Sunday, June 28, 2020

कोरोना काल में शबरी


कोरोना काल में शबरी

सीमेंट के जंगल और वीराने के बीच यकायक वह औरत प्रकट हुई थी। उसके सिर पर एक टोकरी थी। उसके पहनावे और आत्मीय चेहरे को देखकर ऐसा लगा जैसे त्रेता की 'शबरी' अपनी टोकनी में श्रीराम जी के लिए मीठे फल लेकर चली आई हो। दरअसल, वह शबरी अपनी टोकनी में फल नहीं, हमारे लिए सब्जियां लेकर आई थी।

तेज धूप और उमस के बीच हल्की फुहारें भी आ जा रहीं थीं, लॉक डाउन का कोई सरकारी कायदा यद्यपि मौसम पर लागू नहीं होता है। तथापि रेड जोन से ऑरेंज होते क्षेत्र में अभी काफी प्रतिबंध लागू थे इसलिए कॉलोनी की सड़कों पर कोई नजर नहीं आ रहा था।

लॉक डाउन समाप्त करने के प्रयास भी अब किश्तों में किए जाने लगे थे, फिर भी अभी खौफ और दशहत का वातावरण बना हुआ था। कॉलोनी में हल्की सी आहट और कुरियर या किराने वाले का बन्दा दोपहर को किसी के यहां आता तो मुहल्ले की खिड़कियों और दरवाजों के पीछे से बीसियों जोड़ी आंखें अनचाहे अंदेशे की आशंका में बाहर झांकने लगती थीं। मन के भीतर संक्रमण के डर ने  बसेरा बना लिया था और वह किसी पुराने किराएदार की तरह घर खाली करने को तैयार ही नही हो रहा था।

दो माह से लगातार दालों के सेवन से प्रोटीन पेट में जाता रहा। कब्ज भी रहने लगी थी। हरी सब्जियां उपलब्ध नहीं थीं। ऐसे में जब कॉलोनी में वह औरत सिर पर टोकनी उठाए 'गिलकी,लौकी' की पुकार लगाती आई तो बांछें खिल गईं। जीवन में न कभी गिलकी को मन से गले लगाया और न कभी लौकी के लिए हृदय का लॉक खोला था।

मगर  हमारे मोहल्ले में वह 'शबरी' तो  उन्ही उपेक्षित सब्जियों को लेकर आई थीं। नीरस गिलकी व लौकी में उस वक्त हमें मटर की मस्ती और मैथी की महक महसूस होती दिखाई देने लगी।

पेट की खातिर गांव की शुद्धता छोड़ संक्रमित शहर में आई मजबूर 'शबरी' हमारे लिए अनमोल उपहार लेकर आई थी। लेकिन हमारी समस्या यह थी कि उसके माथे पर रखी टोकनी को उतारे कौन? बिल्ली के गले में घण्टी बांधने के जोखिम से आशंकित आधे लोग तो इसी वजह वहां से खिसक लिए।

उसने हमें कहा कि 'भैया हाथ लगा दो टोकनी उतारने में।' अब तो हमारे भी होश उड़ने लगे। टोकरी किसी लावारिस पड़े बैग सी लगने लगी। उसमें गिलकी या लौकी नहीं जैसे बम और मिसाइलें रखीं हों। मन किया कि मना कर दें कि नही लेना है सब्जियां। लेकिन हमीं ने उसे रोका था इसलिए हाथों पर सेनेटाइजर लगाया और श्रीराम जैसे विशाल हृदय का परिचय देते हुए टोकनी को जमीन पर उतार दिया। मोहल्ले वाले भी वापिस लौट आए।

आधा आधा किलो लौकी और गिलकियाँ तुलवा लीं। टोकनी पुनः उसके सिर पर चढ़ाकर बीस सैकेंड तक हाथ धोए। पत्नी ने नमक व मीठे सोडे मिले गर्म पानी से गिलकी और लौकी का अभिषेक किया। कुछ देर सूर्य किरणों की धूप दे उन्हें पवित्रता प्रदान की। इस पूरे कर्मकांड के बाद मसालेदार भरवां गिलकी बनकर तैयार हुई।

सच कहूँ तो उस दिन दुनिया भर की सारी खुशियाँ जैसे मुझे  मिल गईं। मैं श्रीराम तो नहीं था किंतु शबरी के बेर का वह दिव्य स्वाद शायद मुझे उस दिन की गिलकी में अवश्य मिल गया था।

ब्रजेश कानूनगो

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