व्यंग्य
डर को जीवन
मूल्य बनाइए
ब्रजेश
कानूनगो
ऐसा व्यक्ति ढूंढ निकालना बड़ा मुश्किल काम है जो नितांत निर्भय हो। जहां किसी परिंदे ने डर के डैने कभी फड़फड़ाये ही नहीं हों। हर प्राणी किसी न किसी चीज से डरता है। कोई तो यह कहने तक से डरता है कि वह निडर है।कल से कह दिया और दुम दबाकर भागने की नौबत आ जाए तो फिर क्या होगा।
बहरहाल, डरना हमारा प्राकृतिक गुण है,सबके स्वभाव में थोड़ा बहुत शामिल है। डर है, तो डराने वाले भी हैं। हमेशा से दो तरह के हमारे हितैषी रहे हैं। एक वो जो डराने जैसा पुण्य का काम करते हैं, ताकि यह डर भाव जो सर्वदा प्रकृति प्रदत्त है कायम रह सके। दूसरे वे होते हैं जो डबल पुण्याई करते हुए सचेत करते हैं कि भाई डरो मत। दोनों तरह के लोग हमारे कल्याण के लिए ही सोचते हैं। ये तमाम व्यवसायी हमारी डर सम्पदा का दोहन करके लाभ कमाते हैं।इनके गिरगिटिया हितोपदेश में आत्महित अधिक समाया होता है।
जैसे ही वक्त बदलता है, ये अपनी भूमिकाएं बदल लेते हैं। डराने वाले डरो मत, डरो मत का उद्घोष करने लगते हैं और निर्भयता की सब्सिडी देने वाला, रंग बदल कर खुद डराने लग जाता है।
ये लोग यह जताने में सफल भी हो जाते हैं कि इनमें लोकोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी है। ये भलीप्रकार जानते हैं कि किसी राजनीतिक पार्टी विशेष के अस्तित्व की तरह किसी भी व्यक्ति को ’भय मुक्त’ नहीं बनाया जा सकता। भय समस्त प्राणी मात्र का स्थायी भाव है, इसी भाव को ये भरपूर भाव देते हैं और लोकतंत्र की मंडी में ऊंचे भाव पर इसकी बोली लगा देते हैं.
दरअसल, जो डराते हैं, वे हमारे हितैषी हैं।डरने के बाद ही आदमी मजबूत होता है। उसके भीतर साहसी हो जाने की आकांक्षा बलवती होने लगती है। असीम शक्ति का संचार होता है,और अधिक बड़ी और भयावह स्थितियों से निपटने की क्षमता विकसित होने लगती है। अब देखिये, बरसों तक केरोसिन और राशन की कतार में लगने की आदत और अनुभव ने हमारी कितनी मदद की है कि नोट बंदी की राष्ट्रीय बेला में निहायत अनपेक्षित बैंकों की दैत्याकार लाइन में लगने की भयावह स्थितियों का हम निडर होकर सामना कर पाए। चालीस पैंतालिस वर्षों तक छोटे-मोटे घोटालों के भय से डरते हुए पिछले वृहद घोटालों को हमने हंसते-हंसते सहन कर लिया। जाली नोटों के बार बार उजागर होते बड़े बाजार ने भी अब हमारा डर कितना कम कर दिया है कि ए टी एम से चूरन वाले नोट निकलने पर हम बस मुस्कुराकर रह जाते हैं।
डर के आगे जीत है। यदि विजेता बनना चाहते हैं तो डर का सामना करना होगा। डर होगा तब ही आदमी डरेगा। यदि डर ही नहीं होगा तो वह किससे डरेगा। डर पर विजय के उसके संघर्ष का क्या होगा? संघर्षों से ही जीत का सच्चा आनन्द मिलता है। बिना डरे कुछ हासिल हो जाए तो मजा नहीं। इसलिये डर भी जरूरी है,डरना भी जरूरी है। डर से मुक्ति का संघर्ष भी जरूरी है।
डर का कोहरा छटने के बाद सूरज के दर्शन होते हैं। डर रात का अँधेरा है, सुबह उजियारा लाती है।सूरज की रौशनी में सब साफ़ दिखाई देने लगता है।क्या मोहक है और क्या डरावना है।अँधेरे में तो सुंदर भी खौफ़नाक हो जाता है।खुद आदमी अपने अक्स से डर जाता है। भय से भयभीत मत होइए । इसका स्वागत कीजिये। भय से कैसा डर? आचार्य गब्बर सिंह कह गए हैं-'जो डर गया, समझो मर गया।' निर्भय होकर डर से दो-दो हाथ कीजिये।
ब्रजेश कानूनगो
