Sunday, June 28, 2020

पुनः पधारें!

पुनः पधारें!

शादियों के मौसम में देहात जाने वाली बस में यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. बस पर लिखा ‘प्रवेश द्वार’ देखकर मैं उसकी ओर बढ़ने और चढ़ने का प्रयास करता, मगर अंदर से उतर रहे यात्रियों द्वारा फिर बाहर धकेल दिया जाता. निगाह पलट कर देखा तो ‘निर्गम द्वार’ से यात्री बस में चढ़ रहे थे और ‘प्रवेश द्वार’ से उतर रहे थे. अब बताइए दरवाजे पर प्रवेश या निर्गम लिखने का क्या औचित्य रहा.

जैसे तैसे अपने हाथ में अटैची थामें प्रवेश के लिए प्रयत्न करने लगा तो क्लीनर बोला- ‘बाबूजी बैठने की जगह तो है नहीं ये सामान आप किधर ले जा रहे हो.’ और उसने अटैची को एक झटका दिया और  बस की छत पर पहुंचा दिया. वहां शायद दूसरे किसी व्यक्ति ने किसी प्रतिभावान विकेट कीपर की तरह उसे लपक लिया था.

इस बीच मैं बस के अंदर पहुंचा दिया जा चुका था. अंदर पहुंच कर सामने खिड़की पर लिखा देखा ‘फलाना बस सर्विस आपका हार्दिक स्वागत करती है’. मगर मेरा ‘धन्यवाद’ सुनने के लिए वहां कोई नहीं था, बल्कि स्वयं बस वालों की तरफ से एक स्थान पर ‘धन्यवाद’ लिखा हुआ था.

बस में ‘अपने सामान की जिम्मेदारी स्वयं रखें’ लिखा देख मैं ऊपर से नीचे तक कांप गया. मेरी अटैची जिस अधिकार से क्लीनर ने छत पर पहुंचा दी थी, उसे पुनः लौटाने की उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं थी, उसमें रखा कीमती सामान खो जाता है तो यह सब मेरे अपनी गैर जिम्मेदारी से हुआ होता.

थोड़ी देर बाद वही क्लीनर यात्रियों को आगे धकेलता उन्हें तरतीब से सेट करता जा रहा था. देखते ही देखते मैं खिसकता हुआ बोनट तक पहुंच गया. वहां स्थान इतना कम था कि मैं न तो ठीक से खड़ा हो सकता था, नहीं बैठ सकता था. ऊपर से पकड़ने का पाइप वहां आते-आते समाप्त हो चुका था. क्लीनर ने हल्का सा झटका दिया तो मैं बोनट पर जा टिका. जहां पहले ही तीन यात्री टिके हुए थे. मोटे अक्षरों में वहां स्पष्ट लिखा था ‘बोनट पर बैठना सख्त मना है.’

बस पूरी रफ़्तार से दौड़ने लगी थी. मौसम ठंडा होने लगा तो ड्राइवर ने अपने कान में खुसी बीडी जलाकर अपने मुंह से लगा ली. ड्राइवर की सीट के ऊपर लाल अक्षरों में लिखा था ‘धूम्रपान वर्जित है’.

माचिस प्रदाता और ड्राइवर के बीच देश की राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं पर चर्चाएं होने लगी. इस चर्चा ने ड्राइवर को गरमा दिया और अब वह दोनों हाथ हिला हिला कर, स्टेयरिंग ठोक ठोक कर वार्तालाप करने लगा. तभी मेरी दृष्टि सामने वाले कांच पर लिखे शुभ वाक्य पर पड़ी- ‘ईश्वर आपकी यात्रा सफल करें’.

इस बीच बस की छत मामूली बरसात के कारण ही टपकने लगी थी. मुझे बस वालों पर क्षोभ होने लगा कि उन्होंने ‘बस में भरी बंदूक लेकर न बैठने’ की बजाय ‘बस में छाता लेकर ही बैठें ’ जैसी हिदायत क्यों नहीं लिखवाई.

अचानक बस रुक रुक गई. बस के सामने एक भैंस आ गई थी. जिस तरह प्रतिपक्ष सदन से बहिष्कार किया करता है, उसी तरह से भैसें अक्सर चलती बस के सामने आ जाया करती हैं. सदन से वाक आउट करना प्रतिपक्ष का लोकतांत्रिक अधिकार है, सड़क पर धरना देना भैसों का प्राकृतिक हक है।

बहरहाल अचानक लगाए गए ब्रेक के कारण तीसरे नंबर की सीट पर ऊंघती महिला का सिर आगे वाली सीट से जा टकराया और माथे से खून बहने लगा. तभी मेरी निगाह कंडक्टर सीट के ऊपर ‘फर्स्ट एड बॉक्स’ पर पड़ी और मैं दवाइयां निकालने के लिए उठा भी मगर उसमें से दवाई की खाली शीशियां तथा ग्रिस में डूबा कॉटन निकला.

तीन  घंटे की यात्रा के बाद मेरा गंतव्य आ गया था. मैं उतरने के लिए जैसे उद्यत हुआ 'निर्गम द्वार' के ठीक ऊपर लिखा देखा- ‘पुनः पधारें!’...

ब्रजेश कानूनगो

No comments:

Post a Comment