Sunday, June 28, 2020

साहित्य की तनी हुई मूँछ

साहित्य की तनी हुई मूँछ

कहने को साधुरामजी हमारे लंगोटिया यार हैं लेकिन अपनी हरकतों से हमारी लंगोट खींचने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं

उस दिन हमारी एक व्यंग्य रचना अखबार में छपी थी। तारीफ़ में बहुत से बधाई फोन भी सुबह से आ रहे थे। लेकिन इससे उलट मित्र साधुरामजी स्वयं अखबार पकडे साक्षात पधार गए। आते ही शुरू हो गए-
'आज चड्डी-बनियान गिरोह पर आपने जो लेख लिखा है उसमें चोरों के  प्रति आप का रवैया सहानुभूतिपूर्ण लग रहा है। आप अपराधी के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं।साधुरामजी ने आपत्ति जताई।
'वह व्यंग्य लेख है मित्रउन फटेहाल चोरों के पक्ष में नहीं है जो रात में छोटी मोटी चोरियां करते हैं। बल्कि पूरी टीम वर्क के साथ दिन के उजाले में देश को लूटने वाले सफेदपोश बड़े अपराधियों पर व्यंजना और लक्षणा शब्द शक्तियों में प्रहार करने की कोशिश की गई है उस रचना में।हमने सफाई देते हुए कहा।

'
किंतु ऐसा स्पष्टतः समझ में आता नहीं लेख पढ़कर।साधुरामजी बोले।
'
वह तो समझना पड़ता है मित्र। साहित्य में बहुत से अव्यक्त को पढ़ना आना चाहिए।व्यंग्यकार ने कहा।
'
फिर भी, आपको स्पष्ट लिखना चाहिए कि आप सफेदपोश लुटेरों पर प्रहार कर रहे हैं।साधुरामजी अपनी बात पर अड़े रहे।
'
साहित्यिक विधा में ऐसा नहीं होता मित्रपत्थर फेंकने और लाठी चलाने से अलग होता है रचनात्मक प्रहार। और अभिधा में लिखी रचना तो फिर एक रिपोर्टिंग में बदल जाती है। व्यंजनालक्षणा शक्तियां व्यंग्य के खास औजार होते हैं।हमने तनिक ज्ञान बांटा।

'
नहींयह तो ठीक नहीं है बिल्कुल। स्वीकार्य नहीं हमें। ये शक्तियां तो  बहुत अराजक और आतंकी लगती हैं अपने आचरण से। इन्हें तुरंत निष्काषित करिये साहित्य से। अन्यथा हमें कोई कानून लाना पड़ेगा।कहते हुए  साधुरामजी नें अभिधा शक्ति में  देशभक्ति से परिपूर्ण एक जोशीले नारे का उद्घोष किया और  निकल लिए। 

यद्यपि साधुरामजी का सार्वजनिक जीवन मोहल्ले की राजनीति से शुरू हुआ था और मोहल्ले की पार्षदी पर जाकर अटक कर रह गया। और अब तक पुराने घंटाघर की घड़ी की सुइयों की तरह अटका पडा है। इस बीच उनमें किताबें पढ़ने का शौक भी जाग्रत हो गया। पहले कर्नल रणजीत, इब्नेसफी और गुलशन नंदा का अमर साहित्य उन्होंने तत्कालीन पान भण्डार सह पुस्तकालय से प्रतिदिन चवन्नी के किराए पर लाकर खूब पढ़ा, बाद में यही शौक उन्हें छाया वाद से लेकर समकालीन साहित्य की कविताओं और कहानियों की और ले गया। बल्कि इस मामले में उनकी रूचि इस कदर बढ़ी कि घर में ही उन्होंने अपनी एक निजी लाइब्रेरी तक बना डाली।
दिलचस्प प्रसंग यह रहा कि एक दिन अचानक साधुरामजी ने अपनी लायब्रेरी में रखी कविता संग्रहों की सारी पुस्तकें कबाड़ी को बेच दीं तो मैंने आश्चर्य से पूछा- ‘आपने गद्य की पुस्तकें क्यों नहीं बेची कबाड़ी को ?
उन्होंने स्पष्टीकरण दिया- गद्य की किताब की बजाय, कविता की किताब का पन्ना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक रहता है।
'
क्या मतलब?' में भौचक्क रह गया।
'
कबाड़ी से किताबों की रद्दी मंगू चाटवाला खरीदता हैसमोसे पर कविता के कम शब्दों की स्याही चिपकती हैजिससे  बीमारी की संभावना का प्रतिशत भी घट जाता है।'
आमजनता के हितों के प्रति साधुरामजी की चिंता और जागरूकता का मैं तभी से मुरीद हो गया था। और अब तक बना हुआ हूँ।  

