Friday, March 31, 2017

डर को जीवन मूल्य बनाइए

व्यंग्य
डर को जीवन मूल्य बनाइए 
ब्रजेश कानूनगो 

ऐसा व्यक्ति ढूंढ निकालना बड़ा मुश्किल काम है जो नितांत  निर्भय हो। जहां किसी परिंदे ने डर के डैने  कभी फड़फड़ाये ही नहीं हों। हर प्राणी किसी न किसी चीज से डरता है। कोई तो यह कहने तक से डरता है कि वह निडर है।कल से कह दिया और दुम दबाकर भागने की नौबत आ जाए तो फिर क्या होगा।

बहरहाल, डरना हमारा प्राकृतिक गुण है,सबके स्वभाव में थोड़ा बहुत शामिल है। डर है, तो डराने वाले भी हैं। हमेशा से दो तरह के हमारे हितैषी रहे हैं। एक वो जो डराने जैसा पुण्य का काम करते हैं, ताकि यह डर भाव जो सर्वदा प्रकृति प्रदत्त है कायम रह सके। दूसरे वे होते हैं जो डबल पुण्याई करते हुए सचेत करते हैं कि भाई डरो मत। दोनों तरह के लोग हमारे कल्याण के लिए ही सोचते हैं। ये तमाम व्यवसायी हमारी डर सम्पदा का दोहन करके लाभ कमाते हैं।इनके गिरगिटिया हितोपदेश में आत्महित अधिक समाया होता है।

जैसे ही वक्त बदलता है, ये अपनी भूमिकाएं बदल लेते हैं। डराने वाले डरो मत, डरो मत का उद्घोष करने लगते हैं और  निर्भयता की सब्सिडी  देने वाला, रंग बदल कर खुद डराने लग जाता है।

ये लोग यह जताने में सफल भी हो जाते हैं  कि इनमें लोकोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी है। ये भलीप्रकार जानते हैं कि किसी राजनीतिक पार्टी विशेष के अस्तित्व की तरह किसी भी व्यक्ति को भय मुक्तनहीं बनाया जा सकता। भय समस्त प्राणी मात्र का स्थायी भाव है, इसी भाव को ये भरपूर भाव देते हैं और लोकतंत्र की मंडी में ऊंचे भाव पर इसकी बोली लगा देते हैं.   

दरअसल, जो डराते हैं, वे हमारे हितैषी हैं।डरने के बाद ही आदमी मजबूत होता है। उसके भीतर साहसी हो जाने की आकांक्षा बलवती होने लगती है। असीम शक्ति का संचार होता है,और अधिक बड़ी और भयावह स्थितियों से निपटने की क्षमता विकसित होने लगती है। अब देखिये, बरसों तक केरोसिन और राशन की कतार में लगने की आदत और अनुभव ने हमारी कितनी मदद की है  कि नोट बंदी की राष्ट्रीय बेला में  निहायत अनपेक्षित बैंकों की दैत्याकार लाइन में लगने की भयावह स्थितियों का हम निडर होकर सामना कर पाए। चालीस पैंतालिस वर्षों तक छोटे-मोटे घोटालों के भय से डरते हुए पिछले वृहद घोटालों को हमने हंसते-हंसते सहन कर लिया। जाली नोटों के बार बार उजागर होते बड़े बाजार ने भी अब हमारा डर कितना कम कर दिया है कि ए टी एम से चूरन वाले नोट निकलने पर हम बस मुस्कुराकर रह जाते हैं।

डर के आगे जीत है। यदि विजेता बनना चाहते हैं तो डर का सामना करना होगा। डर होगा तब ही आदमी डरेगा। यदि डर ही नहीं होगा तो वह किससे डरेगा। डर पर विजय के उसके संघर्ष का क्या होगा? संघर्षों से ही जीत का सच्चा आनन्द मिलता है। बिना डरे कुछ हासिल हो जाए तो मजा नहीं। इसलिये डर भी जरूरी है,डरना भी जरूरी है। डर से मुक्ति का संघर्ष भी जरूरी है।

