Tuesday, January 9, 2024

बुढ़ापे में व्यंग्य लेखन के खतरे

बुढ़ापे में व्यंग्य लेखन के खतरे

 
जीवन में खतरों से कौन नहीं खेलना चाहता! बिना जोखिम उठाए सफलता के झंडे नहीं गाड़े जा सकते. लक्ष्य नहीं साधा जा सकता. बिना पर्वतारोहण किए हिमालय फतह नहीं होता. जीवन पथिक लगातार खतरों से खेलते हुए आगे बढ़ता है. 

बात केवल एवरेस्ट पर झंडे गाड़ने की नहीं है.  हरेक क्षेत्र के अपने अपने शीर्ष हैं जहां पहुंचने के दुर्गम रास्ते हैं, सीढियां हैं. संघर्ष हैं. जोखिम हैं. कोशिश सब करते हैं. इसके लिए खतरों का खिलाड़ी बनना होता है, लेकिन उसका भी एक समय और उम्र होती है जब कोई अपना जीवन जोखिम में डाल सकता है. 

जानी मानी बात है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. समाज और मनुष्य को सच्ची छवि दिखाकर उसे बेहतर बनाने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. इसी बेहतरी के लिए लेखक सृजन की राह पर आगे बढ़ता जाता है. सृजन के भी अपने शिखर हैं, लेखन पथ के कठिन शीर्ष हैं,दुर्गम पड़ाव हैं. मानसिक और दैहिक क्षति के खतरे हैं. 

जोखिम तो साधुरामजी भी लेना चाहते हैं. सृजन के सरताजों की सूची में शीर्ष तक पहुंचने की तमन्ना  उनके भी हृदय में कुलांचे भरती रहती है पर तन अब साथ नहीं देता. साहित्य के खेत में कलम कुदाली लेकर उतरे थे तब न जाने क्या क्या मंसूबे  मन में उछलकूद करते थे. समाज की सफाई करेंगे, कंटीली झाड़ियां और कूड़ा करकट खोद फैंकेंगे. पहले थोड़े बहुत खतरे उठाया भी करते थे, आपातकाल के दिनों में भूमिगत रहकर भी लिखा लेकिन अब बड़ा जोखिम है. कटिली झाड़ियों में हाथ डालना खतरनाक है. खासतौर से व्यंग्य विधा में लिखने पर हड्डियों के टूट फुट की आशंका बनी रहती है. यद्यपि अतीत में कई रचनाकार अपनी हड्डियां तुड़वाकर समाज की गंदगियां उजागर करते रहे. लेकिन वे उजागरसिंह नहीं बन पा रहे, नाम में ही साधु जुड़ा है तो रिस्क नहीं लेना चाहते. नाम में बट्टा क्यों लगाना इस बुढ़ापे में. जवान होते तो उबलता खून होता, मजबूत इरादे होते, समाज को बदल दूंगा टाइप. 

इन दिनों अक्सर दुखी और निराश रहते हैं साधुरामजी. सोचते रहते हैं जो युवा टाइप के लेखक हैं वे क्यों जोखिम नहीं उठा पा रहे. वे तो खतरों से खेल ही सकते हैं. जवान हड्डियों और मजबूत इरादों के मालिक हैं. तब क्यों घबराना? वह ललकारें कहां गईं जब गा उठता था लेखक, देखना है जोर कितना बाजुओं कातिल में है.
एक युवा लेखक से साधुरामजी का वार्तालाप हुआ. युवा लेखक ने उन्हें बताया कि एक तो वह पहले से बेरोजगार है और लिख छप कर परिवार का पेट नहीं भरा जा सकता दूसरा यदि गलत को गलत लिख दिया जाए तो नींद नहीं आती, आती है तो सपने में ट्रोल करती अनेक भेड़ें सिंग लहराती दौड़ती हमारी हड्डियां तोड़ने को आतुर आती दिखाई देने लगती हैं. भय लगता है, जोखिम नहीं लेना चाहता.  और फिर पता चला है कि जल्दी ही साहित्य से व्यंजना, लक्षणा शब्द शक्तियों सहित व्यंग्य विधा को निष्काशित किए जाने का कोई कानून प्रभाव में आने वाला है. युवा लेखक की बात सुन साधुरामजी भौचक्क रह गए! 