पढ़ते पढ़ते धीरे धीरे वे थोड़ा लिखने भी लगे। दोस्तों में कोई लिखता छपता है तो यह संक्रमण दूसरों को भी गिरफ्त में ले ही लेता है। यह रोग हमें भी ऐसे ही लगा था और इसी तरह साधुरामजी में भी यह कीड़ा प्रवेश कर गया। जब भी कीड़ा काट लेता वे कुछ लिख लेते और हमारे पास चले आते। मित्र के नाते मैं उनके लिखे में भाषा और वर्तनी को ठीक करने के लिए कुछ संशोधन कर दिया करता था।

उनकी एक आदत यह थी कि वे 'हेतुशब्द का खूब प्रयोग किया करते थे लेकिन गलत यह था कि 'हेतुको 'हेतूलिख देते थे। मैं उसकी वर्तनी ठीक करके उसे 'हेतुकर देता मगर वे उसे पुनः 'हेतूकर देते थे। जैसा कि यह ज़माना कॉपी पेस्ट का अधिक हो गया है सो जब रचना अखबार में प्रकाशित होकर आती वहाँ भी गलत ‘हेतू’ छपा होता  आखिर में परेशान होकर मैने उन्हें शब्दकोश आदि दिखाकर थोड़ा आक्रोश में कहा कि 'साधुरामजी, आप हेतु गलत लिखते हैंमैं ठीक कर देता हूँ तब भी आप पुनः उसे 'हेतूकर देते हैं ऐसा क्यों?'वे मुस्कुराते हुए बोले मित्रमैं जानता हूँ सही क्या है। ‘हेतु’ ठीक है लेकिन न जाने क्यों मुझे 'हेतूही बचपन से अच्छा लगता रहा है, हेतू से मुझे उसी तरह प्यार हो गया है जैसे कोई वीरपुरुष अपनी 'तनी हुई मूंछोंसे प्यार करता है। 'हेतूमेरी भाषा और रुचि में शामिल हो गया है, इसे मैं त्याग ही नहीं सकता।'
इसके बाद मैंने उनकी भाषा की मूछों को कभी नीचे झुकाने का प्रयास नहीं किया। आज भी उनकी हस्तलिपि में हेतु की मूंछें गर्व से तनी ही रहती हैं।

इसी तरह अपनी मूँछों पर ताव देते हुए उन्होंने खूब कवितायेँ लिख डाली कवितायेँ लिख डालीं तो किताब भी छपवानी जरूरी हो गई बिना किताब के लेखक को साहित्यिक मान्यता नहीं मिलती। साहित्य संसार का आधारकार्ड अपना संग्रह या किताब ही होती है यह वे अच्छी तरह जानते थे
कविताओं का नया संग्रह आया तो बधाई देते हुए हम बोले- ' बढ़िया है किताब आपकी।'
'
धन्यवादकुछ सामग्री पर भी कहिए! खुश होकर साधुरामजी बोले।
'
सामग्री भी बढ़िया हैकागज की क्वालिटी बेहतर है।हमने कहा।
'
मेरा मतलब हैकविताओं पर अपना अभिमत व्यक्त कीजिये।साधुरामजी थोड़ा चिढते हुए बोले।
'
मेरे कुछ कहने से क्या होगाफ्लैप पर जो वरिष्ठ कवि ने व्यक्त कर दिया है उससे बेहतर भला मैं और आगे क्या कुछ कह पाऊंगा, साधुरामजी!’ मैंने कहा।
'
अरे ,नहीं मित्र! आप  मेरी कविताओं पर अपने विचार रखेंगे तो वह मौलिक होंगे।'
'
ऐसा क्योंक्या फ्लैप पर वरिष्ठ कवि का लिखा ब्लर्ब मौलिक नहीं है?'
'
जीवह मैंने स्वयं ही लिख लिया था,उनके नाम से।'
'
अरे भाई तो जो पिछले दिनों अखबार में समीक्षा आई है, उसमें भी तो वरिष्ठ आलोचक ने बड़ी प्रशंसा की हैआपकी कविताओं की।'
'
अब जाने दीजिए!उन्होंने निराश होकर कहा 'आपसे नहीं होगामैं ही लिख लेता हूँ आपका अभिमत।'
इतना कह कर साधुरामजी ऐसे एकांतवासी हुए कि मुझे उनकी चिंता सताने लगी है। मित्र की नाराजगी न जाने क्या कहर ढाएगी अब....!

ब्रजेश कानूनगो



 

पुनः पधारें!

पुनः पधारें!

