Monday, January 8, 2024

कोहरे में घटती दृश्यता और कर्तव्य पालन

कोहरे में घटती दृश्यता और कर्तव्य पालन

उस दिन सुबह से वे उसे जगा रहे थे. पर वह बिस्तर छोड़ने को तैयार ही नहीं था. रजाई एक तरफ से उलेटते तो वह दूसरी तरफ से खींच कर मुंह ढंक लेता. यों सामान्य स्थितियों में भी सुबह सात बजे स्कूल जाने में उसको अपनी स्वर्गवासी नानी जी याद आने लगती थी तब कड़कड़ाती ठंड में तो बड़ी मुश्किल हो रही थी. ऊपर से बेमौसम बरसात और ओला वृष्टि ने जैसे अलास्का या साइबेरिया को ही घर तक पहुंचा दिया था. बिना कुछ खर्च किए पर्यटन के सुख और आनंद का बंदोबस्त मुफ्त में उपलब्ध था.


पोते को न उठना था तो नहीं उठा. उसे स्कूल बस तक पहुंचाने की जिम्मेदारी दादा का पारिवारिक कर्तव्य था. वैसे सरकार की कल्याणकारी नीतियों और योजनाओं के फायदों का प्रचार प्रसार के राष्ट्रीय दायित्व को सोसायटी के वाट्सएप ग्रुप में नियमित रूप से निभाते रहते हैं.  सरकारी सेवा से रिटायरमेंट के बाद कुछ पारिवारिक दायित्व भी उनके लिए अब निर्धारित कर दिए गए थे.


शीतकाल के इस समय में बड़ी समस्या आ रही थी दादाजी के समक्ष. कड़ाके की ठंड ने उनकी सारी गरमाहट को जैसे  दबोच लिया है. नियमित कर्तव्य पालन में बड़ी दिक्कत आ रही है. सब तरफ कोहरा छाया हुआ है. पोते में स्कूल जाने की गर्मी नहीं है, दादा की सरगर्मी कोई काम नही आ रही. सारे प्रयास विफल हो रहे. ऊपर से सोसायटी के वाट्सएप ग्रुप में संदेशे आने लगे कि बच्चे आपके हैं, कलेक्टर या सरकार के नहीं, ठंड में उन्हें स्कूल मत भेजें. लेकिन दादा का पुराना नेहरूकालीन मस्तिष्क यह बात स्वीकारने को तैयार नहीं. खुद की दादी के निधन हो जाने पर भी बचपन में उन्हें स्कूल भेज दिया गया था. पर अब नया देश था, नया संसार था.


बहरहाल, पोते को जगाने, बिस्तर छुड़वाने की माथापच्ची से मुक्त होकर उन्होंने ताजा अखबार उठा लिया. हालांकि अखबार में भी कोहरा छाया हुआ था. उसने भी दो दो जैकेट धारण कर रखी थी और उनमें भी हीटर,ऊनी कपड़ों, गर्मी लाने के साधनों और कंबलों के विज्ञापन छपे थे. सरकारों के गरमाहट से भरे बड़े बड़े पोस्टर छपे थे. जीवन में गर्मी की गारंटियां थीं.

भीतर के पृष्ठों पर वे ही खबरें थीं जो रात को ही वे टीवी पर देख चुके थे. जिन खबरों को वे विस्तार से पढ़ना चाहते थे वे थी ही नहीं या जो थोड़ी बहुत दिखाई दे रहीं थी वे भी ठिठुरकर छोटी हो गई थीं.


दो जैकेटों के बाद अखबार में जो सुर्खियां थी उनमें भी एक्सप्रेस हाइवे पर वाहनों के टकराने और दुर्घटनाओं की सूचनाएं थीं. नीतियों, कूटनीतियों में कोहरे और विचारहीनता की वजह से देशों और नेताओं के टकराव के शोले भड़कने की रिपोर्टिंग नजर आ रही थीं. आसमान में सूरज नहीं था पर राजनीति के आकाश में कई सूर्य और नक्षत्र अपनी तेजस्विता से कोहरे को भेदने की सफल,असफल कोशिश करते दिखाई दे रहे थे. 


चारों तरफ कोहरा घना था. दृश्यता सिमट गई थी. औसतन सौ मीटर रह गई थी. कहीं कहीं इससे भी कम. कोहरा इतना अधिक प्रभावी था कि आंखें तो आंखें दिमाग भी जैसे शून्य होता जा रहा था. न कुछ दिखता था न कुछ सोच पाता था. गजब का कोहरा काल था यह.


तीसरे पन्ने पर जैसे ही उनकी एक खबर पर दृष्टि पड़ी उन्होंने बड़ी राहत महसूस की. कलेक्टर ने अगले सात दिनों के लिए सभी स्कूलों को सुबह सुबह की बजाए प्रातः दस बजे से खोलने के निर्देश दे दिए थे. कोहरे के सामने सबने हथियार डाल दिए थे. सच है दुर्घटनाओं को रोकना है, परेशानियों से बचना है, सुखी, प्रसन्न रहना है तो कोहरे और अल्प दृश्यता को गले लगाने में ही भलाई है.

दादाजी ने अखबार को समेटकर मोबाइल उठाया और सोसाइटी के ग्रुप में सरकार के निर्णय और कलेक्टर के नए आदेश को प्रसारित करने का राष्ट्रीय कर्तव्य का निर्वहन प्रारंभ कर दिया. दृश्यता अब केवल सात इंच रह गई थी. कोहरे की वजह से दूरदृष्टि उनकी ही नहीं पूरे समाज की गड़बड़ा गई है. न जाने यह कोहरा कब छटेगा!


ब्रजेश कानूनगो

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