ब्रजेश कानूनगो 

Monday, January 8, 2024

कोहरे में घटती दृश्यता और कर्तव्य पालन

कोहरे में घटती दृश्यता और कर्तव्य पालन

उस दिन सुबह से वे उसे जगा रहे थे. पर वह बिस्तर छोड़ने को तैयार ही नहीं था. रजाई एक तरफ से उलेटते तो वह दूसरी तरफ से खींच कर मुंह ढंक लेता. यों सामान्य स्थितियों में भी सुबह सात बजे स्कूल जाने में उसको अपनी स्वर्गवासी नानी जी याद आने लगती थी तब कड़कड़ाती ठंड में तो बड़ी मुश्किल हो रही थी. ऊपर से बेमौसम बरसात और ओला वृष्टि ने जैसे अलास्का या साइबेरिया को ही घर तक पहुंचा दिया था. बिना कुछ खर्च किए पर्यटन के सुख और आनंद का बंदोबस्त मुफ्त में उपलब्ध था.


पोते को न उठना था तो नहीं उठा. उसे स्कूल बस तक पहुंचाने की जिम्मेदारी दादा का पारिवारिक कर्तव्य था. वैसे सरकार की कल्याणकारी नीतियों और योजनाओं के फायदों का प्रचार प्रसार के राष्ट्रीय दायित्व को सोसायटी के वाट्सएप ग्रुप में नियमित रूप से निभाते रहते हैं.  सरकारी सेवा से रिटायरमेंट के बाद कुछ पारिवारिक दायित्व भी उनके लिए अब निर्धारित कर दिए गए थे.


शीतकाल के इस समय में बड़ी समस्या आ रही थी दादाजी के समक्ष. कड़ाके की ठंड ने उनकी सारी गरमाहट को जैसे  दबोच लिया है. नियमित कर्तव्य पालन में बड़ी दिक्कत आ रही है. सब तरफ कोहरा छाया हुआ है. पोते में स्कूल जाने की गर्मी नहीं है, दादा की सरगर्मी कोई काम नही आ रही. सारे प्रयास विफल हो रहे. ऊपर से सोसायटी के वाट्सएप ग्रुप में संदेशे आने लगे कि बच्चे आपके हैं, कलेक्टर या सरकार के नहीं, ठंड में उन्हें स्कूल मत भेजें. लेकिन दादा का पुराना नेहरूकालीन मस्तिष्क यह बात स्वीकारने को तैयार नहीं. खुद की दादी के निधन हो जाने पर भी बचपन में उन्हें स्कूल भेज दिया गया था. पर अब नया देश था, नया संसार था.


बहरहाल, पोते को जगाने, बिस्तर छुड़वाने की माथापच्ची से मुक्त होकर उन्होंने ताजा अखबार उठा लिया. हालांकि अखबार में भी कोहरा छाया हुआ था. उसने भी दो दो जैकेट धारण कर रखी थी और उनमें भी हीटर,ऊनी कपड़ों, गर्मी लाने के साधनों और कंबलों के विज्ञापन छपे थे. सरकारों के गरमाहट से भरे बड़े बड़े पोस्टर छपे थे. जीवन में गर्मी की गारंटियां थीं.

भीतर के पृष्ठों पर वे ही खबरें थीं जो रात को ही वे टीवी पर देख चुके थे. जिन खबरों को वे विस्तार से पढ़ना चाहते थे वे थी ही नहीं या जो थोड़ी बहुत दिखाई दे रहीं थी वे भी ठिठुरकर छोटी हो गई थीं.