शादियों के मौसम में देहात जाने वाली बस में यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. बस पर लिखा ‘प्रवेश द्वार’ देखकर मैं उसकी ओर बढ़ने और चढ़ने का प्रयास करता, मगर अंदर से उतर रहे यात्रियों द्वारा फिर बाहर धकेल दिया जाता. निगाह पलट कर देखा तो ‘निर्गम द्वार’ से यात्री बस में चढ़ रहे थे और ‘प्रवेश द्वार’ से उतर रहे थे. अब बताइए दरवाजे पर प्रवेश या निर्गम लिखने का क्या औचित्य रहा.

जैसे तैसे अपने हाथ में अटैची थामें प्रवेश के लिए प्रयत्न करने लगा तो क्लीनर बोला- ‘बाबूजी बैठने की जगह तो है नहीं ये सामान आप किधर ले जा रहे हो.’ और उसने अटैची को एक झटका दिया और  बस की छत पर पहुंचा दिया. वहां शायद दूसरे किसी व्यक्ति ने किसी प्रतिभावान विकेट कीपर की तरह उसे लपक लिया था.

इस बीच मैं बस के अंदर पहुंचा दिया जा चुका था. अंदर पहुंच कर सामने खिड़की पर लिखा देखा ‘फलाना बस सर्विस आपका हार्दिक स्वागत करती है’. मगर मेरा ‘धन्यवाद’ सुनने के लिए वहां कोई नहीं था, बल्कि स्वयं बस वालों की तरफ से एक स्थान पर ‘धन्यवाद’ लिखा हुआ था.

बस में ‘अपने सामान की जिम्मेदारी स्वयं रखें’ लिखा देख मैं ऊपर से नीचे तक कांप गया. मेरी अटैची जिस अधिकार से क्लीनर ने छत पर पहुंचा दी थी, उसे पुनः लौटाने की उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं थी, उसमें रखा कीमती सामान खो जाता है तो यह सब मेरे अपनी गैर जिम्मेदारी से हुआ होता.

थोड़ी देर बाद वही क्लीनर यात्रियों को आगे धकेलता उन्हें तरतीब से सेट करता जा रहा था. देखते ही देखते मैं खिसकता हुआ बोनट तक पहुंच गया. वहां स्थान इतना कम था कि मैं न तो ठीक से खड़ा हो सकता था, नहीं बैठ सकता था. ऊपर से पकड़ने का पाइप वहां आते-आते समाप्त हो चुका था. क्लीनर ने हल्का सा झटका दिया तो मैं बोनट पर जा टिका. जहां पहले ही तीन यात्री टिके हुए थे. मोटे अक्षरों में वहां स्पष्ट लिखा था ‘बोनट पर बैठना सख्त मना है.’

बस पूरी रफ़्तार से दौड़ने लगी थी. मौसम ठंडा होने लगा तो ड्राइवर ने अपने कान में खुसी बीडी जलाकर अपने मुंह से लगा ली. ड्राइवर की सीट के ऊपर लाल अक्षरों में लिखा था ‘धूम्रपान वर्जित है’.

माचिस प्रदाता और ड्राइवर के बीच देश की राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं पर चर्चाएं होने लगी. इस चर्चा ने ड्राइवर को गरमा दिया और अब वह दोनों हाथ हिला हिला कर, स्टेयरिंग ठोक ठोक कर वार्तालाप करने लगा. तभी मेरी दृष्टि सामने वाले कांच पर लिखे शुभ वाक्य पर पड़ी- ‘ईश्वर आपकी यात्रा सफल करें’.

इस बीच बस की छत मामूली बरसात के कारण ही टपकने लगी थी. मुझे बस वालों पर क्षोभ होने लगा कि उन्होंने ‘बस में भरी बंदूक लेकर न बैठने’ की बजाय ‘बस में छाता लेकर ही बैठें ’ जैसी हिदायत क्यों नहीं लिखवाई.

अचानक बस रुक रुक गई. बस के सामने एक भैंस आ गई थी. जिस तरह प्रतिपक्ष सदन से बहिष्कार किया करता है, उसी तरह से भैसें अक्सर चलती बस के सामने आ जाया करती हैं. सदन से वाक आउट करना प्रतिपक्ष का लोकतांत्रिक अधिकार है, सड़क पर धरना देना भैसों का प्राकृतिक हक है।

बहरहाल अचानक लगाए गए ब्रेक के कारण तीसरे नंबर की सीट पर ऊंघती महिला का सिर आगे वाली सीट से जा टकराया और माथे से खून बहने लगा. तभी मेरी निगाह कंडक्टर सीट के ऊपर ‘फर्स्ट एड बॉक्स’ पर पड़ी और मैं दवाइयां निकालने के लिए उठा भी मगर उसमें से दवाई की खाली शीशियां तथा ग्रिस में डूबा कॉटन निकला.