डर का कोहरा छटने के बाद सूरज के दर्शन होते हैं। डर रात का अँधेरा है, सुबह उजियारा लाती है।सूरज की रौशनी में सब साफ़ दिखाई देने लगता है।क्या मोहक है और क्या डरावना है।अँधेरे में तो सुंदर भी खौफ़नाक हो जाता है।खुद आदमी अपने अक्स से डर जाता है। भय से भयभीत मत होइए । इसका स्वागत कीजिये। भय से कैसा डर? आचार्य गब्बर सिंह कह गए हैं-'जो डर गया, समझो मर गया।' निर्भय होकर डर से दो-दो हाथ कीजिये।



ब्रजेश कानूनगो

503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018 

Thursday, March 23, 2017

सफलता का दो अक्षरी सिद्धांत

व्यंग्य
सफलता का दो अक्षरी सिद्धांत 
ब्रजेश कानूनगो

एक से भले दो, दो से भले तीन। इसी तरह बहुत पुरानी कहावत है ' तीन तिगाड़ी,बात बिगाड़ी'। निश्चित रूप से ये बातें बहुत अलग संदर्भों में कही गयी होंगी। हमारा संदर्भ थोड़ा अलग है।

हम शब्दों के उद्घोष और उनके प्रभावोत्पादन को लेकर गैर सांगीतिक , गैर व्याकरणीय और गैर वैज्ञानिक स्तर पर यहां चर्चा करना चाहते हैं। बौद्धिक और अकादमिक की बजाय मीडिया चैनलीय विश्लेषण को हम प्राथमिकता में रखेंगे।जिसमे एंकर को विषयगत विशेषज्ञता की ख़ास जरूरत नहीं होती। बस उसी तर्ज पर इस आलेख को आगे बढ़ाने का छोटा सा प्रयास है।तो मुलाहिजा फरमाइये।

मैंने महसूस किया है, बड़े शब्दों की बजाय सामान्यतः जन सामान्य के लिए दो अक्षरों वाले शब्द  ही सुविधाजनक रहते हैं। तीन या अधिक अक्षरों वाले शब्द  संबोधन में भी दो अक्षरों वाले शब्दों में बदल दिए जाते हैं।मसलन श्यामसुंदर 'शामूमें और दीनदयाल 'दीनू' में बदलते रहे हैं। जयकिशन 'जैकी' और मनोरमा 'मुन्नी' हो जाती है।

नारे वारों में भी जिस तरह  दो अक्षर वाले शब्द खिलते हैं  वैसे तीन चार अक्षरों वालों में उतना मजा नहीं आता। कुछ ख़ास सभाओं में जो भारी भीड़ उमड़ती रही  है,उसके पीछे भी वही दो अक्षरों वाले शब्दों की ख़ास  गूँज रही है।पूरे वायुमंडल में अदृश्य ध्वनि तरंगें इस तरह व्याप्त हो गईं कि उनके प्रभाव से बचा नहीं जा सकता।

आपने सुना ही होगा कि ध्वनियों को कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता, बस उनका स्वरूप अवश्य बदल जाता है। अदृश्य ध्वनियों की उपस्थिति और  ये विकिरण प्राणी मात्र के मस्तिष्क को प्रभावित करता रहता है। घंटा ध्वनि और ओंकार नाद के संदर्भ में तो यह सर्व स्वीकृत है ही कि मानसिक,शारीरिक,पर्यावरणीय शुद्धता में इनकी बड़ी भूमिका होती है। 

दो अक्षरों वाले 'राम,राम' को उच्चारित करते हुए हमारे यहां अनपढ़ के भी  प्रकांड पंडित हो जाने के उदाहरण रहे हैं। 'राधे-राधे' कहते हुए संसार के कष्टों और दुखों से मुक्ति का रास्ता खुल जाता है।ये कुछ उदाहरण मात्र हैं,आप चाहें तो आगे व्यापक चिंतन के लिए ध्यान लगा सकते हैं।

मुझे लगता है देश में जो विपक्ष विनाशक हवा चली है इन दिनों, उसमें इस 'दो अक्षर सिद्धांत' का भी योगदान रहा होगा।
जो रिदम और प्रभावोत्पादकता  'मोदी-मोदी' या 'योगी-योगी' में है वह सोनिया,राहुल या केजरीवाल शब्दों में कहाँ! पीके जैसे लोगों को आगामी चुनावी योजनाएं बनाते समय इस सिद्धांत पर भी पर्याप्त ध्यान देना चाहिए। विचार करने में हर्ज ही क्या है। 

