Thursday, December 15, 2022

सेवा का मेवा

सेवा का मेवा


गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, फल की चिंता किए बगैर कर्म किए जाओ। समय आने पर फल अवश्य मिलेगा। धैर्य रखिए। पर धैर्य रखना ही तो मुश्किल है। कब तक कोई धीरज धरे। मन रे तू काहे न धीर धरे। कर्म करे तो कब तक करे बेचारा प्राणी। प्राण निकल जाएं तब फल मिले तो क्या करे उसका वह। मरणोपरांत मिले सम्मान की तरह संततियां अपनी बैठक की दीवार पर मढवाकर इतरा सकती हैं बस।

बहुत से लोग अब कर्म करने को सेवा करना कहते हैं। सेवा शब्द में स्निग्धता है। कर्म थोड़ा खुरादरा सा लगता है। पसीने की गंध आती है इसमें से। सेवा में पावनता है, इसमें केवड़े सी पवित्र महक महसूस होती है। भवन बनाने वाले कर्म करके पसीना बहाते हैं। सदन में सेवा की शपथ लेते नेताओं के शब्द मंत्र की तरह बिखरकर सदन को पवित्रता की सुगंध से भर देते हैं। सेवा की सुवास से प्रजातंत्र का मंदिर महकने लगता है।

तमाम खट कर्म करके चुनाव में विजयश्री मिलने के बाद हर चुने हुए जनप्रतिनिधि की दिली तमन्ना होती है कि वह लोगों की सेवा कर सके। लेकिन क्या सेवा के लिए अपने आपको समर्पित कर देना अब इतना सहज रह गया है? सेवाभावियों की बड़ी भीड़ उमड़ती है अब। हर कोई सेवा करना चाहता है। जो सेवा करता है मेवा उसे ही मिलता है।


क्या क्या सपने देखे होंगे विजयी नेता जी ने। जल सेवा करेंगे,अपने क्षेत्र में नल लगवाएंगे। किसानों के खेतों तक नहरें बनवाएंगे। अस्पताल और स्कूल खुलवाएंगे गली गली। जर जर स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था का कायाकल्प करने का प्रयास करेंगे। पर ये हो न सका। विजयश्री का मुकुट धारण करने के बावजूद सेवा कार्य के अवसर नहीं दिखाई दे रहे। कर्म करने से फल मिलता है और सेवा करने से मेवा।

जी,हां,चौंकिए नहीं! फल को सुखा लिया जाए तो वह मेवा बन जाता है। ताजे से ज्यादा सूखे में ज्यादा सुख है। फल से ज्यादा मेवा मूल्यवान होता है। नेताजी यह बात अच्छे से समझते हैं। मेवा चाहते हैं इसलिए सेवा करना चाहते हैं। पर दिक्कत यह है कि जिस दल के टिकट पर चुनाव जीतकर आए हैं,उसकी सरकार नहीं बन सकती। सत्ता के बगैर कैसे करें सेवा? सेवा का संकल्प कैसे पूरा हो। मेवा पाने की ख्वाहिश अधूरी रह जाने की आशंका सामने खड़ी हो गई है। उनको लगता है कि सेवा का मेवा उनसे दूर खिसक गया है। वे कहते हैं सत्ता में रहे बगैर सेवा करना संभव नहीं। सत्ता में नहीं तो मेवा नहीं। चुनावी संग्राम में उनके कर्मों का विजय फल तो मिल गया है, परंतु उसे मेवा में रूपांतरित किया जाना संभव नहीं है। सत्ता की उम्मीद लिए थोड़े दिन पहले जिस दल में शामिल हुए वह भारी अल्प मत में आ गया है।
वे इसी जीवन में सेवा का मेवा सेवन करना चाहते हैं। देर रात उन्होंने बहुत विचार मंथन किया और सुबह उठकर बहुमत वाले दल में छलांग लगा दी।

ब्रजेश कानूनगो