तीन  घंटे की यात्रा के बाद मेरा गंतव्य आ गया था. मैं उतरने के लिए जैसे उद्यत हुआ 'निर्गम द्वार' के ठीक ऊपर लिखा देखा- ‘पुनः पधारें!’...

ब्रजेश कानूनगो

कोरोना काल में शबरी


कोरोना काल में शबरी

सीमेंट के जंगल और वीराने के बीच यकायक वह औरत प्रकट हुई थी। उसके सिर पर एक टोकरी थी। उसके पहनावे और आत्मीय चेहरे को देखकर ऐसा लगा जैसे त्रेता की 'शबरी' अपनी टोकनी में श्रीराम जी के लिए मीठे फल लेकर चली आई हो। दरअसल, वह शबरी अपनी टोकनी में फल नहीं, हमारे लिए सब्जियां लेकर आई थी।

तेज धूप और उमस के बीच हल्की फुहारें भी आ जा रहीं थीं, लॉक डाउन का कोई सरकारी कायदा यद्यपि मौसम पर लागू नहीं होता है। तथापि रेड जोन से ऑरेंज होते क्षेत्र में अभी काफी प्रतिबंध लागू थे इसलिए कॉलोनी की सड़कों पर कोई नजर नहीं आ रहा था।

लॉक डाउन समाप्त करने के प्रयास भी अब किश्तों में किए जाने लगे थे, फिर भी अभी खौफ और दशहत का वातावरण बना हुआ था। कॉलोनी में हल्की सी आहट और कुरियर या किराने वाले का बन्दा दोपहर को किसी के यहां आता तो मुहल्ले की खिड़कियों और दरवाजों के पीछे से बीसियों जोड़ी आंखें अनचाहे अंदेशे की आशंका में बाहर झांकने लगती थीं। मन के भीतर संक्रमण के डर ने  बसेरा बना लिया था और वह किसी पुराने किराएदार की तरह घर खाली करने को तैयार ही नही हो रहा था।

दो माह से लगातार दालों के सेवन से प्रोटीन पेट में जाता रहा। कब्ज भी रहने लगी थी। हरी सब्जियां उपलब्ध नहीं थीं। ऐसे में जब कॉलोनी में वह औरत सिर पर टोकनी उठाए 'गिलकी,लौकी' की पुकार लगाती आई तो बांछें खिल गईं। जीवन में न कभी गिलकी को मन से गले लगाया और न कभी लौकी के लिए हृदय का लॉक खोला था।

मगर  हमारे मोहल्ले में वह 'शबरी' तो  उन्ही उपेक्षित सब्जियों को लेकर आई थीं। नीरस गिलकी व लौकी में उस वक्त हमें मटर की मस्ती और मैथी की महक महसूस होती दिखाई देने लगी।

पेट की खातिर गांव की शुद्धता छोड़ संक्रमित शहर में आई मजबूर 'शबरी' हमारे लिए अनमोल उपहार लेकर आई थी। लेकिन हमारी समस्या यह थी कि उसके माथे पर रखी टोकनी को उतारे कौन? बिल्ली के गले में घण्टी बांधने के जोखिम से आशंकित आधे लोग तो इसी वजह वहां से खिसक लिए।

उसने हमें कहा कि 'भैया हाथ लगा दो टोकनी उतारने में।' अब तो हमारे भी होश उड़ने लगे। टोकरी किसी लावारिस पड़े बैग सी लगने लगी। उसमें गिलकी या लौकी नहीं जैसे बम और मिसाइलें रखीं हों। मन किया कि मना कर दें कि नही लेना है सब्जियां। लेकिन हमीं ने उसे रोका था इसलिए हाथों पर सेनेटाइजर लगाया और श्रीराम जैसे विशाल हृदय का परिचय देते हुए टोकनी को जमीन पर उतार दिया। मोहल्ले वाले भी वापिस लौट आए।

आधा आधा किलो लौकी और गिलकियाँ तुलवा लीं। टोकनी पुनः उसके सिर पर चढ़ाकर बीस सैकेंड तक हाथ धोए। पत्नी ने नमक व मीठे सोडे मिले गर्म पानी से गिलकी और लौकी का अभिषेक किया। कुछ देर सूर्य किरणों की धूप दे उन्हें पवित्रता प्रदान की। इस पूरे कर्मकांड के बाद मसालेदार भरवां गिलकी बनकर तैयार हुई।

सच कहूँ तो उस दिन दुनिया भर की सारी खुशियाँ जैसे मुझे  मिल गईं। मैं श्रीराम तो नहीं था किंतु शबरी के बेर का वह दिव्य स्वाद शायद मुझे उस दिन की गिलकी में अवश्य मिल गया था।

ब्रजेश कानूनगो