ऐसा व्यक्ति ढूंढ निकालना बड़ा मुश्किल काम है जो नितांत निर्भय हो। जहां किसी परिंदे ने डर के डैने कभी फड़फड़ाये ही नहीं हों। हर प्राणी किसी न किसी चीज से डरता है। कोई तो यह कहने तक से डरता है कि वह निडर है।कल से कह दिया और दुम दबाकर भागने की नौबत आ जाए तो फिर क्या होगा।
बहरहाल, डरना हमारा प्राकृतिक गुण है,सबके स्वभाव में थोड़ा बहुत शामिल है। डर है, तो डराने वाले भी हैं। हमेशा से दो तरह के हमारे हितैषी रहे हैं। एक वो जो डराने जैसा पुण्य का काम करते हैं, ताकि यह डर भाव जो सर्वदा प्रकृति प्रदत्त है कायम रह सके। दूसरे वे होते हैं जो डबल पुण्याई करते हुए सचेत करते हैं कि भाई डरो मत। दोनों तरह के लोग हमारे कल्याण के लिए ही सोचते हैं। ये तमाम व्यवसायी हमारी डर सम्पदा का दोहन करके लाभ कमाते हैं।इनके गिरगिटिया हितोपदेश में आत्महित अधिक समाया होता है।
जैसे ही वक्त बदलता है, ये अपनी भूमिकाएं बदल लेते हैं। डराने वाले डरो मत, डरो मत का उद्घोष करने लगते हैं और निर्भयता की सब्सिडी देने वाला, रंग बदल कर खुद डराने लग जाता है।
ये लोग यह जताने में सफल भी हो जाते हैं कि इनमें लोकोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी है। ये भलीप्रकार जानते हैं कि किसी राजनीतिक पार्टी विशेष के अस्तित्व की तरह किसी भी व्यक्ति को ’भय मुक्त’ नहीं बनाया जा सकता। भय समस्त प्राणी मात्र का स्थायी भाव है, इसी भाव को ये भरपूर भाव देते हैं और लोकतंत्र की मंडी में ऊंचे भाव पर इसकी बोली लगा देते हैं.
दरअसल, जो डराते हैं, वे हमारे हितैषी हैं।डरने के बाद ही आदमी मजबूत होता है। उसके भीतर साहसी हो जाने की आकांक्षा बलवती होने लगती है। असीम शक्ति का संचार होता है,और अधिक बड़ी और भयावह स्थितियों से निपटने की क्षमता विकसित होने लगती है। अब देखिये, बरसों तक केरोसिन और राशन की कतार में लगने की आदत और अनुभव ने हमारी कितनी मदद की है कि नोट बंदी की राष्ट्रीय बेला में निहायत अनपेक्षित बैंकों की दैत्याकार लाइन में लगने की भयावह स्थितियों का हम निडर होकर सामना कर पाए। चालीस पैंतालिस वर्षों तक छोटे-मोटे घोटालों के भय से डरते हुए पिछले वृहद घोटालों को हमने हंसते-हंसते सहन कर लिया। जाली नोटों के बार बार उजागर होते बड़े बाजार ने भी अब हमारा डर कितना कम कर दिया है कि ए टी एम से चूरन वाले नोट निकलने पर हम बस मुस्कुराकर रह जाते हैं।
डर के आगे जीत है। यदि विजेता बनना चाहते हैं तो डर का सामना करना होगा। डर होगा तब ही आदमी डरेगा। यदि डर ही नहीं होगा तो वह किससे डरेगा। डर पर विजय के उसके संघर्ष का क्या होगा? संघर्षों से ही जीत का सच्चा आनन्द मिलता है। बिना डरे कुछ हासिल हो जाए तो मजा नहीं। इसलिये डर भी जरूरी है,डरना भी जरूरी है। डर से मुक्ति का संघर्ष भी जरूरी है।
डर का कोहरा छटने के बाद सूरज के दर्शन होते हैं। डर रात का अँधेरा है, सुबह उजियारा लाती है।सूरज की रौशनी में सब साफ़ दिखाई देने लगता है।क्या मोहक है और क्या डरावना है।अँधेरे में तो सुंदर भी खौफ़नाक हो जाता है।खुद आदमी अपने अक्स से डर जाता है। भय से भयभीत मत होइए । इसका स्वागत कीजिये। भय से कैसा डर? आचार्य गब्बर सिंह कह गए हैं-'जो डर गया, समझो मर गया।' निर्भय होकर डर से दो-दो हाथ कीजिये।
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018
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