दो जैकेटों के बाद अखबार में जो सुर्खियां थी उनमें भी एक्सप्रेस हाइवे पर वाहनों के टकराने और दुर्घटनाओं की सूचनाएं थीं. नीतियों, कूटनीतियों में कोहरे और विचारहीनता की वजह से देशों और नेताओं के टकराव के शोले भड़कने की रिपोर्टिंग नजर आ रही थीं. आसमान में सूरज नहीं था पर राजनीति के आकाश में कई सूर्य और नक्षत्र अपनी तेजस्विता से कोहरे को भेदने की सफल,असफल कोशिश करते दिखाई दे रहे थे. 


चारों तरफ कोहरा घना था. दृश्यता सिमट गई थी. औसतन सौ मीटर रह गई थी. कहीं कहीं इससे भी कम. कोहरा इतना अधिक प्रभावी था कि आंखें तो आंखें दिमाग भी जैसे शून्य होता जा रहा था. न कुछ दिखता था न कुछ सोच पाता था. गजब का कोहरा काल था यह.


तीसरे पन्ने पर जैसे ही उनकी एक खबर पर दृष्टि पड़ी उन्होंने बड़ी राहत महसूस की. कलेक्टर ने अगले सात दिनों के लिए सभी स्कूलों को सुबह सुबह की बजाए प्रातः दस बजे से खोलने के निर्देश दे दिए थे. कोहरे के सामने सबने हथियार डाल दिए थे. सच है दुर्घटनाओं को रोकना है, परेशानियों से बचना है, सुखी, प्रसन्न रहना है तो कोहरे और अल्प दृश्यता को गले लगाने में ही भलाई है.

दादाजी ने अखबार को समेटकर मोबाइल उठाया और सोसाइटी के ग्रुप में सरकार के निर्णय और कलेक्टर के नए आदेश को प्रसारित करने का राष्ट्रीय कर्तव्य का निर्वहन प्रारंभ कर दिया. दृश्यता अब केवल सात इंच रह गई थी. कोहरे की वजह से दूरदृष्टि उनकी ही नहीं पूरे समाज की गड़बड़ा गई है. न जाने यह कोहरा कब छटेगा!


ब्रजेश कानूनगो

Thursday, January 4, 2024

आंदोलन पर उतरी सब्जियां

आंदोलन पर उतरी सब्जियां 


बड़ा ही गजब हो गया. ट्रक ड्राइवरों की हड़ताल समाप्त हुई ही थी कि नगर की मंडी में सब्जियों ने आंदोलन शुरू कर दिया. 
सारी की सारी सब्जियां अपनी विविध प्रकृति और गुण धर्म छोड़कर एकजुट हो गईं. चाहे गौर वर्णी धवल मूलियां हों या गुलाबी शकरकंद,चुकंदर. यूरोपियन शैली में बालों को खूबसूरती से संवारे गोभियां हों या घूंघट लिए शर्मीली मटरें, अपने ठिकानों को छोड़कर राजबाड़ा चौक पर सभी जमा हो गए. 

केवल सब्जियां ही नहीं कंदमूल और जमीकंद भी हाथों में बैनर,झंडे और पोस्टर थामे नारे लगा रहे थे. यहां तक कि लौकी और कद्दू जैसी दीनहीन और उपेक्षित तरकारियां भी एकजुट हो गईं. 
भले ही गाजरों को कुटिल विदेशी लोगों के प्रेम ने सिर पर चढ़ा रखा है लेकिन जब भारतीयता पर बात आ गई तो हजारों की संख्या में ये रेड कामरेड भी हाथों की श्रंखला बनाए अपना झंडा बैनर थामे शालीन प्रदर्शन कर रहे थे. 

कद्दू समाज की ओर से तो एक पुतला बनाकर भी चौराहे तक लाया जा चुका था. उनका विचार था की पुतला जलाए बिना किसी आंदोलन में चेतना नहीं आती. आग और आंदोलन का बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध रहा है. पुतला न हो तो टायर जलाकर भी प्रदर्शन में जान फूंकी जाती रही है. 

