

मैं कुछ इस तरह लिखते हुए अपने लेख की शुरुआत कर ही रहा था कि मित्र साधुरामजी आ धमके। बोले- 'यह क्या दिन भर टेबल पर झुके रहते हो! और कुछ काम धाम भी है या नहीं। जब देखो साहित्य, साहित्य करते रहते हो...'

उन्हें रात को लिखी अपनी नई कविता सुनाई। कविता को उन्होंने सराहा भी मगर थोड़ा निराश होते हुए गोकुलधाम सोसायटी के एकमेव सेक्रेटरी आत्माराम तुकाराम भिड़े की तरह अतीत गमन करते हुए बोले-‘हमारे जमाने में कविताएँ कभी इतनी रूखी-सूखी नहीं हुआ करती थीं, उनमें रस होता, पढ़ते-सुनते समय मन आनंद से सराबोर हो जाता था. तुम्हारी कविताएँ दुखीं कर देती हैं, वो आनंद नहीं रहा अब की कविताओं में।’

‘मगर अब कविताएँ यथार्थवादी होती हैं साधुरामजी, कला की बजाए इनमें कथ्य महत्वपूर्ण होता है,’ मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की।

'क्या मिल जाएगा ऐसे यथार्थवादी लेखन से तुम्हे?' वे बोले।
'लिखने से मुझे आत्म संतोष मिलता है,साधुरामजी।' मैने कहा।
'अब ज्यादा बातें मत बनाओ! कोई पद्मश्री नहीं मिल जाएगा तुम्हे इससे!' वे बोले।
'मैं किसी सम्मान,पुरस्कार की आकांक्षा से नहीं लिखता, मेरा लेखन स्वान्तः सुखाय है साधुरामजी।' मैने कहा तो वे चिढ़ गए-'अरे छोड़ो भी अब, इतना समय घर के कामकाज में देते, भाभीजी को सहयोग करते तो उनकी दुआएं लगतीं।'
'उनकी दुआएं तो सदैव मेरे साथ ही हैं। उनका सहयोग नहीं होता तो मैंने जो थोड़ा बहुत लिखा पढा है वह भी नहीं कर पाता।' मैंने तनिक खिसियाते हुए कहा।
'और सुनो बन्धु ! ये जो तुम लिखते हो क्या सब तुम्हारा अपना  है? ये देखो तुम्हारी वह ग़ज़ल जो तुमने पिछले हफ्ते गोष्ठी में सुनाई थी, वह तो गुलजार साहब की है। यह देखो!' साधुरामजी ने उनका मोबाइल में मेरी ओर बढ़ा दिया।

वहां एक वाट्सएप समूह में मेरी वही कविता शेयर की गई थी, किन्तु नीचे शायर का नाम 'गुलजार' लिखा हुआ था। अब यह मेरे लिए सम्मान की बात थी या गुलजार साहब के लिए सिर पीट लेने वाली, कह नहीं सकता।

'अरे भाई आप तो 'गुलजार साहब' हो गए हैं अब! सफेद कुर्ता पहनों और पहुंच जाओ मुम्बई। खूब काम मिलेगा और अवार्ड भी।' साधुरामजी मजे लेने के मूड में आ गए थे।

'और बंधु जरा कभी अपना रोल बदल कर भी देखो...मसलन कभी पत्नी के काम अपने हाथ में ले लो...बडा मजा है... महरी नही आने पर बरतन मांजने में भी बडा मजा है...अपनी इस कला को भी सार्थकता देकर  चमकाया जा सकता है... कपडे धोना-सुखाना किसी तार पर...छत पर...अपने हाथों से आटा मथ कर गर्मा-गर्म रोटियाँ अपनों को खिलाना...वाह! अद्भुत आनन्द... एक नई कहानी...नई कविता लिखने के संतोष से भरा-भरा सा ... जैसे विविध-भारती पर नीरज या साहिर का गीत सुन रहे हों...!'
अब साधुरामजी जैसे पूरे साहित्य जगत को ही संबोधित कर रहे थे मानो वहां सारे रचनाकार अपनी घर गृहस्थी से विरक्त होकर सिर्फ सृजन में ही संलग्न हो गए हों।

तभी मेरे मोबाइल में चिड़िया चहकी। एक वाट्सएप मेसेज आया था। खोलकर पढा तो चेहरे पर मुस्कुराहट दौड़ गई। मैंने मोबाइल साधुरामजी के आगे कर दिया। वहां साधुरामजी की एक नज्म हरिवंशराय बच्चन जी के नाम से शेयर हुई थी।

ब्रजेश कानूनगो