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाड़िया रोड, इंदौर-452018

Friday, March 17, 2017

शिकायत है तो घंटा बजाइये

व्यंग्य

शिकायत है तो घंटा बजाइये 
ब्रजेश कानूनगो

एक होता है घंटा ! एक होती है घंटी। मनुष्य हो, पशु-पक्षी हो या अचर वस्तु, हर  जगह लिंग भेद विद्यमान होता ही है। स्त्रीवाचक और पुरुषवाचक संबोधन  जरूर मिलता है मगर पितृसत्ता का बखेड़ा अचर में है या नहीं, इसके बारे में ज्यादा जानकारी मुझे नहीं।

बहरहाल, बात घण्टा-घण्टी की ही करते हैं। दोनों ही बजाने के काम आते हैं। एक तरह से इन्हें वाद्य यंत्र की श्रेणी में माना गया है। यही एक मात्र म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट है जिसे प्ले करने के लिए किसी उस्ताद से ताबीज नहीं बंधवाना पड़ता है। गाइड के घर की सब्जियां वगैरह बाजार से लाये बगैर भी आप इस कला में पीएचडी कर सकते हैं।

सामान्यतः भारतीय परिवारों में बच्चे के अपने पैरों पर खड़ा होते ही उसे हनुमानजी की मूठ वाली घंटी थमा दी जाती है।सब यही करते हैं। हमने भी यही किया। घर के बुजुर्ग जब चित्रगुप्त भगवान की तस्वीर सजाकर कलम दवात की पूजा करते थे तब हम भी घण्टी बजाया करते थे और अब एस्टेट में पैदा हुआ पोता भी घण्टी थामें उसे प्ले करता है।

दफ्तरों में साहब के सामने रखी घंटी का महत्व कौन नहीं जानता। उनके उद्घोष से कहीं प्रभावी उनकी घण्टी हुआ करती है। कक्ष के बाहर सेवक चौकन्ना सदैव कान लगाए उसी तरह बैठा रहता है जैसे शिव मंदिरों में नंदी विराजमान होते हैं। काम के लोग तो यही होते हैं। इन्ही लोगों को अपना कष्ट कह कर समाधान की राह आसान हो जाती है। इसीलिए पहले घण्टी बजती है, फिर याचक  द्वारपाल के कान में समस्या फूंकता है।

जो याचक है,पीड़ित है, परेशान है उसे घंटा बजाना आना चाहिए। बड़े-बूढ़े इस कला का महत्व जानते थे। इसलिए नई पीढ़ी को घण्टी बजाने के लिए अभ्यस्थ करने की हमेशा उनकी कोशिश रहती थी। मालिक का ध्यान घण्टी की ध्वनि के प्रति सदा सेंसिटिव होता है। 
राजा को भी प्रजा का धरती पर मालिक और भगवान कहा गया है। कुछ शासकों ने तो अपने प्रासादों के सामने घंटे लगवा रखे थे। कोई भी नागरिक कभी भी 'ट्वेंटी फॉर सेवन' अपने कष्टों की सुनवाई के लिए सरकार की नींद खराब कर सकता था। ये शानदार सवेंदनशील  परम्परा रही है हमारी।

अब चूंकि देश बदल रहा है। दुनिया भी बदल रही है। राजतंत्र ने गणतंत्र का रूप ले लिया है। प्रजा अब वोटर में बदल गयी है। घण्टे और घंटियों का भी डिजिटल रूपांतरण हुआ है। सोशल मीडिया जैसे नए सुनवाई प्रतिष्ठानों में ट्वीट्स और स्टेटमेंट की घंटियाँ प्रतिध्वनित होने लगीं हैं। सच तो यह है कि इन्ही के नाद से सरकारों में हलचल भी सहजता से देखने को मिलने लगी है। कितना महत्व होता है घण्टे,घंटियों का, यह आसानी से समझा जा सकता है। घंटियाँ बजाने में कोताही नहीं की जानी चाहिए. बजाइए! बजाइए!!

ब्रजेश कानूनगो 
503,
गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाड़िया रोड, इंदौर 452018