सबसे ज्यादा आंदोलनकारी बैंगन समाज से ही थे. वैसे बैंगनों में भी कई जातियां और उपजातियों का झमेला है फिर भी उनकी एकता देखते ही बनती थी. अपने आपको श्रेष्ठ और सत्ता तक को हिला देने वाले बलशाली टमाटर और प्याज भी आज बहुत बड़ी संख्या में नारे बाजी कर रहे थे. 

इस समूचे प्रदर्शन और आंदोलन को सब्जियों के सरताज आलुओं का भरपूर सहयोग और शक्ति प्राप्त थी. हो भी क्यों ना? किसी ऑन लाइन फूड पोर्टल टेस्ट एटलस ने दुनिया की सबसे खराब सब्जियों में 'आलू,बैगन और टमाटर'  वाली अपनी पसंदीदा सब्जी का नाम शामिल कर लिया था. यह किसी भी हालत में किसी भारतीय को कैसे स्वीकार होगा चाहे वे व्यक्ति हो या तरकारी.  इसीलिए राजबाड़ा चौक पर गहमागहमी के बीच सब्जियों का यह विरोध प्रदर्शन चल रहा था. 

प्रश्न भारतीय तरकारी समाज की सब्जियत का जो था. उसके मान सम्मान का था. दुनिया को श्रेष्ठ भोजन देने वाले हर दिल अजीज आलुओं की सर्वव्यापकता और स्वीकार का था. उपेक्षित बैंगनों को गले लगाने वाली उसकी स्नेहिल उदारता का था. टमाटरों ही नहीं दुनियाभर की सब्जियों में उसके घुलमिल जाने और मिलनसारिता जैसे मूल्यों की रक्षा का था. आंदोलन तो होना ही था. 

आलुओं के नेतृत्व में यह भी लग रहा था कि सब्जियों का यह प्रदर्शन राष्ट्रव्यापी होता हुआ कहीं ग्लोबल ही न हो जाए.  टमाटरों का तो यहां तक कहना था कि इस सबके पीछे किन्ही विदेशी और बाजार शक्तियों का हाथ है जो भारतीय सब्जियों के बाजार पर कब्जा करना चाहती हैं. 
प्याज समाज के लीडर का कहना था कि हमें अपनों द्वारा सड़कों पर रौंद डालने से उतना मानसिक कष्ट नहीं हुआ जितना ' बैंगन टमाटर आलू ' की सब्जी को संसार की घटिया सब्जियों  में वर्गीकृत करने से हुआ है. 

राजबाड़ा चौक में शोरगुल बढ़ता जा रहा था. ढोल नगाड़े भी बजने लगे थे. देखते ही देखते मनुष्यों की भीड़ वहां बढ़ने लगी. कुछ नेतागण और उनके अनुयायी भी गरदनों में रंग बिरंगे दुशाले और टोपियां लगाए इकट्ठा होने लगे. सब्जियों की प्रदर्शनकारी टुकड़ियां धीरे धीरे मानवीय कार्यकर्ताओं के पीछे सिमटने लगीं. कद्दूओं द्वारा लाया गया पुतला किसी टोपीधारी नेता ने सुलगा दिया था. आग भड़कने लगी थी. नारों के स्वर ऊंचे होते जा रहे थे. 
किसी हवलदार ने चौकी को खबर की तो थोड़ी ही देर में  पुलिस की गाड़ी वहां आई और जवान  डंडे बरसाने लगे. जलते हुए पुतले को भीड़ से दूर ले जाकर उस पर फायर ब्रिगेड के वाहन ने पानी की बौछार कर दी.

यकायक मुझे लगा जोशीले प्रदर्शन को देखते हुए मेरे चेहरे पर भी पानी के कुछ छीटें आ गिरे हैं. छींटे ही नहीं एक जानी पहचानी सी आवाज भी सुनाई दी, अब उठ भी जाइए, कब तक सोते रहेंगे, बाजार से बैंगन ले आइए, बच्चों की फरमाइश है, आलू बैंगन टमाटर की सब्जी बनानी है आज. 

ब्रजेश कानूनगो